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शनिवार, 20 अप्रैल 2013
गुरुवार, 18 अप्रैल 2013
18 महीने बाद 18 अप्रेल को एक बार फिर नमस्कार ......
यहीं अपने इस घर में किसी कोने में ध्यानमग्न बैठी थी जैसे.....लगता ही नहीं कि मैं 18 महीने बाद लौटी हूँ .... इन दिनों इतना कुछ हुआ ...हिसाब लगाने लगूँ तो कई कहानियाँ बन जाएँ ....
कीबोर्ड पर थिरकती उंगलियाँ कुछ कम ज़्यादा अंतराल में थिरकतीं रहीं लेकिन बन्द कमरे में.... मतलब यह कि ड्राफ्ट के रूप में कैद ..... उन्हें आज ब्लॉग जगत के खुले आसमान में उड़ने को छोड़ दिया....
19 नवम्बर 2011 सफ़र नया शुरु हुआ.... दिल्ली के लिए निकले 'सफ़र' शब्द के साथ एक पोस्ट को अंजाम देते हुए जो ड्राफ्ट में बस उसी शब्द के साथ रुकी रही....
कीबोर्ड पर थिरकती उंगलियाँ कुछ कम ज़्यादा अंतराल में थिरकतीं रहीं लेकिन बन्द कमरे में.... मतलब यह कि ड्राफ्ट के रूप में कैद ..... उन्हें आज ब्लॉग जगत के खुले आसमान में उड़ने को छोड़ दिया....
19 नवम्बर 2011 सफ़र नया शुरु हुआ.... दिल्ली के लिए निकले 'सफ़र' शब्द के साथ एक पोस्ट को अंजाम देते हुए जो ड्राफ्ट में बस उसी शब्द के साथ रुकी रही....
12 मई 2012 को एक नई कोशिश के साथ बस इतना ही लिखना जुटा पाई कि शब्द शराब बन उतरते हैं दिल औ' दिमाग़ में .... भावों का नशा चढ़ता है तो उतरता नहीं............
28 मार्च 2012 की शाम फिर हाथ आया वक्त और ब्लॉग जगत को नमस्कार कहने आ पहुँचे....उस नमस्कार को भी कैद ही रखा.....
17 जून 2012 को जाने क्यों डैडी की याद आ गई..... बस यूँही बेतुकी सी चाहत जाग उठी कि काश उनसे वीडियो चैट हो पाए तो कैसा हो......क्या आने वाले वक्त में ऐसा मुमकिन होगा कि मैं 'वहाँ' से यहाँ चैट कर पाऊँगी अपनों से...........
26 मार्च 2013 बैठी थी सात समुन्दर पार ... बेचैन था मन ...कोई अपना बीमार था बड़ा.... बस जी चाहा कि कुछ दो चार शब्दों के साथ मिल बैठूँ फिर एक बार.......
यह तो हुई चर्चा पिछले 18 महीनों में लिखे कुछ भावों की..... लिखा लेकिन पोस्ट नहीं किया.....लिखा उन पर भी नहीं जिन्हें कभी कभार पढ़ा ब्लॉग जगत में आकर .....
फेसबुक जिसे कहती हूँ 'चेहरा पुस्तक' वहाँ परिवार के कारण ज़्यादा आना-जाना रहा.... एक क्लिक 'लाइक' से ही काम चल जाता है .....
लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि ब्लॉग की अपनी महत्ता है...
खासकर हिन्दी ब्लॉग जगत में आजकल की गतिविधियों से तो यही प्रमाणित होता है...
The Bobs awards के बारे में सुना फिर पढ़ा भी जो DW के प्रतिनिधि के रूप में दुनिया की कई भाषाओं के ब्लॉगज़ के माध्यम से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का महत्व दिखाँएगें....
DW-- Deutsche Welle means in english 'German Wave'. DW is Germany's International broadcaster.
वक्त नहीं है इनका अनुवाद करने का लेकिन दोनों लिंक पढ़ने के बाद लगा कि बॉब्ज़ एवार्ड के लिए किसी भी ब्लॉग को चुनने के लिए इनके बारे में जानकारी लेना ज़रूरी लगा....
फिर पहुँचे अपने ब्लॉगजगत जहाँ चिट्टाचर्चा पर पहले नज़र गई क्यों .....क्योंकि कभी हम भी चर्चा किया करते थे वहाँ ......... नारी ब्लॉग को फेसबुक के माध्यम से तो चोखेरबाली को टिवटर के माध्यम से वोट दे आए...
