चित्र गूगल के सौजन्य से
सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है.... मुझे दीदी कहती है...अपने मन की बात हर मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...
उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (1)
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (2)
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (3)
पिछले कई दिनों से सर्वर कछुए की चाल चल रहा है ... स्काइप तो और भी धीमा ..... आधी अधूरी टुकड़ों में हुई बातों को जोड़ने की कोशिश करती हूँ आज ... सफ़लता कितनी मिलेगी इस बात की चिंता की तो लिखना मुमकिन न होगा..
सुधा जागते हुए खूबसूरत सपने देखने लगी थी...तस्वीर से रिश्ता पक्का हुआ था बस उसी तस्वीर को लेकर अपने होने वाले पति को चिट्ठियाँ लिखतीं...कभी कभी चुपके से मनपसन्द फिल्मी गीतों की कैसेट तैयार कर के रख लेती और खुद ही चुपके से सुनती.....उस वक्त का पसन्दीदा गीत आज भी उसके होंठो पर थिरकता है - 'ओ अनदेखे, ओ अंजाने , सदियाँ बीत गईं तेरा इंतज़ार किया'
एक साल से भी ऊपर हो गया था इंतज़ार करते करते कि कब धीरज आएँगें... इस बीच जितनी बार दोनों परिवारों में मिलना जुलना होता लेन देन पर नाखुश होकर धीरज के घरवाले रिश्ता तोड़ देने की धमकी दे कर जीना मुहाल कर देते...सुधा को समझ न आती कि जिसे दिल से पति मानकर खत लिखती है उससे रिश्ता तोड़ने की धमकी का क्या जवाब दे....मन ही मन सोचती कि अगर ऐसा हुआ तो वह ज़हर खाकर मर जाएगी लेकिन किसी और से शादी नहीं करेगी... हालाँकि दोनों के खत भी कहाँ प्यार मुहब्बत की बातों से भरे होते... एक छोटे से कोरे काग़ज़ पर परिवारों की ही बातें होतीं....
सुधा बार बार धीरज की चिट्ठियाँ पढ़ती जिसमें सिर्फ एक ही बात होती कि जल्दी ही मिलेंगे...मिलने पर खूब बातें करेंगे... आख़िर इंतज़ार की घड़ियाँ खत्म हुईं... धीरज दो साल बाद देश लौटा था... सुधा के घर जाने से पहले घरवालों ने बड़े आराम से उसे कहा कि अगर लड़की पसन्द न हो तो कोई बात नहीं रिश्ता तोड़ देंगे.. तस्वीर से हुए रिश्ते को बड़े आराम से नकारने के लिए तैयार थे....शादी के बहुत बाद धीरज ने यह बात सुधा को बताई थी..
आखिरकार मिलन की घड़ी आ ही गई, धीरज अपने पूरे परिवार के साथ बैठक में बैठे थे...... सुधा का दिल इतनी तेज़ी से धड़क रहा था जैसे बाहर ही निकल आएगा...अकेले बैठ कर एक दूसरे के मन की बातें करेंगे.... मन में तो बेइंतहा बातें थीं... कहाँ से शुरु होंगी और कहाँ खत्म होगी... पिछले कमरे में बैठे हुए सुधा पता नहीं क्या क्या सोच रही थी... किचन से भाभी की आवाज़ आई, ' सुधा....इधर आओ...' भागी भागी गई तो भाभी ने उसके हाथों में मेहमानों के लिए चाय की ट्रे थमा दी... पैर काँप रहे थे... हाथ में ट्रे कहीं गिर न जाए इसके लिए उसे अपनी साँसों को भी रोकना मुश्किल लग रहा था .... धीरज के बड़े भैया , माँ बाऊजी , दीदी जीजाजी और उनका एक बेटा सभी एक साथ आए थे उसे देखने ... इस दौरान होने वाले ससुराल के लोगों का कई बार आना जाना हुआ था लेकिन धीरज पहली बार देखने आ रहे थे.
