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बुधवार, 1 जून 2011

ज़मीन और जूता



एक मासूम सी उदास लड़की की खाली आँखों में रेगिस्तान का वीरानापन था
सूखे होंठों पर पपड़ी सी जमी थी पर उसने पानी का एक घूँट तक न पिया था
वह अपने ही  देश के गृहयुद्ध की विभीषिका से गुज़र कर आई थी
उसकी उदासी उसका दर्द उसके जख़्म नर-संहार की देन थी 
उसे चित्रकारी करने के लिए पेपर और रंगीन पेंसिलें दी गई थीं
कितनी ही देर काग़ज़ पेंसिल हाथ में लिए वह बैठी काँपती रही थी 
आहिस्ता से उसने सफ़ेद काग़ज़ पर काले रंग की पैंसिल चलाई थी
सफ़ेद काग़ज़ पर उसने काले से हैवान की तस्वीर बनाई थी
काले  हैवानों से भरे सफ़ेद काग़ज़ ज़मीन पर बिखराए थे
उसी ज़मीन के कई छोटे छोटे टुकड़े भी चित्रों मे उतार दिए थे
हर चित्र में ज़मीन का एक टुकड़ा, उस पर कई जूते बनाए थे
रौंदी हुई ज़मीन पर जूतों के हँसते हुए हैवानी चेहरे फैलाए थे
लम्बे नुकीले नाख़ून ख़ून में सने सने मिट्टी में छिपे हुए थे
बारिश की गीली मिट्टी में अनगिनत तीखे दाँत गढ़े हुए थे
स्तब्ध ठगी सी खड़ी खड़ी क्या बोलूँ बस सोच रही थी   
व्यथा कथा जो कह न पाई , तस्वीरें उसकी बोल रही थीं  



मंगलवार, 31 मई 2011

बाड़े में बन्द जीवन


गर्मियों के दिन हैं...सूरज डूबने पर ही बाहर निकलने की सोची जा सकती हैं...शाम होते ही बाहर निकले तो लगा जैसे सूरज हवाओं में घुल कर बह रहा हो .... बला की गर्मी लेकिन उस गर्मी को मारने के लिए ही निकले थे.... इन दिनों तरबूज़ और ख़रबूज़े जैसे फल अमृत समान लगते हैं...सालों से एक ख़ास जगह से ही फल खरीदते आए  हैं...शहर से कुछ दूरी पर एक वादी की तरफ़ जाते पक्की सड़क बन्द हो जाती है उसी के किनारे एक पिकअप गाड़ी में तरबूज़ों का ढेर लगा रहता है और नीचे छोटे छोटे बक्सों में ख़रबूज़े होते हैं....उसी गाड़ी के पीछे नज़र दौडाओ तो दूर एक टैंट हैं ,,,पानी का टैंक पड़ा है और कुछ दूरी पर शौचालय है.... एक तरफ बड़ा सा बाड़ा बना है भेड बकरियों को रखने का... ग़ौर करने पर देखा कि आजकल उनका मालिक आराम से बैठा रहता है ... झुंड का झुंड साँझ होते ही खुद ब खुद बाड़े में चली जाती हैं.... पहले यही भेड़ बकरियाँ बाड़े से बहुत दूर निकल जातीं... मालिक लाठी लेकर पीछे-पीछे भागता...ऊँची आवाज़ में गाली देता हुआ किसी एक को ज़ोर से मार देता....मार खाती भेड़ बकरी की तड़पती आवाज़ से पहले मेरे मुँह से चीख़ निकल जाती .... अक्सर ऐसा ही होता.. शाम ढलने का वक्त होता....लाठी से मार मार कर भेड- बकरियों को वह बाड़े के अन्दर कर रहा होता... हम कार में ही बैठे बैठे उसके आने का इंतज़ार करते...वह हाथ से बजा बजा कर तरबूज़ छाँट कर देता जो मिशरी सा मीठा निकलता....उसके उन्हीं हाथों से मुझे चिढ़ थी जिनमें हमेशा एक लाठी भी होती भेड़ बकरियों को हाँकने के लिए.... पति मेरे दुख को देख कर बड़े आराम से कह देते .... कुछ दिनों की बात है फिर वे अपने आप ही बाहर नहीं जाएँग़ी... उन्हें यही बाड़ा प्यारा लगने लगेगा... हुआ भी यही आज मालिक के हाथ में लाठी नहीं थी... वह आराम से पिकअप के पास एक कुर्सी पर बैठा था... सारी भेड़ बकरियाँ अपने आप ही बाड़े के अन्दर जा रही थीं ....शायद अब उन्हें लगने लगा है कि इससे बढ़िया जीवन और कहीं नहीं हो सकता या सोचती होंगी कि यही उनके जीवन की नियति है.....अचानक दिल से इक आह सी उठी .......!!!!  

