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गुरुवार, 5 अगस्त 2010
मैं अपराधिनी.....!

गुरुवार, 17 जून 2010
अपने देश के साँचें में अनफिट... !!!!!
पिछले साल बड़े बेटे की सर्जरी के सिलसिले में दिल्ली आए तो लगभग साल भर रुकना पड़ा...उस दौरान कई बार चाहा कि यहाँ रहने के अपने अनुभव लिखित रूप में दर्ज किए जाएँ लेकिन समय ही नहीं मिला.... उसी दौरान जाना कि अगर पड़ोसी अच्छे नहीं मिलते तो समझिए आपसे बड़ा अभागा कोई नहीं.... उससे बड़ा अभागा वह जिसे धूर्त, चालाक और स्वार्थी पड़ोसी मिल जाएं....
चित्रों देखिए और समझिए कि कैसे एक पड़ोसी आपको बेवकूफ बना सकता है.......
छह महीने बाद हम और माँ घर लौटे तो देख कर हैरान कि किस तरह से कोई किसी की शराफत का नाजायज़ फ़ायदा उठा सकता है.....
घर का रूप रंग बिगड़ चुका था.... डोर बैल का कनैक्शन कट चुका था...टीवी की केबल वायर का कोई अता पता नहीं था.... बाहर मेन गेट की बिजली भी नदारद थी.... शुक्र हो छोटी बहन का जिसने मज़दूर बुला कर बाहर के मेन गेट से इमारत बनाने का सामान उठवा कर अन्दर आने की जगह बनवा दी थी....
जैसे तैसे रात गुज़री .... अगली सुबह पीछे का दरवाज़ा खोलने का सोची तो पता चला कि पीछे से सीमेण्ट की चादरों के कारण दरवाज़ा खुल ही नहीं सकता... कलेजा मुहँ को आ गया... लोग कैसे इतने सम्वेदनहीन हो जाते हैं कि किसी की छोटी छोटी सुविधाओं को भी नज़रअन्दाज़ कर जाते हैं.....
नाश्ते के बाद अगला कमरा देखा तो हैरान रह गए..... कैसे उस कमज़ोर कमरे को ढकने की कोशिश की गई थी.....पहले से ही कमज़ोर कमरे के कन्धे टूट चुके थे... जिन दीवारों के गिरने
के डर से कोई वहाँ जाता नहीं था उसी की दीवारों पर दो दो ईंटों का सहारा देकर नई छत बना ली गई थी.....
पहली बार जाना कि यहाँ के कुशल ठेकेदार पुरानी कमज़ोर छत के ऊपर दो ईटों के सहारे पर एक नई छत भी बना सकते हैं.... हैरानी उस ठेकेदार की बहादुरी पर भी है या पैसा इस कदर ज़रूरत बन गया है कि कोई भी अपना ईमान बेचने पर तैयार हो सकता है.... कमज़ोर दीवारें..कमज़ोर छत और उस पर नई छत बना कर.... बीच के हिस्से को चालाकी से ढक कर लोगों की ज़िन्दगी को खतरे में डाल दिया जाता है....
ऐसी ही कई छोटी छोटी बातें होती हैं जिन्हें देख सुन और अनुभव करके लगता है कि आत्माएँ मर चुकी हैं.... या भारी स्वार्थ के नीचे दब चुकी हैं
आज से अपने बच्चों को कभी अपने देश में बसने के लिए नहीं कहूँगी....अपनी जन्मभूमि है तो यहाँ आने से कोई रोक भी नहीं सकता... कोसेंगे, कुढेगें , निन्दा करेंगे लेकिन फिर भी आते जाते रहेंगे...!
(मन के भाव पढ़े....चित्र देखे..... आप क्या कहते हैं.....क्या पता हर चौथे पाँचवें पड़ोसी के साथ ऐसा ही होता हो...... बताइए ....मन को कुछ राहत मिले....
छत का एक कोना टूट रहा है..



शनिवार, 12 जून 2010
आज भी उसे इंतज़ार है .. !

मंगलवार, 8 जून 2010
मन ही मन वे बिखर रहे थे....!

