Translate

दर्द लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
दर्द लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, 18 मई 2013

सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (4)

                                                            
चित्र गूगल के सौजन्य से 


सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है....  मुझे दीदी कहती है...अपने मन की बात हर मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...
उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....   
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (1)    
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (2)
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (3) 

पिछले कई दिनों से सर्वर कछुए की चाल चल रहा है ... स्काइप तो और भी धीमा ..... आधी अधूरी टुकड़ों में हुई बातों को जोड़ने की कोशिश करती हूँ आज  ... सफ़लता कितनी मिलेगी इस बात की चिंता की तो लिखना मुमकिन न होगा..
सुधा जागते हुए खूबसूरत सपने देखने लगी थी...तस्वीर से रिश्ता पक्का हुआ था बस उसी तस्वीर को लेकर अपने होने वाले पति को चिट्ठियाँ लिखतीं...कभी कभी चुपके से मनपसन्द फिल्मी गीतों की कैसेट तैयार कर के रख लेती और खुद ही चुपके से सुनती.....उस वक्त का पसन्दीदा गीत आज भी उसके होंठो पर थिरकता है - 'ओ अनदेखे, ओ अंजाने , सदियाँ बीत गईं तेरा इंतज़ार किया'
एक साल से भी ऊपर हो गया था इंतज़ार करते करते कि कब धीरज आएँगें... इस बीच जितनी बार दोनों परिवारों में मिलना जुलना होता लेन देन पर नाखुश होकर धीरज के घरवाले रिश्ता तोड़ देने की धमकी दे कर जीना मुहाल कर देते...सुधा को समझ न आती कि जिसे दिल से पति मानकर खत लिखती है उससे रिश्ता तोड़ने की धमकी का क्या जवाब दे....मन ही मन सोचती कि अगर ऐसा हुआ तो वह ज़हर खाकर मर जाएगी लेकिन किसी और से शादी नहीं करेगी... हालाँकि दोनों के खत भी कहाँ प्यार मुहब्बत की बातों से भरे होते... एक छोटे से कोरे काग़ज़ पर परिवारों की ही बातें होतीं....
सुधा बार बार धीरज की चिट्ठियाँ पढ़ती जिसमें सिर्फ एक ही बात होती कि जल्दी ही मिलेंगे...मिलने पर खूब बातें करेंगे... आख़िर इंतज़ार की घड़ियाँ खत्म हुईं... धीरज दो साल बाद देश लौटा था... सुधा के घर जाने से पहले घरवालों ने बड़े आराम से उसे कहा कि अगर लड़की पसन्द न हो तो कोई बात नहीं रिश्ता तोड़ देंगे.. तस्वीर से  हुए रिश्ते को बड़े आराम से नकारने के लिए तैयार थे....शादी के बहुत बाद धीरज ने यह बात सुधा को बताई थी..
आखिरकार मिलन की घड़ी आ ही गई, धीरज अपने पूरे परिवार के साथ बैठक में बैठे थे...... सुधा का दिल इतनी तेज़ी से धड़क रहा था जैसे बाहर ही निकल आएगा...अकेले बैठ कर एक दूसरे के मन की बातें करेंगे.... मन में तो बेइंतहा बातें थीं... कहाँ से शुरु होंगी और कहाँ खत्म होगी... पिछले कमरे में बैठे हुए सुधा पता नहीं क्या क्या सोच रही थी... किचन से भाभी की आवाज़ आई, ' सुधा....इधर आओ...' भागी भागी गई तो भाभी ने उसके हाथों में  मेहमानों के लिए चाय की ट्रे  थमा दी... पैर काँप रहे थे... हाथ में ट्रे कहीं गिर न जाए इसके लिए उसे अपनी साँसों को भी रोकना मुश्किल लग रहा था .... धीरज के बड़े भैया , माँ बाऊजी , दीदी जीजाजी और उनका एक बेटा सभी एक साथ आए थे उसे देखने ... इस दौरान होने वाले ससुराल के लोगों का कई बार आना जाना हुआ था लेकिन धीरज पहली बार देखने आ रहे थे.
कोई नहीं समझ सकता उस वक्त लड़की की क्या हालत होती है जब उसकी नुमायश लगाई जाती है...लोग सर से पाँव तक जाँचते परखते हैं जैसे एक ही दिन में वे लड़की के अन्दर बाहर के सभी गुण दोष पहचान जाएँगे...एक दिन में किसी को परखना इतना आसान नहीं फिर भी सदियों से ऐसे रस्मों रिवाज़ चल रहें  हैं.. अपने देश में आज भी छोटे बड़े शहरों और गाँवों में कम ज़्यादा ऐसा हो ही रहा है.... 
चाय की ट्रे रखवा कर धीरज की दीदी ने  उसे अपने पास ही बिठा लिया... उनके बेटे की नज़रों में शरारत टपक रही थी जो अपने मामा को बार बार कुहनी मार कर कह रहा था...' देखो मामा , हमारी  मामी को' .... कहते कहते हँसने लगता..... धीरज ने एक नज़र उठा कर सुधा को देखा तो संयोग से सुधा ने भी उसी पल आँखें उठाईं... दोनों की नज़रें मिलीं लेकिन धीरज ने फौरन नज़र घुमा ली... मन ही मन सुधा सोचने लगी कि शायद वह उन्हें पसन्द नहीं आई..... अगले ही पल मन को समझाने लगी कि नहीं धीरज ऐसा नहीं कर सकते....... सोचने लगी कि अभी कोई उन दोनों को अलग कमरे में भेजने की सिफारिश करेगा लेकिन दोनों के घरवालों  ने ऐसा कुछ नहीं किया...धीरज के बड़े भैया और दीदी बहुत देर तक बाहर बातें करते रहें...कभी हाँ कभी ना के बीच में जो लिखा था वही हुआ.... एक बार फिर बात पक्की  हो गई...
धीरज से मिलने के बाद अब सुधा की माँ से इंतज़ार नहीं हो रहा था...जल्दी शादी के लिए उस पर दबाव डालने लगीं ... वह क्या जवाब देता सब कुछ परिवार वाले करेंगें कह कर सुधा के घरवालों को चुप करा देता...शादी से पहले सुधा सिर्फ एक बार धीरज से अकेले में मिलना चाहती थी और वह था कि इस बात से बेख़बर या अंजान बना रहा. सुधा के मन की बात मन में ही रह गई....मन ही मन वह जाने क्या-क्या सोचती रहती कि शायद धीरज उसे पसन्द ही नहीं करते ...शायद घरवालों के दबाव में आकर शादी कर रहे हैं .... इसी कशमकश में कई सपनों को दिल में लिए वह दुल्हन बन कर धीरज के घर आ गई..विदाई के वक्त माँ के घर से जाने का जितना दुख था उससे कहीं ज़्यादा खुशी थी अपने पिया के घर आने की.... कहने को वह दिल्ली ब्याही थी लेकिन था वह दिल्ली के साथ लगा नजफगढ़ का एक गाँव .....
गज भर के घूँघट के साथ गाँव की बाहरी सड़क से चल कर कई गलियाँ पार करके घर पहुँचना बेहद मुश्किल था लेकिन चौखट पार करते ही एक अजीब सी घुटन ने स्वागत किया हो जैसे....घूँघट की आड़ में उसे अपने पैरों तले गोबर से लीपा हुआ आँगन दिखा... कमरे में दाख़िल होते हुए बाहर एक तरफ मिट्टी का जलता हुआ चूल्हा दिखा जिस पर बड़े से पतीले में चाय उबल रही थी.... घर की कुछ औरतें आसपास बैठी सब्ज़ियाँ काट रही थीं....बस इतना ही देख पाई थी सुधा..... उसके बाद एक छोटे से कमरे के एक कोने में उसे बिठा दिया गया... गर्मी से बुरा हाल... बिजली भी आँख मिचौली खेल रही थी....जाने कौन भली बच्ची थी जो उसे हाथ का पंखा पकड़ा गई..... मन ही मन नन्हीं मुन्नी को दुआ देती हुई सुधा धीरे धीरे पंखा करने लगी .... प्यासे गले में काँटें उग आए लेकिन शर्म से पानी न माँग़ पाई ....
कुछ ही देर में धीरज और घर की कई औरतें उसे घेर कर बैठ गईं...बड़ी ननद ने सुधा का घूँघट कुछ ऊपर करते हुए उसे कहा, 'बहू.. पहले तू गाने खोल' यह सुनते ही धीरज ने पहले अपना पैर आगे बढ़ा दिया जिस पर कई गाँठों के साथ मौली बँधी थी जिसे खोलना था...गाँठें इतनी ज़्यादा और पक्की थीं कि खोलते खोलते बेहाल हो गई सुधा... पीछे से आती आवाज़ें उसे और भी ज़्यादा थका रहीं थीं...'अरे धीरज , तेरी तो मौज हो गई.. बहू तो पैरों में बिछ गई' 'बहुत अच्छा किया कि पक्की गाँठें हैं खुलने का नाम ही नहीं'
 'किस बहन ने गाँठें लगाई है'  छोटी ननद यह कह कर आँखें मिचका कर हँस दी....जैसे तैसे गाँठें खुलीं फिर दूध और पानी से भरे थाल से अँगूठी ढूँढने का खेल शुरु हुआ.... तीनों बार धीरज के हाथों लगी अँग़ूठी....'अरे अब तो सुधा तुझे कोई नहीं बचा सकता'  'बहू तो धीरज की दासी बन कर रहेगी' 'धीरज तो है ही किस्मत वाला ..देखो सारी रस्मों में जीत गया' इधर उधर से आती हुई आवाज़ों का सुधा पर कोई असर नहीं हुआ...वह तो बहुत पहले से ही धीरज के चरणों की दासी बन चुकी थी...
अब तो धीरज उसके पति परमेश्वर थे..मन ही मन उसने ठान लिया था कि पति के दिल में जगह पाने के लिए वह कुछ भी कर जाएगी...गाँव के छोटे से कच्चे घर के एक छोटे से कमरे में भी सुधा का प्यार अपने पति के लिए अटूट था....घर आए मेहमानों के सोने के बाद  सुधा और धीरज को भी सोने के लिए कमरे में भेज दिया गया...हाथ के पंखें से गर्मी दूर करने की नाक़ाम कोशिश उस पर पहली बार पति का साथ.... मुँह से उफ़ तक न निकले इसलिए मुँह में दुपट्टा ठूँस कर पड़ी रही सुधा की आँखों की कोरें भीग चुकी थी....
 'बहू... नहा धोकर तैयार हो जाओ..पहली बार चौके में हलवा तैयार करना है'  सास की तेज़ आवाज़ से डर कर सुधा गहरी नींद से उचक कर उठी...हड़बड़ाहट में जैसे तैसे नहा धोकर सुधा जल्दी से रसोईघर पहुँची...मझली जेठानी की मदद से हलवा तैयार करके मन्दिर में भोग लगाया और सबको परोसे उससे पहले ही सास ने  पहला फेरा डालने के लिए तैयार होने के लिए कहा.... धीरज आराम से बैठे नाश्ता कर रहे थे....क्या एक बार भी मन में आया होगा कि सुधा ने नाश्ता किया है या नहीं..... इसी सोच में गुम वह तैयार होने लगी....
पैदल घर से बड़ी सड़क तक बस का इंतज़ार ..... बस से रेलवे स्टेशन ..... लम्बा सफ़र भी कहाँ लम्बा था...उस वक्त तो उसे कार या ऑटो रिक्शा की भी चाहत न की थी.... पति का साथ चाहिए था बस उसे तो....ज़िन्दगी के हर मुश्किल मोड़ पर आगे चलने के लिए तैयार थी सुधा ......