हिन्दी भाषा का प्रचार और उस पर नारी से जुड़े ब्लॉगज़..... बस इतनी ही समझ समझिए..
वक्त अभी मुट्ठी में था इसलिए एक और ब्लॉग पर गए.... पढ़ने को वहाँ बहुत कुछ था ...पढ़ा भी .. मन ही मन चिंतन भी किया लेकिन जो कविता पसन्द आई ...पसन्द ही नहीं बेहद पसन्द आई उसके शब्द और उनमें छिपे भाव बहुत कुछ कह जाते हैं बस समझने की ज़रूरत है.......
शब्दों के भी
होते हैं सींग
तभी तो कुछ शब्द
बहुत मारते हैं डींग
जी हां
शब्दों के भी होते हैं सींग
पैने-पैने नुकीले सींग
कलेजे में घुस जाते हैं तो
कलेजा फाड़ देते हैं
लहू-लुहान हो जाती हैं सम्वेदनायें
दम तोड़ देते हैं संस्कार
और वे सींग
प्रेम को घृणा की ज़मीन में कहीं गहरे गाड़ देते हैं।फिर भी,
आपने उगा रखे हैं ये सींग
अरे!
जु़बान पर भी लगा रखे हैं सींग
माना कि
इन सींगों से आप
बड़े-बड़े काम करते हैं
क्योंकि
इनसे इज्जतदार
बहुत डरते हैं
पर सोचो,
कभी जुबान पर लगे ये सींग
गले के रास्ते
अपने ही भीतर उतर गये तो
अपने आपसे डर गये तो!सच जानिये
ऐसे में आप
खुद से भी मिल नहीं पायेंगे
खून की तरह बिखर जायेगा वजूद
जिसे आप समेट नहीं पायेंगे
इसलिये,
रच सकते हो तो
जुबान पर
मिश्री की अल्पना रचो,
और शब्दों को सींग बनाने से बचो।
डा.कमल मुसद्दी
प्रवक्ता राजकीय आयुध निर्माणी इंटर कालेज,अर्मापुर
सद्य प्रकाशित और दिनांक २९.०४.०७ को लोकार्पित
कविता संग्रह कटे हाथों के हस्ताक्षर से साभार!
प्रवक्ता राजकीय आयुध निर्माणी इंटर कालेज,अर्मापुर
सद्य प्रकाशित और दिनांक २९.०४.०७ को लोकार्पित
कविता संग्रह कटे हाथों के हस्ताक्षर से साभार!
मंगलवार, 18 अक्टूबर 2011
कीबोर्ड पर थिरकती उंगलियाँ
आज तेइस दिन बाद उंगलियाँ कीबोर्ड पर थिरकने के लिए मचलने लगी तो सोचा चलो उन्हें मौका दिया जाए...वैसे चलती तो थीं यहाँ लेकिन आँखों की मदद करने के लिए चलती थीं एक ब्लॉग से दूसरे ब्लॉग़ पर क्यों कि दोनों ही दिमाग की ख़ुराक जुटाने में कोई कसर न रखते......
हाथ की सफ़ाई ... कभी कीबोर्ड पर कभी यहाँ
सुबह सवेरे भक्ति संगीत लगा कर होता काम घर का..... दैनिक कार्यों से निवृति ....योग ...सैर.....नाश्ता सुबह का....ईरानी रोटी...खट्टी क्रीम... अखरोट के दो टुकड़े... शहद ... पीनट बटर ..... अपनी देसी चाय के साथ...
फिर निकलना घर से बेटे को ऑफिस छोड़ कर रसोईघर की खरीददारी कभी कभार..... वापिस लौट कर फिर से घर का अंतहीन काम... दोपहर का खाना तैयार करना.... कपड़े मशीन में डालना .... साथ साथ लैपटॉप पर एक से बढ़ कर एक पोस्ट पढ़ना..... टिप जैसी चीज़ टिप्पणी को मान कर उसे नज़र अन्दाज़ करना और बस पढ़ते जाना और मन ही मन मोहित होना .... प्रभावित हो कर सबके लेखन से उन्हें ढेरों शुभकामनाएँ देना.....
इसी बीच वक्त होना .... छोटे बेटे को कॉलेज छोड़ कर आने का ..... लैपटॉप को यूँ ही खुला छोड़ कर जाने का.... आकर फिर से पढ़ने का लालच कहाँ छूटेगा..... आदतें कुछ नशे की जैसे गले लगती है तो जान लेकर ही जाती हैं..... सभी नशे कुछ ऐसे ही हैं......अति न हो तो अति सुन्दर....अति हो तो इति हो जाए ज़िन्दगी की .......
खैर बेटे को कॉलेज छोड़ कर लौटते तो कुछ दोस्तों का प्यार खींचता अपनी ओर .... फोन पर बातचीत...मिलने का वादा...घुमाने का इरादा कर के निकल पड़ते उन्हें संग लेकर यहाँ से वहाँ...... वहाँ से कहाँ कहाँ अब उसकी चर्चा फिर कभी.....
आज के दिन छोटे बेटे ने कार ले जाने की विनती की...अच्छी तरह से जानता है कि 'बेटा बन कर सबने खाया, बाप बन कर किसी ने नहीं' ...इतनी नम्रता से अपने मन की बात मनवा लेता है कि मन ही मन उसकी शीरनी सी चालाकी की तारीफ़ किए बिना नहीं रह पाती..... कभी कभी बड़े भाई को समझाता है .... मिठास भरे गुर बताता है कि कैसे बड़ों का दिल जीतना है कुछ झुक कर .... क्या फर्क पड़ता है....काम तो निकलता है.... दोनों पार्टी खुश...नम्रता और मान को मिला कर घर का माहौल हो जाता है मिठास भरा......
एक सहेली का आना जाना मुझ पर निर्भर है....दूसरी थकी है लगी है घर को सजाने में..... तीसरी अपनी माँ की सेवा में लगी है....चौथी गई है अपनी दूसरी दोस्त के घर कुछ महीनों के लिए उसकी तन्हाई को दूर करने.... बाकि सभी दोस्त लगे हैं ज़िन्दगी की जद्दोजहद में....जुटे हैं उन्हें आसान करने की आस में.....और हम करते हैं दुआ इसी आस में कि उनकी आस पूरी हो...... इसलिए आज घर के इस एकांत में उंगलियाँ थिरक रही है कीबोर्ड पर अपने मन का हाल लिखती हुई......
संगीत अभी भी चल रहा है लेकिन भक्ति संगीत की जगह दोपहर की नीरवता को दूर करता हुआ कुछ अलग ही खुमार लिए हुए ... गीत सुस्त करता उससे पहले ही फेसबुक पर देखा कि माँ भी ऑनलाइन हैं.... और चुस्त हो गए...... उनसे बात होगी तो दूर तलक होगी....... :) इसलिए आगे की बात फिर कभी......
आज की पोस्ट लिखवाने के सहायक दोस्त को शुक्रिया न किया तो बेमानी होगी....कुछ न कुछ लिखते रहने की बात हुई तो उसी रौ में इतना कुछ लिख गए....बातों ही बातों में एक पोस्ट तैयार हो गई जिसका श्रेय फुरसतियाजी को जाता है.
शनिवार, 24 सितंबर 2011
भटक क्यों जाते हैं हम
पिछले कुछ दिनों से व्यस्त हूँ अपने पुराने दोस्तों के संग हूँ ..... आज फुर्सत के कुछ पल मिले तो चाय का एक कप लेकर बैठी हूँ ..... मन को बेहद भाता है शीशे की दीवार से उस पार जब भी देखती हूँ .... और मुग्ध भाव से बस कुछ लिख जाती हूँ ......
खिड़की के बाहर
नीला आसमान
उस पर छपे हरे रंग के पेड़
हिलते मिलते जुलते
खूबसूरत हैं लगते
उन्हें एक दूसरे से मिला रही है
नम्र, नम और गर्म हवा
मस्ती में झूमते हैं पत्ते
सूरज की सुनहरी किरणें
सजाती हैं उन्हें
दे देती हैं सुनहरी रूप अपना
बिना कुछ माँगे बदले में..
संध्या होगी, चन्दा आएगा
शीतलता देगा धरती को
धरती के हर जन को
वह भी कुछ न चाहेगा
बदले में...
प्रकृति परिवार है निराला
सूरज, चाँद , सितारे
धरती, आसमान और
हवा, जल
सभी का अपना इक कोना
करते अपना काम सदा सुचारु
नित नियम से ....
फिर हम क्यों भटक जाते
सीधी राह चल न पाते...!!
