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रविवार, 30 सितंबर 2007

ऐसी शक्ति मिले !

ख़ूने आँसू बहेँ तब भी आँखेँ हँसेँ तो क्या कहना
ज़हर पीते रहेँ, मुस्कराते रहेँ तो क्या कहना ..
ऐसी शक्ति मिले तो क्या कहना !
साँस घुटने लगे ज़िन्दगी चलती रहे तो क्या कहना
हवा चलती रहे , दीप जलते रहेँ तो क्या कहना ...
ऐसी शक्ति मिले तो क्या कहना !
जीवन पथ मेँ अँगारे सजेँ, पग-पग मेँ कंटक जाल बिछेँ
लथपथ लहू से, पग बढ़ते रहेँ तो क्या कहना ....
ऐसी शक्ति मिले तो क्या कहना !

शनिवार, 29 सितंबर 2007

वसुधा की डायरी ३



जब काले बादल मँडराते हैं , बिजली चमकती है , बादलों की गर्जना से धरती हिलने लगती है , जीवन में ऐसी स्थिति आने पर लगता है जैसे बिखरने में पल भी नहीं लगेगा लेकिन वही एक पल है जब अपने आप को बिखरने से बचाना है । काले बादलों में चमकती, कड़कती बिजली को आशा की किरण मानकर तूफ़ान से निकलना ही अन्दर की ताकत है । कहना आसान है लेकिन करना उतना ही कठिन पर कुछ उक्तियाँ बिल्कुल सही हैं । 'नो पेन, नो गेन' या 'जहाँ चाह है , वहाँ राह है' जीवन प्रकृति का एक सुन्दर कोना भी है , सुन्दर रंग-बिरंगे खिलते फूलों के साथ काँटे भी हैं, झाड़-झँखार भी हैं। बोर्ड के पेपर खत्म हो चके थे और अब रिज़ल्ट का इन्तज़ार था। यही सोचते हुए वसुधा ने देखा सामने से वैभव चला आ रहा है, 'मम्मी, क्या हुआ, क्या सोच रही हो?' वैभव के पूछने पर वसुधा ने चेहरे के भाव बदल कर कहा, ' सोच रही हूँ कि शाम के लिए क्या ,,,, बीच में ही वसुधा की बात काटते हुए बेटा बोल उठा, 'बात को बदलिए नहीं , आपका चेहरा ही बता रहा है कि मन में कुछ उथल-पुथल चल रही है।' 'कुछ नहीं बेटा, कुछ भी तो नहीं' नज़रे चुराते हुए वसुधा बात को बदलना चाहती थी लेकिन वैभव समझ रहा था कि कोई बात है जो माँ को अन्दर ही अन्दर खाए जा रही है। 'आप मेरे लिए परेशान हैं या कोई और बात है, बताइए ना,,, ' वैभव के ज़ोर देने पर वसुधा को कहना पड़ा कि सागर को लेकर वह परेशान है । 'तुम बच्चों के लिए कुछ ज़्यादा ही भावुक हैं तुम्हारे पापा' वसुधा के कहते ही वैभव हँस कर बोला, 'मॉम, आप की वाक-पटुता ने मुझ जैसे लँगड़दीन को भगवान का फेवरेट चाइल्ड बना कर सीधा कर दिया तो पापा को समझाना आपके लिए कोई मुश्किल नहीं होगा।' वसुधा के कंधों को पीछे से दबाते हुए बोला, ' मम्मी, दर्द तो अब मेरा साथी है, धीरे-धीरे बैसाखियों के साथ रहने की भी आदत पड़ जाएगी। ' वसुधा अन्दर ही अन्दर अपने आँसू पी रही थी लेकिन होठों पर मुस्कान थी ।
रात के खाने पर डाइनिंग टेबल पर खाना खाते वक्त विलास वैभव से पूछने लगा कि फिज़िक्स लैब के बाहर खड़े होकर वैभव लैब असिसटेंट से क्या बातें कर रहा था । पूछने पर वैभव खिलखिला कर हँस पड़ा । सागर और वसुधा भी उत्सुक हो उठे। वैभव बताने लगा कि अहमद सर ने पूछा कि जब क्लास के सारे बच्चे फुटबॉल खेलते हैं तो उसका दिल नहीं करता कि वह भी उनके साथ खेले? उनके पूछने पर मैंने जवाब दिया कि नहीं, खेल ही नहीं सकता तो क्यों सोचे। जो वो कर रहे हैं , मैं नहीं कर सकता लेकिन जो कुछ मैं कर सकता हूँ वो नहीं कर सकते। भगवान कुछ लेता है तो कुछ देता भी है, मेरी यह बात सुनकर सर कहने लगे, 'मान गए उस्ताद, वाह क्या बात कह दी'।'
वसुधा ने अनुभव किया कि वैभव ने दर्द के साथ धीरे-धीरे रिश्ता जोड़ लिया है । बहुत दिनों बाद वसुधा ने घर में वही पुराना मस्ती भरा माहौल देखा। सच में जीने का मज़ा ज़िन्दादिली में है। वसुधा के परिवार ने सीख लिया कि जीवन में आने वाली सभी बाधाओं के साथ , मिलने वाली हार के साथ ही चलना है , चलना ही नहीं है , दौड़ना है। हेलन केलर के अनुसार सूरज की तरफ अपना चेहरा रखो और तुम छाया नहीं देख पाओगे। वसुधा सोच रही थी कि गहन अंधकार में डूबने का अनुभव न हो तो सूरज का प्रकाश अर्थहीन हो जाता है। जीने का आनन्द लेना है तो सुखों के साथ दुखों का भी स्वागत करना होगा।