सोमवार, 30 मई 2011

चिट्ठाकारों को शत-शत प्रणाम (बदलाव के साथ)

यह उन दिनों की पोस्ट है जब हमने अभी नया नया ब्लॉग ही बनाया था... 28 सितम्बर 2007 की लिखी इस पोस्ट में कई ब्लॉग मित्रों का ज़िक्र है लेकिन लिंक करने की तकनीक नहीं जानती थी...शुरुआती दौर की कुछ पोस्ट पढ़ते पढ़ते ख्याल आया कि क्यों न लिंक लगा कर इस पोस्ट को फिर से पब्लिश कर दिया जाए... लेकिन एक ब्लॉग  मेरे लिए पहेली बन गया..समझ नहीं आया कि किसका ब्लॉग होगा इसलिए लिंक करने में असमर्थ हूँ. संजीवजी का आवाज़.....अगर आपमें से कोई पहचान ले तो बहुत अच्छा हो.....

अनिल रघुराज जी का लेख "हिचकते क्यों हैं, लिखते रहिए' पढ़कर आशा की किरण जागी कि "ब्लॉगिंग मिसफिट लोगों का जमावड़ा" नहीं है। हाँ कुछ सीमा तक बात सत्य हो सकती है क्यों कि जो पहले से ही इस क्षेत्र में अनुभव प्राप्त किए हुए हैं, वे ज़्यादा जानकार हैं । अपने बारे में यह कह सकती हूँ कि आसपास मेरी बात सुनने वाला कोई नहीं, पति को शिकार बनाती , लेकिन उन पर भी प्रभू की बड़ी कृपा है। बच्चों की पढ़ाई के कारण या कहिए उनका सौभाग्य कि हम दोनों अलग- अलग देशों में हैं। अनुभव होने लगा कि सुपर वुमेन बनते बनते घर के प्रति बेरुखी बढ़ती जा रही है सो अध्यापन का मोह त्याग कर ईमानदारी से घर-गृहस्थी का काम सँभालने का निश्चय किया।
दोनो बेटे अपनी अपनी दुनिया में मगन , पति को काम का नशा , अब सोचिए नारी मन पर क्या बीतेगी जो बात करना चाहे , पर कोई सुनना न चाहे। नई पोशाकों पर , नए आभूषणों पर, नए नए पकवानों पर बात करने वालों की कमी नहीं पर मन का क्या जो अपनी मन-पसंद की बात करना चाहता है। डायरी पर लिखना ऐसा जैसे गूँगे से बात करना । न प्रशंसा , न आलोचना ।
मानव प्रकृति ऐसी है जो मरते दम तक कुछ नया जानने सीखने की इच्छा रखता है। "हमारी अंदर की दुनिया के साथ ही बाहर के संसार में हर पल परिवर्तन हो रहे हैं।" (अनिल रघुराज) हर पल की जानकारी पाना मनुष्य का स्वाभाविक गुण है या कहिए अधिकार भी है। " तनावों से भरी आज की ज़िंदगी में लिखना अपने-आप में किसी थैरेपी से कम नहीं है।"(अनिल रघुराज) शत प्रतिशत सच है। कम से कम मेरे लिए तो ब्लॉगिंग सफल थैरेपी है।
ब्लॉगिंग से पहले मन विचलित रहता था। बीस साल पति के साथ रियाद में रही जहाँ बाहर के काम अक्सर घर के पुरुष ही करते हैं लेकिन दुबई आकर हर तरह से मुझे पति और बच्चों के पिता के उत्तरदायित्व भी निभाने पड़े ।अतीत की यादें पीछा न छोड़तीं। घर के काम अधूरे मन से होते तो अपराध बोध सताता । अब स्थिति अलग है। सुबह ६ बजे से रात ११ बजे तक के काम बँध गए। किस्सा कुर्सी का है कि बाकि काम खत्म करके शीघ्र ही कुर्सी पर आ जमो और लेखन लोक में आनन्द से विचरो। सच मानिए पहले कभी फुर्सत ही नहीं थी कि जाना जाए कि ब्लॉगिंग का सही अर्थ क्या है। पति वर्ड प्रेस पर एक ब्लॉग बनाकर बोले थे कि कुछ लिखो तब समय नहीं था या कहिए इस बारे में गंभीरता से सोचा भी नहीं था।
चिट्ठाजगत में हर दिन नए नए विषय उपलब्ध हैं। मेरे लिए तो ऐसा है जैसे बहुत से स्वादिष्ट व्यंजन एक साथ परोस दिए हों। समीर जी का लेख "गुणों की खान- मोटों के नाम" हास्य के साथ-साथ हौंसला दे देता है। "जाओ तो ज़रा स्टाईल से " पढ़ कर लगा कि हम अकेले ही नहीं है ऐसी बात करने वाले।
ईरान गए अपनी ईरानी सखी के पिता के चालीसवें पर , कब्रिस्तान की खूबसूरती देखकर अपनी विदाई का इंतज़ाम करने के लिए पूछ ही लिया कि क्या हम भी थोड़ी सी ज़मीन खरीद सकते हैं तो पता चला कि उनके पिताजी को उनकी बहन ने अपने नाम की जगह दी थी। सखी गुस्से से मेरी ओर देख कर बोली थी, 'तू बीशूर हस्त' । मैं सच में जानना चाहती थी लेकिन मुझे 'क़फेशोद' कह कर चुप करा दिया। जब इस बात की चर्चा परिवार और मित्रों में हुई तो हमें सनकी पुकारा गया। चिट्ठा जगत में कोई रोक-टोक नहीं , अपनी भावनाओं को दिखाने का पूरा अवसर मिलता है।
अब तो ऐसा लगता है जैसे अंर्तजाल आभासी दुनिया का दीवान-ए-आम है। जहाँ रोज़ सभा में कोई भी आकर बैठ सकता है । विचारों के आदान-प्रदान का स्वागत होता है। एक टिप्पणी मिलने की देर है आपको ढेरों रचनाएँ पढ़ने का अवसर मिल जाएगा।
अभी कुछ देर पहले मेरी रचना पर टिप्पणी करने वालों के चिट्ठे पर जाना हुआ। श्री हरे प्रसाद उपाध्याय के चिट्ठे में लेख 'कवि एथुदास' पढा , बस कुछ पंक्तियाँ मन को छू गईं - "मान-सम्मान और स्थापित होने की चिंता में तुम अमानवीय होकर रह गये हो। दिन-रात अपना झंडा गाड़ने की फिराक में लगे तुम कितने हास्यास्पद हो गये हो, इसका पता भी है तुझे! चिड़िया, फूल, पत्ते सबसे तुम जुड़े, लेकिन अपनी महत्वाकांक्षा साथ लेकर। महत्वाकांक्षा लेकर प्यार नहीं किया जाता कवि। समर्पण के साथ प्यार होता है। खुद को मिटाना पड़ता है। और तुम हो कि दुनिया को मिटाना चाहते हो खुद के लिए।"


संजीँव जी के ब्लॉग 'आवाज़' में लेख "दुनिया को जीत लेने का जज्बा रखने वाला शख्स जिंदा लाश बन गया है" पढ़ा। उन्हें कैसे बताऊँ कि इस रोग के  कई मरीज़ देवेन्द्र जी से भी बुरी स्थिति में है।