क्रमश:


गुरुवार, 9 मई 2013

सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (3)

                                                                 (चित्र गूगल के सौजन्य से) 

सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है....  मुझे दीदी कहती है...अपने मन की बात हर मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...
उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....   
  सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी  (1)    
 सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (2)
सुधा से आज सुबह ही बात हो पाई... 2-3 दिन से तबियत खराब थी उसकी...उसकी तबियत खराब होने का मतलब होता है फिर घर-परिवार से जुड़ी किसी घटना ने उसे प्रभावित किया होगा.... हुआ भी यही था... शायद घर घर की कहानी है यह .... माता-पिता के जाने के बाद लड़की अपने आपको अकेला महसूस करती है और अगर उस पर भाई बहन किनारा कर लें तो अन्दर ही अन्दर वह टूट जाती है... चाहे पति और बच्चे कितना भी प्यार सम्मान दें लेकिन वह खालीपन कोई नहीं भर सकता... माँ के जाने के कुछ महीने बाद ही उस भाई ने किनारा कर लिया जिसने उसका कन्यादान किया था.... सुधा को यकीन नहीं आ रहा था कि जिस भाई भाभी ने  बेटी मानकर उसका कन्यादान किया था आज उन्होंने ही उसे भुला दिया... सुधा भीगी आँखों के साथ सुबक कर कह रही थी , 'दीदी,,,, जिसे मैं भाभीमाँ कहती थी उसने कहा, 'ननद हो... ननद बन कर रहो... बेटी बनने की कोशिश न करो' ....  दीदीईईई....माँ की बहुत याद आ रही है.... माँ को छोड़ कर भाभी के पास जाकर बैठती थी...आज दिल रोता है... काश माँ के पास कुछ देर बैठी होती.....'
 'एक मिनट दीदी...माँ पर कुछ लिखा है अभी भेजती हूँ ..... ' अचानक सुधा उठ कर अपनी डायरी उठा लाई और अपनी लिखी कविता सुनाने लगी.... सर्वर धीमा होने के कारण आवाज़ कट कट कर आ रही थी इसलिए उसे कहा कि लिख कर भेजे.... माँ और मायके का मोह और उससे बिछुड़ने का दर्द झलकता है उसके लिखे में....
"रब दी मर्ज़ी दे अगे कोई ज़ोर न 
माँ तू वी चली गईयों 
तेरे वरगा कोई होर न 
मावाँ धिया नूँ 
सौ सौ लाड लडान्दियाँ ने 
मावाँ बाजो धियाँ 
जग विच रुल जान्दियाँ ने 
पिता दा साया ताँ
बचपन विच सिर तौं उठ गया
पैकेयाँ दा जो असी मान करदे सी 
ओवी हथों छुट गया
ऐ रब्बा ! जग विच धियाँ 
बनाइयाँ क्यों.... 
जे जमिया सी ताँ 
दूजे हथ फड़ाइयाँ क्यों 
माँ पयो बाजो धियाँ जान किथे 
माँ बिना अपने दिल दिया
गलाँ सुनाण किथे...
ऐ रब्बा किसी दी वी 
कदे माँ न मरे 
माँ पयो दी कदी वी 
धियाँ होण न परे... !! 

