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सोमवार, 19 सितंबर 2011

पुराने दोस्त , पुरानी यादें,, नई ताज़गी के साथ...



पिछले दिनों कविता के रूप सौन्दर्य को एक नहीं , दो नहीं  तीन बार निहारा, सराहा...शायद एक दो बार और कविता के सागर में डूबना हो....डूब कर जो भी मोती हाथ लगे फिर से यहाँ सजा दूँ ..... आज तो एक पुरानी दोस्त का परिचय कराने को जी चाहा... 

आठ साल के बाद नेट की बदौलत फेसबुक पर फिर से पुरानी दोस्त से मुलाकात हो पाई.. ...
पुराने दोस्त पुराने चावल जैसे खुशबूदार  ...बातें भी खुशबूदार शुरु हुई अतीत के प्यारे पलों की.....
यादें खुशबू सी महकने लगीं और हम दोनों भी महकने चहकने लगे साथ साथ अतीत की बगिया में ....

मैं अपनी सहेली अनिता की बातें सहेज रही थी अपने मानस पटल पर ...

“बीते हुए पलों को सदैव संजो कर रखना चाहिए, वो ही हमारे जीवन के मोती हैं” “
”मीठे पलों को याद करके ही ज़िन्दगी की ऊबड़ खाबड़ पगडंडियों को भूल जाते हैं हम सब”
“बीते हुए हर पल को प्यार से संजो कर रखने की कोशिश की है मैंने”
“तुम बोलती थी, मैं सपने लेती थी”
“ग़र हमें दोस्तों की पसन्द ना पसन्द पता  हो तो ज़िन्दगी आसान ही नहीं दिलचस्प भी हो जाती है”

बीते दिनों की और भी कई बातों का ज़िक्र हुआ... उनमें से कुछ यादों को तो मैं बिल्कुल भुला चुकी थी.....
उसे सब याद था... यकीनन उसने यादों को मोतियों की तरह सहेज कर रखा था.... 
याद न कर पाने की ख़लिश को दूर करने के लिए अनिता को  ब्लॉग बनाने की सलाह दे डाली....
जानती हूँ पुरानी यादों को कीमती मोतियों  की  तरह सहेज कर रखा हुआ है... 
बस इंतज़ार है कब एक कोशिश  देखने को मिलेगी........ 



शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

आज की कविता का रूप-सौन्दर्य 3

आज की कविता का रूप-सौन्दर्य बढ़ाने में सहायक हैं नए बिम्ब और नई भाषा शैली .... और चमत्कृत कर देते हैं भाव ..... कवि-मन में जब गहन अनुभूति के पल आते हैं तब वह उन्हें कविता का रूप दे देता है... कहीं कहीं तो अनुभूति का ईमानदार पल मन में हलचल पैदा कर देता है...जीवन के हर पल का रंगीन और बेरंग चित्र कविता में दिखाई देता है.... पिछली पोस्ट में भी इसी बात का ज़िक्र था कि "आज कविता में कोई विषय अछूता नहीं है"  कभी कभी  मुझे कविता मनमोहिनी माया का रूप लगती है जो कभी तो बहुत हल्की बात को गम्भीरता से कह जाती है और कहीं छोटी छोटी बातों में चमत्कार दिखाने  लगती  है.... 



तन्हाई का साथी अश्रु 
ये भी बहता अकेला है 
कितना बदनसीब है 
सहारा खोजता - खोजता 
भिगोता अपना ही दामन है  (निवेदिता) 

"मगर
मर्यादा
और विश्वास
चुन लेते हैं
कई बार
मौन
और बन जाते हैं
स्वयं एक जवाब" (वाणी गीत) 

औरत पीती है
हर रोज़ अँधेरी रातों में
कुछ हथेली पे मल के
होंठों तले दबा लेती है
कुनैन की तरह
ज़िन्दगी को ...... (हरक़ीरत हीर)

"देह पीरे पीर रे
नाच रही पीरे पी रे
चन्दन पलंग रात न सोहे
नेह बिछौना अंग न तोरे
निदियाँ नाहीं पीर रे।
नाच रही मैं पीर रे।" (गिरिजेश राव)   

कहाँ गये वो लोग जिन्होने,
आजादी का सोपान किया था,
लगा बैठे थे जान की बाजी,
आजाद हिन्दुस्तान किया था."  (सुनिता शानू) 

"तब कोई सपना ही कहाँ रहेगा
बस विलासिता होगी हर तरफ
न कोई तपिश होगी
न कोई कशिश
फिर जिंदगी आज की तरह रंगीन कहाँ होगी" (कुमार) 
  
कुछ किताबें अन्धेरे  में चमकती हैं रास्ता देती हुई 
तो कुछ कड़ी धूप में कर देती हैं छाँह 
कुछ एकांत की उदासी को भर देती हैं 
दोस्ती की उजास से 
तो कुछ जगा देती हैं आँख खुली नींद से 
जिसमें नहीं सुनाई पड़ता अपना ही रुदन  (अरुण देव)   
इक दौर है ये भी ... 
प्रगति का दौर ....
अब.... सब के पास... सब अपना है 
सब.... अलग-अलग अपना 
अपना अलग कमरा... अपना अलग टी.वी. 
अलग ख़ुशी, अलग सोच, अलग मर्ज़ी ...
हाँ , सब... अलग-अलग अपना   (दानिश) 



नहीं चाहती मैं 
कि कोई भी 
हो व्यथित 
मेरे कारण 
और लगाए 
मुझसे कोई उम्मीद ... (संगीत स्वरूप 'गीत') 

ब्लॉग़जगत में कविताओं के अथाह सागर के किनारे खड़ी हूँ ....कविताओं की अनगिनत चंचल लहरों को देखती हूँ  तो मन में कई भाव  उठने लगते हैं.... इसी कारण इतना लिख पाई....लौट रही हूँ फिर आने के लिए कभी...... ! 


चलते चलते ----- एक कविता यहाँ ..... 'क्या लिखूँ' (दिव्यप्रकाश दुबे)  



गुरुवार, 15 सितंबर 2011

आज की नई कविता का रूप सौन्दर्य 2

आज की नई कविता का रूप सौन्दर्य  निहारते हुए उसका बखान करने का तरीका सबका अपना अपना अलग हो सकता है.... जैसे तराशे हुए हीरे को सभी अपने अपने कोण से देख कर उसकी प्रशंसा करेंगे... आज कुछ और कविताओं के छोटे छोटे अंश सहेजे हैं....
कविता पढ़ते पढ़ते कभी लगता है जैसे ब्लॉग़ जगत के गाँव  में हर कवि अपनी अपनी सोच और समझ से शब्दों के बीज बो रहा हो.... एक नई नस्ल की नई फसल को लहलहाते देख कर मन में कई भाव आते हैं.....अक्सर एक भाव जो मेरे मन में उठता है कि किसी भी कविता को पढ़ते हुए अनायास मन कह उठता है कि उस सादगी में बला की पेचीदगी भी है....कभी दूसरा भाव यह आता है कि जैसे कवि अपनी क़लम को तलवार बना लेना चाहता है...
संक्षेप में कहा जा सकता है कि आज की कविता जीवन को अन्दर-बाहर से समझना-समझाना चाहती है इसलिए आज कविता में कोई विषय अछूता नहीं है...... हर विषय पर कवि मन में नए-नए भाव पैदा होते हैं.... और उन भावों को पढ़ कर पाठक के मन भी हलचल पैदा हो जाती है....कभी सकारात्मक तो कभी नकारात्मक जो भी हो फिर भी कविता का हर रूप मन को मोह लेता है....

क्यों नफरतें हैं पालते
हम   लोग   प्यार  से
साँसे हैं, कितनी पास
हमें खुद पता नहीं
जीवन में कई मोड़ बड़े खतरनाक है 
रास्ता कहाँ जाता है, हमें खुद पता नहीं! (सतीश सक्सेना) 


एक ख्वाहिश .....
सोचता हूँ अब इन नेज़ो को तराश लूँ 
ओर घोप दूं आसमान के सीने मे.........
इल्म क़ी बारिश हो ओर वतन भीग जाये.. (डॉ अनुराग आर्य) 

अपने हर झूठ 
और अपने अहम् को 
कब तक उछालोगे 
गेंद की तरह 
सपनों के आसमान में 
आखिर एक दिन तो आ कर 
जमीन पर ही  गिरोगे 
क्यों कि        
जीवन का सत्य यही है ...... (रंजू भाटिया) 

"पर्यावरण अनापत्ति मिल चुकी है
बहुत पहले ही
नक़्शे  भी
रातो रात हो गए हैं पास
भूमिपूजन के दिन
होने वाला है
सितारों का जमावड़ा 
यह भी एक बड़ा आकर्षण है 
साठ मंजिला अपार्टमेन्ट का. " (अरुण चन्द्र रॉय) 

चलने लगा, चलता गया, बनता गया, मैं भी शहर
बेमन हवा, लाचार गुल, ठहरी सिसक, सब बेअसर
रोड़ी सितम, फौलाद दम, इच्छा छड़ी, कंक्रीट मन
उठने लगी, अट्टालिका, बढ़ती गयी, काली डगर  (जोशिम) 


पूरी एक रात के अँधेरे को
काट काट कर
नाप के ...माप के....
साये बनाती रही.....
ताकि....
दिन के उजालों में....
यह साये पहना कर
मन में दुबके
ख्यालों को ...सवालों को....
आज़ाद कर दूँ.....    (बेजी)

 "ये कैसा गणतंत्र है
प्यारे ये कैसा गणतंत्र ?
जो करते  घोटाले
देश को देते  बेच
उसी को हार पहनाते हैं" (वन्दना) 


"शहर सिर्फ खो जाने के लिए नहीं है..धुएं में, भीड़ में...
अपनी-अपनी खोह में...
शहर सब कुछ पा लेना है..
नौकरी, सपने, आज़ादी.." (निखिल आनन्द गिरि) 


बुधवार, 14 सितंबर 2011

आज की नई कविता का रूप सौन्दर्य

हिन्दी दिवस पर आज के युग की कविता के बारे में लिखने का मन बना तो उसके दो रूप आँखों के सामने आ गए....अलंकारों से सजी छन्द युक्त कविता और अलंकार रहित छ्न्द मुक्त कविता...दोनों का ही अपना महत्व है.... ऐसा नहीं है कि नए रूप को देख कर पुराने से मोह कम हो जाता है... पुराने से मोह कहाँ छूट पाता है हाँ नए का आकर्षण भी खूब लुभाता है..... बस इसी बात को सोचते सोचते जो भी दिल और दिमाग में आया उसे उंगलियों ने कीबोर्ड के द्वारा यहाँ सजा दिया....... 

अलंकार रहित, छन्द मुक्त रूप  है आज की नई कविता का ...
फिर भी मन दीवाना है  उसकी  सीधी सच्ची सादगी का...
नई कविता के लिए 'नया' शब्द न विशेषण है न फैशन  है...
नया युग नई संवेदना, नए शिल्पों को रेखाकिंत करता है..

सोच समझ कर कवि अज्ञेय ने कविता को नई कविता कहा..
मुक्तिबोध और अज्ञेय बने नई कविता के प्रवर्तक कवि...
परम्परावादी कहते 'परम्परा विरोधी-विदेशों के नकलची'
जब जब बदलाव की ब्यार चली,  विद्रोह की आग जली...

छायावादी कविता  कभी  थी विद्रोही कविता
अब उसे कोसने लगी है आज की नई कविता
छायावाद को कल्पना और करुणा का विलास माना
यथार्थवादी चेतना और युग-बोध को प्रबल जाना ..

नई कविता इसी विद्रोह का परिणाम है...
और आज यही कविता संपूर्ण जीवन को
अन्दर बाहर से समझना समझाना चाहती है...
हर मन:स्थिति को चित्रित करने से घबराती नहीं है..
हर परिस्थिति का बेबाकी से अंकन कर जाती है...

अपने ब्लॉग़ जगत की जिन कविताओं को पढ़ा , समझा और सराहा....उन्हें यहाँ संजो लिया...

"ज़िन्दगी की गाड़ी 
कभी एक पहिये से नहीं चलती
एक पहिये पर तो करामात दिखाए जाते हैं
वह भी कुछ देर के लिए
पूरी ज़िन्दगी में दो पहिये
फिर तीन ... फिर ....
साथ साथ मिलकर चलना ही जीवन को पाना है" (रश्मि प्रभा)  

"मान लूँ
तुम्हे 'पुरुष'
सिर्फ इसलिए
कि-
क्षमता है तुम में,
बच्चे पैदा करने की !
भोग न सको,
जब तक ;
स्त्री के मन को -
मेरे लिए ,
'नपुंसक' ही हो तुम !" (बाबुषा) 


"बचपन के आँगन से बाहर ...
जवानी तक तो मै पहुंची भी नहीं थी कि
तुमने झपट्टा मार लिया उस भूखे गिद्ध की मानिंद
नोच लिए मेरे होंसलों के पंख" (उषा राठोड़) 


"धीमे बोलने के बावजूद 
नश्तर सी चुभती तुम्हारी बातें
बनावटी जीवन की मजबूरी
अच्छे बने रहने का आवरण
उफ्फ ... कितना बोना सा लगने लगा था
अच्छा ही हुआ डोर टूट गई
कितना मुक्त हूँ अब ..  (दिगम्बर नासवा) 



"ना जाने कितने रिश्ते मर रहे हैं
पहन कफ़न समाज का
ना जाने कितने रिश्तों को मारा जा रहा है
पहना के कफ़न समाज का
जो सब से ज्यादा देते है दुहाई
समाज की
सब से कम देखा हें
उन्हे ही मानते नियम
समाज का" (रचना ) 


कोशिश की,
सब को,
अपना बना लूँ,
नाकामयाब रहा |
दूसरी कोशिश,
सबका हो जाऊं,
नाकामयाब ही रहा |   (अमित श्रीवास्तव)