शुक्रवार, 28 सितंबर 2007

वासन्ती वैभव


वात्सल्यमयी वसुधा का वासंती वैभव निहार
गगन प्यारा विस्मयविमुग्ध हो उठा।
धानी आँचल में छिपे रूप लावण्य को
आँखों में भर कर बेसुध हो उठा।

सकुचाई शरमाई पीले परिधान में
नवयौवना का तन-मन जैसे खिल उठा।
गालों पर छाई रंग-बिरंगे फूलों की आभा
माथे पर स्वेदकण हिमहीरक सा चमक उठा।

चंचल चपला सी निकल गगन की बाँहों से
भागी तो रुनझुन पायल का स्वर झनक उठा।
दिशाएँ बहकीं मधुर संगीत की स्वरलहरी से
मदमस्त गगन का अट्ठहास भी गूंज उठा।

महके वासंती यौवन का सुधा-रस पीने को
आकुल व्याकुल प्यासा सागर भी मचल उठा।
चंदा भी निकला संग में लेके चमकते तारों को
रूप वासंती अम्बर का नीली आभा से दमक उठा।

कैसे रोकूँ वसुधा के
जाते वासंती यौवन को
मृगतृष्णा सा सपना सुहाना
सूरज का भी जाग उठा
पर बाँध न पाया रोक न पाया
कोई जाते यौवन को
फिर से आने का स्वर किन्तु
दिशाओं में गूंज उठा ।।