सुधा घर में सबसे छोटी थी लेकिन लाड़ली नहीं थी किसी की... बड़े भैया जो लाड़ करते थे उन्हें घर से निकाल दिया गया तो  वे  दुनिया ही छोड़ कर चले गए ... सबसे बड़ी बहन के साथ भी  मायके वालों ने नाता तोड़ लिया था.... 'इतनी बड़ी दुनिया में कोई नहीं जो मुझे मेरे मायके से मिला दे' कहती और अन्दर ही अन्दर घुलती दिल के दौरे से चल बसी....दो भाई अपने अपने परिवार में मस्त हो गए...लाचार विधवा माँ  के जी का हाल किसी ने न  जाना......बेटे बहुओं के अधीन  बेबस  बूढ़ी माँ बेटियों को कोसती.... बेटियाँ समझ न पातीं  कि माँ अपना ठिकाना बनाए रखने के लिए ऐसा करती है.......जाने क्या क्या दर्द लेकर उसने चारपाई पकड़ ली और जल्दी ही सबसे मोह त्याग कर स्वर्ग सिधार गई.....!  
मुझे लगता है कि हर घर परिवार में कुछ न कुछ ऐसा घटता है जो भुलाए नहीं भूलता लेकिन हमेशा की तरह आज भी मेरी यही सोच है कि अगर हम अपने से ज़्यादा सताए लोगों को देखें तो अपना दर्द कम लगता है जिस कारण जीना आसान हो जाता है .... जब जब हम अपने दुख को सबसे बड़ा मानेंगे तब तब मन चंचल हो कर बेचैन होगा... दुखी होगा... रोएगा... 
बोझिल माहौल को बदलने के लिए सुधा को बीच में रोक कर पूछने लगी, ' सुधा , यह तो बताओ कि अमिताभ जया की जोड़ी कैसे बनी, किसने बनाई ? ' सुनते ही एक पल के लिए सुधा रुकी फिर बोली. 'दीदी , वैसे आप हो बहुत चालाक...बात बदलने की कला तो कोई आपसे सीखे '  कहते ही उसके चेहरे पर शर्मीली मुस्कान फैल गई... मैं चुप थी...उत्सुक थी कि वह वहीं से अपने नए जीवन की शुरुआत की कहानी कहे.... हम दोनों चाय का कप लेकर स्काइप पर फिर से आ बैठीं..... 
अक्सर दूर के रिश्तेदार किसी के घर आते जाते ध्यान से देखते हैं कि शादी लायक बच्चें हो तो बात की जाए..सुधा के साथ भी ऐसा हुआ...घर आए मेहमानों के लिए चाय लेकर गई तो वे उसे गौर से देखने लगे... 'पता नहीं उन आँटी अंकल को मुझमें क्या दिखा कि माताजी से अपने छोटे भाई के लिए मेरा हाथ माँगने लगीं.....' मेरा भाई घर का सबसे छोटा और लाड़ला बेटा है.... बहुत शरीफ़ और सेवादार .. माता-पिता का तो श्रवण कुमार है...विदेश में काम करता है लेकिन रत्ती भर भी बाहर की हवा नहीं लगी.........' आँटी बोलती जा रहीं थीं...माताजी ने बीच में उनकी बात काट कर कहा, 'फिर भी मुझे किसी बड़े बुज़ुर्ग से मिलकर बात तो करनी ही है कि वह घर देखा भाला है और  परिवार और खानदान शरीफ है... ' माताजी का इतना सुनते ही उन्होंने अपने घर आने का न्यौता दे दिया... अपने सास-ससुर से घर-परिवार और भाई की वकालत करवा कर रिश्ता पक्का कर लिया... एक दूसरे की तस्वीरें दिखा कर ही रिश्ता पक्का कर दिया गया..
+सुधा की भाभी ने बिना बात किए ही चुपचाप लड़के की तस्वीर उसके सिरहाने के नीचे रख दी  ... अगले दिन सुधा की भाभी ने शरारत भरी मुस्कान के साथ उससे पूछा, ' सुधा ... लड़का कैसा लगा?'  सुधा सवाल करती उससे पहले ही भाभी बोल उठी, ' अरे , कल सुबह ही तुम्हारे सिरहाने के नीचे एक तस्वीर रखी थी...' बोलते बोलते कमरे में आ गईं... सिरहाने के नीचे ...इधर उधर ढूँढने पर नीचे गिरी तस्वीर उठाकर सुधा के हाथ में थमा दी....भाभी की नज़र सुधा के चेहरे पर थी और सुधा की नज़र उस तस्वीर पर जड़ सी हो गई..... सपनों का राजकुमार जैसे उसी को देख कर मुस्कुरा रहा हो....उसके दिल की धड़कन बढ़ गई....चेहरा शर्म से लाल हो गया....भाभी समझ गई लेकिन फिर भी सुधा से पूछने लगी कि तस्वीर अच्छी लगी कि नहीं..... सिर झुका खड़ी सुधा ने धीरे से 'हाँ' कहा तो भाभी ने उसे अपने गले से लगा लिया...
तस्वीर लेकर भाभी तो चली गई लेकिन सुधा की तो आँखों में बस गई थी वह सूरत....खुली आँखों से सुधा सपने देखने लगी....सपनों में ऐसा ही सुन्दर वर देखती थी अपने लिए...... सपनों के सुन्दर राजकुमार के साथ उसकी शादी होगी... पहनने को नए कपड़े और गहने लेंगे....अपने पति के साथ विदेश में अपना घर  बसाएगी.......घूमने फिरने की आज़ादी होगी... सुधा जैसी हज़ारों लड़कियाँ ऐसे ही सपने देख कर जीतीं हैं....
 माता-पिता के घर में कैद सभी लड़कियों के लिए हज़ारों तरह के नियम कानून होते हैं लेकिन लड़कों को उतना ही खुला छोड़ दिया जाता है... सुधा और उसकी दो बहनों को दसवीं करवा के सिलाई कढ़ाई का कोर्स करवा दिया गया लेकिन लड़कों को कॉलेज जाने की छूट थी....अच्छी पढ़ाई लिखाई के कारण भाई अच्छी नौकरियों पर लग गए... लड़कियों को अपने पैरों पर खड़ा होना तो दूर अकेले घर से बाहर जाने की भी मनाही थी ...
समाज की ऊपरी सतह को देख कर लगता है कि सोच बदल रही है लेकिन सच तो यह है कि आज भी हम इसी  भ्रम में जी रहे हैं कि सोच बदल रही है...बदलाव हो रहा है......बदलाव हो भी रहा है तो कितना....!! 

