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सोमवार, 12 नवंबर 2007

"ऐ की कर रई ऐं..मु ते पैर मल"



कुछ दिन पहले ज्ञान जी को बचपन में खाए मंघाराम एण्ड संस के बिस्कुट याद आए, फिर चना ज़ोर गरम याद आ गया तो हमें भी माँ की मीठी डाँट खाने की एक घटना याद आ गई. बात उन दिनों की है जब हम लगभग 8-9 साल के रहे होंगे. किसी कारणवश हमें तहसील बल्लभगढ़ में कुछ साल नानी के पास रहना पड़ा जहाँ हिन्दी बोली जाती है. वापिस माँ के पास आने पर एक अजीब से डर के कारण चुप रहने लगे थे. माँ को आंटी कहते थे और जो वे कहतीं चुपचाप मान जाते. माँ बेटी में एक अजनबीपन का रिश्ता था जिसे माँ स्वीकार नहीं कर पा रही थीं. हम भी अपने में ही मस्त रहते और माँ से थोडा दूर ही रहते. एक कारण शायद यह भी था कि पंजाबी भाषा समझ न आने पर हम और अधिक अंर्तमुखी हो गए थे.

बात नन्हें बचपन की थी जब डरने के बावजूद भी हम शरारत करने से चूकते नहीं . खाना खाने से पहले साबुन से हाथ-पैर धोने गए तो खेल में लग गए. साबुन को रगड़ते हुए उसकी सफेद झाग हाथों पर और उस पर तरह तरह की आकृतियाँ बनाने का मज़ा ही अलग आ रहा था. माँ ने देखा और रौबीली आवाज़ मे कहा – 'ऐ की कर रई ऐं..मु ते पैर मल , अच्छी तरा साफ कर.' हम माँ का मुँह देखने लगे. समझने की कोशिश कर रहे थे कि क्या करने को कहा जा रहा है. माँ फिर से थोड़ा और ऊँची आवाज़ मे बोली – "मेरा मूँ की देखनी ऐ... मै कह रईयाँ मूँ ते पैर मल." कड़कड़ती आवाज़ सुनते ही हमने आव देखा न ताव .. चुपचाप अपना पैर उठा कर मुँह पर रगड़ने की कोशिश करने लगे. पंजाबी भाषा हमारे सिर के ऊपर से निकल जाती. बाल-बुद्धि समझ नहीं पा रही थी कि यह कैसा रौब है अपने आप को माँ साबित करने का.

बाद में माँ ने बताया कि पहले तो उन्हें बहुत हँसी आई थी. घर भर में इस बात को लेकर ठहाके लगाए गए थे. बाद मे वे बहुत संजीदा होकर सोचने पर लाचार हो गई थी कि पंजाबी न बोलने पर उन्हें गुस्सा आ रहा है या शायद आँटी सम्बोधन को स्वीकार नहीं कर पा रही थीं. उन्होंने सोचा कि मुझसे दोस्ती करके ही अपने नज़दीक ला सकती हैं. आज हम दोनों माँ बेटी बहुत अच्छे दोस्त हैं. पंजाबी सिखाते सिखाते माँ स्वयं ही हिन्दी बोलने लगीं हैं.

रविवार, 11 नवंबर 2007

मानव की प्रकृति

विद्युत रेखा हूँ नीले अंबर की
स्वाति बूँद हूँ नील गगन की !

गति हूँ बल हूँ विनाश की
अमृत-धारा बनती विकास की !

अग्नि-कण हूँ ज्योति ज्ञान की
मैं गहरी छाया भी अज्ञान की !

मैं मूरत हूँ सब में स्नेह भाव की
छवि भी है सबमें घृणा भाव की !

वर्षा करती हूँ मैं करुणा की
अर्चना भी करती हूँ पाषाण की !

सरल मुस्कान हूँ मैं शैशव की
कुटिलता भी हूँ मैं मानव की !!

शनिवार, 10 नवंबर 2007

अपनी नज़र और अपनी सोच से देखिए !







दीपावली की पूजा !

खामोश घर में एक अजीब सी बेचैनी के साथ हम बैठे सोच रहे थे कि पर्वों का महत्त्व परिवार और मित्रों के साथ ही होता है. पर्व मनाए ही इसलिए जाते हैं कि आपस के मेल-मिलाप से प्रेम और भाईचारे का भाव बढ़े.
दीपावली का पर्व मिले जुले अनुभवों के साथ कुछ यादें छोड़ कर बीत गया. शायद यही पर्व व्यस्त जीवन में खुशी के दो पल देकर उर्जा प्रदान करते हैं. जीवन फिर से पुराने ढर्रे पर चलना शुरु हो जाता है. हम एक नए उत्साह के साथ संघर्षो से जूझने को तैयार हो जाते हैं.
अभी हम सोच ही रहे थे कि छोटी बहन का फोन आया. फोन पर बात कम और पटाखों की आवाज़ ज़्यादा आ रही थी. हँसते हुए बहन ने कहा कि पटाखों और संगीत की आवाज़ सुनकर ही मन को समझा लो. लेकिन ऐसा हो न सका.
माता-पिता और बच्चे परिवार की सबसे करीबी इकाई होते हैं. बेटे पिता को याद कर रहे थे जो काम के कारण आ नही सकते थे. उस समय एक दो मित्र भी बहुत बड़ा सहारा बन कर खुशी दे गए.
बहुत पहले पति एक लकड़ी की जड़ लेकर आए थे जो ओम की आकृति की थी लेकिन थोड़ा घुमा कर रखने पर वही ओम अल्लाह के रूप में दिखने लगता. हमने निश्चय कर लिया कि इसी लकड़ी के ओम की पूजा की जाएगी और साथ मे चाँदी के सिक्के को रखा जाएगा जिस पर एक तरफ गणेश जी और दूसरी तरफ लक्ष्मी जी का चित्र होता है.
पूजा की थाली सजाई गई जिसमें लकड़ी का ओम और चाँदी का सिक्का रखा गया. ताज़े फल और फूल के साथ दूध जलेबी. दिए की जलती लौ और अगरबत्ती से घर भर में एक अजीब सी चमक और महक फैल रही थी. संस्कृत के श्लोक, जो समझ में कम आते हैं लेकिन एक अद्भुत शक्ति का संचार करते हैं, सारे घर में गूँज उठे.
परिवार और मित्रों के लिए ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में सुख-शांति की कामना करते हुए हाथ जोड़ दिए.

