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मंगलवार, 30 सितंबर 2014

भूला बिसरा ब्लॉग़ - बुनो कहानी 2


अपराध बोध : अध्याय 1 : भयानक रातें                द्वारा तरुण 

रात का अंधेरा चारों ओर फैला हुआ था, रात के सन्नाटे को चीरती किसी उल्लू की आवाज कभी-कभी सुनायी पड़ रही थी। दूर दूर तक कुछ नजर नही आ रहा था, अशोक के कदम बड़ी तेजी से घर की तरफ बढ़ रहे थे। अचानक आसमान में बड़ी तेजी से बिजली कड़की थी, उसने नजर उठा के देखा। आसमान साफ नजर आ रहा था। किसी अंजान आशंका से उसका दिल काँप उठा था। वह चलना छोड़ अब दौड़ने लगा और तभी आसमान से आग के बड़े-बड़े गोले गिरने लगे। गिरते ही वे आसपास के पेड़ पौधों को अपनी गिरफ्त में लेने लगे। थोड़ी ही देर में अशोक आग की लपटों में घिरा हुआ था। उसको अपना अंत नजर आ रहा था, तभी सामने उसे एक बच्चा दिखायी दिया जो जलती हुई आग में भी नंगे पैर उसी की तरफ बड़ा चला आ रहा था। पास आकर बच्चे ने अपनी उंगली ऊपर उठायी, अशोक ने उसी दिशा में देखा तो एक जलते हुये पेड़ को अपने ऊपर गिरते देख कर उसकी चीख ही निकल गयी।
अशोक का सारा बदन पसीने से भीग गया था। लेकिन तभी जोर के सायरन की आवाज से उसकी नींद खुल गयी, शायद कोई पुलिस की जीप या एंबुलेंस थी, अशोक का सारा बदन पसीने से भीग गया था। उसने घड़ी की तरफ नजर दौड़ायी अभी सिर्फ रात के ३ ही बजे थे यानि सुबह होने में अभी भी कुछ वक्त बाकी था। थोड़ा पानी पीकर उसने एक सिगरेट सुलगायी और पास में पड़ी कुर्सी पर बैठ गया। पिछले ३ महीनों से ऐसा ही हो रहा था। उसे अक्सर रात को ऐसे ही भयानक सपने आने लगे थे। आज उसने सोच लिया था कि किसी डाक्टर से इस बारे में बात करेगा और यूँ ही सोचते-सोचते उसकी आंख लग गयी।
आंखों में सूरज की रोशनी पड़ते ही अशोक उठ बैठा। घड़ी की तरफ नजर दौड़ायी, सुबह के ७ बजे थे। फटाफट बाथरूम की तरफ भागा वो, आज फिर स्कूल के लिये लेट नहीं होना चाहता था। आधे घंटे में ही तैयार होके वो स्कूल की तरफ निकल पड़ा। सेंट जेवियर के स्टाफ रूम में घुसते ही उसे सामने उर्वशी दिखायी दी। उसका चेहरा थोड़ा उतरा हुआ था। अशोक ने हैलो कह जब उस बारे में पूछा तो उर्वशी ने बताया कि रात को ठीक से सो नही पायी। अशोक और उर्वशी दोनों को ही सेंट जेवियर ज्वाइन किये अभी तीन महीने ही हुए थे। इससे पहले दोनों एक साथ शहर से थोड़ा दूर बने एक स्कूल आनंदमयी विधा स्कूल में पढ़ाते थे। शाम को साथ में चाय पीने का वायदा लेकर दोनों अपने-अपने क्लास रूम की ओर बढ़ गये।
स्कूल से छूटते ही दोनों बाहर निकल पास के ही एक रेस्तरां की ओर बढ़ गये। अशोक अपने ही किसी विचार में खोया चल रहा था कि उर्वशी की आवाज ने उसकी तंद्रा भंग की। तुमने कुछ कहा, अशोक ने पूछा, "हाँ वो देखो वह मालती ही है ना", उर्वशी बोली। अशोक ने नजर दौड़ायी, सामने मालती ही थी। किसी उम्रवार औरत के साथ खड़ी थी। दोनों उस ओर ही बढ़ गये। मालती को देख एक बारी दोनों काफी दंग रह गये। "मालती ये क्या तुम कुछ बीमार हो?", उसकी माँ ने जवाब दिया, "हाँ, बेटा पता नही इसको क्या हो गया है? रात को सोते-सोते चीखकर उठ जाती है। कई रातों तक सोती नही, कहती है डर लगता है। भयानक भयानक सपने आते हैं, डाक्टर को दिखाया उसने सोने वाली गोलियाँ दे दी, कुछ दिनों तक सब ठीक रहा फिर गोलियों ने भी असर बंद कर दिया। अभी किसी पीर की मज़ार से होकर आ रहे हैं, क्या पता शायद कोई बुरा साया हो!
मालती भी उन्हीं के साथ आनंदमयी विधा स्कूल में पढ़ाती थी। अशोक सोच रहा था कि वो ही अकेला नहीं जिसके साथ ऐसा हो रहा हो और उर्वशी भी सोच रही थी कि वो अकेली नही है जो रात को ठीक से सो नही पाती, कोई और भी है जिसे ऐसे भयानक सपने आते हैं।
[इस कथा का दूसरा भाग लिखा है मीनाक्षी ने। अवश्य पढ़ें।]

3 comments:

Atul Arora said...
अगर कोई और तैयार हो तो ठीक वरना मैं भी इच्छुक हूँ।
no_adjectives_plz said...
मैं भी इच्छुक हूँ।
मीनाक्षी said...
तरुण जी, "भयानक रातें" कहानी न होकर कटु सत्य भी हो सकता है। भयानक रातों से मुक्ति पाना अपने ही हाथों में होता है , यह मैं अपने अनुभव से कह रही हूँ। अपराध बोध की अगली कड़ी का इन्ज़ार है।

अपराध बोध : अध्याय 2 : नया सवेरा

अशोक और उर्वशी की शादी को 5 साल हो गए थे. दोनों एक साथ पढ़ाते थे , दोनों का एक दूसरे के घर आना जाना था. दोनों परिवारों में अच्छे सम्बन्ध होते गए. हुआ यह कि दोनों के माता-पिता ने अशोक और उर्वशी से पूछ कर दोनो को शादी के बन्धन में बाँध दिया. उर्वशी के आते ही अशोक के परिवार मे जैसे लक्ष्मी भी साथ ही आकर बस गई. रियाद में नए स्कूल को चलाने के लिए शिक्षा मंत्रालय ने दोनों की अच्छी रिपोर्ट देख कर वहाँ भेज दिया.

आज उर्वशी की हालत देख कर अशोक को मालती की याद आ गई जिस पर बुरे साये की सम्भावना के कारण उसकी माँ पीर की मज़ार ले गई थी. उसके बाद क्या हुआ पता ही नहीँ चला. अशोक इन बातों पर विश्वास नहीं करता था लेकिन दिनों दिन उर्वशी की बिगड़ती हालत देखकर चिंतित था. उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे.

एक तो बीमारी जो पकड़ में नहीं आ पाई. गलत दवाइयाँ लेने के कारण हालत और भी बिगड़ गई. दूसरा 'गल्फ वॉर' के कारण अच्छे भले लोगों का भी मानसिक संतुलन खो रहा था.

चार साल का बड़ा बेटा और तीन महीने का छोटा बेटा लेकर अच्छी भली उर्वशी भारत से लौट कर आई थी. नए घर में आकर सभी खुश थे. अचानक कुवैत-इराक युद्ध की घोषणा सुनकर सभी अवाक रह गए. पहले तो सभी सोच रहे थे कि साउदी अरब कोई खतरा नहीं लेकिन एक मिसाइल गिरने पर तहलका मच गया. कुछ लोगों ने परिवारों को अपने अपने देश वापिस भेज दिया. कई अध्यापक-अध्यापिकाओं ने नौकरी छोड़ दी. अशोक ने ऐसा बिल्कुल नहीं किया. उसे शायद ईश्वर पर उन लोगों से अधिक विश्वास था जो रोज़् पूजा-पाठ किया करते थे. उर्वशी मैटरनिटी लीव पर थी. उर्वशी के लिए दोनों बच्चों को सम्भालना कोई मुश्किल नहीं था लेकिन शायद अपने पर ध्यान देना भूल कर वह बच्चों और अशोक पर ध्यान ज़्यादा दे रही थी.