कोई नहीं समझ सकता उस वक्त लड़की की क्या हालत होती है जब उसकी नुमायश लगाई जाती है...लोग सर से पाँव तक जाँचते परखते हैं जैसे एक ही दिन में वे लड़की के अन्दर बाहर के सभी गुण दोष पहचान जाएँगे...एक दिन में किसी को परखना इतना आसान नहीं फिर भी सदियों से ऐसे रस्मों रिवाज़ चल रहें हैं.. अपने देश में आज भी छोटे बड़े शहरों और गाँवों में कम ज़्यादा ऐसा हो ही रहा है....
चाय की ट्रे रखवा कर धीरज की दीदी ने उसे अपने पास ही बिठा लिया... उनके बेटे की नज़रों में शरारत टपक रही थी जो अपने मामा को बार बार कुहनी मार कर कह रहा था...' देखो मामा , हमारी मामी को' .... कहते कहते हँसने लगता..... धीरज ने एक नज़र उठा कर सुधा को देखा तो संयोग से सुधा ने भी उसी पल आँखें उठाईं... दोनों की नज़रें मिलीं लेकिन धीरज ने फौरन नज़र घुमा ली... मन ही मन सुधा सोचने लगी कि शायद वह उन्हें पसन्द नहीं आई..... अगले ही पल मन को समझाने लगी कि नहीं धीरज ऐसा नहीं कर सकते....... सोचने लगी कि अभी कोई उन दोनों को अलग कमरे में भेजने की सिफारिश करेगा लेकिन दोनों के घरवालों ने ऐसा कुछ नहीं किया...धीरज के बड़े भैया और दीदी बहुत देर तक बाहर बातें करते रहें...कभी हाँ कभी ना के बीच में जो लिखा था वही हुआ.... एक बार फिर बात पक्की हो गई...
धीरज से मिलने के बाद अब सुधा की माँ से इंतज़ार नहीं हो रहा था...जल्दी शादी के लिए उस पर दबाव डालने लगीं ... वह क्या जवाब देता सब कुछ परिवार वाले करेंगें कह कर सुधा के घरवालों को चुप करा देता...शादी से पहले सुधा सिर्फ एक बार धीरज से अकेले में मिलना चाहती थी और वह था कि इस बात से बेख़बर या अंजान बना रहा. सुधा के मन की बात मन में ही रह गई....मन ही मन वह जाने क्या-क्या सोचती रहती कि शायद धीरज उसे पसन्द ही नहीं करते ...शायद घरवालों के दबाव में आकर शादी कर रहे हैं .... इसी कशमकश में कई सपनों को दिल में लिए वह दुल्हन बन कर धीरज के घर आ गई..विदाई के वक्त माँ के घर से जाने का जितना दुख था उससे कहीं ज़्यादा खुशी थी अपने पिया के घर आने की.... कहने को वह दिल्ली ब्याही थी लेकिन था वह दिल्ली के साथ लगा नजफगढ़ का एक गाँव .....
गज भर के घूँघट के साथ गाँव की बाहरी सड़क से चल कर कई गलियाँ पार करके घर पहुँचना बेहद मुश्किल था लेकिन चौखट पार करते ही एक अजीब सी घुटन ने स्वागत किया हो जैसे....घूँघट की आड़ में उसे अपने पैरों तले गोबर से लीपा हुआ आँगन दिखा... कमरे में दाख़िल होते हुए बाहर एक तरफ मिट्टी का जलता हुआ चूल्हा दिखा जिस पर बड़े से पतीले में चाय उबल रही थी.... घर की कुछ औरतें आसपास बैठी सब्ज़ियाँ काट रही थीं....बस इतना ही देख पाई थी सुधा..... उसके बाद एक छोटे से कमरे के एक कोने में उसे बिठा दिया गया... गर्मी से बुरा हाल... बिजली भी आँख मिचौली खेल रही थी....जाने कौन भली बच्ची थी जो उसे हाथ का पंखा पकड़ा गई..... मन ही मन नन्हीं मुन्नी को दुआ देती हुई सुधा धीरे धीरे पंखा करने लगी .... प्यासे गले में काँटें उग आए लेकिन शर्म से पानी न माँग़ पाई ....