गुरुवार, 27 सितंबर 2007

वसुधा की डायरी २



आज वैभव का पहला पेपर था 'सोशल' जो सबसे मुश्किल माना जाता है। अच्छे अच्छे होशियार बच्चे भी घबरा जाते हैं। विलास को जूते पहनाते हुए सागर का मुँह लाल हो रहा था, शायद आँसुओं को रोकने का प्रयास कर रहे थे। सागर जितने गहरे हैं, उतना ही उनमें भावनाओं का वेग भी है। लहरों जैसे उठते-गिरते भाव उनके चेहरे पर साफ़ दिखाई दे जाते हैं। वसुधा ने सागर का ध्यान खींचने के लिए कहा, 'सागर प्लीज़ , आप कार स्टार्ट कीजिए, विलास भाई का बैग लेकर आएगा।' वैभव की ओर देखकर वसुधा का दिल छलनी हो रहा था जो नई बैसाखियों के सहारे चलने का प्रयास कर रहा था। छोटा बेटा विलास वैभव से चार साल छोटा था लेकिन भाई के दर्द ने उसे बड़ा बना दिया। हर सुबह स्कूल के लिए अपने आप तैयार होना, अपनी और भाई की पानी की बोतल भर कर बैग में रखना , फिर भाई को यूनिफॉर्म पहनाने में मदद करना और दोनों के बैग लेकर कार में बैठ जाना, स्कूल पहुँचते ही वैभव की क्लास में उसका बैग रखकर अपनी क्लास की ओर भागना , उसकी दिनचर्या बन गई थी ।
वैभव धीरे-धीरे चलते हुए बाहर निकला । आज शायद ज़्यादा ही दर्द थी , मानसिक तनाव भी दर्द बढ़ा देता है लेकिन अभी कुछ कहना मुनासिब न समझकर वसुधा कार में जा बैठी। सभी स्कूल के लिए रवाना हुए । विशेष अनुमति लेकर वसुधा ने वैभव को मेडिकल रूम में पेपर देने के लिए बिठाना था । सागर ने कार को मेडिकल रूम के ठीक साथ सटा कर खड़ा किया और वैभव को उतरने में मदद करनी चाही पर वसुधा ने आँखों ही आँखों में इशारे से मना कर दिया। वसुधा नहीं चाहती थी कि बेटे को सहानुभूति दिखा कर कमज़ोर बनाया जाए। वैभव ने खुद ही निर्णय लिया था कि उसे दसवीं बोर्ड की परीक्षा में बैठने दिया जाए।
कई दिनों तक वसुधा और वैभव बैठ कर रोए थे , एक दूसरे पर गुस्सा उतारा था। कई दिनों तक वैभव का एक ही प्रश्न होता था , " वाय मी, मम्मी, वाय डिड गॉड गेव मी दिस पेन?" कई दिनों तक वसुधा इस प्रश्न का जवाब न दे पाई थी । सच में उसे भी लगता था कि उसने या सागर ने कभी किसी का बुरा नहीं चाहा या बुरा नहीं किया फिर क्यों बेटे को यह दर्द मिला। जब कोई उत्तर नहीं मिलता तो हम ईश्वर की शरण में जाते हैं। वसुधा भी छिपकर उस अदृश्य शक्ति को याद करके बहुत रोई थी। वसुधा अपने को
संयत करके वैभव के कमरे में पहुँचीं। "वैभव , सोशल का पेपर कैसा हुआ ? " वसुधा के पूछने पर वैभव झुंझलाते हुए बोला, "प्लीज़ मम्मी , मत पूछो , पास तो हो जाऊँगा , विश्वास है मुझे।" वसुधा ने वैभव की ही बात पकड़ कर कहा, " फिर तुम्हें अपने आप पर विश्वास क्यों नहीं कि तुम दर्द को सहजता से ले सकते हो ।" वैभव की आँखों में आँसू छलक आए, किसी भी तरह से वह यह बात नहीं समझ पा रहा था कि उसे दर्द क्यों मिला।
वसुधा ने वैभव के हाथ अपने हाथ में लेकर बड़े प्यार से बेटे को देखा । कितना सुन्दर, खिला हुआ मुस्कराता चेहरा , कोई सोच भी नहीं सकता कि वैभव के पूरे शरीर में २४ घंटे दर्द खून में दौड़ता रहता है। दर्द से शरीर के सभी जोड़ जकड़ जाते हैं लेकिन किसी को गुमान भी नहीं होता। वसुधा के अलावा किसी ने वैभव को रोते नहीं देखा। वसुधा बेटे के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोली , "तुम्हें पता है , तुम भगवान के सबसे प्यारे बच्चे हो, भगवान ने तुम्हें अपना मैसेन्जर बना लिया है।" वैभव की आँखों में जिज्ञासा जाग उठी। "वो कैसे?", वैभव के पूछने पर वसुधा बोली, " दर्द में भी तुम सबके सामने मुस्कराते हुए जाओगे, यह विश्वास भगवान को था। उसके दूसरे बच्चे जो दर्द में रोते हैं, उन्हें दिखाने के लिए कि देखो मेरा सबसे प्यारा बेटा कितने दर्द में है, फिर भी मुस्कुराता हुआ ज़िन्दगी को ज़िन्दादिली से जी रहा है।" वसुधा की बात सुनकर वैभव के चेहरे पर प्यारी सी मुस्कान लौट आई। हार मान कर बोल उठा 'मम्मी, रीयली यू ऑर कलेवर इन टॉकस, बातें बनाना आपको बहुत अच्छा आता है।" वसुधा ने संजीदा होते हुए कहा, " सच कह रही हूँ । सिवा मेरे किसी ने भी तुम्हें रोते नहीं देखा। आइना देखो, वह तो झूठ नहीं बोलेगा। तुम्हारे चेहरे को देखकर कोई सोच भी नहीं सकता कि तुम्हें इतना दर्द है।" दोनो ने एक दूसरे से वादा किया कि न रोएँगें, न रोने देगें।
इस बातचीत के बाद से घर का बोझिल वातावरण फिर से दुबारा नॉर्मल होने लगा। बेटे की प्यारी मुस्कान ने टूटती वसुधा को संबल देकर फिर से खड़ा कर दिया था। बहुत दिनों बाद आज वसुधा स्कूल में वही पुरानी चुलबुली शरारतों से सबको छेड़ती हुई स्टाफरूम में बैठी खिलखिला कर हँस रही थी। उसके दिल से जैसे बहुत बड़ा बोझ उतर गया था। उसे विश्वास था कि उसका बेटा हिम्मत वाला है । इस बात पर उसे और भी यकीन हो गया जब उर्दू के टीचर मीर साहब गीली आँखों को पोंछते हुए वसुधा के पास आकर बोले, " मैडम, आपके बेटे में गज़ब की ताक़त है, उसे बैसाखी से चढ़ते-उतरते देखकर मैं ख़ुद की रफ़्तार कम कर देता हूँ, सच मानिए, बड़ी तकलीफ़ होती है पर बच्चा जब मुस्कराता हुआ सलाम करता है तो दिल से दुआ निकलती है। अल्लाह पाक उसे सेहत बख़्शे।" "शुक्रिया मीर साहब, आपकी दुआ का ही असर है जो वह हिम्मत से चल रहा है , हमेशा दुआ में याद रखिए। " यह कह कर वसुधा आगे बढ़ गई।

क्रमशः

वसुधा की डायरी


वसुधा ने आज निश्चय कर लिया था कि जो भी मन में भाव उठ रहे हैं , उन्हें भाप बन कर उड़ने न देगी । जैसे लहरें चट्टानों से टकराती शोर कर रहीं हों, सागर के खर्राटें सुनाई दे रहे थे और वसुधा की नींद उससे दूर भाग रही थी। सोच रही थी कि सुबह चार बजे उठकर सागर को शारजाह एयरपोर्ट छोड़ने जाना है फिर बेटे वैभव को भी कॉलेज छोड़ना है। ड्राइवर को बुलाया तो है लेकिन वसुधा को लग रहा था कि इस बार भी ड्राइवर हर बार की तरह अधिक पैसे माँगेंगा। उसने मन में सोचा कि क्यों न खुद ही छोड़ना-लाना शुरु कर दे, जो पैसा बचेगा , उससे वैभव की दवाई आ सकती है। वैभव जो कैमिस्ट से पूछ कर ही दवा खरीदता है कि सॉल्ट सेम होने पर सस्ती कम्पनी की दवा से भी गुज़ारा किया जा सकता है , लेकिन दूसरी तरफ वसुधा बेटे का दर्द ज़्यादा होने पर मँहगीं कम्पनी की दवा खरीद लाती है।
वसुधा जब नौकरी करती थी तब भी उसे कभी नहीं लगता था कि 'हाउस वाइफ' अपनी इच्छा से अपनी ज़िन्दगी बिता सकती है। उसने हमेशा घर में रहने वाली औरतों की तारीफ़ ही की , क्योंकि उसे लगता था कि जो औरत बाहर काम करती है , उसे उतने समय तक घर के काम से छुट्टी मिल सकती है लेकिन जो औरत हमेशा से घर-गृहस्थी के काम में लगी रहती है वह सचमुच महान् है।  सुबह उठते ही नाश्ता बनाकर विलास को स्कूल के लिए रवाना करके खुद थोड़ी देर के लिए 'जिम' जाती है। वापिस आकर नाश्ता करते-करते अखबार पढ़ना उसे बहुत अच्छा लगता है , वैभव को उठाने के लिए उसे उसका मन-पसंद संगीत लगाना पड़ता है। वैभव ने ही उसे बताया था कि कुछ देशों में रोगियों के इलाज के लिए 'म्यूज़िक थेरेपी' का प्रयोग किया जाता है। वसुधा तब से ही अलग-अलग देशों के सुगम संगीत का पिटारा अपने पास रखती है।

कभी-कभी यादों का सैलाब आता है और हमें दूर तक बहा कर ले जाता है। कोई किनारा नहीं दिखता बस हम बिना हाथ-पैर मारे बहाव से बहे चले जाते हैं । वसुधा को याद आ रहा था जब १५ साल के बेटे को पहली बार बैसाखियाँ लाकर दीं । कलेजा मुँह को आने लगा था। सागर का दिल तो जैसे ताश के पत्तों का घर जैसा धराशायी हो गया। वसुधा बाथरूम में गई , आँसुओं को रोकने में दिल में टीस उठी तो आँखों में और जलन होने लगी। गले में जैसे कोई फाँस चुभ गई हो। मुहँ धोकर वसुधा मुस्कराती बाहर निकल कर वैभव के कमरे में गई और बड़े सहज भाव से उसे कहा, ' वैभव बेटा , धीरे-धीरे बैसाखी के सहारे चलने की कोशिश करो' 'मम्मी , नहीं चला जाता, अभी दर्द बहुत है।' वैभव के कहने पर मैंने उसे पढ़ने के लिए कहा क्योंकि अगले ही दिन दसवीं के बोर्ड का पहला पेपर था। अपने दर्द को छिपा कर बेटे के दर्द को नज़रअन्दाज़ किया । यह ज़रूरी भी था क्योंकि दर्द को साथी बना कर जीना पड़ेगा। दो साल भटकने के बाद साउदी डाक्टर रीमोटोलिजस्ट ने डाएग्नोज़ किया था कि वैभव को जुवेनाइल रीमोटाइड अर्थराइटस है। यह सुनकर वसुधा और सागर के पैरों तले ज़मीन खिसक गई थी। ऐसा कैसे हो सकता है। परिवार में दूर-दूर तक किसी सदस्य को यह बीमारी नहीं थी फिर वैभव को ही क्यों ।