कारण कुछ भी रहा हो पर उर्वशी अपने आप को बचा न पाई और उसे मलेरिया हो गया. दुख की बात यह कि डॉक्टर समझ नहीं पाए कि हुआ क्या है और गलत दवाइयाँ देनी शुरु कर दीं. देखते ही देखते उर्वशी की हालत बहुत खराब हो गई. खाना-पीना छूट गया.

कमज़ोरी के कारण घर के काम इक्कठे होते जाते. बच्चों पर ध्यान देना चाह कर भी वह ऐसा न कर पाती. अशोक अपनी तरफ से घर और बाहर दोनों सम्भालने की कोशिश में लगा हुआ था.

उसे उर्वशी की चिंता सता रही थी जो पूरी पूरी रात सो न पाती. दो दिन पहले सोते-सोते उर्वशी डर के उठी तो फिर लाख कोशिशों के बाद भी अशोक उसे सुला न पाया. उर्वशी की आँखों की वीरागनी देख कर अशोक को उससे ही डर लगने लगा था. जो बार-बार अशोक से कह रही थी, ' प्लीज़ अशोक , देखो कमरे के बाहर, देखो.. सफेद कपड़ों में ममी खड़ी है, मुझे ले जाएगी. मैं मरने वाली हूँ. मेरे बच्चों का क्या होगा.'' कहते-कहते उसकी सिसकियाँ बँध गईं. गले से लगाते हुए अशोक ने कहा, ''मेरी बहादुर उर्वशी कहाँ खो गई जो कभी मालती की हालत देख कर, उसे माँ के साथ पीर की मज़ार पर जाते हुए देख कर हँसी थी.'' सिर पर हाथ फेरते हुए अशोक ने कहा, ''बच्चों को देखो जो बिल्कुल तंग नहीं करते, खाने पीने का कोई समय नहीं रहा फिर भी चुपचाप खेलते रहते हैं, उन्हें तुम्हारी ज़रूरत है.'' उर्वशी ने अपने आप को समेटने की कोशिश की लेकिन शायद मानसिक तनाव उसके बस में नहीं था.
डाक्टर समझ न पाए और गलत इलाज के कारण उर्वशी का मलेरिया और बिगड़ गया.

मानसिक संतुलन बिगड़ता चला गया. तरह तरह की बीमारियों का डर उस पर हॉवी हो गया था. 'गल्फ वॉर' के दौरान रियाद सरकार द्वारा मास्क और बच्चों के लिए बैग बाँटे गए कि स्कड मिसाइल के गिरते ही इस्तेमाल किया जाए. उन्हें देखकर उर्वशी के बचे खुचे होश भी उड़ गए.

आज तो उर्वशी ने हद ही कर दी थी. सायरन के बजते ही बिना सोचे – समझे नन्हे से बेटे को गीले तौलिए से पूरा ढक दिया. सोचा भी नहीं कि नन्हीं सी जान की साँस रुक जाएगी और बड़े बेटे को मास्क पहना दिया. सिगरेट पीने के लिए अशोक घर से नीचे उतरा था , सायरन की आवाज़ सुन कर पड़ोसी भारद्वाज जी और शेख साहब के साथ अशोक भी आकाश की ओर देखने लगा. अचानक ऊँचीं आवाज़ के साथ भयानक धमाका हुआ. लगा कि पास मे ही धमाका हुआ होगा लेकिन स्कड मिसाइल को ऊपर ही तोड़ दिया गया था. पता चला कि किसी पुरानी सरकारी इमारत पर डिबरियाँ गिरी थी जो पहले ही खाली करा ली गई थी.

अचानक अशोक को ध्यान आया कि उसे जल्दी ही घर जाना चाहिए. एक ही साँस में सीड़ियाँ चढ़्ता अशोक घर पहुँचा तो नज़ारा देख कर उसका मुहँ खुला का खुला रह गया. जल्दी से उसने छोटे बेटे के ऊपर से तौलिया उतारा. बेटे की चलती साँस से अशोक की साँस मेँ साँस आई. अब उसे लगने लगा कि उर्वशी को मानसिक चिकित्सक के पास ले जाना ज़रूरी हो गया है.

एक शाम लम्बी बातचीत के दौरान निश्च्य किया गया कि मानसिक चिकित्सक के पास जाना ही पड़ेगा. अगले दिन दोनों बच्चों को बेबी सिटर के पास छोड़ कर दोनों अस्पताल गए. डॉक्टर ने दोनो से ही अलग अलग काफी देर तक बातचीत की. दिमाग को शांत रखने के लिए दवा दी गई. दवा क्या थी बस दिमाग को पूरी तरह से सुला दिया जाता था. मानसिक तनाव के कारण दिमाग की नसें जो कमज़ोर हो गई थीं , दवा से और सुन्न कर दीं गई.
हालत ठीक होने की बजाय और खराब हो गई. दवा लेकर सोने पर होश तो चले ही जाते थे पर जागते हुए भी होश हवास गुम थे. ममी अभी भी दिखाई देती थी, रात को सोते सोते उर्वशी अभी भी चिल्ला उठती थी. सफेद कपड़ों में लिपटी ममी का खौफ अभी उतरा नहीं था कि भयानक बीमारियों का डर, उस पर कुवैत इराक की लड़ाई से मानसिक तनाव जो बढ़्ता ही जा रहा था. कुछ साल पहले ही 'एयर क्रेश' के सपने आना बन्द हुए थे और अब यह मुसीबत. अशोक चाह कर भी कुछ नही कर पा रहा था.

एक शाम अशोक जब घर लौटा तो देखा कि दोनों बच्चे शाम के समय का नाश्ता कर रहे हैं. उसे अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ. किचन से निकलती उर्वशी के हाथों में चाय की ट्रे थी. 'मैने खिड़की से आपको कार पार्क करते देख लिया था. सोचा कि पानी तो गर्म है ही सो चाय बना ली जाए." उर्वशी के होठों पर वही पुरानी चिर परिचित मुस्कान खेल रही थी. अशोक की आँखें नम हो गईं. दोनों ने मिल कर चाय नाश्ता किया और बच्चों को तैयार करके बाहर घूमने निकल पड़े.

अशोक ने इस अचानक हुए परिवर्तन के बारे में चाह कर भी नहीं पूछा. उर्वशी सोच रही थी कि कब और कैसे अशोक को बताए कि एक ही दिन में आए परिवर्तन का कारण वह स्वयं ही है. अपने आप को समेट कर बिना सहारे खड़े होना आसान नहीं है लेकिन बच्चों को देख कर माँ की ममता जीत गई. कैसी विडम्बना थी कि उर्वशी की माँ ने फोन की बातचीत की दौरान अपनी ममता का हाथ खींच कर भी उसे एक अंजाना सम्बल दे दिया था. " उर्वशी, तुम्हारी मदद कोई नहीं कर सकता है. मैं भी नहीं. अपने ही बनाए चक्रव्यूह से ही तुम्हे खुद ही निकलना है. सब कुछ तुम्हारे अन्दर है. तुम चाहो तो एक ही झटके में डर के तानो-बानो से बाहर निकल सकती हो." फोन पर माँ की बात सुनकर पहले तो उर्वशी को अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ फिर अपने आप को संयत करके फोन रख कर खिड़्की के पास आकर बैठ गई थी.

आकाश में उड़ते पक्षियों को देखा, सड़क के किनारे डस्टबिन के आस-पास घूमती बिल्लियों को देखा. खिड़्की खुलते ही चार पाँच मक्खियों को अन्दर आते देखा तो उर्वशी सोचने पर विवश हो गई कि सब आराम से जी रहे हैं, अपना अपना काम कर रहे हैं. तो फिर उसे ही बेचैनी क्यों है.. शाम के वक्त फीका सा चाँद तो होता ही है लेकिन उसे लगने लगा कि चाँद रो रहा है. क्यों ... चाँद क्यों रोता है...! नहीं ऐसा नहीं हो सकता . सबको चाँद हँसता हुआ दिखाई देता है फिर मुझे ही क्यों रोता हुआ दिखाई दे रहा है.