कुछ ही देर में धीरज और घर की कई औरतें उसे घेर कर बैठ गईं...बड़ी ननद ने सुधा का घूँघट कुछ ऊपर करते हुए उसे कहा, 'बहू.. पहले तू गाने खोल' यह सुनते ही धीरज ने पहले अपना पैर आगे बढ़ा दिया जिस पर कई गाँठों के साथ मौली बँधी थी जिसे खोलना था...गाँठें इतनी ज़्यादा और पक्की थीं कि खोलते खोलते बेहाल हो गई सुधा... पीछे से आती आवाज़ें उसे और भी ज़्यादा थका रहीं थीं...'अरे धीरज , तेरी तो मौज हो गई.. बहू तो पैरों में बिछ गई' 'बहुत अच्छा किया कि पक्की गाँठें हैं खुलने का नाम ही नहीं'
'किस बहन ने गाँठें लगाई है' छोटी ननद यह कह कर आँखें मिचका कर हँस दी....जैसे तैसे गाँठें खुलीं फिर दूध और पानी से भरे थाल से अँगूठी ढूँढने का खेल शुरु हुआ.... तीनों बार धीरज के हाथों लगी अँग़ूठी....'अरे अब तो सुधा तुझे कोई नहीं बचा सकता' 'बहू तो धीरज की दासी बन कर रहेगी' 'धीरज तो है ही किस्मत वाला ..देखो सारी रस्मों में जीत गया' इधर उधर से आती हुई आवाज़ों का सुधा पर कोई असर नहीं हुआ...वह तो बहुत पहले से ही धीरज के चरणों की दासी बन चुकी थी...
अब तो धीरज उसके पति परमेश्वर थे..मन ही मन उसने ठान लिया था कि पति के दिल में जगह पाने के लिए वह कुछ भी कर जाएगी...गाँव के छोटे से कच्चे घर के एक छोटे से कमरे में भी सुधा का प्यार अपने पति के लिए अटूट था....घर आए मेहमानों के सोने के बाद सुधा और धीरज को भी सोने के लिए कमरे में भेज दिया गया...हाथ के पंखें से गर्मी दूर करने की नाक़ाम कोशिश उस पर पहली बार पति का साथ.... मुँह से उफ़ तक न निकले इसलिए मुँह में दुपट्टा ठूँस कर पड़ी रही सुधा की आँखों की कोरें भीग चुकी थी....
'बहू... नहा धोकर तैयार हो जाओ..पहली बार चौके में हलवा तैयार करना है' सास की तेज़ आवाज़ से डर कर सुधा गहरी नींद से उचक कर उठी...हड़बड़ाहट में जैसे तैसे नहा धोकर सुधा जल्दी से रसोईघर पहुँची...मझली जेठानी की मदद से हलवा तैयार करके मन्दिर में भोग लगाया और सबको परोसे उससे पहले ही सास ने पहला फेरा डालने के लिए तैयार होने के लिए कहा.... धीरज आराम से बैठे नाश्ता कर रहे थे....क्या एक बार भी मन में आया होगा कि सुधा ने नाश्ता किया है या नहीं..... इसी सोच में गुम वह तैयार होने लगी....
पैदल घर से बड़ी सड़क तक बस का इंतज़ार ..... बस से रेलवे स्टेशन ..... लम्बा सफ़र भी कहाँ लम्बा था...उस वक्त तो उसे कार या ऑटो रिक्शा की भी चाहत न की थी.... पति का साथ चाहिए था बस उसे तो....ज़िन्दगी के हर मुश्किल मोड़ पर आगे चलने के लिए तैयार थी सुधा ......
क्रमश:





