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शनिवार, 29 सितंबर 2007

वसुधा की डायरी ३



जब काले बादल मँडराते हैं , बिजली चमकती है , बादलों की गर्जना से धरती हिलने लगती है , जीवन में ऐसी स्थिति आने पर लगता है जैसे बिखरने में पल भी नहीं लगेगा लेकिन वही एक पल है जब अपने आप को बिखरने से बचाना है । काले बादलों में चमकती, कड़कती बिजली को आशा की किरण मानकर तूफ़ान से निकलना ही अन्दर की ताकत है । कहना आसान है लेकिन करना उतना ही कठिन पर कुछ उक्तियाँ बिल्कुल सही हैं । 'नो पेन, नो गेन' या 'जहाँ चाह है , वहाँ राह है' जीवन प्रकृति का एक सुन्दर कोना भी है , सुन्दर रंग-बिरंगे खिलते फूलों के साथ काँटे भी हैं, झाड़-झँखार भी हैं। बोर्ड के पेपर खत्म हो चके थे और अब रिज़ल्ट का इन्तज़ार था। यही सोचते हुए वसुधा ने देखा सामने से वैभव चला आ रहा है, 'मम्मी, क्या हुआ, क्या सोच रही हो?' वैभव के पूछने पर वसुधा ने चेहरे के भाव बदल कर कहा, ' सोच रही हूँ कि शाम के लिए क्या ,,,, बीच में ही वसुधा की बात काटते हुए बेटा बोल उठा, 'बात को बदलिए नहीं , आपका चेहरा ही बता रहा है कि मन में कुछ उथल-पुथल चल रही है।' 'कुछ नहीं बेटा, कुछ भी तो नहीं' नज़रे चुराते हुए वसुधा बात को बदलना चाहती थी लेकिन वैभव समझ रहा था कि कोई बात है जो माँ को अन्दर ही अन्दर खाए जा रही है। 'आप मेरे लिए परेशान हैं या कोई और बात है, बताइए ना,,, ' वैभव के ज़ोर देने पर वसुधा को कहना पड़ा कि सागर को लेकर वह परेशान है । 'तुम बच्चों के लिए कुछ ज़्यादा ही भावुक हैं तुम्हारे पापा' वसुधा के कहते ही वैभव हँस कर बोला, 'मॉम, आप की वाक-पटुता ने मुझ जैसे लँगड़दीन को भगवान का फेवरेट चाइल्ड बना कर सीधा कर दिया तो पापा को समझाना आपके लिए कोई मुश्किल नहीं होगा।' वसुधा के कंधों को पीछे से दबाते हुए बोला, ' मम्मी, दर्द तो अब मेरा साथी है, धीरे-धीरे बैसाखियों के साथ रहने की भी आदत पड़ जाएगी। ' वसुधा अन्दर ही अन्दर अपने आँसू पी रही थी लेकिन होठों पर मुस्कान थी ।
रात के खाने पर डाइनिंग टेबल पर खाना खाते वक्त विलास वैभव से पूछने लगा कि फिज़िक्स लैब के बाहर खड़े होकर वैभव लैब असिसटेंट से क्या बातें कर रहा था । पूछने पर वैभव खिलखिला कर हँस पड़ा । सागर और वसुधा भी उत्सुक हो उठे। वैभव बताने लगा कि अहमद सर ने पूछा कि जब क्लास के सारे बच्चे फुटबॉल खेलते हैं तो उसका दिल नहीं करता कि वह भी उनके साथ खेले? उनके पूछने पर मैंने जवाब दिया कि नहीं, खेल ही नहीं सकता तो क्यों सोचे। जो वो कर रहे हैं , मैं नहीं कर सकता लेकिन जो कुछ मैं कर सकता हूँ वो नहीं कर सकते। भगवान कुछ लेता है तो कुछ देता भी है, मेरी यह बात सुनकर सर कहने लगे, 'मान गए उस्ताद, वाह क्या बात कह दी'।'
वसुधा ने अनुभव किया कि वैभव ने दर्द के साथ धीरे-धीरे रिश्ता जोड़ लिया है । बहुत दिनों बाद वसुधा ने घर में वही पुराना मस्ती भरा माहौल देखा। सच में जीने का मज़ा ज़िन्दादिली में है। वसुधा के परिवार ने सीख लिया कि जीवन में आने वाली सभी बाधाओं के साथ , मिलने वाली हार के साथ ही चलना है , चलना ही नहीं है , दौड़ना है। हेलन केलर के अनुसार सूरज की तरफ अपना चेहरा रखो और तुम छाया नहीं देख पाओगे। वसुधा सोच रही थी कि गहन अंधकार में डूबने का अनुभव न हो तो सूरज का प्रकाश अर्थहीन हो जाता है। जीने का आनन्द लेना है तो सुखों के साथ दुखों का भी स्वागत करना होगा।

4 टिप्‍पणियां:

संजीव कुमार ने कहा…

बहुत अच्छा है...

Unknown ने कहा…

aapka gdya bahut prabhavi hain. dairy padhakr bahut prabhvit hua.

Udan Tashtari ने कहा…

जीने का आनन्द लेना है तो सुखों के साथ दुखों का भी स्वागत करना होगा।


--एक अच्छी शिक्षा देती हुई इस कथा का समापन अंश भी हमेशा की तरह बहुत पसंद आया. बधाई.
अब और कहानियाँ सुनाईये. इन्तजार है.

Divine India ने कहा…

अनेक पहलुओं पर ध्यान आकृष्ट करती रचना…
बहुत सुंदर।