अपने आप से बातें करते करते उर्वशी के दिमाग की उलझी नसें धीरे धीरे सुलझने लगीं. मन ही मन उसने निश्चय कर लिया कि वह अपने अन्दर की बुझी शक्ति को खुद रोशन करेगी. बहुत कठिन था लेकिन असम्भव नहीं था. उर्वशी ने एक डायरी बना ली थी. अपने मन में उठे तूफानों को पन्नों में उतार देती, डर से जुड़ी भावनाओं को बह जाने देती. मन को शक्ति देने वाली किताबें पढ़ती, ध्यान में बैठती, समय समय पर अपने ही व्यवहार का विश्लेषण करती. धीरे धीरे उसे अनुभव होने लगा कि जब कभी भी हमने अपने आप से बहुत प्यार किया है, अपने आसपास के लोगों से मोह किया है, असुरक्षा की भावना बढ़ी है, मन में अशांति पैदा हुई है. मृत्यु रूपी अन्धकार से भरी अमावस की रात बिताने पर ही जीवन की नई सुबह का सूरज दिखता है.

उर्वशी के जीवन में भी कुछ ऐसा ही हुआ. अपने आप से मोह छोड़ते ही उसे अंजाने डर से भी मुक्ति मिल गई. अशोक को फिर से वही पुरानी उर्वशी मिल गई जो अन्धेरों से बिल्कुल नहीं डरती थीं. बच्चों के साथ बैठे अशोक को किचन से उर्वशी के गुनगुनाने की आवाज़ आ रही थी. '' आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है." (इति)



बुधवार, 24 सितंबर 2014

भूला बिसरा ब्लॉग़ - बुनो कहानी (1)

कारे कजरारे : अध्याय १ : परिवर्तन                      द्वारा शशि सिंह 

स्वाति फिर से अपने कमरे में गुमसुम-सी बैठी थी। उसकी मां रंजना हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी कि दो शब्द भी कह पाये। हो भी कैसे? उसके लाख मना करने के बाद भी लड़केवालों के सामने उसकी नुमाइश की गई। नतीज़ा फिर वही...स्वाति सांवली थी लिहाजा नापसंद कर दी गई।

डॉक्टर मां और वैज्ञानिक बाप की इकलौती संतान स्वाति। पढ़ी लिखी होनहार लड़की थी लेकिन उसका सांवलापन उसका ऐसा दोष बना हुआ था जो अपने आप में कोई दोष था ही नहीं। इन सब बातों से स्वाति की मां बहुत चिंतित रहा करती लेकिन उसके पिता कुमार सा'ब पर इन बातों का कोई प्रभाव नहीं था। कुमार के लिए तो उनकी प्रयोगशाला ही सबकुछ थी, जो उन्होंने घर में ही बना रखी थी।

उधर कुमार लड़केवालों के जाने के बाद ड्राइंगरूम में ही बैठे कुछ सोच रहे थे। रंजना को स्वाति के कमरे की ओर से आता देख पूछा-

"स्वाति कैसी है?”

"खुद ही जाकर देख लो! मुझसे क्या पूछते हो?" रंजना ने झुंझलाकर जवाब दिया।

"अच्छा ठीक है... मैं लैब में जा रहा हूं। वहीं एक कप चाय भिजवा देना।" और कुमार उठकर लैब की ओर जाने लगे।

"तुम तो बस चाय ही पीते रहो... क्लिनिक से लेकर घर तक सब जगह मैं ही पिसती रहूं और जवान बेटी की चिंता अलग... आखिर मां हूं न... पर तुम्हें क्या...?

रंजना खुद को संभाल न सकी और आंसू निकल पड़े।

कुमार, रंजना की ओर वापस मुड़े और सामने खड़े होकर प्यार भरी नजरों से देखते लगे।

“अब क्या है? रंजना की आवाज़ में अब कुछ नरमी थी।

"रंजना! एक बात बताओ..."

"क्या?"

"आखिर मैं भी तो काला हूं... तुमने मुझमें ऐसा क्या देखा कि आज तक हम साथ-साथ हैं?"

"मैं क्या जानूं?" थोड़ा रुककर, "लेकिन तुम ये सब अभी क्यों पूछ रहे हो?"

"इसलिए कि अगर कलूटे कुमार को प्यारी रंजना मिल सकती है तो क्या हमारी बेटी को कोई पसंद करने वाला नहीं मिलेगा?"

कुमार की आवाज़ में एक बाप का विश्वास था।

"लेकिन कुमार! अब वो बात नहीं रही... आज दुनिया काफी बदल चुकी है।"

"मैं दुनिया को फिर से बदल दूंगा।" कुमार का स्वर बदला हुआ था।

"क्या मतलब?"

"आओ मेरे साथ।" और कुमार रंजना का हाथ पकड़कर कुमार लैब की ओर जाने लगे।

रंजना की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर कुमार को अचानक हो क्या गया?

रंजना को सहसा कुमार की बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था लेकिन वह जानती थी कि कुमार की विश्वास भरी आंखें झूठ नहीं बोल रही हैं।
लैब में आकर कुमार ने रंजना का हाथ छोड़ा और पिंजरे में कूद रहे चुहे की ओर इशारा करते हुए कहा, "जानती हो रंजना! यह सफेद चूहा कल तक काले रंग का था और...और अब हमारी स्वाति भी गोरी हो जाएगी।"

रंजना को सहसा कुमार की बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था लेकिन वह जानती थी कि कुमार की विश्वास भरी आंखें झूठ नहीं बोल रही हैं।

"मैं जानता हूं कि अभी तुम्हें मेरे बात पर विश्वास नहीं हो रहा होगा लेकिन मैं ऐसा कर सकता हूं। कल मैं स्वाति पर यही प्रयोग करूंगा जिसमें मुझे तुम्हारी मदद की जरुरत पड़ेगी। कल के बाद हमारी दुनिया बदल जाएगी।", कुमार ने रंजना को समझाया, फिर रंजना चली गई और वह खुद अगले दिन की तैयारी में लग गये।

अगले दिन कुमार, रंजना और स्वाति पूरी तरह से तैयार होकर लैब में आये। यहां कुमार ने स्वाति को प्रयोगशाला के बीचों बीच स्थित एक बड़ी-सी मशीन के सामने लेट जाने को कहा। मशीन देखने में किसी सीटी स्कैन की मशीन जैसी लगती थी। कुमार उस मशीन में लगे होलोग्राफिक कैमरे को संचालित करने लगे। उन्होंने पहले इस कैमरे की मदद से स्वाति की थ्रीडी फिल्म बनाई और इस फिल्म को स्कैन मशीन में ट्रांसमिट कर दिया जिससे मशीन में स्वाति के शारीरिक आयतन में स्थित एक-एक परमाणु के आंकड़े के ज़रिये पूरी शारीरिक योजना को ज्यों का त्यों सुरक्षित कर लिया।

स्वाति अपने पिता के निर्देशों का यंत्रवत पालन कर रही थी और रंजना की आंखों में विस्मय के भाव थे। थोड़ी देर बाद कुमार स्कैन मशीन से जुड़ी अपनी नायाब मशीन की ओर मुड़े जो उनकी पंद्रह सालों की मेहनत का नतीज़ा थी। कुमार ने जैसे ही इस मशीन को चालू किया रंजना चीख पड़ी क्योंकि स्वाति की जगह अब एक प्रकाश पुंज भर रह गया था।

रंजना के चेहरे पर भय और आंखों में आंसू थे।

"कुमार ये प्रयोग बंद करो..."

