पिछले कुछ दिनों से व्यस्त हूँ अपने पुराने दोस्तों के संग हूँ ..... आज फुर्सत के कुछ पल मिले तो चाय का एक कप लेकर बैठी हूँ ..... मन को बेहद भाता है शीशे की दीवार से उस पार जब भी देखती हूँ .... और मुग्ध भाव से बस कुछ लिख जाती हूँ ......
खिड़की के बाहर
नीला आसमान
उस पर छपे हरे रंग के पेड़
हिलते मिलते जुलते
खूबसूरत हैं लगते
उन्हें एक दूसरे से मिला रही है
नम्र, नम और गर्म हवा
मस्ती में झूमते हैं पत्ते
सूरज की सुनहरी किरणें
सजाती हैं उन्हें
दे देती हैं सुनहरी रूप अपना
बिना कुछ माँगे बदले में..
संध्या होगी, चन्दा आएगा
शीतलता देगा धरती को
धरती के हर जन को
वह भी कुछ न चाहेगा
बदले में...
प्रकृति परिवार है निराला
सूरज, चाँद , सितारे
धरती, आसमान और
हवा, जल
सभी का अपना इक कोना
करते अपना काम सदा सुचारु
नित नियम से ....
फिर हम क्यों भटक जाते
सीधी राह चल न पाते...!!
31 टिप्पणियां:
मानव मन का यह भटकना जीवन ही तो है ...
शुभकामनायें !
बहुत दिन बाद आपको पढ़ कर अच्छा लगा
सुंदर अभिव्यक्ति!
मंजिल तो एक ही है कोई राही कितना भटकेगा !
सार्थक प्रश्……… सुन्दर भावाव्यक्ति।
चाय का कप और मनभावन कविता।
..........दिल को छू लेने वाली प्रस्तुती
कमाल की लेखनी है आपकी लेखनी को नमन बधाई
सुन्दर प्रस्तुति पर बधाई ||
very nice and attractive poem
फिर हम क्यों भटक जाते
सीधी राह चल न पाते...!!सुन्दर पंक्तिया....
आप सबको यहाँ देख कर महसूस हुआ जैसे आप सब भी खिड़की के बाहर कुदरत को देखते हुए मेरे जैसा ही अनुभव कर रहे हों... शुक्रिया
Man ki vyakhya bahut aknthit hei --ise shabdo mei nahi piro sakte ...
बहुत अच्छा लगा .........
फिर भी हम भटक जाते हैं , क्योंकि नए रास्ते खोजने की छुपी धुन होती है
"शीशे की दीवार, नीले आसमान पर छपे पेड़." तीसरे आयाम (3rd dimension) की ओर भागती दुनिया में कभी कभी तीन से दो आयाम कर आँखों में चित्र बनाना कितना सुकून देता है. :)
आपकी कविता अच्छी लगी. प्रकृति की मिसालों से भरा पूरा साहित्य होने पर भी, हम सही सन्देश ग्रहण करने से चूक ही जाते हैं...
♥
आपको सपरिवार
नवरात्रि पर्व की बधाई और शुभकामनाएं-मंगलकामनाएं !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
सुंदर कविता के लिए भी आभार और बधाई !
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति
MADHUR VAANI
BINDAAS_BAATEN
MITRA-MADHUR
राह से भटकना मानव का ही स्वभाव है पर कभी कभी प्रक़ति भी भटक जाती है सूर्य बादलों से ढक जाता है । चांद फीका लगता है । पेडों से पत्ते झर जाते हैं या वे दावानल की चपेट में आ जाते हैं ।
चाय और शीशे की दीवार के उस पार...और कोमल कविता..वाह :) :) क्या कोम्बिनेसन है...
ऐसे फुरसत के पल आपको मिलते रहें और हमें इतनी ख़ूबसूरत कविता पढ़ने को मिलती रहे..
सब कुछ आँखों के आगे साकार हो गया,जैसे..
तुंम्हारा स्पर्श ,
बढ़िया पठनीय पक्तियां
आशा है समय निकाल कर मेरे ब्लॉग पर भी दर्शन देगे
प्रभावशाली प्रस्तुति
सुन्दर अभिव्यक्ति. कभी ऐसा भी होता है कि हम सीधे चलते रह जाते हैं पर राह ही क्रुकेड हो जाती है। शुभकामनायें!
सुन्दर भावाभिव्यक्ति, आभार .
nram ehsas.......bahut khub
थोड़ा-बहुत भटकने का भी अलग मजा है। :)
सुंदर प्रस्तुति।। धन्यवाद।
wow..it's so inspirational..keep posting more..
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