शुक्रवार, 4 जून 2010
मेरे घर के आँग़न में
एक जून , मंगलवार की रात शारजाह एयरपोर्ट उतरे.. ज़मीन पर पैर रखते ही जान में जान आई... जब भी हवाई दुर्घटना की खबर पढ़ते तो एक अजीब सी बेचैनी मन को घेर लेती... फिर धीरे धीरे मन को समझा कर सामान्य होने की कोशिश करते.... लेकिन रियाद से दुबई आने से पहले एक बुरा सपना देखा था जिसमें दो हवाई जहाज आसमान में आपस में टकरा कर गिर जाते हैं और हम कुछ नहीं कर पाते...जड़ से आकाश की ओर देखते रह जाते हैं...
पैसे की बचत की दुहाई देकर हमने पतिदेव से कहा कि बस से चलते हैं जो बहुत आरामदायक होती हैं...लेकिन 12 घंटे के सफ़र की बजाए डेढ़ घंटे का सफ़र ज़्यादा सही लगा उन्हें और अंत में हवाई यात्रा ही करनी पड़ी.... सालों से सफ़र करते हुए हमेशा ईश्वर पर विश्वास किया ..ऐसे कम मौके आए जब हमने विश्वास न किया हो और बाद में लज्जित होना पड़ता...सोचते सोचते दुखी हो जाते कि कितने एहसानफ़रामोश हैं जो उस पर शक करके भी सही सलामत ज़मीन पर उतर आते हैं...
मंगलवार की रात नीचे उतरे तब भी ऐसा ही महसूस हुआ... फिर से उस असीम शक्ति से माफ़ी माँगी और छोटे बेटे को गले लगा लिया जो लेने आया था.....एयरपोर्ट शारजाह में और घर दुबई में ...दूरी लगभग 35-40 किमी....पहली बार बेटा ड्राइविंग सीट पर था और पिता पिछली सीट पर मेरे साथ बैठे थे.....120-130 की स्पीड पर कार भाग रही थी लेकिन डर नहीं लगा शायद धरती का चुम्बकीय आकर्षण....ममता की देवी माँ की गोद में बच्चे को बिल्कुल डर नहीं लगता लेकिन पिता की गोद में बच्चा फिर भी डरता है... उसका अतिशय बलशाली होना भी शायद बच्चे को असहज कर देता है, शायद मुझे धरती माँ भोली भाली से लगती है और आसमान गंभीर पिता जैसे लगते....
11 बजे के करीब घर पहुँच गए....अपनी तरफ से दोनो बच्चों ने घर को साफ सुथरा रखा हुआ था... बड़े बेटे के हाथ की चाय पीकर सारी थकान ग़ायब हो गई....फिर सिलसिला शुरु हुआ छोटी छोटी बातों पर ध्यान देने का.... डिनर का कोई इंतज़ाम नहीं था... बड़े ने लेबनानी खाना और छोटे ने 'के.एफ.सी' पहले ही खा लिया था...छोटा बेटा हमें घर छोड़ कर किसी काम से बाहर निकल गया, यह कह कर कि वह जल्दी ही खाना लेकर लौटेगा लेकिन महाशय पहुँचे देर से....
जब भी आवाज़ ऊँची होने को होती है तो जाने कैसे दिल और दिमाग में चेतावनी की घंटी बजने लगती है और हम दोनो ही शांत हो जाते हैं.... बच्चे खुद ब खुद समझ कर माफ़ी माँगने लगते हैं....मुस्कुरा कर हमारी ही कही बातें हमें याद दिलाने लगते हैं कि इंसान तो कदम कदम पर कुछ न कुछ नया सीखता ही रहता है और माहौल हल्का फुल्का हो जाता .... मुक्त भाव से खिलखिलाते परिवार को देख कर मुक्त छन्द के शब्द भी भावों के साथ मिलजुल कर खिलखिला उठते......
मेरे घर के आँगन में...
छोटी छोटी बातों की नर्म मुलायम दूब सजी
कभी कभी दिख जाती बहसों की जंगली घास खड़ी
सब मिल बैठ सफ़ाई करते औ’ रंग जाते प्रेम के रंग....