"लो पानी पिओ", कुमार ने रंजना की ओर पानी का गिलास बढ़ाने हुए कहा। "स्वाति को कुछ नहीं हुआ, मैंने सिर्फ उसके शरीर को ऊर्जा में बदला है।"

फिर कुमार ने उस पूरे प्रकाश-पुंज को एक प्रिज़्म से गुजारा। प्रिज़्म से निकलने वाले गाढ़े रंगों को उसने निकलने वाले दिया और हल्के रंगों को वापस स्कैन मशीन में पहुंचा दिया। कुमार ने फिर से इस ऊर्जा को पिण्ड यानी स्वाति के शरीर के रूप में बदल दिया।

स्वाति के पास जाते हुए कुमार के भी कदम एक बार डगमगा गये, लेकिन नजदीक जाकर स्वाति को देखा और चिल्ला उठे, "मैं जीत गया! रंजना! देखो मैं जीत गया... हमारी बेटी गोरी हो गई।" रंजना की आंखों में अब खुशी के आंसू थे। वह भी स्वाति की ओर बढ़ी...वह उसे छूकर देखना चाहती थी।

"अभी नहीं, पांच मिनट बाद वह खुद ही होश में आ जायेगी।" कुमार ने रंजना को रोका और दोंनों स्वाति के नये रूप को निहारने लगे।

इससे पहले की रंजना और कुमार को कुछ समझ पाते, स्वाति ने जिद पकड़ ली और बेतहाशा रोना शुरू कर दिया।
स्वाति होश में आते ही उठकर रंजना से लिपट गई और किसी बच्ची के लहज़े में कहने लगी, “मम्मी, मम्मी मुझे आइसक्रीम और गुड़िया दिला दो।” इससे पहले की रंजना और कुमार को कुछ समझ पाते, स्वाति ने जिद पकड़ ली और बेतहाशा रोना शुरू कर दिया।

कुमार की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर 24 साल की स्वाति पांच साल की बच्ची की तरह क्यों व्यवहार कर रही है? वे भागते हुए पिंजरे में बंद उस चूहे के पास पहुंचे, जिस पर यही प्रयोग एक दिन पहले किया गया था। चूहा बिल्कुल सामान्य था। "तो फिर स्वाति को क्या हुआ?" कुमार सोच में पड़ गये और सहसा ही उन्हें कुछ ध्यान आया। चूहे को तुरंत पिंजरे से निकाल कर उसे पड़ोस के टेबल पर रख उन्होंने उसे अचेत कर दिया। अगले ही पल उनकी सधी अंगुलियाँ तेज़ी से चूहे की शल्य क्रिया कर रही थीं। उन्होंने देखा कि खुन का रंग हल्का होने के कारण खास तो नहीं बदला, लेकिन चूहे की खोपड़ी का हिस्सा खुलते ही वे सकते में आ गये। चूहे के ग्रेमैटर वाला भाग भी रंग बदलने की प्रक्रिया की वजह से अब व्हाइट मैटर में तब्दील हो चुका था। इसका मतलब था कि उसके मस्तिष्क का विकास फिर से अपने शुरुआती दौर में जा पहुंचा था।

कुमार लड़खड़ा कर प्रयोगशाला की ज़मीन पर धप्प से जा बैठे। कारी कजरारी स्वाति की त्वचा तो गोरे रंग की हो चुकी थी मगर इसके साथ ही वह मानसिक रूप से से महज पांच साल की बच्ची रह गई थी। (क्रमशः)

[इस विज्ञान कथा का दूसरा भाग लिखा है मीनाक्षी ने। अवश्य पढ़ें।]

9 comments:

Jitendra Chaudhary said...
बहुत सुन्दर,
बुनो कहानी मे यह पहली विज्ञान कथा है, अच्छा लिखे तो थोड़ा सा संपादन की जरूरत है, वो देबू भाई, मौका मिलते ही कर देंगे।

हाँ तो भई कौन है दूसरा महारथी?
जो इस कहानी को आगे बढा सके।
Tarun said...
Kehani Achhi hai lekin movie dekh dekh ke itna dimaag kharab ho gaya ki suru ke 2-3 para parte hi andaaj laga liya ki aage kya hone wala hai. Shashi bhai accha prayas hai (jaisa ki aapne abataya tha ki pehli kahani thi)..Bus ek baat kehni hai

Savnlapan pehle bahut maayne rakhta tha lekin samay ke saath woh kam hona chahiye tha....doctor, scientist educated community ko bilong karte hain isliye us community me is terah ke vichhar kya maayne rakhenge....
aisa mera maanna hai, Aap kya kehte ho
SHASHI SINGH said...
तरुणभाई
आप सही कह रहे हैं कि समय के साथ चीजों को बदलना चाहिए, मगर यही तो विडम्बना है अपने समाज की. यहां रोजगार मूलक पाठ्यक्रम पूरा करके समाज में तथाकथित प्रतिष्ठा हासिल कर लेना एक बात है और सही मायनों में शिक्षित होना बिलकुल ही दूसरी बात है. आपको याद होगा कुछ वर्षों पहले दक्षिण भारतीय मूल के एक अप्रवासी किशोर ने मात्र 17 वर्ष की आयु में डॉक्टर बनकर पूरी दुनिया में नाम कमाया. इस घटना के कुछ समय बाद इसी घर में इस किशोर के बड़े भाई की पत्नी के साथ दहेज के लिए उत्पीड़न का मामला सामने आया था.
शशि
SHASHI SINGH said...
पद्मनाभजी,
कारे कजरारे का बीड़ा उठाने के लिए बधाई हो! हम तो बस उतावले हुए जा रहे हैं... सबकुछ तो ठीक़ है बस धीरज धरना ही मुश्किल लग रहा है. खैर, अच्छी चीज के लिए थोड़ा सब्र तो करना ही पड़ेगा.
शशि
Anonymous said...
bahut sunder achha prayaas hai
Sachin said...
Wah!!!

Bahyt hee achha likhte ho aap.

Keep it up.
gul said...
adaab
kahani bohot sunder hai aur yeh kahani apne under kadhiyaN dar kadhiyaN samete howe hai
mere pass etna same nahi ki mai hindi fonts mai likh sakoN kyoN ki hindi likhne ki speed bohot kum hai agar aap roman english mai svekaar kareN to kahani ko age dadhaya kar de sakne ki kashmta hai
gul dehelvi
karachi
pakistan
Debashish said...
Gul,

Behad khushi hui aapka comment padh kar. Aap hamein kahani ka agala hissa Roman Hindi mein type karke bhej sakte hai, Hindi mein type hum kar lenge. Aap masauda mujhe debashish at gmail dot com per bhej sakte hein.

Shukriya,
ग़रिमा said...
वाह! विज्ञान गल्प काश मै इस कहानी को आगे बढाती पर मै विज्ञान गल्प पढती हुँ आज तक लिखा नही और ये कहानी इतनी अच्छी बन रही है कि मै लिखना भी नही चाहुँगी, क्युँकि मुझे नही पता मै अच्छा सा लिख पाऊँगी भी की नही :(

आगे की कहानी के इंतजार मे...

शुक्रिया
गरिमा


कारे कजरारे: अध्याय 2: नई उड़ान

शशि सिंह द्वारा लिखित पिछले  भाग से आगे...लेखिकाः मीनाक्षी। दुबई निवासी मीनाक्षीकी रुचि गद्य  कविता दोनों में ही है। उनकी रचनायें उनके चिट्ठे "प्रेम ही सत्य हैपर पढ़सकते हैं

रंजना चाय लेकर लैब में पहुँचीं तो देखा पति कुमार अपनी कुर्सी पर ही लुढ़क गए थे। दिन-रात अपनी लैब में शोध करते-करते कुमार खाना-पीना-सोना सब भूल गए थे। "कुमार, चायऽऽऽ", रंजना के चिल्लाने पर भी वे उठे नहीं, नींद में कुछ बुदबुदा रहे थे। ऐसा लग रहा था कि वे कोई भयानक सपना देख रहे हैं। अनमयस्क रहते ही वे अचानक चिल्ला उठे, "स्वाति, स्वाति, मेरी बच्ची, हे भगवान मैंने क्या कर डाला।" रंजना डर गई और ज़ोर ज़ोर से कुमार को झंझोड़ने लगी। कुमार उठ तो गए पर वे तो ज्यों यथार्थ में जी ही नहीं रहे थे। फटी-फटी आँखों से कभी वे रंजना को देखते तो कभी अपने आस पास, कुछ देर में कुमार ने घबरा कर पूछा, "स्वाति, स्वाति कहाँ हैं?"

"कुमार, स्वाति तो अपने कमरे में ही बैठी है, और कहाँ जायेगी? उसे बुलाना है?"

पर ये सब अनसुना कर कुमार सरपट अपनी बेटी के कमरे की ओर दौड़ पड़े। रंजना पीछे से चिल्ला कर बोली, "क्या हुआ आपको? क्या कोई सपना देख लिया। कुछ कहिए भी, अरे संभल कर चलिए।" कुमार बदहवासी में बीटिया के कमरे में गये तो देखा कि स्वाति अपने बिस्तर पर बैठी टीवी के रीमोट से चैनल बदलती अपने मन में उठे तूफ़ान को रोकने की कोशिश कर रही थी। देखा वही प्यारी सी साँवली-सलोनी उनकी लाड़ली बिटिया अपने पापा से नाराज़ होकर बैठी है। उसका नाराज़ होना सच भी है, क्यों न हो नाराज़?