 डिवाइन इंडिया ब्लॉग में दिनकर जी की एक सुंदर पंक्ति पढ़कर मन में कुछ करने की ललक जाग उठी।
"इच्छा है, मैं बार-बार कवि का जीवन लेकर आऊँ,
अपनी प्रतिभा के प्रदीप से जग की अमा मिटा जाऊँ॥"
संजीत जी 'आवारा बंजारा ब्लॉग में  'कुछ अपनी' में एक ही क्लिक से अपने देश के बारे में इतना कुछ पढ़ने को मिल गया कि आनन्द आ गया।
अभिनव जी की निनाद गाथा में रेडिया सलाम नमस्ते सुनकर तो हम दंग रह गए।  पारुल जी ने अपने लेखन से ही नहीं अपनी मधुर आवाज़ से भी मन जीत लिया। अर्बुदा की कविता में छायावाद का सुन्दर रूप दिखने पर युनिवर्सिटी के पुराने दिन याद आने लगे जब कवि जयशंकर प्रसाद की कविताओं का पाठ किया करते थे। देवाशीष जी की बुनो कहानी में जाकर कहानी लिखने का पुराना शौक जाग उठा। यही नहीं वहाँ सभी लिखने वालों को पढ़ा । लगा कि अभी बहुत कुछ जानना सीखना है।
संजय पटेल जी का लेख 'फब्तियाँ कसने वाले भूल जाते हैं कि जीत दिलाने वाला एक मुसलमान भी है' पढ़कर मन प्रसन्न हो गया। "राजनीति से जितना दूर रहें..वही बेहतर है आज के माहौल में... लेकिन गर हर आदमी यही सोचेगा तो भी कुछ भला नहीं होने वाला है...कीचड़ साफ करने के लिए कीचड़ में उतरना ही होगा" राजीव तनेजा जी की टिप्पणी ने ही सोचने पर विवश कर दिया कि किसी हद तक हम भी दोषी हैं।
यतीष जैन जी का क़तरा-क़तरा में कई अच्छी कविताओं ने मन पर निशाँ छोड़ दिए उनमें से 'खाली है पोस्ट' अच्छा हास्य व्यंग्य है और हम सब को संदेश भी मिलता है कि ज़ीरो को चिड़ाने का अवसर नहीं देना चाहिए। शास्त्री जी का सारथी ही नहीं , उनसे जुड़े कई चिट्ठों से दुनिया भर की जानकारी मिलती है।
मन मेँ उठे भाव तो उन्हें आपके साथ बाँट लिया अगर बेकार लगें तो पढ़ना बन्द कर दें पर नाराज़ न हों।

रविवार, 29 मई 2011

यही तो सच है......


पिछली पोस्ट 'आख़िरी नींद की तैयारी' जितनी बेफ़िक्री से लिखी थी ...टिप्पणियों ने उतना ही बेचैन कर दिया...सभी मित्रों से निवेदन है कि अपने मन से किसी भी तरह की शंका को निकाल दें कि हम निराशा के सागर में गोते खाते हुए इतनी लम्बी  पोस्ट लिख गए.... होश और हवास में खूबसूरत चित्र इक्ट्टे किए थे...
एक खूबसूरत  लिंक भी जोड़ा था लेकिन शायद किसी ने खोला भी न हो.......सबने सोच लिया कि मैं निराशा में डूबी किसी बात से दुखी हूँ ...... सुख दुख तो सबके साथ हैं ..... ज़िन्दगी जीने का  मज़ा ही दोनों के साथ है..... यकीन मानिए वह पोस्ट दुख , निराशा या मौत से डर कर नहीं लिखी थी... बल्कि सच में ही मौत के स्वागत की तैयारी करना अच्छा लगा सो लिख कर आप सबके साथ बाँट लिया....


आज नहीं इस विषय पर तो अक्सर सोचते हैं........बहुत पहले 2007 में ईरान में भी ऐसा कुछ सोचा था.. वहाँ से वापिस आने पर कुछ कहती उससे पहले ही जाने कैसे...वैसा ही कुछ ज़िक्र बेटे ने कर दिया......माँ हूँ इसलिए थोड़ा सा घबराई थी उसकी बात सुनकर ..... लेकिन फिर अपने आप को सँभाल लिया...."यही तो सच है मम्मी....." उस वक्त बेटे ने कहा था.....इस बार मेरी पोस्ट पढ़ कर पति ने भी वही कहा.... " बस यही तो सच है बाकि सब झूठ" और हॉंगकॉंग की बात बताने लगे.... जहाँ अवशेष रखने  के छोटे छोटे लॉकर रखने की जगह भी कम पड़ रही है....उन दिनों उड़नतश्तरी के समीरजी ने भी एक पोस्ट "जाओ तो ज़रा स्टाईल से " लिखी थी....

पिछली पोस्ट लम्बी हो गई थी...... इसलिए कुछ लिखना बाकि रह गया था..... :) चाह कर भी लिखने से रोक नहीं पा रही.... लिख ही देती हूँ .......आजकल बहुत कम लोग नीचे ज़मीन पर बैठ पाते हैं इसलिए पहले से ही सफ़ेद चादरों से सजे सोफ़े हों पर बैठने की व्यवस्था हो तो आराम से बैठ कर अफ़सोस कर पाएँगे सब ..... ख़ाने पीने का पूरा इंतज़ाम खुद के घर में ही हो.... बड़े बड़े शहरों में लोग एक दूसरे को हल्की सी मुस्कान तो दे नहीं पाते फिर खाने पीने का इंतज़ाम तो दूर की बात है.....

अपने दिल के नज़दीकी छोटे छोटे शहर याद आ गए जहाँ सालों बाद जाने पर भी अपनापन सा लगता है.... बल्लभगढ़ में ननिहाल ... अम्बाला में ससुराल...  एक बात समझ नहीं आती... अपने आप को छोटे शहर का कह कह कर क्यों छोटे शहर के लोग हीन भावना से ग्रस्त रहते हैं..... जानते नहीं शायद...कि छोटे छोटे गिफ्ट पैक्स में बड़ी बड़ी कीमत वाले तोहफ़े होते हैं... सोना, चाँदी और हीरे जैसे दिल वाले लोग अपनी ही कीमत नहीं आँक पाते....

लिखते लिखते बचपन याद आ गया जब मम्मी जेबीटी की ट्रेनिंग के लिए पलवल गई और मुझे नानी के पास छोड़ गईं.... एक साल के लिए नाना नानी के पास रहना मेरे लिए ज़िन्दगी का बेशकीमती वक्त था....सूरज उदय होने से पहले और सन्ध्या होने पर नानी की आवाज़ में गीता का पाठ किसी अलौकिक दुनिया में पहुँचा देता....रात छत पर बिस्तर लगाना....नानी की गोद में सिर रखना.....तारे गिनते गिनते गीता के श्लोक पाठ और उसकी व्याख्या सुनना..... सब आज भी याद है.... शायद इसलिए भागवतगीता में ही जीवन जीने का सार दिखाई देता है.... आज बस इतना ही ......

बड़े बेटे वरुण ने बाँसुरी  पर दो अलग अलग धुनें बजाईं और उन्हें मिक्स कर दिया.... नाम दिया  (Disease and Rainbows)  विद्युत द्वारा ईरान में ली गई तस्वीरों के साथ  वरुण की धुन को मिला कर एक छोटी सी संगीतमय फिल्म बना दी. दोनों की इजाज़त से ही यहाँ पब्लिश कर रही हूँ ...  सुनिए  और  बताइए कैसी लगी यह फिल्म .......






बुधवार, 25 मई 2011

आख़िरी नींद की तैयारी

चित्र नेट द्वारा 

पिछले दो दिनों से तबियत कुछ ऐसी है कि आधी रात गहरी नींद में लगने लगता है जैसे दिल की धड़कन रुक जाएगी.. कोई खास बीमारी भी नहीं है जिस कारण चिंता हो .... .शायद थायरोएड....या फिर गालबलैडर में स्टोन...जो अभी दर्द ही नहीं देता तो उस तरफ कभी ख्याल ही नहीं गया....
आजकल अपने आप से ज़्यादा बातचीत होती है ...अपने आप से बात करने का कितना आनन्द है... कुछ भी ...कैसा भी... कह दो ....मन चुपचाप सुनता रहता है... दरवाज़ा खोल कर बाहर आ गई...आधी रात के आसमान पर चाँद तारे दिखाई नहीं दे रहे थे...बादलों की या शायद धूल की हल्की चादर सी फैली थी... ठंडी हवा भी एक अजीब से सुकून के साथ बह रही थी...
यही हवा सूरज के सामने कैसे व्याकुल सी हो कर भागती है इधर उधर .... सूरज की याद आते ही रेगिस्तान में  मृगतृष्णा की याद आ गई ... जो सूरज से जन्म लेती और उसी के साथ ही कहीं गुम हो जाती है....रात के काले साए याद दिलाते हैं कि वह तो एक खूबसूरत भ्रम होता है......जैसे ये दुनिया .... कितनी खूबसूरत है ...मेरी है....नहीं शायद ये दुनिया किसी की भी नहीं...फिर भी हम इस खूबसूरत भ्रम से कितना मोह करते हैं...मेरे विचार में मोह होना भी चाहिए... जब तक साँसों में गर्मी है......इस खूबसूरत भ्रम में ही जीने का आनन्द है.....

चित्र नेट द्वारा 

चंचल मन जाने कहाँ कहाँ दौड़ता है.....उसकी सोच की कोई सीमा नहीं...सोचने लगा ज़िन्दगी को खूबसूरत बनाने के लिए दिन रात कोल्हू के बैल की तरह लगे रहते हैं... फिर मौत के स्वागत के लिए क्यों न कुछ तैयारी की जाए..
पहली बार जब ईरान गई थी तो वहाँ की खूबसूरती देख कर लगा था बस आखिरी नींद के लिए यही जगह जन्नत है..... लेकिन सोचते ही दम घुटने लगा कि धरती के नीचे  कैसे रह पाऊँगी , कॉकरोचज  से डर लगता है और नीचे तो जाने कैसे कैसे कीड़े मकौड़े होंगे, नहीं नहीं कुछ और सोचा जाए तब  एक नई सोच ने जन्म लिया 

चित्र नेट द्वारा 

घर के पास के शमशान घाट है , वहाँ जला दिया जाए तो सबको आराम रहेगा... कहीं दूर नहीं जाना पड़ेगा... फिर एक नई सोच ने जन्म लिया , एक मरे हुए इंसान के लिए पता नहीं कितने पेड़ों की हत्या करनी पड़ेगी..... उस पर घी तेल की अलग बरबादी...फिर प्रियजनों को तेज़ आग के आगे खड़ा होना पड़ेगा...कितनी गर्मी लगेगी उन्हें....जून जुलाई हुआ तो... 
जल समाधि कैसी रहेगी... ओह... जी घबराने लगा सोच कर ..पानी से बहुत डर लगता है ... खास कर नदी और समुन्दर के किनारे पर खड़े होकर ही लगने लगता है कि जैसे उनकी अनदेखी बाहें अपनी ओर खींच रही हों... .एक बार अखबार में पढ़ा था कि निगम बोध घाट के आस पास के गाँवों की औरतों को,  जो बच्चे पैदा करते हुए जान से हाथ धो बैठती .या किसी बीमारी के कारण बच्चे चल बसते उन्हें नदी में बहा दिया जाता था... अपने जाल में फँसे हुए मृत शरीरों के टुकडों को देख कर बेचारे मछुआरे दुखी हो जाते.... कभी कभी तो बड़ी मछली को देख कर जितना खुश होते... उससे ज़्यादा दुखी होते उनके अन्दर इंसान के अंगों को देख कर........

सैर करते करते सोच रही थी या सोचते सोचते सैर कर रही थी......वैसे मरने की तारीख तय कहाँ होती है... पता नहीं मौत भी क्यों हर बार ब्लाइंड डेट पर ही निकलती है......कितना अच्छा हो अगर पहले पता हो तो मरने से एक घंटे पहले तक सब काम निपटा लिए जाएं ।  अचानक बच्चों की तस्वीर आँखों के सामने आ गई ...बच्चो को देख कर पति याद आ गए.... पल भर में ही उनके मोहजाल ने जकड़ लिया .... पैरों से जैसे ज़मीन खिसकने लगी...शरीर में से सारी ताकत रुई के फोहों सी उड़ने लगी.....बच्चों के कमरे में आकर बैठ गई..... ध्यान हटाने के लिए नेट खोल लिया... अक्सर बच्चों की और कुदरत के नज़ारों की तस्वीरें देखना अच्छा लगता है और मन ठीक हो जाता है ....
ईरान (रश्त)


मन चंगा तो कठौती में गंगा.... बस दिमाग में बिजली कौंधी...शरीर की एक दो बीमारी को छोड़ कर सब पुर्ज़े सही सलामत ही हैं.... चिकित्सा जगत में अगर कुछ काम आ सके तो इससे बढ़िया कोई बात नहीं... उसके बाद शरीर को गत्ते के डिब्बे में मलमल की चादर से लपेट कर आधुनिक बिजली शमशान ले जाया जाए....लकड़ी के साँचे में अपने आप को बँधना कतई पसन्द नहीं...सबकी अपनी अपनी पसन्द है...कास्केट या डिब्बा जिसमें आराम से लेटा जा सकता है....साधारण सा हो और उसपर बच्चे अगर कोई कलाकारी कर दें तो क्या कहना ....

 

चित्र नेट द्वारा 


बिजली शमशान के चैम्बर के अन्दर लगभग दो ढाई घंटे में ही 1400 से 1800 डिग्री फ़ॉहरनाइट तापमान में शरीर पंचतत्व में विलीन हो जाता है.....अग्नि , वायु , धरती , आकाश और जलतत्व में से आत्मा कैसे कब और कहाँ जाती होगी.... यह पता ही नही चलता... शायद उस वक्त पता चले..... मिट्टी के कलश में अपने शरीर की मिट्टी को रखने की चाह ....फिर   उसे कहाँ उड़ेला जाए... मन की इस चाह को न कहा जाए तो उसे शांत करने की राह कहाँ मिलेगी......
 
घर का कलश 

लेटिन भाषा में अफ़ीम को नींद लाने वाली वनस्पति "sleep-bringing poppy" कहा जाता है.....आखिरी नींद को ज़्यादा से ज़्यादा गहरी करने के लिए अस्थि कलश को अगर उन खूबसूरत खेतों में बिखेर दिया जाए तो कैसा रहे .....सदा के लिए गहरी नींद में डूब कर सपनों की दुनिया में रहना कितना आसान हो जाएगा... अफ़ीम का ज़िक्र करना अगर किसी को बुरा लगे तो माफ़ कीजिएगा ... क्यों कि दर्द निवारक औषधि ‘मॉरफिन’ बनाने के लिए अफ़ीम का ही  इस्तेमाल किया जाता है....कुदरत की हर देन वरदान ही होती है, हम इंसान ही उसे अभिशाप बना  देते हैं....
चित्र नेट द्वारा 

वाह ...जहाँ चाह ...वहाँ राह..  गूगल करने पर  एक लिंक मिल ही गया  .... ‘माई फंकी फ्यूनरल’..इसमे बहुत रोचक जानकारी है .... एक इंसान की राख से 240 पैंसिलें बन सकती हैं...बच्चे कलाकार है तो बरसों तक पैंसिलें इस्तेमाल करके याद करेंगे... वैसे देखा जाए तो सभी एक से बढ़कर एक आइडिया है लेकिन मुझे लिखने में , कलाकारी करने में इस्तेमाल किया जाए , यही आइडिया मन को भा गया.... 
चित्र नेट द्वारा

साँसों का पैमाना टूटेगा
पलभर में हाथों से छूटेगा

सोच अचानक दिल घबराया
ख्याल तभी इक मन में आया

जाम कहीं यह छलक न जाए
छूट के हाथ से बिखर न जाए

क्यों न मैं हर लम्हा जी लूँ जीवन का मधुरस मैं पी लूँ
आखिरी नींद की तैयारी हो गई , मन कितना हल्का सा हो गया , हाँ एक और आखिरी तैयारी 
हरिवंश राय बच्चन की  मधुशाला मन्ना डे  की आवाज में बजने लगे तो क्या कहना 




सोमवार, 23 मई 2011

सीख जो दीनी वानरा , तो घर बया को जाए.... !



