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शुक्रवार, 4 जनवरी 2008

मेरी भी आभा है इसमें

नए गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है
यह विशाल भूखंड आज जो दमक रहा है
मेरी भी आभा है इसमें

भीनी-भीनी खुशबूवाले
रंग-बिरंगे
यह जो इतने फूल खिले हैं
कल इनको मेरे प्राणों ने नहलाया था
कल इनको मेरे सपनों ने सहलाया था

पकी सुनहली फसलों से जो
अबकी यह खलिहान भर गया
मेरी रग-रग के शोणित की बूँदें इसमें मुसकाती हैं

नए गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है
यह विशाल भूखंड आज जो दमक रहा है
मेरी भी आभा है इसमें

" नागार्जुन "

11 टिप्‍पणियां:

अनिल रघुराज ने कहा…

कवि का शायद इतना दंभी होना ज़रूरी है। बाबा की कविता में वाकई दम है।

Priyankar ने कहा…

अनिल भाई, यह दंभ नहीं अपनी ज़मीन से जुड़े कवि का आत्मविश्वास है -- संक्रामक किस्म का आत्मविश्वास.

Unknown ने कहा…

एक अच्‍छी कविता पढ़वाने के लिए धन्‍यवाद। बाबा की यह कवित समाज के अंतिम व्‍यक्ति के महत्‍व को दर्शाती है। ऐसी कविताओं से बल मिलता है।

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

नागार्जुन की उक्त कविता के विषय में ऊपर की तीनों टिप्पणियों से सहमत होने का मन कर रहा है!

बेनामी ने कहा…

ज्ञान जी, मैं आपकी बात से सहमत हूँ...दंभ, आत्मविश्वास और अपना महत्त्व दर्शाना... इनमें एक झीनी सी रेखा है बस.

Asha Joglekar ने कहा…

इतनी अच्छी कविता पढवाने के लिये धन्यवाद ।
अरे आपलोग नाराज क्य़ूं हो रहे हैं हमारी आपकी सब की आभा है इसमें बस !

रवीन्द्र प्रभात ने कहा…

स्वाभिमान नही तो सृजन कैसा ? बाबा नागार्जुन की कविताओं को जितनी बार पढी जाए , मन में आत्मविश्वास का भाव बना रहता है , कविता ही क्यों उनके गद्य भी स्वयं के होने का एहसास कराता है समाज में पूरी दृढ़ता के साथ , बल्चनवा भी कुछ इसीप्रकार की कृति है ! अच्छी लगी आपकी प्रस्तुति !

रंजू भाटिया ने कहा…

सुंदर कविता इसको यहाँ शेयर करने के लिए धन्यवाद

Sanjeet Tripathi ने कहा…

शुक्रिया इस बढ़िया कविता को पढ़वाने का।

Unknown ने कहा…

धन्यवाद और प्रतिध्वनि/ तालियाँ[ :-)]

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

कविता तो कविता है
चाहे हो नागार्जुन की
या मीनाक्षी जी की

जो जिसे चुनता है
उसके विचार उसमें
उसका प्रतिनिधित्व
करते हैं, सच है न ?