चित्र गूगल के सौजन्य से
सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है.... मुझे दीदी कहती है...अपने मन की बात हर मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (1)
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (2)
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (3)
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (4)
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (5)
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (6)
मन ही मन माँ शुक्र मना रही थी कि पथरी के दर्द की दवा बिटिया को खरीद कर दे दी थी. फिर से सुधा पुरानी दुनिया में लौट आई. बीच-बीच में दर्द इतना तेज़ उठता कि उसे कम करने के सब उपाय बेकार हो जाते. उस अजीब सी हालत में उसे दिखते अजीब सपने. उसे खुद याद नहीं कि जागते के सपने होते या सोते के सपने. दर्द काग़ज़ पर उतर आता सपने की शक्ल में...........
फिर से सुधा की ज़िन्दगी में बहार आ गई जब धीरज कुवैत से 45 दिन की छुट्टी पर घर आया...खट्टे मीठे पलों में अमृत फल मिलने की ख़बर से ही दोनों खुशी से झूम उठे. धीरज में अभी भी इतनी हिम्मत नहीं थी कि अपने माता-पिता के आगे कुछ कह पाता. दिल्ली वाले भैया समझ रहे थे इस बात को इसलिए उन्होंने ही फैंसला लिया था कि बच्चा होने तक सुधा दिल्ली में ही रहेगी. धीरज के 45 दिन फुर्र से उड़ गए.. धीरज को एयरपोर्ट छोड़ने के बाद वहीं से ही धीरज के बड़े भैया सुधा को अपने साथ घर ले आए. उन दिनों की सेवा को सुधा कभी नहीं भुला पाएगी जिनके कारण उसे अपने दूसरे बेटे का प्यारा सा चेहरा देखना नसीब हुआ था. बड़े भैया भाभी की सेवा और देखरेख को याद करके आज भी सुधा की आँखें भीग जाती हैं.
अतीत को वह आज भी नहीं भुला पाती. पहले बच्चे के वक्त पति के साथ होने पर भी उसे बचा न पाए थे दोनों. यह घाव बार बार हरा हो जाता है. उसे गुस्सा आता है अपने माता-पिता पर जिनके लिए लड़की बोझ होती है जिसे वे जल्द से जल्द उतारना चाहते हैं. अपना बोझ उतार कर दूसरे परिवार पर डाल देते हैं. दूसरा परिवार चाहे तो बोझ समझे या कुछ आज़ादी देकर उससे उम्र भर की ग़ुलामी करवाए. पर कटे पंछी की तरह मायके से निकल कर ससुराल में आ जाती है. पिंजरा बदल जाता है बस.
लाख बुरा करे कोई, अगर उसकी एक अच्छाई को भी याद किया जाए तो रिश्ते ज़िन्दा रहते हैं. सुधा आज भी यही सोच कर उनके घर परिवार के लिए खुशहाली की दुआएँ माँगती है. चाँद जैसा बेटा पाकर सुधा धन्य हो गई. सब दुख भुला कर फिर से वह चहकने लगी. धीरज और सुधा ने बेटे का नाम सौरभ रखा जिसकी महक से घर परिवार की बगिया महक उठी. सास ससुर भी बहुत खुश थे प्यारे से पोते को देख देख कर खुश होते. सौरभ की किलकारियाँ सुन सुनकर सुधा सास-ससुर की सेवा करती धीरज का इंतज़ार कर रही थी. धीरज भी अपने बेटे को देखने के लिए बेचैन था. सुधा की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था. पहली बार धीरज अपने दस महीने के बेटे को देखेंगे तो कैसा लगेगा सोच कर ही उसके दिल की धड़कन बढ़ जाती. धीरज के मन की बात तो वह ही जाने लेकिन सुधा मिलन के मीठे सपनों में खोई हुई थी.