सब अनसुना कर कुमार सरपट अपनी बेटी के कमरे की ओर दौड़ पड़े। रंजना पीछे से चिल्ला कर बोली, "क्या हुआ आपको?"
कुमार और रंजना चाहते हैं कि शोध का हिस्सा बनकर स्वाति अपना रंग बदल कर अपना जीवन ही नहीं, बल्कि उनका जीवन भी सफल कर दे और खुशी-खुशी शादी करके अपने घर चली जाए। स्वाति का कुमार से नाराज़ होना स्वाभाविक ही था, उसे अपने पापा से कतई आशा नहीं थी कि वे ऐसे शोध-कार्य में अपना समय बरबाद करेंगें जो रंग-भेद पर टिका होगा। आज के युग में भी अगर लोग रंग-भेद करते हैं तो ऐसे जाहिल लोगों से कोई सम्बन्ध ही नहीं रखना चाहिए।

कुमार बेटी को गुस्से में देखकर बिना कुछ कहे नीचे ड्राइंग-रूम में आ गऐ, जहाँ रंजना दुबारा नई चाय बना रही थी। दोनो ने एक-दूसरे को देखा, आँखों ही आँखों में एक-दूसरे की बात समझ कर चाय की चुस्कियाँ लेने लगे। शायद मन ही मन दोनों ने निश्चय कर लिया कि अब इस बारे में कोई चर्चा नहीं की जाएगी। कुमार ने जैसे कुछ सोच लिया और मुस्करा उठे तो रंजना ने उनकी तरफ देखा। कुमार रंजना से बोले, "स्वाति के इक्कीसवें जन्मदिन पर मैं उसे ऐसा तोहफ दूँगा जिसे पाकर स्वाति खुशी से झूम उठेगी।''

"मुझे भी कुछ पता चले, बताइए तो"

रंजना के लाख पूछने पर भी कुमार कुछ न बोले और उठ कर अपनी लैब में चले गऐ।

रिटायर्डमेंट के बाद घर में लैब खोलने का एक मकसद जो था आज वह सुबह देखे भयानक सपने के साथ ही खत्म हो गया। कई बार स्वाति ने कुमार से इस बारे में बात करनी चाही लेकिन हमेशा टाल दिया या बात बदल दी। आज उन्हें स्वाति की सारी बातें याद आ रहीं थीं। कुमार जानते थे कि स्वाति युनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में मानव-शास्त्र के प्राध्यापक पेरा से प्रभावित होकर मानव के अलग-अलग रंगों के बारे में शोध करना चाहती है। भूमध्य रेखा के नज़दीकी देशों के लोगों का रंग साँवला या काला होता है और रेखा से दूर के देशों के लोगों का रंग साफ होता है लेकिन ऐसा क्यों होता है? ऐसा होने का क्या कारण है? उत्पत्ति का मूल कारण क्या है? अभी कई प्रश्नों के उत्तर पाना बाकी है। भूमध्य-रेखा से दूर रहने वाले लोगों के साफ रंग होने में कितने जीन्ज़ शामिल हैं? अणु कोशिका में परिवर्तन का मूल कारण क्या है? मनुष्य की त्वचा, बालों और आँखों के रंग में आनुवांशिक सम्बन्ध क्या हैं?

कुमार ने निश्चय कर लिया कि अब से वे अपनी बेटी के शोध-कार्य में उसकी मदद करेंगे। बेटी के सपने को पूरा करना ही उनका सपना बन गया। दो दिन बाद स्वाति का जन्मदिन था, उन्होंने स्वाति के सभी मित्रों को बुलाकर गेस्ट हाउस में चुपके-चुपके पार्टी की सभी तैयारियाँ करनी शुरू कर दीं। उधर स्वाति हैरान थी कि मम्मी पापा कोई नाराज़गी या दुख न दिखा कर स्वाभाविक व्यवहार कर रहे थे। पापा उसके कमरे आए पर बिना बात किए चले गए, अन्दर ही अन्दर वह अपने किए पर पछता रही थी कि उसने पापा को उदास और दुखी कर दिया। आज तक उसने सिर झुकाए आदर्श बेटी की तरह मम्मी पापा का कहना माना था।

स्वाति उठ कर ड्रैसिंग टेबल के सामने खड़ी हो गई, अपने साँवले चेहरे पर नज़र डाली, जिसे कुदरत ने बहुत सुन्दर तराशा था। आज भी उसे याद है कि कनाडा से जब पीटर पहली बार अपनी छुट्टियाँ बिताने भारत आया था तो किस तरह से आँखों ही आँखों में उसकी खूबसूरत आँखों की तारीफ़ करता और जब कोई आसपास नहीं होता तो उसे 'हेइ कॉफी' कह कर पुकारता तो स्वाति शर्म से लाल हो जाती, समझ न पाती कि क्या करे। दुबारा से उसने पीटर का खत उठाया और पढ़ना शुरु किया। हर बार की तरह इस बार भी पीटर ने लिखा था, "'हेइ कॉफी, कब शोध करके बताओगी कि मुझे कॉफी का रंग कैसे मिलेगा?"

पीटर स्वाति का बचपन का दोस्त था, जो स्कूली पढ़ाई करके आगे की पढ़ाई के लिए कनाडा चला गया। सोच रही थी कि किसी को कोई फिक्र ही नहीं कि उसके मन में क्या चल रहा है। मम्मी की सोच तो बस मेरी शादी पर ही रुक गई है। पापा तो मेरी बात समझ जाते थे लेकिन आजकल उन्हें भी क्या हो गया है। क्यों पापा छोटी सोच के लोगों के लिए अपना समय बरबाद कर रहे हैं, कैसे कहे कि अभी वह शादी के बारे में सोच ही नहीं रही है, उसका तो कुछ और ही मकसद है। क्या बेटियाँ जन्मीं तो बस घर-गृहस्थी चलाने का काम ही रह गया है उनके लिए, अगर ऐसा है तो क्यों उन्हें ऊँचीं शिक्षा दी जाती है, बस घर चलाने भर के लिए थोड़ी बहुत पढ़ाई करा दो और शादी कर दो।

स्वाति का कमरा ऐसी दिशा में है कि सूरज की पहली किरण खिड़की से सीधे उतर कर उसके चेहरे को प्यार से सहलाती उसे उठाती है, आज कुछ ज़्यादा ही चमक रहीं थीं शायद मेरा जन्मदिन मुबारक कहने को चमचमती सी मेरे कमरे में उतरीं हैं। स्वाति हैरान थी कि हमेशा की तरह आज मम्मी पापा ताज़े फूलों का गुलदस्ता लेकर उसके कमरे में नहीं खड़े थे, वह समझ गई कि इस बार दोनो ही उससे बहुत नाराज़ हैं। सोहनलाल अपने ठीक समय पर चाय की ट्रे रख कर चला गया। पूछने पर पता चला कि मम्मी बाज़ार गईं हैं और पापा सुबह से ही अपनी लैब में हैं। वह कुछ आहत सी होकर बैठी रह गई। पूरे घर में छाए सन्नाटे को चीरती फोन की घंटी बज उठी, शायद मोहिनी का फोन होगा, जो आजकल ऑस्ट्रेलिया में अपने पति के साथ रह रही है। आज भी सबसे पहले उसका ही फोन आया होगा लेकिन सोहनलाल फोन उठा कर लैब की ओर जाता दिखाई दिया। अनमनी सी होकर स्वाति जिम जाने की लिए तैयार होने लगी, जब भी उसका मन दुखी या उदास होता वह घंटो तक कसरत करती, घर आकर एक घंटा नहाने में बिताती, तब जाकर कहीं मन शान्त होता।