मंगलवार, 20 सितंबर 2011
तुम्हारा स्पर्श
पिछली पोस्ट पर अपनी एक दोस्त का परिचय दिया था...आठ साल बाद फिर से फेसबुक पर मिलना हुआ..यादों के पल मोती जैसे सहेजने के लिए ब्लॉग बनाने को कहा ..जब तक ब्लॉग़ बने सोचा क्यों न उसी की लिखी एक पुरानी कविता पढ़वा दूँ ..... मैं बोलती तो वह सपने लेती...वह लिखती तो मैं कल्पना करती नए नए अर्थों के साथ ..... 'तुम्हारा स्पर्श' कविता का आरंभ लगा किसी प्रेयसी के मन का हाल ..... तो अंत पढ़ते लगा जैसे क़लम और काग़ज़ मिल कर कविता को जन्म दे रहे हों.....उस कविता को खूबसूरत रूप देने के लिए लालायित हों.......
आपको क्या लगता है... ?
तुम ने जो सहलाया...मेरी घनी जुल्फों को
तुम ने जो सहलाया...मेरी घनी जुल्फों को
अपने हाथों से
मेरा झुमर खनक उठा
तुम ने जो छुआ .. ...मेरी पलकों को अधरों से
होठो को होठो से
मेरे कंगन खनक उठे
तुम ने जो बेधा.....मुझे नैनो के तीरों से
कानो के प्रेमाक्षरों से
मेरे कर्ण फूल बज उठे
मेरी साँसे जो तुम से टकरा रही थीं
अधूरी दास्ताँ मेरे दिल की सुना रही थी
मेरी करधनी, मेरी पायल
तुम्हारे एहसास के बिन सूनी पड़ी है
जो गीत तुम्हारे ही गा रहे है
मेरे उन अलंकारों को रूप नया दे दो .. (अनिता )
सोमवार, 19 सितंबर 2011
पुराने दोस्त , पुरानी यादें,, नई ताज़गी के साथ...
पिछले दिनों कविता के रूप सौन्दर्य को एक नहीं , दो नहीं तीन बार निहारा, सराहा...शायद एक दो बार और कविता के सागर में डूबना हो....डूब कर जो भी मोती हाथ लगे फिर से यहाँ सजा दूँ ..... आज तो एक पुरानी दोस्त का परिचय कराने को जी चाहा...
आठ साल के बाद नेट की बदौलत फेसबुक पर फिर से पुरानी दोस्त से मुलाकात हो पाई.. ...
पुराने
दोस्त पुराने चावल जैसे खुशबूदार ...बातें भी खुशबूदार शुरु हुई अतीत
के प्यारे पलों की.....
यादें खुशबू सी महकने लगीं और हम दोनों भी महकने चहकने लगे
साथ साथ अतीत की बगिया में ....
मैं अपनी सहेली अनिता की बातें सहेज रही थी अपने मानस पटल पर ...
“बीते हुए पलों को सदैव संजो कर रखना चाहिए, वो ही हमारे जीवन के मोती हैं”
“
”मीठे पलों को याद करके ही ज़िन्दगी की ऊबड़ खाबड़ पगडंडियों को भूल जाते
हैं हम सब”
“बीते हुए हर पल को प्यार से संजो कर रखने की कोशिश की है मैंने”
“तुम बोलती थी, मैं सपने लेती थी”
“ग़र हमें दोस्तों की पसन्द ना पसन्द पता हो तो ज़िन्दगी आसान ही नहीं दिलचस्प भी हो जाती
है”
बीते दिनों की और भी कई बातों का ज़िक्र हुआ... उनमें से कुछ यादों को तो मैं बिल्कुल
भुला चुकी थी.....
उसे सब याद था... यकीनन उसने यादों को मोतियों की तरह सहेज कर रखा था....
याद न कर पाने की ख़लिश को दूर करने के लिए अनिता को ब्लॉग बनाने की सलाह दे डाली....
जानती हूँ
पुरानी यादों को कीमती मोतियों की तरह सहेज कर रखा हुआ है...
बस इंतज़ार है कब एक कोशिश देखने को मिलेगी........