मेरे घर के आँगन में......
नन्हीं मुन्नी खुशियों के फूल खिले हैं..
काँटों से दुख भी साथ लगे हैं...
खुशियाँ निखरें दुख के संग ...
मेरे घर के आँगन में .....
नहीं लगे हैं उपदेशों के वृक्ष बड़े..
छोटे सुवचनों के हरे भरे पौधे हैं....
खुशहाली आए सुवचनों के संग..
पता नहीं क्यों बड़ी बड़ी बातों के
खट्टे खट्टे नीम्बू नहीं लगते..
छोटी छोटी बातों की खुशबू तो है...
मेरे घर के आँगन में....
उड़ उड़ आती रेत जलन चुभन की
टीले बनने न देते घर भर में
बुहारते सरल सहज गुणों से
मेरे घर के आँग़न में
उग आते मस्ती के फूल स्वयं ही
उड़ उड़ आते आज़ादी के पंछी
आदर का दाना देते सबको
मेरे घर के आँग़न में
विश्वास का पौधा सींचा जाता
पत्तों को गिरने का डर नहीं होता
प्रेम से पलते बढ़ते जाते..
मेरे घर के आँगन में....
बहुत पुराना प्रेम वृक्ष है छायादार
सत्य का सूरज जगमग होता उस पर
देता वो हम को शीतलता का सम्बल हर पल
मंगलवार, 1 जून 2010
काश.... शब्दकोष में ‘वाद’ शब्द ही न होता
ज़रूरी नहीं कि जो कहते नहीं,,,बोलते नहीं... या ब्लॉग पर लिखते नहीं...उन्हें समाज में हो रही घटनाओं से कुछ फर्क नहीं पड़ता.... सब अपने अपने तरीके से उन घटनाओं के प्रति अपने भाव प्रकट करते हैं...उन घटनाओं को देखते सुनते हुए कभी मौन धारण कर लेते हैं तो कभी बहस और वाद विवाद करने लगते हैं. कभी वही विवाद किसी ‘वाद’ का बदसूरत रूप लेकर चारों तरफ अशांति फैला देते हैं...
कुछ विदेशी दोस्तों ने नक्सलवाद के बारे में पूछा तो विकीपीडिया का लिंक भेज दिया लेकिन खुद भी पढने बैठ गए... अचानक अपने देश के नक्शे पर नज़र गई तो फिर हटी नही...... जिस तरह से लाल,पीले और संतरी रंगों से नक्सलवाद के छाए आंतक को दिखाया गया था उसे देख कर एक अजीब सा दर्द महसूस होने लगा....
नक्शा घायल शरीर जैसा दिखने लगा..... नक्शे पर फैले लाल पीले रंग को देख कर लगने लगा जैसे ज़ख़्म हों जो नासूर बन कर रिस रहे हों.......घाव इतने गहरे लग रहे थे जैसे कि उनका इलाज सम्भव ही न हो.....समूचा वजूद तेज़ दर्द की लहर से तड़प उठा.....
अचानक नादान मन सोचने लगता है ....काश.... शब्दकोष में ‘वाद’ शब्द ही न होता तो कितना अच्छा होता.....‘वाद’ शब्द ही नहीं होगा तो फिर किसी तरह का कोई विवाद खड़ा न हो सकेगा... बेकार की बहसबाज़ी न होगी.....दलबाज़ी और गुटबाज़ी न होगी.... झग़ड़ा फ़साद न होगा... मासूमों का ख़ून न बहेगा... नक्सलवाद, माओवाद, आतंकवाद, पूँजीवाद , समाजवाद जातिवाद आदि का झगडा भी नही रहेगा.........!
सबसे खास बात होगी अपने देश का नक्शा घायल जैसा न दिखेगा....!!!!
शनिवार, 29 मई 2010
गुस्सा बुद्धि का आइडेंटिटी कार्ड है
इस पोस्ट का शीर्षक फुरसतिया ब्लॉग़ की पोस्ट ‘एक ब्लॉगर की डायरी’ से लिया गया है. नेट की परेशानी के कारण कुछ रचनाओं के प्रिंट आउट करवा कर पढ़ते हैं सो फुरसतिया पोस्ट को तो फुरसत होने पर ही पढ़ा जा सकता है.. पढती जा रही हूँ और सोचने के लिए कई विषय मिलते जा रहे हैं...