क्रमश:

शनिवार, 4 मई 2013

सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (2)


(चित्र गूगल के सौजन्य से) 

सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है....  मुझे दीदी कहती है...अपने मन की बात हर मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...
उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....       सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी  (1) 

पिछले साल सुधा से मुलाकात दिल्ली में हुई थी... पश्चिमी दिल्ली में नया घर लिया था...नई जगह , नए पड़ोसी ...सुधा सबसे पहले मिलने आई थी.... गोल मटोल छोटे से कद की ..हँसते माथे पर बड़ी सी लाल बिन्दी चमक रही थी..  हँसती हुई अचानक सामने आ खड़ी हुई थी...'मेरा नाम सुधा है... आप... ' मैं कुछ कहती उससे पहले ही अपने आप कह उठी.... दीदी कहूँ आपको... दीदी आपको किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो तो मुझसे कहना.. ' मैं अन्दर बुलाने के लिए उसे कहती उससे पहले ही उसके बेटे ने पीछे से आवाज़ दी कि पापा का फोन आया है और वह वापिस लौट गई लेकिन उसके बाद कुछ ही दिनों में उसने अपने स्वभाव से मेरा मन जीत लिया...घंटों आकर बैठती अपने सुख दुख कहानी की कह जाती....उन्हीं दिनों उसने मुझे अपनी डायरी भी पढ़ने को दी थी और मैंने वादा किया था कि एक दिन अपने ब्लॉग़ पर उसकी कहानी ज़रूर लिखूँगी...
आजकल रियाद लौटी हूँ जहाँ वक्त कुछ ज़्यादा मेहरबान होता है सो लिखने बैठी हूँ पूरा मन बना कर.... आजकल सुधा कुवैत में है और मैं यहाँ रियाद में हूँ ... तय हुआ कि हम दोनों स्काइप पर बात करते हुए कहानी को अंजाम देंगे...
नया नया स्मार्टफोन सुधा के हाथ में है....स्काइप पर मेरे से बात करते करते अपने बेटे बहू की तस्वीर दिखा रही है जो अभी अभी उसके फोन पर आई है...बार बार एक ही बात दोहराती है सुधा कि नन्हीं प्यारी सी बहू पाकर वह धन्य हो गई.... असल में बहू नहीं बेटी मानती है उसे... कोमल की बात करते ही खुद पिघलने लगती है ..... 'मेरे घर आई एक नन्हीं परी' गीत उसे मेल करते हुए रोती भी जा रही है..आँसू प्यार के हैं ...दुलार के हैं...
कोमल को मेल मिलता है तो वह फौरन टैंगो पर आ जाती है..स्काइप पर मेरे साथ है तो फोन पर बेटे बहू के साथ ...बीच बीच में छोटे बेटे के मैसेज भी देख रही है.... बेटे बहू को देख कर तो सुधा निहाल हो जाती है.... बेटे की बलाएँ लेती है तो कभी उसे  डाँट देती है ..'मेरी बेटी को कुछ खिलाया पिलाया कर... देख  कितनी कमज़ोर हो गई है... ' ... सुधा की बात सुनकर दोनों खिलखिला उठते......उनकी खिलखिलाहट उसे बच्ची बना देते... जाने कैसी कैसी बच्चों जैसी हरकतें शुरु कर देती कि बच्चों का हँसते हँसते बुरा हाल हो जाता.....कॉलेज के लिए निकलते बच्चों को बाय बाय करती है कि छोटा बेटा दिल्ली से मैसेज कर देता है कि आलू शिमलामिर्च की सब्ज़ी कैसे बनाए....उधर वह अपने बेटे से बात करती है ... इधर स्काइप खुला छोड़ कर मैं भी अपनी किचन में चली जाती हूँ... अभी आटा गूँद कर फ्रिज  में रखती हूँ कि आवाज़ आ जाती ... 'दीदी ... मैं फ्री हो गई...आ जाओ.. ' लेकिन मुझे लगता है कि अब किचन का काम खत्म करके ही लौटूँ इसलिए सॉरी कहकर कुछ देर बाद मिलने का वादा करती हूँ .......
 लेकिन सुधा यह सुनकर एकदम ही उदास हो जाती है ...मैं मूक सी उसे देखती रह जाती हूँ...पर क्या करूँ घर के काम भी करने ज़रूरी हैं.....उधर वह अकेली ही निकल पड़ती है फिर से अपने अतीत के जंगल में ...जहाँ काँटों के सिवा कुछ नहीं मिलता उसे .. शायद उसे बार बार उन जंगलों में लहूलुहान होकर भटकना भाने लगा है..... वापिस लौटती हूँ तो फिर अपनी कहानी कहने लगती है, 'दीदी आप मेरे अकेलेपन के दर्द को नहीं समझ सकतीं.....मुझे आजतक कोई नहीं समझ पाया',  कह कर रोने लगती... मुझे समझ न आता कि कैसे उसे हौंसला दूँ....कुछ ही पल में वह खुद ही सँभल जाती.....
सात भाई बहन में सबसे छोटी थी सुधा....पैदा हुई तो माँ पिताजी में से किसी ने उसे दुलार न दिया बल्कि होश सँभलने पर यही सुनती कि पता नहीं कैसे टपक पड़ी....मासूम बचपन सब से अलग कुछ और ही सोचता... भाग भाग कर माँ पिताजी का छोटा छोटा काम करके जबरदस्ती गले लग जाती... 'माताजी..देखो, मैंने सारा काम खत्म कर दिया, मैं अच्छी हूँ न...प्यार करो न मुझे...' और झट से माँ की गोद में बैठ जाती... माँ का थोड़ा सा दुलार ही उसके लिए बहुत होता...
पिताजी को देख कर तो सबके प्राण सूख जाते.... सुधा ही नहीं सभी भाई बहन घर के एक कोने में दुबक जाते... पिताजी काम के सिलसिले में सफ़र पर निकलते तो 3-4 दिन से पहले घर न लौटते और जब लौटते तो छोटी छोटी बातों पर कपड़े धोने वाले डंडे से खूब मारते....माँ भी कम न थी, गाय-भैंस को बाँधने वाली साँकल कमर में डालकर ताला लगा कर खिड़की की रॉड से बाँध देती....
सुधा स्काइप पर बात करते करते ही हिचकियों से रोने लगी....बड़े भाई याद आ गए जो कम उम्र में ही दुनिया छोड़ गए... रुँधी आवाज़ में ही बोलती चली गई थी वह.... कई दिनों का रुका यादों का तूफान आज जैसे दर्द की नदी में सब कुछ बहा कर अपने साथ ले जा रहा हो ..... मैंने भी उसे रोकना मुनासिब न समझा....
बड़े भाई की शादी हुई .... भरे पूरे परिवार में भी दुल्हन का मन नहीं लगा.... बड़ी बहू थी घर की लेकिन एक ही झटके में सब रिश्ते तोड़ कर वापिस अपने मायके चली गई.... सूरज भैया अकेले पड़ गए... घर वालों ने उन्हें भी बोरिया-बिस्तर बाँध कर घर से निकाल दिया कि वह भी अपनी पत्नी के साथ ही रहे चाहे घर दामाद ही क्यों न बनना पड़े... सुधा के भैया थे गैरतमन्द पत्नी के पास नहीं गए.. ...जब तक किसी छोटे से ठिकाने का इंतज़ाम होता तब तक के लिए वे दफ़्तर के ही एक कोने में सो जाया करते....
सुधा लाड़ली थी अपने भैया की.... दफ़्तर के लंच टाइम में उसके सूरज भैया स्कूल के गेट के बाहर वाले बैंच पर आकर बैठ जाया करते.... सुधा भी इंतज़ार करती कि कब आधी छुट्टी होगी और वह भैया से मिलेगी......दौड़ती हुई भाई के गले लग जाती और झट से अपना लंचबॉक्स खोलकर अपने हाथों से उन्हें खिलाने लगती....जानती थी कि भाई के रहने का ठिकाना नहीं तो खाने का कहाँ होगा....छुटकी बहन के आगे घर के सबसे बड़े बेटे की एक न चलती ..... भीगी आँखों से दोनों भाई बहन एक दूसरे को देखते खुश होते....
भाई से मिलने की सज़ा भी खूब मिलती....कपड़े धोने वाले डंडे से कमर नीली कर दी जाती और बाँध दिया जाता साँकल से ताला लगा कर ...बाकि भाई बहन को धमकी दे दी जाती कि खबरदार अगर किसी ने इसे खोला या खाना दिया....बाथरूम जाने के लिए भी ताला खुलता सिर्फ खिड़की से...कमर में तो साँकल बँधी रहती ... दरवाज़े की ओट में ही फारिग़ होना पड़ता और फिर से कैदी की तरह खिड़की के पास बाँध दिया जाता....खिड़की से बाहर नीला आसमान भी उचक उचक कर देखना पड़ता..... नीले आसमान का विस्तार उसे बहुत पसन्द था लेकिन उस खिड़की से दिखता था बहुत कम .....थक कर सो जाती तो  सपने लेती पंछी बन कर दूर तक उड़ान भरने के......
तीसरे दिन सुबह सुबह सुधा को अपनी बड़ी दीदी के रोने की आवाज़ आई.... माँ से रो रोकर कह रह थी कि अब तो उससे नहीं देखा जाता... रो रोकर कहने लगी, 'मुझे भी साथ बाँध दो या खाना खिलाने दो' ....जाने क्या सोच कर माँ ने साँकल खोल दी... माँ पिताजी से मार तो सब भाई बहन ने बहुत खाई था क्योंकि मार के मामले में खुला दिल था दोनों का ....लड़का लड़की का भी कोई भेदभाव नहीं था...छोटी छोटी बात पर मार मार कर नीला कर देते...घंटों बेहोशी छाई रहती.... .बात करते करते कभी सुधा खिलखिला देती तो कभी रो पड़ती.... मैं सोचती कैसे कहूँ कि कुछ पल रुको....साँस लो..... चाय की शौकीन सुधा के सामने जैसे ही चाय का नाम लिया तो तय हुआ कि चलो एक घंटे के बाद फिर मिलेंगे......
दुबारा मिलने पर बचपन के कुछ हँसी खुशी के पल बाँटने को कहा....दीवाली दशहरे पर माँ पिताजी पूरे साल की खुशी लुटा देते..पिताजी रामलीला में एक्टर हुआ करते थे जिस कारण पास मिलते थे...सभी सबसे आगे जाकर बैठते और रामलीला का आनन्द लेते.......होता यह कि एक ही रंग और प्रिंट के थान से सभी बच्चों के एक जैसे कपड़े घर ही सिल दिए जाते... दशहरे वाले दिन सभी एक जैसे नए कपड़े पहन कर बाहर निकलते...तरह तरह की मिठाइयाँ और जलेबी खाने का मज़ा उन दिनों ही आता....
इस मस्ती के अलावा सिनेमा या सरिता पत्रिका जैसे किसी भी किताब का ज़िक्र भी होता तो खूब पिटाई होती...उन दिनों सुधा की आँखों में सपने तैरते कि कब उसकी शादी होगी...कोई सुन्दर सा राजकुमार अपने साथ ले जाएगा.... नए नए कपड़े पहन कर सिनेमा देखने जाएगी... खूब घूमेगी फिरेगी...
बस ऐसे ही कुछ छोटे छोटे सपने लेकर एक आम लड़की जीना चाहती है यह मुझे महसूस हुआ सुधा से मिलने के बाद....सदियों से चली आ रहीं पुरानी परम्पराएँ , अच्छे बुरे रीति-रिवाज़ , अन्धविश्वास और जाने कैसी कैसी विचारधाराएँ  हमारे रहन-सहन में  रच बस गईं कि उन्हें किसी के भी दिल और दिमाग से निकालना आसान नहीं....
खुशी के पल कम बयाँ होते .....घूम फिर कर सुधा फिर से उदासियों के जंगल में खींच कर ले जाती... जहाँ दुख के झाड़-खँखार ज़्यादा होते...दर्द के काँटों में उलझ कर ज़िन्दगी तार तार हो ...उधर जाने से मुझे कोफ़्त होती है.... दुख और दर्द हर किसी के जीवन में होते हैं लेकिन उनका असर कम हो इसके उपाय जुटाना ज़रूरी है न कि उन्हीं में डूब कर छोटी सी अनमोल ज़िन्दगी को बेकार कर देना.... !
फिर मिलने का वादा करके हमने सुधा से अलविदा ली ....
(कहानी सच के एक अंश से शुरु होती है लेकिन अनायास ही कल्पना के कई रंगों से सजने लगती है)