स्वाति दुखी तो थी ही लेकिन हैरान भी थी कि पहले कभी मम्मी पापा उसका जन्मदिन नहीं भूले तो अब क्या हुआ।
दोपहर का खाना स्वाति ने अपने कमरे में ही मँगवा लिया। पूछने पर पता चला कि पापा अभी भी लैब में हैं और माँ बाज़ार से आईं नहीं थी। स्वाति दुखी तो थी ही लेकिन हैरान भी थी कि पहले कभी मम्मी पापा उसका जन्मदिन नहीं भूले तो अब क्या हुआ। शाम के सात बजे सोहनलाल ने आकर कहा, "बिटिया रानी, अपने लिए एक कम्बल चाहिए। साहब के पास लैब में जाते हुए डर लगता है।" स्वाति ने चाबी देते हुए कहा, ''यह लो चाबी, कम्बल निकाल कर चाबी लौटा देना।" सोहनलाल माना नहीं, ज़िद करने लगा, "स्वाति बिटिया, आप ही निकाल कर दें, मैं अकेले नहीं जाऊँगा।" ''अच्छा बाबा, मैं ही चलती हूँ।'" यह कह कर स्वाति गेस्ट हाउस की चल पड़ी। अन्धेरा हो चला था, आज बगीचे के साथ जुड़े आँगन की भी लाइट नहीं जल रही थी।

गेस्ट हाउस के दरवाज़े पर पहुँचते चाबी ही लगाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी, अचानक दरवाज़ा खुला और मम्मी पापा मुस्कराते हुए हाथ में लाल गुलाबों के गुलदस्ते लेकर खड़े हैं, पीछे खड़े सभी लोग ज़ोर से चिल्लाए, " हैप्पी बर्थडे डीयर स्वाति" स्वाति एक पल के लिए कुछ समझ नहीं पाई।

"पापा मम्मी थैंक्यू सोऽऽऽऽ मच"

स्वाति की आँखों में खुशी के आँसू थे, आगे बढ़कर दोनो के गले लग गई। जन्मदिन की पार्टी को अचंभित दावत का नाम देना चाहिए। मित्रों ने आगे बढ़ कर बधाई दी लेकिन स्वाति पीटर को अपने सामने देखा तो देखती ही रह गई, उसे अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हुआ। पापा ने आगे बढ़कर कहा, "बेटी, अभी एक और आश्चर्य बाकि है, चलो पहले केक काटो।" केक काटते हुए स्वाति के हाथ काँप रहे थे, उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है। केक कटते ही तालियों के साथ सभी जन्मदिन मुबारक का गीत गाने लगे। स्वाति ने मम्मी पापा को बारी बारी से केक खिलाया। पीटर ने मुस्करा कर अपना मुँह भी खोल दिया। शरमाते हुए स्वाति ने केक का एक टुकड़ा उसके मुँह में भी डाल दिया।

कुमार और रंजना बेटी को देखकर खुश हो रहे थे। बहुत दिनों बाद आज बेटी के चेहरे पर प्यारी मुस्कान देखकर उनकी आँखों में भी खुशी के आँसू आ गए। "स्वाति के जन्मदिन पर हम दोनो की तरफ़ से एक तोहफ़ा, मेरी लैब आज से स्वाति की लैब होगी। आज से मैं स्वाति के नए प्रोजेक्ट में उसके सहायक के रूप में काम करूँगा।" कुमार ने यह कहते हुए स्वाति को गले से लगा लिया। पापा की बात सुनकर स्वाति हक्की-बक्की खड़ी रह गई। उसे अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ। पीछे खड़ी रंजना भी धीरे से स्वाति के कान में फुसफुसाते हुए बोली, "आज से घर में शादी की चर्चा बिल्कुल बन्द, यह मेरा तोहफा है।"

कुछ देर के लिए स्वाति को लगा जैसे नन्हीं सी चिड़िया को पँख मिल गए हों। आकाश में दूर तक उड़ने की कल्पना से ही वह भाव-बिभोर हो उठी। उसके कारे कजरारे नैनों के कोर में खुशी से उपजे जल के नन्हे कतरे आनन्द के ताप से कब गायब हो गये उसे पता ही न चला। (समाप्त)

4 comments:

काकेश said...
बेहद खूबसूरत अंत.पहला भाग जहां विज्ञान कथा की याद दिलाता था वहीं दूसरा भाग मानव कथा.इस सुंदर तरीके से कहानी को खत्म करने के लिये मीनाक्षी जी को धन्यवाद.
SHASHI SINGH said...
मीनाक्षीजी, सबसे पहिले तो इस कहानी को मुकम्मल करने के लिए ढेरों बधाई!

इस कहानी का इससे बेहतर समापन हो ही नहीं सकता था।

कारे-कजरारे मैंने 1999 में विद्यार्थी जीवन में लिखा था। तब मुझे लगा था कि एक दीवाने वैज्ञानिक को उसके किये की सज़ा मिल गई। मगर दिल नहीं मान रहा था... कहीं कुछ अधूरेपन का अहसास था। यहां तक कि उस समय जब दोस्तों को सुनाया तब उन्हें भी अधूरापन दिखा। मैं इस दंभ में था कि मैंने उस वैज्ञानिक को सज़ा दे दी जिसने कुदरत को बदलने की कोशिश की। साथ ही उस समाज को भी सबक सिखा दिया जिसने मिस्टर कुमार को गुस्ताख़ी के लिए प्रेरित किया। मगर मन में यह कचोट भी हमेशा रहा कि कहीं न कहीं मैं स्वाति के साथ बड़ा अन्याय कर गया। शायद यही कारण रहा होगा कि मैं स्वाति से आंख नहीं मिला पाया। जब भी कोशिश की इस कहानी को आगे बढ़ाने कि लगा जैसे स्वाति मुझे धिक्कार रही हो और हर बार नाकाम रहा।

मीनाक्षीजी, आज आपने मुझे मेरे अपराधबोध से मुक्त्ति दिला दी। मेरी स्वाति को एक नई ज़िन्दगी दे दी... उसे एक मकसद दे दिया। बहुत-बहुत धन्यवाद!

-शशि
मीनाक्षी said...
यह जानकर बहुत खुशी हुई कि आपको कहानी अच्छी लगी।
विज्ञान या प्रकृति में मानवीकरण चार चाँद लगा देता है,ऐसा मेरा विचार है।
शशि जी , आपकी स्वाति हज़ारों साँवली सलोनी लड़कियों में ज़िन्दा है जो आकाश की
बुलन्दियों को छूने की कोशिश में लगी हैं।
kase kahun?by kavita verma said...
sundar kahani .kahani ke ant me rang ko nazar andaz kar jis tarah guno aur mahtvkansha ko man diya gaya vah sarahneey hai.

बुधवार, 17 सितंबर 2014

उतरते सूरज की कहानी...



हर शाम जाते सूरज की बाँहों से
 किरणें मचल कर निकल जातीं...
नन्हीं रंगबिरंगी सुनहरी किरणें 
बादलों के आँचल से लिपट जातीं...








गुस्से में लाल पीला होता  
सूरज उतरने लगता आसमान से नीचे
गहराती सन्ध्या से सहमे बादल
 धकेल देते किरणों को उसके पीछे 

  
  


शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

बच्चों के सुनहरे भविष्य की आस

सन 2007 का शिक्षक दिवस नहीं भूलता , उसी दिन त्यागपत्र देकर अपने प्रिय शिष्यों से अलविदा ली थी , यह कह कर कि जल्दी लौटूँगी लेकिन वह दिन नहीं आया. एक शिक्षक के लिए शिक्षा और शिष्य ही अहम होते हैं और जब उन्हें त्याग दिया जाए तो शिक्षक की अपनी आभा भी उनके साथ ही चली जाती है. बस यादों का समुन्दर रह जाता है जिसके किनारे बैठ कर उन आती जाती लहरों में अपना सुनहरा अतीत हिलोरें मारता दिखाई देता है.
शुक्र की छुट्टी , नाश्ता के बाद की अलसाई सी सुबह , हम पति-पत्नी दोनों अपनी अपनी आभासी दुनिया में विचरते हुए अपने अपने ख्यालों को एक दूसरे के साथ भी बाँट रहे हैं. यूट्यूब पर शिक्षक दिवस के गीत चल रहे हैं. 'झूठ से बचे रहें सच का दम भरें' गीत सुनते ही पिछले दिनों की एक छोटी सी फारसी फिल्म याद आ गई जिसमें दिखाया गया कि किस तरह एक अध्यापक बच्चों को 2 + 2 = 4 नहीं 5 होते हैं, सिखाने की भरपूर कोशिश करता है. न चाहते हुए भी क्लास के सारे बच्चे 2+2=5 कहने लगते हैं लेकिन एक बच्चा इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं होता , उसके लिए 2+2=4 ही होते हैं. उस बच्चे का जो अंत होता है उसे देख कर मन बेचैन हो उठा.
आज जिस तरह से जीवन के मूल्यों और आस्थाओं से विश्वास उठता जा रहा है. सच्चाई और ईमानदारी को कमज़ोरी का पर्याय माने जाने लगा है, ऐसे में आदर्श दुनिया का सपना देखना भी मूर्खता है ! अपने आसपास क्या सच है क्या झूठ है , समझ ही नहीं आता.