सबसे रोचक लगा ‘गुस्सा डीलर’ के बारे मे जानकर.... जब पढ़ा कि गुस्सा बुद्धि का आइडेंटिटी कार्ड हो गया है तब से सोच रहे हैं कि जितना गुस्सा कम, उतनी बुद्धि कम .... अब क्या करें कैसे उबाल आए कि हम भी बुद्धिजीवी बन जाएँ एक दिन में... गुस्सा होने की लाख कोशिश करने लगे...... पहले अपने ही घर से शुरु किया....पति शाम को ऑफिस से आते हैं...जी चाहता है कि बाहर घूम आएँ ...ताज़ी हवा में टहल आएँ ...इंतज़ार करने लगे कि आज तो बाहर बाहर से ही निकल जाएँग़े...आदत से मजबूर दरवाज़ा खोल दिया...मुस्कुरा कर स्वागत भी किया... हम कुछ कहते उससे पहले ही महाशय के चेहरे पर मन मन की थकावट देख कर चुप रह गए ... गुस्सा भी अन्दर ही अन्दर मन मसोस कर रह गया कि थके मानुस को क्यों परेशान करना....
बच्चों की बारी आई... उन पर आजमाना चाहा ...युवा लोग तो वैसे भी बुर्ज़ुगों के कोप का निशाना बने ही हुए है....दोनो बच्चे दुबई में हैं..अकेले रहने का पूरा मज़ा ले रहे हैं... दो दो दिन बीत जाते हैं बात किए हुए...आधी आधी रात तक घर से बाहर होते हैं लेकिन न जाने चिल्ला नहीं पाते कि शादी हो जाएगी तब तो बिल्कुल नहीं पूछोगे.... अभी से यह हाल है....फोन किया...बात सुनी..छोटे ने कहावत एक बार सुनी थी नवीं या दसवीं की हिन्दी क्लास में कि ‘बेटा बन कर सबने खाया बाप बन कर किसी नहीं’ बस तो ऐसा मीठा बन जाता है कि प्यार आने लगता है....गुस्सा कहाँ आता... बल्कि सोचने लगेगी कि यही वक्त है उनका मस्ती करने का..क्या करते हैं, कहाँ जाते हैं इतनी खबर ही बहुत है....
दोस्तों और रिश्तेदारों की बारी आई....कोई तो भला मानुस हो जो गुस्सा दिलवा दे ताकि बुद्धिजीवी होने का सपना इसी जन्म मे पूरा हो सके.... स्काइप, जीमेल, फेसबुक आदि पर कई रिश्तेदार और दोस्त होते हैं जो नज़रअन्दाज़ कर जाते हैं......हरी बत्ती हो तो बड़ों को नमस्कार कर देते हैं लेकिन छोटों की नमस्ते का इंतज़ार करते ही रह जाते हैं... किसी को मेल की...उसके जवाब के इंतज़ार में कई दिन बीत जाते हैं...सोचते रह जाते हैं कि काश गुस्सा आ जाए... दिल कहता है किसी को मेल का जवाब देने के लिए जबरदस्ती थोड़े ही कर सकते हैं. ब्लॉग़जगत के बारे में सोचने लगे... वहाँ अपनी बिसात कहाँ ..... सभी बुद्धिजीवी हैं...उनके पास तो बहुत गुस्सा है...और बुद्धि भी.... या कहूँ कि बहुत बुद्धि है इसलिए गुस्सा है... अब आप ही सोचिए कि क्या समझना है...
अब मन कुछ हल्का हुआ है... तसल्ली हुई है कि हम भी कुछ कुछ बुद्धि वाले हो गए हैं क्यों कि हल्का हल्का गुस्सा अपने आप में महसूस कर रहे हैं तभी तो यह पोस्ट लिख पाने में समर्थ हुए हैं.... लिखा हमने है...पढ़ना आपको है..........:)