क्रमश:

बुधवार, 1 मई 2013

सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी

(चित्र गूगल के सौजन्य से)

सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है....  मुझे दीदी कहती है...अपने मन की बात हर मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...
उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....
एक दिन अचानक अपनी डायरी लेकर मेरे सामने आ खड़ी हुई... उतरी हुई सूरत... उदास खुश्क आँखें... सूखे होंठ.....मेरे हाथ में अपनी डायरी थमा दी....उसके लिखे एक एक शब्द में मुझे गहरा दर्द महसूस हुआ... 'आपने कहा था न कि अपने दर्द को शब्दों के ज़रिए बह जाने दो ...मैंने लिखना शुरु कर दिया है... बड़ी मासूमियत से पूछने लगी... 'क्या आप अपने ब्लॉग में छापेंगी..?' क्यों नहीं...मेरा इतना कहते ही चहक उठी.... 'दीदी,,,,फिर तो मैं हर रोज़ आपको कुछ न कुछ लिख कर भेजूँगी पर मेरा नाम बदल देना ...' भरोसा पाकर उसे राहत मिली...
सुधा का अतीत लिखूँ लेकिन उससे पहले उसके वर्तमान को लिखना मुझे ज़रूरी लग रहा है क्योंकि मेरे विचार में दुखों के गहरे अन्धकार के बाद ही खुशियों का खूबसूरत उजाला होता है जिसे नकारना ग़लत होगा...
आजकल सुधा अपने पति के साथ कुवैत में रहती है...फिलहाल अभी विज़िट वीज़ा पर है... दो प्यारे से बेटे हैं. बड़े बेटे की शादी हो चुकी है जो अपनी पत्नी के साथ न्यूज़ीलैंड में रहता है .. दोनों बच्चे पढ़ाई और काम साथ साथ कर रहे हैं...पैसे के लिए दोनों ने ही कभी अपने माता-पिता के आगे हाथ नहीं फैलाया.. छोटा बेटा अभी कुँवारा है जो नौकरी की तलाश में दिल्ली रहने लगा है...घर चंडीगढ़ में है....छोटा सा घर है लेकिन अपना है.....