शुक्रवार, 16 सितंबर 2011
आज की कविता का रूप-सौन्दर्य 3
आज की कविता का रूप-सौन्दर्य बढ़ाने में सहायक हैं नए बिम्ब और नई भाषा शैली .... और चमत्कृत कर देते हैं भाव ..... कवि-मन में जब गहन अनुभूति के पल आते हैं तब वह उन्हें कविता का रूप दे देता है... कहीं कहीं तो अनुभूति का ईमानदार पल मन में हलचल पैदा कर देता है...जीवन के हर पल का रंगीन और बेरंग चित्र कविता में दिखाई देता है.... पिछली पोस्ट में भी इसी बात का ज़िक्र था कि "आज कविता में कोई विषय अछूता नहीं है" कभी कभी मुझे कविता मनमोहिनी माया का रूप लगती है जो कभी तो बहुत हल्की बात को गम्भीरता से कह जाती है और कहीं छोटी छोटी बातों में चमत्कार दिखाने लगती है....
कुछ किताबें अन्धेरे में चमकती हैं रास्ता देती हुई
तो कुछ कड़ी धूप में कर देती हैं छाँह
कुछ एकांत की उदासी को भर देती हैं
दोस्ती की उजास से
तो कुछ जगा देती हैं आँख खुली नींद से
तन्हाई का साथी अश्रु
ये भी बहता अकेला है
कितना बदनसीब है
सहारा खोजता - खोजता
भिगोता अपना ही दामन है (निवेदिता)
"मगर
मर्यादा
और विश्वास
चुन लेते हैं
कई बार
मौन
और बन जाते हैं
स्वयं एक जवाब" (वाणी गीत)
मर्यादा
और विश्वास
चुन लेते हैं
कई बार
मौन
और बन जाते हैं
स्वयं एक जवाब" (वाणी गीत)
औरत पीती है
हर रोज़ अँधेरी रातों में
कुछ हथेली पे मल के
होंठों तले दबा लेती है
कुनैन की तरह
ज़िन्दगी को ...... (हरक़ीरत हीर)
हर रोज़ अँधेरी रातों में
कुछ हथेली पे मल के
होंठों तले दबा लेती है
कुनैन की तरह
ज़िन्दगी को ...... (हरक़ीरत हीर)
"देह पीरे
पीर रे
नाच रही पीरे पी रे
चन्दन पलंग रात न सोहे
नेह बिछौना अंग न तोरे
निदियाँ नाहीं पीर रे।
नाच रही मैं पीर रे।" (गिरिजेश राव)
नाच रही पीरे पी रे
चन्दन पलंग रात न सोहे
नेह बिछौना अंग न तोरे
निदियाँ नाहीं पीर रे।
नाच रही मैं पीर रे।" (गिरिजेश राव)
" कहाँ गये
वो लोग जिन्होने,
आजादी का सोपान किया था,
लगा बैठे थे जान की बाजी,
आजाद हिन्दुस्तान किया था." (सुनिता शानू)
"तब कोई सपना ही कहाँ रहेगा
बस विलासिता होगी हर तरफ
न कोई तपिश होगी
न कोई कशिश
फिर जिंदगी आज की तरह रंगीन कहाँ होगी" (कुमार)
बस विलासिता होगी हर तरफ
न कोई तपिश होगी
न कोई कशिश
फिर जिंदगी आज की तरह रंगीन कहाँ होगी" (कुमार)
कुछ किताबें अन्धेरे में चमकती हैं रास्ता देती हुई
तो कुछ कड़ी धूप में कर देती हैं छाँह
कुछ एकांत की उदासी को भर देती हैं
दोस्ती की उजास से
तो कुछ जगा देती हैं आँख खुली नींद से
इक दौर है ये भी ...
प्रगति का दौर ....
अब.... सब के पास... सब अपना है
सब.... अलग-अलग अपना
अपना अलग कमरा... अपना अलग टी.वी.
अलग ख़ुशी, अलग सोच, अलग मर्ज़ी ...
हाँ , सब... अलग-अलग अपना (दानिश)
प्रगति का दौर ....
अब.... सब के पास... सब अपना है
सब.... अलग-अलग अपना
अपना अलग कमरा... अपना अलग टी.वी.
अलग ख़ुशी, अलग सोच, अलग मर्ज़ी ...
हाँ , सब... अलग-अलग अपना (दानिश)
नहीं चाहती मैं
कि कोई भी
हो व्यथित
मेरे कारण
और लगाए
मुझसे कोई उम्मीद ... (संगीत स्वरूप 'गीत')
ब्लॉग़जगत में कविताओं के अथाह सागर के किनारे खड़ी हूँ ....कविताओं की अनगिनत चंचल लहरों को देखती हूँ तो मन में कई भाव उठने लगते हैं.... इसी कारण इतना लिख पाई....लौट रही हूँ फिर आने के लिए कभी...... !
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