क्रमशः

सोमवार, 24 सितंबर 2007

चक्रव्यूह

१५० कि०मी० की ड्राइव ने मुझे पस्त कर दिया था लेकिन पतिदेव के फोन आते ही कि वे दमाम ठीक-ठाक पहुँच गए हैं, मैंने चैन की साँस ली और सोने चली गई । दो घंटे की नींद ने मुझे नई शक्ति दे दी थी । उठने के बाद घर का काम खत्म करके कुछ लिखने बैठी लेकिन दिमाग जैसे कुछ काम नहीं कर रहा था , कल करने वाले कामों की लिस्ट तैयार थी । "मम्मी, थोड़ी देर के लिए सब भूल कर अपनी दुनिया में चली जाइए, आप फ्रेश हो जाएँगीं" बेटा अपने 'लेपटॉप' से नज़र हटा कर मेरी तरफ देखकर बोला। सोचा कि यादों के झरोकों से ही कुछ लिखकर मन हल्का कर लूँ । बात उन दिनों की है जब बेटे को दर्द तो हो रहा था लेकिन डाक्टर समझ नहीं पा रहे थे कि रोग क्या है। दो साल के दौरान की पीड़ा , छटपटाहट मुझे अन्दर ही अन्दर तोड़ रही थी , मैं एक ऐसे चक्रव्यूह में फँस गई थी कि मुझे समझ नहीं आ रहा था कि किस तरह से इस चक्रव्यूह से निकल पाऊँगीं ।

 जीवन के चक्रव्यूह में हम फँसें 
भूले कि अब हम कैसे हँसें । 
मन में धुँआ ही धुँआ उठे 
और साँसों का भी दम घुटे । 
मुस्कान की रेखा मुख पर खिंचे 
यह भाव मुझे कभी न मिले । 
जीवन जो काँटों जैसा चुभे 
तन-मन का भी आँचल फटे। 
कटे कैसे जिस जाल हम फँसे
 छटपटाते रोएँ, न कभी हँसे। 
तन पिंजरे में मन-पंछी जो रहे 
बस उड़ने की वह इच्छा करे। 
कठिन क्षण आसान कैसे बनें 
इच्छा है चक्रव्यूह से निकल चलें।।

सोमवार, 17 सितंबर 2007

राजनीति से दूर

बात उन दिनों की है जब मैं कॉलेज के दूसरे साल में थी । पापा राज्य गृहमन्त्री के उप-सहायक के रूप में काम रहे थे। मन्त्री जी की बेटी मेरी हमउम्र थी सो घर में आना-जाना शुरु हो गया। एक दिन मन्त्री जी के बेटे ने मुझे 'यूथ कांग्रेस' में शामिल होने को कहा तो हाथ जोड़कर माफ़ी माँग ली। दोस्ती और राजनीति में से मैंने दोस्ती को ज़्यादा महत्तव दिया। बस उसी शाम इस कविता ने जन्म लिया क्योंकि लाख सोचने पर भी मैं राजनीति में जाने का साहस न कर पाई। साहस नहीं था या कायरता थी। कोई भी नाम दे दीजिए लेकिन कविता ज़रूर पढ़िए। 


 भ्रष्ट राजनीति या भ्रष्ट सभी नीति सही करने का नहीं कोई solution . 
 भ्रष्टाचारियों, अत्याचारियों से समाज में फैल गया है चारों ओर pollution . 
 जीवन के हर क्षेत्र में फैल चुका है corruption 
अब तो शायद कभी हो इसमे कोई interruption. 
 भ्रष्टाचार में लिप्त नेता जनता को देता नहीं education 
 बेचारी अनपढ़ जनता का होता रहता है manipulation. 
 धूर्त नेताओं के कारण सिर पर आता बार-बार election 
सूझे नहीं भोली जनता को कैसे करें सही selection . 
 संघर्षों में जूझते लोगों को मिलती नहीं protection 
 निम्न वर्ग मैं सदा होता रहता है discrimination. 
 प्रगति के रास्ते पर बढ़ने को मिले सही direction 
विकसित हो देश हमारा करते हैं यही imagination.