क्रमश:



शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

मेरे बहते जज़्बात


आज सुबह सुबह पहला ब्लॉग ‘ज़ील’ खुला जिसमें पहली अप्रेल को सुधार दिवस का नाम दिया. बहुत अच्छा किया. इसी बहाने अपने अन्दर भी झाँकने का मौका मिल गया...अपने आपको गलतियों का पुतला ही मानती हूँ लेकिन कोशिश यही रहती है कि एक ही गलती दुबारा न करूँ पर भी हो ही जाती है.....
खैर दूसरा ब्लॉग़ ‘उड़नतश्तरी’ खुला. उनकी कविता की कुछ् पंक्तियों ने जैसे पुराने ज़ख्मों को ताज़ा कर दिया....शुक्र है कि शुक्र की छुट्टी होने पर भी विजय ऑफिस चले गए किसी ज़रूरी काम से... और बेटा अभी सो रहा है...बहते दर्द को रोका नहीं....बेलगाम सा, बेतरतीब सा गालों पर बहने दिया...जो मेरे ही दामन को भिगोता रहा...

दर्द, छटपटाहट, बेबसी के ज्वालामुखी में पूरा बदन पिघलने लगा... आँखें अँगारे सी जलने लगीं... कानों में बार बार कोई जैसे  पिघलता लावा डाल रहा हो... कुछ देर के बाद ही गहरी उदासी और शिथिलता ने जकड़ लिया...दिल भारी हो गया.. गले में कुछ अटकने सा लगा और उस दर्द में आँखें धुँधली होने लगी...एक दर्द का सैलाब उमड़ आया जो सँभाले नहीं सँभला...

एक मासूम से बच्चे को दर्द से जूझते हुए देख कर कैसे कह दूँ कि  ‘अपने ही कर्मों के फल का अभिशाप’ है....सिर्फ 12 साल का बच्चा जिसे बेसब्री से ‘टीन’ में जाने का जोश था...जिसे अभी किशोर जीवन की सारी मस्तियों का मज़ा लेना था... उसे एक अंजाने से दर्द ने जकड़ लिया था...
ठंडी साँस लेकर लोग कहते.....पिछले कर्मों का फल है....अपने कर्मों का फल है... इस अभिशाप को कैसे टालोगे.... यह तो भुगतना पड़ेगा....मेरा मन ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने लगता.... कैसा अगला पिछला जन्म...जो है बस यही है...यही एक जन्म है...जो दुबारा नहीं मिलेगा....सब जन्मों का हिसाब किताब बस इसी जन्म में ही हो जाता है ....

अगर ऐसा भी है तो उस अबोध बालक को क्या बतलाऊँ .... अपने किन कर्मों का अभिशाप है ये दर्द....नहीं........यह अभिशाप नहीं......जैसे माता-पिता अपने बच्चों को जानबूझ कर तकलीफ़ नहीं पहुँचाते तो फिर भगवान ऐसा क्यों करेंगे.... कोई न कोई कारण तो रहता ही होगा.....
बेटा दर्द में छटपटाते हुए पूछता – वाय मीईईई....... वाय मम्मीईई....वाय मीईईई... मैं ही क्यों ..मुझे ही क्यों यह दर्द  मिला....!!!!!
मुस्कुरा कर कहती कि अभी आकर बताती हूँ और बाथरूम जाकर खूब रोकर दिल को काबू  में करती और एक नई मुस्कान के साथ आकर उसके पास बैठ जाती......

”बेटा, क्या तुमने अपने आपको कभी आइने में देखा है..कितनी प्यारी मुस्कान है तुम्हारी...भगवान तुम्हारी इसी मुस्कान पर फिदा हो गए...तुम्हें अपना खास बेटा मान लियाजिन पर वह ज़्यादा हक मानता है उन्हें ही अपने ख़ास ख़ास कामों के लिए चुन लेता है.”

अपनी तारीफ सुनकर बेटा मुस्कुरा दिया...”मम्मी, आप बहुत चालाक हो और बातें भी खूब बनाती हो.””नहीं नहीं...सच कह रही हूँ ..सुनो कैसे... उन्हें तुम पर पूरा भरोसा है कि इस दर्द में भी तुम मुस्कुराते रहोगे... अपने दूसरे कमज़ोर बच्चों को हौंसला और हिम्मत देने के लिए तुम्हें उनके सामने खड़ा करना चाहते हैं जो छोटे छोटे दुख - दर्द से रोने लगते हैं...तुम्हें दर्द में मुस्कुराते देख कर अपना दर्द भूल जाएँगे.......”
बीच बीच में वह अपने घुटने को दबाता , दर्द को पीता हुआ मेरी बातें सुनता जाता... अपनी तारीफ सुनना किसे अच्छा नहीं लगता... मेरे रुकने पर फिर कह देता... “मम्मी यू आर क्लेवर, बहुत चालाक हो.. बातें बनाना तो आपसे कोई सीखे...”. मैं भी कहाँ रुकती...झट से कह दिया.... “अरे भगवानजी ज्यादा चालाक हैं इसी बहाने तुम्हारा टेस्ट भी ले रहे हैं कि तुम दर्द में भी मुस्कुराते रहोगे या रोना शुरु कर दोगे..”
मासूम आँखों में एक अजीब सी चमक देखी जिसने मेरे दिल पर मरहम लगा दिया..

क्रमश....   

मंगलवार, 8 जून 2010

मन ही मन वे बिखर रहे थे....!













एक था मुन्ना , एक थी नन्हीं
नट्खट मुन्ना, चंचल नन्हीं

भाई बहन में कभी न बनती
सुबह शाम झगड़े में कटती

नए नए खिलौने आते
मुन्ने को फिर भी न भाते

तोड़-फोड़ करता था मुन्ना
फिर भी था मम्मी का बन्ना

नन्हीं की थी बस इक गुड़िया
वही थी उसकी बस इक दुनिया

नन्हे हाथों से उसे सजाए
लोरी गाकर उसे सुलाए

परियों की शहज़ादी थी
अपने पापा की प्यारी थी

इक दिन मम्मी पापा में
हुई लड़ाई ज़ोर ज़ोर से

कई दिनों तक चुप्पी छाई
मुन्ना नन्ही को कभी न भाई

मुन्ना जब भी झगड़ा करता
नन्ही रूठ के रोती चिल्लाती

मम्मी पापा हरदम कहते
बार बार यही समझाते

झगड़ा करना बुरी बात है
रूठ के रोना बुरी बात है

झगड़ा करके हम गले थे लगते
मम्मी पापा क्यों ऐसा न करते

मम्मी पापा झगड़ा क्यों करते
रूठ के दोनो बात न करते

भोले बच्चे समझ न पाए
मम्मी पापा ऐसा क्यों करते

मम्मी पापा अलग हुए थे
दोनो बच्चे सहम गए थे

पापा संग गई सुबकती नन्ही
रोते मुन्ने को ले गई थी मम्मी

दोनो बच्चे बिछुड़ गए थे
मन ही मन वे बिखर गए थे.....!!


