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शनिवार, 24 सितंबर 2011

भटक क्यों जाते हैं हम


पिछले कुछ दिनों से व्यस्त हूँ अपने पुराने दोस्तों के संग हूँ ..... आज फुर्सत के कुछ पल मिले तो चाय का एक कप लेकर बैठी हूँ ..... मन को बेहद भाता है शीशे की दीवार से उस पार जब भी देखती हूँ ....  और मुग्ध भाव से बस कुछ लिख जाती हूँ ......  

खिड़की के बाहर
नीला आसमान
उस पर छपे हरे रंग के पेड़
हिलते मिलते जुलते
खूबसूरत हैं लगते
उन्हें एक दूसरे से मिला रही है
नम्र, नम और गर्म हवा
मस्ती में झूमते हैं पत्ते
सूरज की सुनहरी किरणें
सजाती हैं उन्हें
दे देती हैं सुनहरी रूप अपना
बिना कुछ माँगे बदले में..
संध्या होगी, चन्दा आएगा
शीतलता देगा धरती को
धरती के हर जन को
वह भी कुछ न चाहेगा
बदले में...
प्रकृति परिवार है निराला
सूरज, चाँद , सितारे
धरती, आसमान और
हवा,  जल
सभी का अपना इक कोना
करते अपना काम सदा सुचारु
नित नियम से ....
फिर हम क्यों भटक जाते 
सीधी राह चल  न पाते...!! 


31 टिप्‍पणियां:

Satish Saxena ने कहा…

मानव मन का यह भटकना जीवन ही तो है ...
शुभकामनायें !

annapurna ने कहा…

बहुत दिन बाद आपको पढ़ कर अच्छा लगा

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

सुंदर अभिव्यक्ति!

Arvind Mishra ने कहा…

मंजिल तो एक ही है कोई राही कितना भटकेगा !

vandana gupta ने कहा…

सार्थक प्रश्……… सुन्दर भावाव्यक्ति।

ZEAL ने कहा…

चाय का कप और मनभावन कविता।

संजय भास्‍कर ने कहा…

..........दिल को छू लेने वाली प्रस्तुती
कमाल की लेखनी है आपकी लेखनी को नमन बधाई

रविकर ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति पर बधाई ||

मेरा मन पंछी सा ने कहा…

very nice and attractive poem

विभूति" ने कहा…

फिर हम क्यों भटक जाते
सीधी राह चल न पाते...!!सुन्दर पंक्तिया....

मीनाक्षी ने कहा…

आप सबको यहाँ देख कर महसूस हुआ जैसे आप सब भी खिड़की के बाहर कुदरत को देखते हुए मेरे जैसा ही अनुभव कर रहे हों... शुक्रिया

दर्शन कौर धनोय ने कहा…

Man ki vyakhya bahut aknthit hei --ise shabdo mei nahi piro sakte ...

निवेदिता श्रीवास्तव ने कहा…

बहुत अच्छा लगा .........

रश्मि प्रभा... ने कहा…

फिर भी हम भटक जाते हैं , क्योंकि नए रास्ते खोजने की छुपी धुन होती है

अनूषा ने कहा…

"शीशे की दीवार, नीले आसमान पर छपे पेड़." तीसरे आयाम (3rd dimension) की ओर भागती दुनिया में कभी कभी तीन से दो आयाम कर आँखों में चित्र बनाना कितना सुकून देता है. :)

आपकी कविता अच्छी लगी. प्रकृति की मिसालों से भरा पूरा साहित्य होने पर भी, हम सही सन्देश ग्रहण करने से चूक ही जाते हैं...

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…






आपको सपरिवार
नवरात्रि पर्व की बधाई और शुभकामनाएं-मंगलकामनाएं !

-राजेन्द्र स्वर्णकार

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…

सुंदर कविता के लिए भी आभार और बधाई !

Neelkamal Vaishnaw ने कहा…

बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति
MADHUR VAANI
BINDAAS_BAATEN
MITRA-MADHUR

Asha Joglekar ने कहा…

राह से भटकना मानव का ही स्वभाव है पर कभी कभी प्रक़ति भी भटक जाती है सूर्य बादलों से ढक जाता है । चांद फीका लगता है । पेडों से पत्ते झर जाते हैं या वे दावानल की चपेट में आ जाते हैं ।

abhi ने कहा…

चाय और शीशे की दीवार के उस पार...और कोमल कविता..वाह :) :) क्या कोम्बिनेसन है...

rashmi ravija ने कहा…

ऐसे फुरसत के पल आपको मिलते रहें और हमें इतनी ख़ूबसूरत कविता पढ़ने को मिलती रहे..

सब कुछ आँखों के आगे साकार हो गया,जैसे..

Unknown ने कहा…

तुंम्हारा स्पर्श ,
बढ़िया पठनीय पक्तियां
आशा है समय निकाल कर मेरे ब्लॉग पर भी दर्शन देगे

शकुन्‍तला शर्मा ने कहा…

प्रभावशाली प्रस्तुति

Smart Indian ने कहा…

सुन्दर अभिव्यक्ति. कभी ऐसा भी होता है कि हम सीधे चलते रह जाते हैं पर राह ही क्रुकेड हो जाती है। शुभकामनायें!

S.N SHUKLA ने कहा…

सुन्दर भावाभिव्यक्ति, आभार .

Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…

nram ehsas.......bahut khub

अनूप शुक्ल ने कहा…

थोड़ा-बहुत भटकने का भी अलग मजा है। :)

प्रेम सरोवर ने कहा…

सुंदर प्रस्तुति।। धन्यवाद।

Unknown ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Unknown ने कहा…

wow..it's so inspirational..keep posting more..


Unknown ने कहा…

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