धीरज का भी धीरज छूटा जा रहा था. जल्दी ही घर पहुँच कर वह अपने बेटे को अपनी गोद में लेना चाहता था. वह पल भी आ गया जब उसका दस महीने का बेटा उसकी गोद में था. सौरभ अपनी बड़ी बड़ी गोल आँखों से पिता को देखने लगा. पहली बार गोद में आकर कुछ देर के लिए सहम गया लेकिन पिता की गीली आँखों में अपने लिए प्यार देख कर मुस्कुराने लगा. कभी उनकी कमीज़ की जेब में हाथ डालता तो कभी मूँछ को पकड़ने की कोशिश करता.
मन ही मन सुधा डर रही थी कि कहीं उसकी खुशहाल ज़िन्दगी को किसी की नज़र न लग जाए. जिस बात से डरते हैं वही होता है. धीरज के वापिस लौटने का वक्त नज़दीक आ रहा था कि तभी उसके पिता सीढ़ियाँ उतरते हुए ऐसे गिरे कि फिर बिस्तर से उठ न पाए. कूल्हे की हड्डी टूट गई थी. उनके इलाज के लिए धीरज को रुकना पड़ा.
हमारे समाज का नियम ही कुछ ऐसा है कि माता-पिता के साथ या तो बड़ा बेटा रहता है या सबसे छोटा. घर में सबसे छोटा होने के कारण धीरज अपने माता-पिता के साथ ही रहा था. उसे घर से दूर कभी नहीं भेजा गया था. माता-पिता हर ज़रूरत के लिए उसकी तरफ देखते. पिता को ऐसी हालत में छोड़ कर जाने की हिम्मत धीरज में नहीं थी.
अपने परिवार के साथ रह कर नौकरी या कुछ अपना काम करने की सोच कर धीरज हर दिन कुछ नया सोचता रहता. एक बार फिर विदेश की जमा पूँजी पर घर गृहस्थी चलने लगी. परिवार के जो लोग धीरज को वापिस आकर कुछ काम करने की सलाह देते थे अब उससे नज़रें चुराने लगे. परिवार के किसी भी सदस्य ने आगे बढ़ कर उसके कंधे पर हाथ न रखा. सुधा फिर से माँ बनने वाली थी. एक बार फिर धीरज साथ था लेकिन फिर भी माता-पिता के खिलाफ जाकर सुधा को डॉक्टर के पास ले जाने की हिम्मत नहीं थी.
सुधा को हाई ब्लडप्रेशर और शूगर के साथ साथ तनाव की भी शिकायत रहती. इस बीच अगर धीरज कुछ सहायता करने की कोशिश भी करता तो माँ का पारा सातवें आसमान को छूने लगता. 'जोरू का गुलाम..घुटने से जुड कर बैठ जा.. हमने तो जैसे बच्चे पैदा ही नहीं किए थे'...और जाने क्या क्या कह कर हंगामा करती कि सारा गाँव इक्ट्ठा हो जाता. माँ के ऐसे बर्ताव को देख कर धीरज कई बार घर छोड़ कर बड़ी बहन के घर जा बैठता. शायद इसी डर से चाह कर भी वह कुछ नहीं कर पाता था.
माता-पिता का ऐसा व्यवहार बच्चों के मन से उनके लिए प्यार और आदर को कम ही नहीं करता बल्कि वक्त आने पर बच्चे माता-पिता को दुत्कारने से भी बाज़ नहीं आते. अक्सर ऐसा देखा गया है कि माता-पिता की ज़रूरत से ज़्यादा दख़लअन्दाज़ी को बच्चे एक सीमा तक सहने के बाद अपनी सारी हदें पार कर जाते हैं. शायद इसी कारण आए दिन हमें ऐसी ऐसी कहानियाँ सुनने को मिलती हैं कि बच्चे अपने माता-पिता का ख्याल नहीं रखते या उन्हें अकेला छोड़ कर दूर जा बसते हैं.