देश और भाषा को नज़रअन्दाज़ करते हुए सिर्फ फिल्म देख कर उसका गहरा अर्थ समझा जाए तो बेहतर होगा. आज का कड़वा सच .... क्या दो और दो चार होते हैं - के साथ जीना आसान है या पूरी दुनिया में जिस तरह से दो और दो को पाँच दिखा कर समाज देश और दुनिया चल रही है , उसी बहाव में बहते जाना सही है..... अपनी पहचान , अपने वजूद को खोकर नित नए मुखौटे के साथ जीना क्या इतना आसान है !!

आज ही नहीं हर दिन ऐसे ही विचार मन में उभरते हैं
मंथन होता है कि क्या जो हूँ ऐसा ही गढ़ा गया था मुझे
शायद हाँ , शायद नहीं, पर जो भी हूँ जैसी भी हूँ
मुझे अपने सभी पुराने नए छोटे बड़े सभी गुरु
प्रिय हैं, आदरणीय हैं, जो मुझे ऐसा चिंतन देते हैं
हर दिन उभरती हज़ार सोचें उन्हीं की देन है
रखती हैं जो उपजाऊ मेरे मन को हमेशा

विज्ञान और इंटरनेट की तेज़ी ने दिमाग को कुंद कर दिया
मशीन की तेज़ी लिए दिमाग ने दिल से सोचना छोड़ दिया
महसूसने के भाव को भुला कर कुशाग्र से कुटिल हो गया
दया करुणा और प्रेम भाव की राह को धूमिल करता गया
फिर भी राह पर जमी धूल को हटाने की आस जगाता गया

आज दो और दो को पाँच कहने वालों में चार को मानने वाले भी हैं चाहे कम हैं जिनके कारण दुनिया खूबसूरत लगती है , उन्हीं चंद लोगों के नाम आज का दिन ही नहीं हर दिन शिक्षक दिवस हो, यही कामना है !!

रविवार, 24 अगस्त 2014

फूल और पत्थर




मेरे घर के गमले में 
खुश्बूदार फूल खिला है
सफ़ेद शांति धारण किए 
कोमल रूप से मोहता मुझे .... 
छोटे-बड़े पत्थर भी सजे हैं 
सख्त और सर्द लेकिन
धुन के पक्के हों जैसे 
अटल शांति इनमें भी है 
मुझे दोनों सा बनना है 
महक कर खिलना 
फिर चाहे बिखरना हो 
सदियों से बहते लावे में 
जलकर फिर सर्द होकर 
तराशे नए रूप-रंग के संग 
पत्थर सा बनकर जीना भी है !!

बुधवार, 16 जुलाई 2014

ना लफ़्ज़ खर्च करना तुम, ना लफ़्ज़ खर्च हम करेंगे

ना लफ़्ज़ खर्च करना तुम
ना लफ़्ज़ खर्च हम करेंगे  --------- 

ना हर्फ़ खर्च करना तुम
ना हर्फ़ खर्च हम करेंगे -------- 

नज़र की स्याही से लिखेंगे
तुझे हज़ार चिट्ठियाँ  ------  


काश कभी ऐसा भी हो कि बिना लफ़्ज़ खर्च किए कोई मन की बात सुन समझ ले. लेकिन कभी हुआ है ऐसा कि हम जो सोचें वैसा ही हो... 

बस ख़ामोश बातें हों ...न तुम कुछ कहो , न मैं कुछ कहूँ .... लेकिन बातें खूब हों.... नज़र से नज़र मिले और हज़ारों बातें हो जाएँ.... 

मासूमियत से भरे सपनों के पीछे भटकना अच्छा लगता है...गूँगा बहरा हो जाने को जी चाहता है...जी चाहता है सब कुछ भूलकर बेज़ुबान कुदरत की खूबसूरती में खो जाएँ  ...... 

फिल्म "बर्फी" का यह गीत बार बार सुनने पर भी दिल नहीं भरता... 




सोमवार, 30 जून 2014

इक नए दिन का इंतज़ार


हर नया दिन सफ़ेद दूध सा
धुली चादर जैसे बिछ जाता 
सूरज की  हल्दी का टीका सजा के
दिशाएँ भी सुनहरी हो उठतीं  
सलोनी शाम का लहराता आँचल
पल में स्याह रंग में बदल जाता  
वसुधा रजनी की गोद में छिपती 
चन्दा तारे जगमग करते हँसते
मैं मोहित होकर मूक सी हो जाती 
जब बादल चुपके से उतरके नीचे 
कोमल नम हाथों से गाल मेरे छू जाते 
और फिर होने लगता 
इक नए दिन का इंतज़ार .....! 

शनिवार, 28 जून 2014

छोटे बेटे के जन्मदिन पर पूरा परिवार एक साथ !

आसमान की ऊँचाइयों को झूने की चाहत 

पिछले महीने बड़े बेटे वरुण का जन्मदिन था. आज छोटे बेटे विद्युत का जन्मदिन है. अपनी डिजिटल डायरी में विद्युत का ज़िक्र दिल और दिमाग में उठती प्यार की तरंगों को उसी के नाम जैसे ही बयान करने की कोशिश कर रही हूँ .....
कल दोपहर  विजय रियाद से पहुँचे , एक साथ पूरे परिवार का मिलना ही जश्न जैसा हो जाता है. एक साथ मिल कर बैठना और पुरानी यादों को ताज़ा करने का अपना ही आनन्द है. मदर टेरेसा की एक 'कोट' याद आ रही है.
" What can you do to promote world peace? Go home and love your family"  Mother Teresa 

बड़े बेटे ने इलैक्ट्रोनिक्स में इंजिनियरिंग की लेकिन छोटे का रुझान कला के क्षेत्र में था इसलिए उसने विज़ुयल ग्राफिक्स की डिग्री ली. किसी भी काम को अच्छी तरह से करने की दीवानगी ही सफलता की ओर ले जाती है फिर काम चाहे कैसा भी हो. अगर अपनी मनपसन्द का काम हो तो उसे करने का आनन्द दुगुना हो जाता है.
मुझे याद आता है ग्यारवीं में स्कूल की कैंटीन का मेन्यू  बोर्ड को अपनी कलाकारी से निखार कर बिरयानी, समोसे और पैप्सी के रूप में पहली कमाई का ज़िक्र किया तो खुशी हुई थी. उन्हीं दिनों मॉल में 15 दिन के लिए जम्बो इलैक्ट्रोनिक्स में नौकरी की, जिससे माता-पिता और पैसे की कीमत का और ज़्यादा पता चला. अपनी कमाई से अकूस्टी ड्रम सेट खरीदा , उसे बेचकर कैमरा .... इस तरह पढ़ाई के दौरान कई बार बीच बीच में छोटे छोटे काम करके अपनी कमाई का मज़ा लेता बहुत कुछ सीखता चला गया.

आज अपनी ही मेहनत से अपनी मंज़िल की ओर बढ़ रहा है. नित नया सीखने की ललक देख कर खुशी होती है. कुछ बच्चों को पता होता है किस रास्ते पर चल कर वे अपने लक्ष्य को पा सकते हैं. विद्युत भी उनमें से है जिसे बचपन से ही पता था कि उसे क्या करना है.

कल और आज की कुछ तस्वीरें कहती हैं उसकी कहानी ....


नन्हा फोटोग्राफर 



आज भी हाथ में कैमरा है 





बचपन की कलाकारी 

कला की दुनिया में अभी बहुत सीखना है

ढेर सारे प्यार और आशीर्वाद के साथ विद्युत की पसंद का एक गीत ......





सोमवार, 19 मई 2014

मेरे पढ़ने-लिखने का लेखा-जोखा 2 (वाजिब है हमरे लिए दफा 302)

समाज से जुड़ी पोस्ट को लेकर अक्सर हम दोनों पति-पत्नी में बहस और कभी तल्खी हो जाती है, जिसके लिए समय चुनते हैं शाम की सैर का...पति जितनी शांति से बात करते हैं मुझे उतना ही गुस्सा आता है. जैसे कि विभाजी की पोस्ट को पढ़ने के बाद हुआ.. सुबह पोस्ट पढ़ने के बाद दोनों ही जड़ से हो गए थे..

विजय चुपचाप ऑफिस चले गए और मैं काम में लग कर उस कहानी को भुलाने की कोशिश करने लगी. जीवन से जुड़ी किसी घटना को कहानी का चोगा पहना दिया जाता है. असल में किसी न किसी सच से ही उपजती है कहानी.. तभी दिल तड़प उठता है क्योंकि कहानी का सच हमें जीने नहीं देता. कहानी के पात्र हवाओं में घुल कर साँसों में उतरने लगते हैं और दम घुटने लगता है .. 

चाहकर भी अपने आप को रोक न पाई. दुबारा उस कहानी को पढ़ने लगी... अपनी गर्भवती बहन लल्ली का खून करने वाला बड़ा भाई और उसकी दलीलें नश्तर की तरह चुभने लगीं..जो इंसान ज़रा से ख़ून को देख कर चक्कर खाकर गिर जाए उसे समाज की ज़हर बुझी बातें कितना ताकतवर बना देती हैं कि वह कुछ भी कर गुज़रता है.

इस देस में सबको एतना बोलने का आजादी काहे है जज साहेब?  

हम बड़ी डरपोक किसम के हैं। खून देख के हमको उल्‍टी-चक्‍कर आने लगता है। 

कहियो मेढक का डिसेक्‍शन नहीं कर सके। हमरा साथी सब मेढक को उल्‍टा करके उसका चारो टंगड़ी कील से ठोक देता। चारो पैर तना हुआ आ बीच में उसका फूला पेट, जिसके ऊपर से कैंची चलनेवाला था उसका पेट फाड़ने के लिए। जिंदा मेढक- छटपटाए नहीं, छटपटाकर भागे नहीं, इसके लिए कील में ठोका मेढक- माफ कीजिएगा जज साहेब, हमको जाने क्‍यों ईसा मसीह याद आ गए। हमको चक्‍कर आ गया। हम बेहोश हो गए। पैंट भी गीला हो गया।

मोहल्‍ले की दादी-चाची-फुआ से उनके घरों की बाकी सभी औरतों और वहां से उनके मरद और मरद से बच्‍चों तक को हमरी ई बीमारी का पता लग गया। जनी-जात हमको देख पूछ बैठती -'बउआ, मन ठीक है न अब?' मर्द कहते -'काहे रे? एतना बड़ा हो गया, अखनी तक पैजामा में मूतता है!' और बच्‍चे तो हमको देखते ही ताली पीट-पीटकर चिल्‍लाने लगते -'मूतना, मूतना।' हमरा तो नामे जज साहेब मूतना पड़ गया। 

बाकिर ई समाज जज साहेब! एकदमे चौपट निकला। चौपट से बेसी बदमाश, जिसको दूसरे के घर में आग लगाकर हाथ सेंकने में बहुते मजा आता है।

पढ़ाई और नौकरी का ऊंच-नीच लल्‍ली बूझ गई, मगर जिनगी के ऊंच-नीच में तनिक गड़बड़ा गई। हालांकि हमरे हिसाब से ऊ कोनो गड़बड़ नहीं था जज साहेब। मगर ई समाज, जो ऊपरवाले की बनाई चीज पर भी अपनी जबान चलाने से बाज नहीं आता, ऊ इंसान के उस काम को कैसे सह लेता, जिसमें उसकी रज़ामन्दी ना हो?

जो कोई जिधर टकरा जाता, एके सवाल पूछता -'रे मूतना, तेरी बहिन का कुछ पता चला?... अब तो ऊ पूरी चमइन हो गई होगी? राम-राम, मुर्दा खाती होगी। चमड़ा निकालती होगी।हमारा मन करता, सबको चीर कर रख दें. मगर हम तो एक ठो चींटी भी नहीं मार सकते थे, आदमी को क्या मारते?

लोग-बाग हमको देखते और बोलने लगते -'रे मूतना, रे तुम्‍हारे जीजा का क्‍या हाल है? आदमी को चीर रहा है कि मरी गइया का खाल उतार रहा है? उसके साथ गाय खाया कि नहीं? चमड़ा उतारा कि नहीं?' 

     एक दिन फिर हमको बुलउआ आया- मोहल्‍लावाला का। सामने एक ठो कुत्ता मरा पड़ा था। सब बोले -'रे मूतना, देखता क्‍या है?ई कुतवा को उठा ईहां से। मर्जी तो इसकी खाल खीच, चाहे तो इसका मांस पका। हमको भी बताना, कइसा लगता है इसका स्‍वाद! सुने हैं कुत्ते का मांस बड़ा गरम होता है। गरमी ज्‍यादा चढ़े तो मेहरारू पर उतार लेना।'

हम, गणेश तिवारी, जिसकी पैंट चार कील पर उल्‍टे टांगे मेढ़क को देखकर गीली हो गई थी, वही गणेश तिवारी यानी मूतना अपने टोले-मोहल्‍ले की बात से इतना ताक‍तवर हो गया कि उसको लल्‍ली और जयचंद का खून देखकर न पसीना आया, न बेहोशी छाई, न उसकी पैंट गीली हुई। 

मन की व्‍यथा का सबूत कइसे दिखाया जाए? हाथ गोर काट-पीट अधमुआ कर दिया तो दफा 307 लगा दिया। शीलहरण किया तो 376 लगा दिया। मार दिया तो 302 लगा दिया. लेकिन हमरे मन के हाथ पैर को दिन-रात काटा जाता रहामन को बार-बार मारा जाता रहाहमरे शील सुभाव को बीच चौराहे पर नंगा किया जाता रहाउसके लिए कौन सा दफा लगेगा जज साहेब?

शाम छह बजे ऑफिस से लौट कर विजय कपड़े बदलकर मुँह हाथ धोकर फौरन ही सैर के जूते कस लेते हैं , मैं पहले ही तैयार रहती हूँ.... सैर करते हुए फोन पर गज़लें सुनने की इच्छा हम दोनों की नहीं थी क्योंकि  विजय के दिल और दिमाग में भी लल्ली जयचन्द और गणेस घूम रहे थे..."लल्ली और जयचंद कितने खुश थे , गणेश भी अपनी बहन बहनोई से मिलकर खुश था फिर उसने ऐसा क्यों किया.... " मैंने दुखी मन से बात शुरु की जिसके जवाब में ठंडी साँस लेते हुए पति बोले, "हम समाज में रहते हैं जहाँ कुछ भी लीक से हट कर हो तो ऐसा ही होता है'  मुझे सुनकर इतना गुस्सा आया कि चिल्ला उठी कि समाज क्या है... उसका वजूद हमसे ही है...हम सबसे मिलकर बना है समाज फिर क्या मुश्किल है कि हम एक दूसरे की सोच को सहन नहीं कर पाते. मैं जाने क्या क्या बोले जा रही थी और विजय चुपचाप सुन रहे थे. 

उनके पास मेरे सवालों का एक ही जवाब था शिक्षा..लल्ली की सोच में बदलाव शिक्षा के कारण था.... खुद ब खुद समझ आने लगा कि किसी भी बदलाव के लिए कुछ भी सहने के लिए अगर हम तैयार नहीं हैं तो गणेश तिवारी जैसे कई पैदा होते रहेंगे. देश के कोने कोने में अगर ज्ञान की ज्योति जलने लगे तो घर परिवार में बेटा बेटी को बराबर का प्यार और मान-सम्मान मिलेगा. फिर किसी लल्ली को घर से भागना नहीं पड़ेगा... कोई गणेश तिवारी टोले मुहल्ले की बातें सुनकर कसाई नहीं बनेगा.....शिक्षा ही एक ऐसा मूलमंत्र  है जो अमीरी ग़रीबी और ऊँच नीच के भेदभाव को भुलाकर सबको एक सूत्र में बाँधता है. 

हँसती खिलखिलाती लल्ली भूलती नहीं....जाने कितनी और हैं जिन्हें ऐसा अंजाम न मिले इस दुआ के साथ एक गीत.... फिल्में भी हमारे समाज का आईना हैं...वक्त हो तो ज़रूर देखिएगा -- बनारस : ए मिस्टिक लव स्टोरी