बुधवार, 7 नवंबर 2007

प्राणों का दीप


















प्राणों का दीप जलने दो
जीवन को गति मिलने दो !

विश्व तरु दल को न सूखने दो
वसुधा को प्रेमजल सींचने दो !

विषमता का शूल न चुभने दो
जीवन-पथ को निष्कंटक करने दो !

अनिल से अनल को मिलने दो
प्रचंड रूप धारण करने दो !

सिन्धु-सरिता की सुषमा बढ़ने दो
धरा-अंबर की शोभा निखरने दो !

घन-चंचला कुसुम खिलने दो
विश्व उद्यान माधर्य बढ़ने दो !

प्राणों का दीप जलने दो
जीवन को गति मिलने दो !!

मंगलवार, 6 नवंबर 2007

मेरे पास सिर्फ एक लम्हा है !


मृत्यु अंधकारमय कोई शून्य लोक है

या

नवजीवन का उज्ज्वल प्रकाशपुंज है

या

मृत्यु-दंश है विषमय पीड़ादायक

या

अमृत-रस का पात्र है सुखदायक


तन-मन थक गए जब यह सोच सोच
तब मन-मस्तिष्क मे नया भाव जागा ------


मेरे पास सिर्फ एक लम्हा है
जो प्यार से लबालब भरा है !!

इस लम्हे को बूँद बूँद पीने दो
इस लम्हे को पल-पल जीने दो !

उसे बचपन सा मासूम ही रहने दो
मस्त हवा का झोंका बन बहने दो !

यौवन रस उसमें भर जाने दो
झर-झर झरने सा बह जाने दो !

इस लम्हे को ओस सा चमकने दो
इस लम्हे को मोम सा पिघलने दो !

पतझर के पत्तों सा झर जाने दो
झरझर कर पीले पत्तों सा गिर जाने दो !

लम्हा बना है अनगिनत पलों से कह लेने दो
लम्हा अजर-अमर है, इस मृग-तृष्णा में जीने दो !!

सोमवार, 5 नवंबर 2007

'जब मैं मर गया उस दिन' /'जब मैं मर जाऊँ उस दिन'



कभी कभी ऐसा संयोग होता है कि हम हैरान रह जाते हैं. अभी परसों ही रवीन्द्र जी का व्यंग्य लेख 'जब मैं मर गया उस दिन' पढा था और उसके बाद चिट्ठाकारों की टिप्पणियाँ भी पढ़ने को मिलीं. उच्च कोटि का व्यंग्य सबने सराहा. 'जब मैं मर जाऊँ उस दिन' यह बात आज अपने बेटे के मुँह से सुनने पर मैं सकते में आ गई. कोई टिप्पणी नहीं सूझ रही थी. साहित्यकार, लेखक , चिट्ठाकार और कवियों की मृत्यु पर लिखी गई रचनाओं को हम ध्यान से पढ़ते हैं और प्रशंसा भी करते हैं लेकिन जब अपनी संतान इस तरह के विषय पर चर्चा करना चाहे तो हम उनका मुँह बन्द कर देना चाहते हैं.
पहली बार अनुभव हुआ कि पढ़ने और सुनने में पीड़ा अलग-अलग थी. पता नहीं क्यों आज अचानक बेटे को सूझा कि माँ को सामने बिठा कर इसी विषय पर ही चर्चा करनी है कि 'जब मैं मर जाऊँ उस दिन' उसे चेरी के सुन्दर पेड़ के नीचे ही सदा के लिए सुला दिया जाए. दार्शनिक बना बेटा माँ को समझाने की कोशिश कर रहा था कि मृत्यु से बड़ा कोई सच नहीं. बहुत पहले जापान के चेरी पेड़ के बारे में बताते हुए बेटा बोला था कि इस पेड़ से खूबसूरत कोई पेड़ नहीं और इस पेड़ के नीचे आराम की नींद सोने का आनन्द अलौकिक ही होगा. उस समय मुझे सपने मे भी ख्याल नहीं आया था कि आराम की नींद से अर्थ चिर निद्रा लगाया जा रहा है. मैं हतप्रभ टकी टकी सी लगाए मुस्कराते बेटे को देख रही थी जिसकी बातों से मेरे चेहरे की मुस्कराहट गायब हो चुकी थी.