( विवाह सूत्र में बँधने से पहले अगर हम पूरी तरह से तैयार हो जाएँ और समझे कि हम समाज के एक पुण्य कर्म में हिस्सा लेने जा रहे हैं जिसे हमने बखूबी निभाना है तो मुश्किलें कम हो जाएँ.... लेकिन अक्सर उसके विपरीत होता है और समाज की जड़ें कमज़ोर होने लगती हैं)



गुरुवार, 27 सितंबर 2007

वसुधा की डायरी २



आज वैभव का पहला पेपर था 'सोशल' जो सबसे मुश्किल माना जाता है। अच्छे अच्छे होशियार बच्चे भी घबरा जाते हैं। विलास को जूते पहनाते हुए सागर का मुँह लाल हो रहा था, शायद आँसुओं को रोकने का प्रयास कर रहे थे। सागर जितने गहरे हैं, उतना ही उनमें भावनाओं का वेग भी है। लहरों जैसे उठते-गिरते भाव उनके चेहरे पर साफ़ दिखाई दे जाते हैं। वसुधा ने सागर का ध्यान खींचने के लिए कहा, 'सागर प्लीज़ , आप कार स्टार्ट कीजिए, विलास भाई का बैग लेकर आएगा।' वैभव की ओर देखकर वसुधा का दिल छलनी हो रहा था जो नई बैसाखियों के सहारे चलने का प्रयास कर रहा था। छोटा बेटा विलास वैभव से चार साल छोटा था लेकिन भाई के दर्द ने उसे बड़ा बना दिया। हर सुबह स्कूल के लिए अपने आप तैयार होना, अपनी और भाई की पानी की बोतल भर कर बैग में रखना , फिर भाई को यूनिफॉर्म पहनाने में मदद करना और दोनों के बैग लेकर कार में बैठ जाना, स्कूल पहुँचते ही वैभव की क्लास में उसका बैग रखकर अपनी क्लास की ओर भागना , उसकी दिनचर्या बन गई थी ।
वैभव धीरे-धीरे चलते हुए बाहर निकला । आज शायद ज़्यादा ही दर्द थी , मानसिक तनाव भी दर्द बढ़ा देता है लेकिन अभी कुछ कहना मुनासिब न समझकर वसुधा कार में जा बैठी। सभी स्कूल के लिए रवाना हुए । विशेष अनुमति लेकर वसुधा ने वैभव को मेडिकल रूम में पेपर देने के लिए बिठाना था । सागर ने कार को मेडिकल रूम के ठीक साथ सटा कर खड़ा किया और वैभव को उतरने में मदद करनी चाही पर वसुधा ने आँखों ही आँखों में इशारे से मना कर दिया। वसुधा नहीं चाहती थी कि बेटे को सहानुभूति दिखा कर कमज़ोर बनाया जाए। वैभव ने खुद ही निर्णय लिया था कि उसे दसवीं बोर्ड की परीक्षा में बैठने दिया जाए।
कई दिनों तक वसुधा और वैभव बैठ कर रोए थे , एक दूसरे पर गुस्सा उतारा था। कई दिनों तक वैभव का एक ही प्रश्न होता था , " वाय मी, मम्मी, वाय डिड गॉड गेव मी दिस पेन?" कई दिनों तक वसुधा इस प्रश्न का जवाब न दे पाई थी । सच में उसे भी लगता था कि उसने या सागर ने कभी किसी का बुरा नहीं चाहा या बुरा नहीं किया फिर क्यों बेटे को यह दर्द मिला। जब कोई उत्तर नहीं मिलता तो हम ईश्वर की शरण में जाते हैं। वसुधा भी छिपकर उस अदृश्य शक्ति को याद करके बहुत रोई थी। वसुधा अपने को
संयत करके वैभव के कमरे में पहुँचीं। "वैभव , सोशल का पेपर कैसा हुआ ? " वसुधा के पूछने पर वैभव झुंझलाते हुए बोला, "प्लीज़ मम्मी , मत पूछो , पास तो हो जाऊँगा , विश्वास है मुझे।" वसुधा ने वैभव की ही बात पकड़ कर कहा, " फिर तुम्हें अपने आप पर विश्वास क्यों नहीं कि तुम दर्द को सहजता से ले सकते हो ।" वैभव की आँखों में आँसू छलक आए, किसी भी तरह से वह यह बात नहीं समझ पा रहा था कि उसे दर्द क्यों मिला।
वसुधा ने वैभव के हाथ अपने हाथ में लेकर बड़े प्यार से बेटे को देखा । कितना सुन्दर, खिला हुआ मुस्कराता चेहरा , कोई सोच भी नहीं सकता कि वैभव के पूरे शरीर में २४ घंटे दर्द खून में दौड़ता रहता है। दर्द से शरीर के सभी जोड़ जकड़ जाते हैं लेकिन किसी को गुमान भी नहीं होता। वसुधा के अलावा किसी ने वैभव को रोते नहीं देखा। वसुधा बेटे के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोली , "तुम्हें पता है , तुम भगवान के सबसे प्यारे बच्चे हो, भगवान ने तुम्हें अपना मैसेन्जर बना लिया है।" वैभव की आँखों में जिज्ञासा जाग उठी। "वो कैसे?", वैभव के पूछने पर वसुधा बोली, " दर्द में भी तुम सबके सामने मुस्कराते हुए जाओगे, यह विश्वास भगवान को था। उसके दूसरे बच्चे जो दर्द में रोते हैं, उन्हें दिखाने के लिए कि देखो मेरा सबसे प्यारा बेटा कितने दर्द में है, फिर भी मुस्कुराता हुआ ज़िन्दगी को ज़िन्दादिली से जी रहा है।" वसुधा की बात सुनकर वैभव के चेहरे पर प्यारी सी मुस्कान लौट आई। हार मान कर बोल उठा 'मम्मी, रीयली यू ऑर कलेवर इन टॉकस, बातें बनाना आपको बहुत अच्छा आता है।" वसुधा ने संजीदा होते हुए कहा, " सच कह रही हूँ । सिवा मेरे किसी ने भी तुम्हें रोते नहीं देखा। आइना देखो, वह तो झूठ नहीं बोलेगा। तुम्हारे चेहरे को देखकर कोई सोच भी नहीं सकता कि तुम्हें इतना दर्द है।" दोनो ने एक दूसरे से वादा किया कि न रोएँगें, न रोने देगें।
इस बातचीत के बाद से घर का बोझिल वातावरण फिर से दुबारा नॉर्मल होने लगा। बेटे की प्यारी मुस्कान ने टूटती वसुधा को संबल देकर फिर से खड़ा कर दिया था। बहुत दिनों बाद आज वसुधा स्कूल में वही पुरानी चुलबुली शरारतों से सबको छेड़ती हुई स्टाफरूम में बैठी खिलखिला कर हँस रही थी। उसके दिल से जैसे बहुत बड़ा बोझ उतर गया था। उसे विश्वास था कि उसका बेटा हिम्मत वाला है । इस बात पर उसे और भी यकीन हो गया जब उर्दू के टीचर मीर साहब गीली आँखों को पोंछते हुए वसुधा के पास आकर बोले, " मैडम, आपके बेटे में गज़ब की ताक़त है, उसे बैसाखी से चढ़ते-उतरते देखकर मैं ख़ुद की रफ़्तार कम कर देता हूँ, सच मानिए, बड़ी तकलीफ़ होती है पर बच्चा जब मुस्कराता हुआ सलाम करता है तो दिल से दुआ निकलती है। अल्लाह पाक उसे सेहत बख़्शे।" "शुक्रिया मीर साहब, आपकी दुआ का ही असर है जो वह हिम्मत से चल रहा है , हमेशा दुआ में याद रखिए। " यह कह कर वसुधा आगे बढ़ गई।