मम्मी एक कहानी सुनाया करती थी , बया और बन्दर की... बचपन में ही नहीं.... किशोर हुए तब भी ...फिर यौवन की दहलीज पर पाँव पड़े तो भी वही कहानी... माँ हमेशा किसी कहानी , मुहावरे या लोकोक्ति के बहाने बहुत कुछ कह जाती....कभी कभी हमें बहुत गुस्सा आता कि सीधे सीधे कह लो... तमाचा लगा दो... लेकिन ऐसे भिगो भिगो कर ........ मारना कहाँ का न्याय है...
मन की बातें मन ही रह जाती...सच कहें तो उनकी बातों का असर भी बहुत होता....मजाल कि एक ही गलती फिर से हो जाए .... लेकिन होशियार रहने पर भी नई गलती अपने आप ही हो जाती... डैडी अक्सर पक्ष लेकर कहते ....इंसान तो गलतियों का पुतला है ......लेकिन उस वक्त मम्मी के सामने कोई ठहर न पाता... गलतियाँ भी तो कुछ कम न होतीं....उन्हें लगता हम बच्चे जानबूझ कर उन्हें सताने के लिए गलती करते हैं  ... बार बार उनका दिल दुखाते हैं....... दुखी दिल से कभी कोई कहानी कहतीं तो कभी दोहा गुनगुना देतीं....
“बया पक्षी बड़े प्यार से अपने बच्चों के लिए घौंसला तैयार करता है ताकि भविष्य में आँधी तूफ़ान बारिश से बचा जा सके....एक एक तिनका चुनकर बड़े जतन से नीड़ तैयार करता है.... घौंसला तैयार होते ही अपने बच्चों के साथ सुख शांति से रहने लगता है..
एक दिन मूसलाधार बारिश हो रही थी.....बया पक्षी को बाहर किसी बन्दर की बेचैन और परेशान करे देने वाली आवाज़ सुनाई दी.... उसने अपने घौंसले से बाहर झाँक कर देखा....एक बन्दर बारिश में भीग रहा था.... बारिश से बचने के लिए पेड़ की शाखाओं में छिपने की कोशिश कर रहा था...
बया को उसकी हालत पर तरस आ रहा था ...उससे रहा न गया .... अपनी तरफ से सहानुभूति जतलाते हुए उसने बन्दर से कहा कि अगर उसने भी समय रहते अपने लिए कोई ठौर ठिकाना बनाया होता तो आज उसे इस तरह तेज़ बारिश में भीगना न पड़ता और इधर उधर भटकना न पड़ता.... अपना घौंसला दिखाते हुए बया ने कहा कि समय रहते उसने मज़बूत घौंसला बना लिया और अब उसके बच्चे सुरक्षित हैं....बन्दर ने इसे अपना अपमान समझा , उसके अहम को चोट लगी...उसने गुस्से में आकर बया के घर को तोड़ दिया...” 

बार बार सुनते सुनते कहानी जैसे अंर्तमन में रच बस गई है....
“सीख ऐसे को दीजिए , जाको सीख सुहाए,
सीख जो दीनी वानरा, तो घर बया को जाए !“ 

शुक्रवार, 20 मई 2011

रेगिस्तान का रेतीला रूप

(28 मई 2009 का ड्राफ्ट)


दूर दूर तक फैले
रेगिस्तान का रेतीला रूप
निहारा... सराहा.... महसूस किया
जैसे हो माँ का आँचल
लहराता... बलखाता....
अपने आगोश में लेता....
सूरज जलता सा उतरता
अपनी गर्मी से तड़पाता
धरती के अधर सुखाता 
रोम रोम रूखा हो जाता
वसुधा को प्यासा कर जाता
प्यासी दृष्टि में आस जगाता

रियाद शहर से बाहर का रेगिस्तान