धीरज और सुधा का पालन-पोषण ऐसे माहौल में हुआ था जहाँ माता-पिता के आगे मुँह खोलने का तो कोई सपने में भी नहीं सोच सकता था. गलत होने पर भी वे बड़े हैं ऐसा सोच कर उनके मान-सम्मान में कोई कमी न होती. पहले बच्चे के वक्त जैसा हुआ था वैसा ही इस बार भी हो रहा था लेकिन इस बार नौवें महीने में अस्पताल जाने का इंतज़ाम कर लिया गया था. सुधा की हालत अब भी बेहद नाज़ुक थी. डॉक्टरों ने फौरन सिज़ेरियन करके सुधा और बच्चे की जान बचाई.
मुझे हैरानी इस बात की होती है कि लड़का-लड़की शादी के लिए तो तैयार हो जाते हैं लेकिन शादीशुदा ज़िन्दगी और बच्चों को पैदा करने की जानकारी नाममात्र को होती है. शादी के लिए तैयार जोड़े के सामने सेक्स की बात करने की भी मनाही होती है. आजकल भी ऐसे युवा लड़के-लड़कियों की संख्या बहुत ज़्यादा है जिन्हें शादी से पहले बिल्कुल तैयार नहीं किया जाता. लड़की को तो अपने पैरों पर खड़ा करने तक की सोच को नकार दिया जाता है. लड़के को भी इस तरह से तैयार किया जाता है जो माता-पिता की बताई राह पर ही चलता है, जिसे एक पल के लिए भी महसूस नहीं होता कि एक लड़की उसी के सहारे अपना सब कुछ छोड़कर एक नए माहौल में हमेशा के लिए आ बसती है.
सुधा और धीरज दूसरे बेटे को लेकर अस्पताल से घर लौटते हैं जिसकी तबियत नाज़ुक है. गर्भवती औरत और साथ ही गर्भ में पल रहे शिशु की अगर सही देखरेख न हो तो ऐसा ही होता है जैसे सुधा और उसके नवजात बच्चे के साथ हुआ. आखिरी वक्त तक घर के कामकाज करना अगर होने वाली माँ और बच्चे की सेहत के लिए सही हैं तो एक सीमा के बाद उसके लिए आराम, पौष्टिक आहार और ताकत की दवाइयों के साथ साथ नियमित चैकअप भी ज़रूरी है. उससे भी कहीं ज़्यादा ज़रूरी है गर्भवती को खुश रखना. यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं था.
मुझे तो लगता है कि हमारे देश में हर दूसरी औरत सुधा ही है जिसके साथ बार-बार ऐसा होता है.
छोटे से मासूम बच्चे की बीमारी को गंभीरता से नहीं लिया गया. दो महीने का होते-होते वह कई बार बीमार हुआ. उधर धीरज के हालात को देखते हुए एक बार फिर सागर भैया ने उसे कुवैत वापिस नौकरी पर लगवा लिया था. धीरज की सारी जमा-पूँजी खतम हो चुकी थी और एक साल में कई बार नौकरी के आवेदन और अपना काम शुरु करने के सारे सपने चूर-चूर हो चुके थे. पत्नी और दो बच्चों के साथ-साथ बूढ़े माता-पिता भी थे जिनके लिए उसे किसी न किसी काम में लगना ही था. भाई-बहन माता-पिता के लिए कुछ भी सहायता करते लेकिन उसके परिवार के लिए उसे खुद ही अपने पैरों पर खड़े होना था.
कुवैत से नौकरी का बुलावा आते ही धीरज ने वापिस लौटने की ठान ली. सुधा का मन डूब रहा था लेकिन धीरज का मनोबल ऊँचा करने में उसने कोई कसर न छोड़ी. पति को खुशी खुशी विदा किया यह भरोसा देकर कि वह उसे शिकायत का कोई मौका नहीं देगी. धीरज वापिस लौट गया था और सुधा रह गई थी फिर से अकेली. धीरज के माता-पिता और दो बच्चों के साथ. घर-गृहस्थी के बोझ को उसने कभी बोझ माना ही नहीं था. उसकी तो एक ही इच्छा रहती कि जिस तरह वह धीरज को तन-मन से प्रेम करती है , वह भी उसे वैसा ही प्रेम करे. इसी एक इच्छा को पूरी करने की चाहत में उसने अपना जीवन होम कर दिया.
क्रमश:


