Translate

मंगलवार, 1 जनवरी 2008

नव वर्ष के प्रथम दिवस पर 'विश्व प्राँगण"











नववर्ष के प्रथम दिवस का सूर्योदय एक नई आशा की किरण लेकर आया. एक नई सुबह खिलखिलाती सी, जगमगाती सी अपने सुन्दर रूप से मुझे मोहित कर रही थी. मंत्र-मुग्ध सी मैं आकाश के एक कोने से चमकते सूरज को देख रही थी तो दूसरी ओर आँखों से ओझल होता फीकी हँसी हँसता शशि न चाहते हुए भी विदा ले रहा था.

नए वर्ष का मंगल गीत गाते हुए पंछी वृक्षों की फैली बाँहों में नाचते हुए चारों दिशाओं को मोहित कर रहे थे.

यह सुन्दर दृश्य देखकर विश्व प्राँगण में उतरी हर ऋतु की सुन्दरता का रूप याद आने लगा.


विश्व-प्राँगण में उतरीं ऊषा की किरणें
धरती ने जब ली अँगड़ाई !

सूर्योदय की चंचल किरणें मुस्काईं
अपने ही स्वर्णमयी यौवन से शरमाईं
पीतवर्ण सरसों आँचल सी लहराई
अन्न धन हाथों में अपने भर लाई.

विश्व-प्राँगण ग्रीष्म के ताप से तप्त हुआ
धरती ने जब ली अँगड़ाई !

ओस पसीने सा चमका धरती के माथे पर
प्यास बुझाने की तृष्णा थी सूखे अधरों पर
धानी आँचल फटा हुआ कृशकाय तन पर
वीरानापन छाया था वसुधा के मुख पर.
विश्व-प्राँगण में पावक पावस अति छाए
धरती ने जब ली अँगड़ाई !

जगी प्यास जब घनघोर घटाएँ छाईं
रिमझिम बूँदें लेकर मोहक वर्षा-ऋतु आई
नभ की कजरारी अखियाँ प्यारी भाईं
दामिनी चपला ने भी अदभुत सुन्दरता पाई.

विश्व-प्राँगण ठिठुर गया काँपा सीसी कर
धरती ने जब ली अँगड़ाई !

शरदऋतु के आते सब सकुचाए दुबके कोने में
मानव, पशु-पक्षी सब ओझल हुए किसी कोने में
तड़प उठी वसुधा पपड़ी फटे होठों पर होने से
तरु-दल भी पाले से मुरझाए शीत के होने से.


विश्व-प्राँगण में सूखा सा पतझर छाया
धरती ने जब ली अँगड़ाई !

अस्थि-पंजर बन कृशकाय तन लहराया
प्यासी बेरंग आँखों में पीलापन छाया
पावक पावस ने वसुधा का मन भरमाया
मधु-रस पाने का स्वर सूखे होठों पर आया.

विश्व-प्राँगण में ऋतुराज बसंत पधारे
धरती ने जब ली अँगड़ाई !

ऋतुराज जो आए संग बासंती पवन भी लाए
रंग-बिरंगे महकते फूलों की बहार लुटाने आए
वसुधा के सुन्दर तन पर धानी आँचल लहराए
रोम-रोम में उसके सुष्मिता अनोखी छा जाए.

नभ पर सुन्दर अति सुन्दर सुरचाप सजे
धरती ने जब ली अँगड़ाई !

चंदा की मदमाती किरणें उतरीं बहकी-बहकी
रवि-किरणें थी चंचल चपला से चहकी-चहकी
वसुधा के आँगन में कलियाँ बिखरीं महकी-महकी
नीलम्बर की सतरंगी सुषमा है लहकी-लहकी.

विश्व-प्राँगण में बिखरी चंदा की किरणें
धरती ने जब ली अँगड़ाई !
चंदा की चंचल चाँदी से किरणें सजीं हुईं
नभ की साड़ी अनगिनत तारों से टंकी हुई
चोटी जगमग करते जुगनुओं से भरी हुई
लहराते दुग्ध धवल आँचल से ढकी हुई.

विश्व-प्राँगण में उतरा मानव का विज्ञान
धरती ने जब ली अँगड़ाई !

विश्व-प्राँगण है प्रकृति का सुन्दर आँगन
रंग-बिरंगे फूलों का सुगन्धित उपवन
धीरे धीरे नीरसता से जो भरता जाता है
प्रदूषण से अब बेरंग हुआ वो जाता है.

विश्व-प्राँगण के सुन्दर आँग़न में वसुधा जब ले अँगड़ाई तो प्रकृति का सुन्दर मोहक रूप ही दिखाई दे उसमें, नव वर्ष में यही कामना है.

सोमवार, 31 दिसंबर 2007

मैं स्वार्थी हूँ

नए साल में छुटकारा कैसे पाऊँ उससे ? लिखने का एक मुख्य कारण मेरा स्वार्थ है. मीर साहब और शेख साहब कहा करते थे कि दुयाओं में गज़ब का असर होता है. मीर साहब रियाद स्कूल में उर्दू के उस्ताद थे और शेख साहब हिन्दीविभाग के अध्यक्ष हुआ करते थे. आजकल दोनो रिटायर हैं और कभी कभी दूसरे मित्रों से उनके बारे में हालचाल मालूम कर लेते हैं. रियाद में रहते हुए एक बात पर अटल विश्वास हो गया था कि परिचित अपरिचित सभी जब एक दूसरे के लिए दुआ माँगते हैं तो उसका गहरा असर होता है. इन दुआओं का असर होते मैंने खुद देखा था अपने पर, अपने बेटे पर और उन दुआओं का असर आज भी दिखाई देता है.
होता यह है कि जब हम दूसरों के लिए बिना स्वार्थ दुआ माँगते हैं तो एक पल के लिए अपने स्वार्थों को भूल कर दूसरे के हित के लिए, उसके कल्याण की कामना करते हैं. उस पल में किसी दूसरे के लिए की गई प्रार्थना असर कर जाती है. भाव-तरंगें शक्ति-पुंज बन कर सकारात्मक रूप में उस तक पहुँचने लगती हैं जिसके लिए प्रार्थना की गई है.
बस इसी विश्वास ने मुझे स्वार्थी बना दिया. नए वर्ष में ब्लॉगर परिवार से भी शुभकामनाएँ और दुआएँ पाने का लालच रोक न पाई.
वरुण की प्रेयसी पीड़ा के विषय पर फिर कभी चर्चा करेंगे अभी तो आप अपने परिवार के साथ 2007 के बचे कुछ घण्टों को नए वर्ष के आने तक खुशी खुशी मनाइए.
हम यहाँ दोनो बेटो के साथ और विजय दमाम से अंर्तजाल पर आभासी दुनिया में मधुर संगीत का आनन्द लेते हुए पुराने साल को अलविदा करते नए वर्ष का स्वागत करेंगे.
एक बार फिर सबको नव वर्ष की बहुत बहुत शुभकामनाएँ

रविवार, 30 दिसंबर 2007

कैसे रोकूँ, कैसे बाँधू जाते समय को












कैसे रोकूँ, कैसे बाँधू जाते समय को
जो मेरे हाथों से निकलता जाता है.

कैसे सँभालूँ, कैसे सँजोऊँ बीती बातों को
भरा प्याला यादों का छलकता जाता है.

विदा करती हूँ पुराने साल को भारी मन से
नए वर्ष का स्वागत करूँ मैं खुले दिल से !!


क्षण-भँगुर जीवन है यह
हँसते हुए गुज़ारना !

रोना किसे कहते हैं यह
इस बात को बिसारना !

काम, क्रोध, मद, लोभ को
मन से है बस निकालना !

झूठ को निकृष्ट मानूँ
सच को सच्चे मन स्वीकारूँ !

जैसे लोहा लोहे को काटे
छल-कपट को छल से मारूँ !

त्याग, सेवा भाव दे कर
असीम सुख-शांति मैं पाऊँ !

कोई माने या न माने
प्रेम को ही सत्य मानूँ !


मानव-स्वभाव स्वयं को ही नहीं मायाकार को भी चमत्कृत कर देता है. आने वाले नव वर्ष में जीवन धारा किस रूप में आगे बढ़ेगी कोई नहीं जानता.
सबके लिए शुभ मंगलमय वर्ष की कामना करते हैं.

शुक्रवार, 28 दिसंबर 2007

मीरा राधा की राह पे चलना

पवन पिया को छू कर आई
पहचानी सी महक वो लाई.

गहरी साँसें भरती जाऊँ
नस-नस में नशा सा पाऊँ.

पिया प्रेम का नशा अनोखा
पी हरसूँ यह कैसा धोखा.

पिया पिया का प्रेम सुधा रस
मीत-मिलन की जागी क्षुधा अब.

सजना को देखूँ सूरज में
वो छलिया बैठा पूरब में.

चंदा में मेरा चाँद बसा है
घर उसका तारों से सजा है.

मेघों में मूरत देखूँ मितवा की
घनघोर घटा सी उनमें घुल जाऊँ.

पिया मिलन की प्यास जगी है
दर्शन पाने की आस लगी है.

मीरा राधा की राह पे चलना
जन्म-जन्म अभी और भटकना !!

ना मैं धन चाहूँ ना रतन चाहूँ

विषैला शिशु-मानव

प्रकृति का ह्रदय चीत्कार कर रहा विकास के हर पल में !
विषैला शिशु-मानव हर पल पनप रहा उसके गर्भ में !

नस-नस में दूषित रक्त दौड़ रहा
रोम-रोम तीव्र पीड़ा से तड़प रहा !

पल-पल प्रदूषण भी फैल रहा
शुद्ध पर्यावरण दम तोड़ रहा !

मानव-मन में एक दूसरे के लिए घृणा का धुँआ भर रहा !
रक्त नहीं बचा अब, सिर्फ पानी ही उसके तन में बह रहा !

मानव-मन संवेदनशीलता खोज रहा
कैसे पा जाए यही बस सोच रहा !

आशा है मानवता की आँखों में
आश्रय पाती मानव की बाँहों में !!


नास्तिक फिल्म मे कवि प्रदीप द्वारा गाया गया गीत 'कितना बदल गया इंसान' सुनकर जहाँ दिल डूबने लगता है वहीं दूसरी ओर हेमंत और लता द्वारा गाया इसी फिल्म का दूसरा गीत मन को हौंसला देता है.

कितना बदल गया इंसान



गगन झनझना रहा

बुधवार, 26 दिसंबर 2007

सुनहरा अतीत गीतों में गुनगुनाता हुआ .....

आज पहली पोस्ट जो खुली रेडियोनामा की "फ़िज़ाओं में खोते कुछ गीत" जिसे पढ़कर लगा कि जहाँ चाह हो, वहाँ राह निकल आती है...
संयोंग की बात कि हमारे सिस्ट्म में कुछ पुराने गीतों का फोल्डर है जिसमें उषा जी का गाया हुआ 'भाभी आई' गीत है. सुर नूर लखनवी के हैं और संगीत दिया है सी रामचन्द्रन ने.
हालाँकि अन्नपूर्णा जी सुधा मल्होत्रा का गाया गीत सुनना चाहती हैं , इस बात की कोई जानकारे नहीं है हमें. फिलहाल इस गीत को सुनिए ..आशा करती हूँ कि आपको पसन्द आएगा.

कपट न हो बस मै तो जानूँ !

तुम छल क्यों करते मैं न जानूँ
क्यों मन रोए मैं न जानूँ
कपट न हो बस मैं तो जानूँ !

निस्वार्थ भाव स्वीकार करें तुम्हे
तुष्ट न क्यों तुम मैं न जानूँ
कपट न हो बस मैं तो जानूँ !

नैनों में है नहीं हास मुक्त
वीरान हैं क्यों मन मैं न जानूँ
कपट न हो बस मै तो जानूँ

भाव ह्रदय के हैं अति शुष्क
पाषाण बने क्यों मैं न जानूँ
कपट न हो बस मै तो जानूँ

मुक्त हास से स्नेह भाव से
मुख दीप्तीमान हो इतना जानूँ
कपट न हो बस मै तो जानूँ