क्रमशः

वसुधा की डायरी


वसुधा ने आज निश्चय कर लिया था कि जो भी मन में भाव उठ रहे हैं , उन्हें भाप बन कर उड़ने न देगी । जैसे लहरें चट्टानों से टकराती शोर कर रहीं हों, सागर के खर्राटें सुनाई दे रहे थे और वसुधा की नींद उससे दूर भाग रही थी। सोच रही थी कि सुबह चार बजे उठकर सागर को शारजाह एयरपोर्ट छोड़ने जाना है फिर बेटे वैभव को भी कॉलेज छोड़ना है। ड्राइवर को बुलाया तो है लेकिन वसुधा को लग रहा था कि इस बार भी ड्राइवर हर बार की तरह अधिक पैसे माँगेंगा। उसने मन में सोचा कि क्यों न खुद ही छोड़ना-लाना शुरु कर दे, जो पैसा बचेगा , उससे वैभव की दवाई आ सकती है। वैभव जो कैमिस्ट से पूछ कर ही दवा खरीदता है कि सॉल्ट सेम होने पर सस्ती कम्पनी की दवा से भी गुज़ारा किया जा सकता है , लेकिन दूसरी तरफ वसुधा बेटे का दर्द ज़्यादा होने पर मँहगीं कम्पनी की दवा खरीद लाती है।
वसुधा जब नौकरी करती थी तब भी उसे कभी नहीं लगता था कि 'हाउस वाइफ' अपनी इच्छा से अपनी ज़िन्दगी बिता सकती है। उसने हमेशा घर में रहने वाली औरतों की तारीफ़ ही की , क्योंकि उसे लगता था कि जो औरत बाहर काम करती है , उसे उतने समय तक घर के काम से छुट्टी मिल सकती है लेकिन जो औरत हमेशा से घर-गृहस्थी के काम में लगी रहती है वह सचमुच महान् है।  सुबह उठते ही नाश्ता बनाकर विलास को स्कूल के लिए रवाना करके खुद थोड़ी देर के लिए 'जिम' जाती है। वापिस आकर नाश्ता करते-करते अखबार पढ़ना उसे बहुत अच्छा लगता है , वैभव को उठाने के लिए उसे उसका मन-पसंद संगीत लगाना पड़ता है। वैभव ने ही उसे बताया था कि कुछ देशों में रोगियों के इलाज के लिए 'म्यूज़िक थेरेपी' का प्रयोग किया जाता है। वसुधा तब से ही अलग-अलग देशों के सुगम संगीत का पिटारा अपने पास रखती है।

कभी-कभी यादों का सैलाब आता है और हमें दूर तक बहा कर ले जाता है। कोई किनारा नहीं दिखता बस हम बिना हाथ-पैर मारे बहाव से बहे चले जाते हैं । वसुधा को याद आ रहा था जब १५ साल के बेटे को पहली बार बैसाखियाँ लाकर दीं । कलेजा मुँह को आने लगा था। सागर का दिल तो जैसे ताश के पत्तों का घर जैसा धराशायी हो गया। वसुधा बाथरूम में गई , आँसुओं को रोकने में दिल में टीस उठी तो आँखों में और जलन होने लगी। गले में जैसे कोई फाँस चुभ गई हो। मुहँ धोकर वसुधा मुस्कराती बाहर निकल कर वैभव के कमरे में गई और बड़े सहज भाव से उसे कहा, ' वैभव बेटा , धीरे-धीरे बैसाखी के सहारे चलने की कोशिश करो' 'मम्मी , नहीं चला जाता, अभी दर्द बहुत है।' वैभव के कहने पर मैंने उसे पढ़ने के लिए कहा क्योंकि अगले ही दिन दसवीं के बोर्ड का पहला पेपर था। अपने दर्द को छिपा कर बेटे के दर्द को नज़रअन्दाज़ किया । यह ज़रूरी भी था क्योंकि दर्द को साथी बना कर जीना पड़ेगा। दो साल भटकने के बाद साउदी डाक्टर रीमोटोलिजस्ट ने डाएग्नोज़ किया था कि वैभव को जुवेनाइल रीमोटाइड अर्थराइटस है। यह सुनकर वसुधा और सागर के पैरों तले ज़मीन खिसक गई थी। ऐसा कैसे हो सकता है। परिवार में दूर-दूर तक किसी सदस्य को यह बीमारी नहीं थी फिर वैभव को ही क्यों ।


क्रमशः

सोमवार, 24 सितंबर 2007

चक्रव्यूह

१५० कि०मी० की ड्राइव ने मुझे पस्त कर दिया था लेकिन पतिदेव के फोन आते ही कि वे दमाम ठीक-ठाक पहुँच गए हैं, मैंने चैन की साँस ली और सोने चली गई । दो घंटे की नींद ने मुझे नई शक्ति दे दी थी । उठने के बाद घर का काम खत्म करके कुछ लिखने बैठी लेकिन दिमाग जैसे कुछ काम नहीं कर रहा था , कल करने वाले कामों की लिस्ट तैयार थी । "मम्मी, थोड़ी देर के लिए सब भूल कर अपनी दुनिया में चली जाइए, आप फ्रेश हो जाएँगीं" बेटा अपने 'लेपटॉप' से नज़र हटा कर मेरी तरफ देखकर बोला। सोचा कि यादों के झरोकों से ही कुछ लिखकर मन हल्का कर लूँ । बात उन दिनों की है जब बेटे को दर्द तो हो रहा था लेकिन डाक्टर समझ नहीं पा रहे थे कि रोग क्या है। दो साल के दौरान की पीड़ा , छटपटाहट मुझे अन्दर ही अन्दर तोड़ रही थी , मैं एक ऐसे चक्रव्यूह में फँस गई थी कि मुझे समझ नहीं आ रहा था कि किस तरह से इस चक्रव्यूह से निकल पाऊँगीं ।

 जीवन के चक्रव्यूह में हम फँसें 
भूले कि अब हम कैसे हँसें । 
मन में धुँआ ही धुँआ उठे 
और साँसों का भी दम घुटे । 
मुस्कान की रेखा मुख पर खिंचे 
यह भाव मुझे कभी न मिले । 
जीवन जो काँटों जैसा चुभे 
तन-मन का भी आँचल फटे। 
कटे कैसे जिस जाल हम फँसे
 छटपटाते रोएँ, न कभी हँसे। 
तन पिंजरे में मन-पंछी जो रहे 
बस उड़ने की वह इच्छा करे। 
कठिन क्षण आसान कैसे बनें 
इच्छा है चक्रव्यूह से निकल चलें।।