रिश्तों को सीमाओं में नहीं बाँधा करते
उन्हें झूँठी परिभाषाओं में नहीं ढाला करते
उडनें दो इन्हें उन्मुक्त पँछियों की तरह
बहती हुई नदी की तरह
तलाश करनें दो इन्हें सीमाएं
खुद ही ढूँढ लेंगे अपनी उपमाएं (अनूप भार्गव) 


तल्खियाँ दिल में न घोला कीजिए
गाँठ लग जाए तो खोला कीजिये 
आप में कोई बुराई हो न हो 
आप ख़ुद को नित टटोला कीजिये 
दिल जिसे सुन कर दुखे हर एक का 
सच कभी ऐसा न बोला कीजिये   ( नीरज गोस्वामी) 




ब्लॉगजगत को हिन्दी -दिवस  पर शुभकामनाएँ  ..! ! 


क्रमश: 




मंगलवार, 13 सितंबर 2011

परिवर्तन को सहज स्वीकार किया...

जीवन गतिशील है सोच लिया.... परिवर्तन को सहज स्वीकार किया ...
ब्लॉग को नया रूप  दिया....सफ़ेद दीवारों पर नीला  रंग किया ...
बदले रूप को देखा तो .......
आसमानी रंग का प्रतिबिम्ब सजा कर लहराता  सागर याद आया... 
सागर की चंचल लहरों को अपना सुनहरी रूप रंग देता  सूरज भाया ... 
निस्वार्थ भाव से जलता सूरज देखा जब गीत पुराना इक याद आया....
जलते सूरज का गीत सुना तो ...... 
सत्यवादी  हरिश्चन्द्र तारामति के संग-संग नन्हें बालक का जादू छाया ... 


शनिवार, 10 सितंबर 2011

चलती क़लम को रोक लिया 2

(करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान - और अगर अभ्यास ही न रहे तो सिल पर निसान कैसे पड़े. कल ऊपर लिखी कविता को रीपोस्ट करते हुए पुरानी पोस्ट को खो दिया था जिसे ढूँढने का रास्ता(गूगल) शुक्लजी ने बताया जिसे हम  हमेशा  से ही इस्तेमाल करते हैं... भूलने की बीमारी हो गई है लेकिन इसे उम्र का तकाज़ा तो कतई नहीं कहेंगे ...हाँ यह कह सकते हैं कि इंसान गलतियों का पुतला है और ताउम्र सीखता रहता है  ...उसी दौरान पता ही नहीं चला कि कुछ ऐसा क्लिक हुआ है जो टिप्पणी देने के ऑप्शन को बन्द कर देता है..आज खुद ही ढूँढने की कोशिश की कि कहाँ गलती कर गए...और अंत में टिप्पणी का ऑप्शन खोल ही दिया...) 

अपने मन की हलचल को अपने ही ब्लॉग़ के मन से बाँट लेने से बढ़ कर और कोई बात नहीं... अतीत की यादों को कविता में उतारा था कभी... आज कुछ फिर ऐसा हुआ कि उस कविता की याद आ गई सो रीपोस्ट कर रही हूँ .......... !!  

छोटे बेटे द्वारा बनाया यह चित्र मुझे बहुत पसन्द है 




पढ़ने-लिखने वाले नए नए दोस्त हमने कई बनाए
दोस्तों ने ज़िन्दगी आसान करने के कई गुर सिखाए
उन्हें झुक कर शुक्रिया अदा करना चाहा
पर उनके अपनेपन ने रोक लिया.


दोस्त या अजनबी सबको सुनते और अपनी कहते
देखी-सुनी बेतरतीब सोच को भी खामोशी से सुनते
पलट कर हमने भी वैसा ही कुछ करना चाहा
पर मेरी तहज़ीब ने रोक लिया.


नई सोच को नकारते बैठते कई संग-दिल आकर
हैरान होते उनकी सोच को तीखी तंगदिल पाकर
हमने भी उन जैसा ही कुछ सोचना चाहा
पर आती उस सोच को रोक लिया.


सीरत की सूरत का मजमून न जाना सबने
लोगों पर तारीजमूद को बेरुखी माना हमने
सबसे मिलकर हमने भी बेरुख होना चाहा
पर हमारी नर्मदिली ने रोक लिया.


साथ चलने वालों से दाद की ख्वाहिश नहीं थी
तल्ख़ तंज दिल में न होता यह चाहत बड़ी थी
मिलने पर यह अफसोस ज़ाहिर करना चाहा
पर आते ज़ज़्बात को रोक लिया.


सोचा था चुप रह जाते दिल न दुखाते सबका
पर खुशफहमी दूर करें समझा यह हक अपना
सर्द होकर कुछ सर्द सा ही क़लाम लिखना चाहा
पर चलती क़लम को रोक लिया.