नए गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है
यह विशाल भूखंड आज जो दमक रहा है
मेरी भी आभा है इसमें
भीनी-भीनी खुशबूवाले
रंग-बिरंगे
यह जो इतने फूल खिले हैं
कल इनको मेरे प्राणों ने नहलाया था
कल इनको मेरे सपनों ने सहलाया था
पकी सुनहली फसलों से जो
अबकी यह खलिहान भर गया
मेरी रग-रग के शोणित की बूँदें इसमें मुसकाती हैं
नए गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है
यह विशाल भूखंड आज जो दमक रहा है
मेरी भी आभा है इसमें
" नागार्जुन "
11 टिप्पणियां:
कवि का शायद इतना दंभी होना ज़रूरी है। बाबा की कविता में वाकई दम है।
अनिल भाई, यह दंभ नहीं अपनी ज़मीन से जुड़े कवि का आत्मविश्वास है -- संक्रामक किस्म का आत्मविश्वास.
एक अच्छी कविता पढ़वाने के लिए धन्यवाद। बाबा की यह कवित समाज के अंतिम व्यक्ति के महत्व को दर्शाती है। ऐसी कविताओं से बल मिलता है।
नागार्जुन की उक्त कविता के विषय में ऊपर की तीनों टिप्पणियों से सहमत होने का मन कर रहा है!
ज्ञान जी, मैं आपकी बात से सहमत हूँ...दंभ, आत्मविश्वास और अपना महत्त्व दर्शाना... इनमें एक झीनी सी रेखा है बस.
इतनी अच्छी कविता पढवाने के लिये धन्यवाद ।
अरे आपलोग नाराज क्य़ूं हो रहे हैं हमारी आपकी सब की आभा है इसमें बस !
स्वाभिमान नही तो सृजन कैसा ? बाबा नागार्जुन की कविताओं को जितनी बार पढी जाए , मन में आत्मविश्वास का भाव बना रहता है , कविता ही क्यों उनके गद्य भी स्वयं के होने का एहसास कराता है समाज में पूरी दृढ़ता के साथ , बल्चनवा भी कुछ इसीप्रकार की कृति है ! अच्छी लगी आपकी प्रस्तुति !
सुंदर कविता इसको यहाँ शेयर करने के लिए धन्यवाद
शुक्रिया इस बढ़िया कविता को पढ़वाने का।
धन्यवाद और प्रतिध्वनि/ तालियाँ[ :-)]
कविता तो कविता है
चाहे हो नागार्जुन की
या मीनाक्षी जी की
जो जिसे चुनता है
उसके विचार उसमें
उसका प्रतिनिधित्व
करते हैं, सच है न ?
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