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शुक्रवार, 20 मई 2011

रेगिस्तान का रेतीला रूप

(28 मई 2009 का ड्राफ्ट)


दूर दूर तक फैले
रेगिस्तान का रेतीला रूप
निहारा... सराहा.... महसूस किया
जैसे हो माँ का आँचल
लहराता... बलखाता....
अपने आगोश में लेता....
सूरज जलता सा उतरता
अपनी गर्मी से तड़पाता
धरती के अधर सुखाता 
रोम रोम रूखा हो जाता
वसुधा को प्यासा कर जाता
प्यासी दृष्टि में आस जगाता

रियाद शहर से बाहर का रेगिस्तान

11 टिप्‍पणियां:

Manoj K ने कहा…

short and sweet !!

arbuda ने कहा…

मई आखिर की चमकती, बेहाल कर देने वाली गर्मी में यह कविता बिल्कुल फिट हो गई..... माँ के आँचल का शीतल अहसास भी दे गई।

अच्छा लगा पढ़ कर।

रश्मि प्रभा... ने कहा…

registaan ... maa ka aanchal ... garm ret thandi ho gai

kshama ने कहा…

Bahut bha gayee ye rachana! Faila hua registan yahan tak mahsoos hua!

rashmi ravija ने कहा…

बड़ी सुन्दर कविता लिख डाली....आँखों के आगे साकार हो गए वो sand dunes

36solutions ने कहा…

मॉं के आंचल सा सुन्‍दर बिम्‍ब.

vandana gupta ने कहा…

सुन्दर रचना।

निवेदिता श्रीवास्तव ने कहा…

मजा आ गया ....

डा० अमर कुमार ने कहा…

रेगिस्तान में एक बिछे हुये आइने के भ्रम को आप क्या कहेंगी..
क्या यह वाकई म्रूगतृष्णा कही जानी चाहिये या जिजीविषा की उत्कृष्ट मिसाल !

मीनाक्षी ने कहा…

डॉ अमर.... मृगतृष्णा है तो जिजीविषा भी है....
ये दुनिया भी तो मृगतृष्णा सी है ....मोहिनी माया के साथ ताउम्र लगे हैं जाने क्या पाने की चाह में....
सूरज से जन्मी मृगतृष्णा ... उसी से उर्जा भी है.......हमारी साँसें हैं ..... जीने की तीव्र इच्छा है.... जीने के लिए जिजीविषा ज़रूरी है......

arbuda ने कहा…

सब कुल मिला कर वही है जो कि नहीं है....फिर भी दिखता है...और प्रेरित भी करता है । उसे पाने की चाह ताउम्र बनी रहती है, जो कि असल में है ही नहीं। इसे जिजीविषा कहें या मोहिनी माया, भ्रम कहें या भटकाव...सब अच्छा ही लगता है।