अपराध बोध : अध्याय 1 : भयानक रातें द्वारा तरुण
रात का अंधेरा चारों ओर फैला हुआ था, रात के सन्नाटे को चीरती किसी उल्लू की आवाज कभी-कभी सुनायी पड़ रही थी। दूर दूर तक कुछ नजर नही आ रहा था, अशोक के कदम बड़ी तेजी से घर की तरफ बढ़ रहे थे। अचानक आसमान में बड़ी तेजी से बिजली कड़की थी, उसने नजर उठा के देखा। आसमान साफ नजर आ रहा था। किसी अंजान आशंका से उसका दिल काँप उठा था। वह चलना छोड़ अब दौड़ने लगा और तभी आसमान से आग के बड़े-बड़े गोले गिरने लगे। गिरते ही वे आसपास के पेड़ पौधों को अपनी गिरफ्त में लेने लगे। थोड़ी ही देर में अशोक आग की लपटों में घिरा हुआ था। उसको अपना अंत नजर आ रहा था, तभी सामने उसे एक बच्चा दिखायी दिया जो जलती हुई आग में भी नंगे पैर उसी की तरफ बड़ा चला आ रहा था। पास आकर बच्चे ने अपनी उंगली ऊपर उठायी, अशोक ने उसी दिशा में देखा तो एक जलते हुये पेड़ को अपने ऊपर गिरते देख कर उसकी चीख ही निकल गयी।
अशोक का सारा बदन पसीने से भीग गया था। लेकिन तभी जोर के सायरन की आवाज से उसकी नींद खुल गयी, शायद कोई पुलिस की जीप या एंबुलेंस थी, अशोक का सारा बदन पसीने से भीग गया था। उसने घड़ी की तरफ नजर दौड़ायी अभी सिर्फ रात के ३ ही बजे थे यानि सुबह होने में अभी भी कुछ वक्त बाकी था। थोड़ा पानी पीकर उसने एक सिगरेट सुलगायी और पास में पड़ी कुर्सी पर बैठ गया। पिछले ३ महीनों से ऐसा ही हो रहा था। उसे अक्सर रात को ऐसे ही भयानक सपने आने लगे थे। आज उसने सोच लिया था कि किसी डाक्टर से इस बारे में बात करेगा और यूँ ही सोचते-सोचते उसकी आंख लग गयी।
आंखों में सूरज की रोशनी पड़ते ही अशोक उठ बैठा। घड़ी की तरफ नजर दौड़ायी, सुबह के ७ बजे थे। फटाफट बाथरूम की तरफ भागा वो, आज फिर स्कूल के लिये लेट नहीं होना चाहता था। आधे घंटे में ही तैयार होके वो स्कूल की तरफ निकल पड़ा। सेंट जेवियर के स्टाफ रूम में घुसते ही उसे सामने उर्वशी दिखायी दी। उसका चेहरा थोड़ा उतरा हुआ था। अशोक ने हैलो कह जब उस बारे में पूछा तो उर्वशी ने बताया कि रात को ठीक से सो नही पायी। अशोक और उर्वशी दोनों को ही सेंट जेवियर ज्वाइन किये अभी तीन महीने ही हुए थे। इससे पहले दोनों एक साथ शहर से थोड़ा दूर बने एक स्कूल आनंदमयी विधा स्कूल में पढ़ाते थे। शाम को साथ में चाय पीने का वायदा लेकर दोनों अपने-अपने क्लास रूम की ओर बढ़ गये।
स्कूल से छूटते ही दोनों बाहर निकल पास के ही एक रेस्तरां की ओर बढ़ गये। अशोक अपने ही किसी विचार में खोया चल रहा था कि उर्वशी की आवाज ने उसकी तंद्रा भंग की। तुमने कुछ कहा, अशोक ने पूछा, "हाँ वो देखो वह मालती ही है ना", उर्वशी बोली। अशोक ने नजर दौड़ायी, सामने मालती ही थी। किसी उम्रवार औरत के साथ खड़ी थी। दोनों उस ओर ही बढ़ गये। मालती को देख एक बारी दोनों काफी दंग रह गये। "मालती ये क्या तुम कुछ बीमार हो?", उसकी माँ ने जवाब दिया, "हाँ, बेटा पता नही इसको क्या हो गया है? रात को सोते-सोते चीखकर उठ जाती है। कई रातों तक सोती नही, कहती है डर लगता है। भयानक भयानक सपने आते हैं, डाक्टर को दिखाया उसने सोने वाली गोलियाँ दे दी, कुछ दिनों तक सब ठीक रहा फिर गोलियों ने भी असर बंद कर दिया। अभी किसी पीर की मज़ार से होकर आ रहे हैं, क्या पता शायद कोई बुरा साया हो!
मालती भी उन्हीं के साथ आनंदमयी विधा स्कूल में पढ़ाती थी। अशोक सोच रहा था कि वो ही अकेला नहीं जिसके साथ ऐसा हो रहा हो और उर्वशी भी सोच रही थी कि वो अकेली नही है जो रात को ठीक से सो नही पाती, कोई और भी है जिसे ऐसे भयानक सपने आते हैं।
[इस कथा का दूसरा भाग लिखा है मीनाक्षी ने। अवश्य पढ़ें।]
अपराध बोध : अध्याय 2 : नया सवेरा
आज उर्वशी की हालत देख कर अशोक को मालती की याद आ गई जिस पर बुरे साये की सम्भावना के कारण उसकी माँ पीर की मज़ार ले गई थी. उसके बाद क्या हुआ पता ही नहीँ चला. अशोक इन बातों पर विश्वास नहीं करता था लेकिन दिनों दिन उर्वशी की बिगड़ती हालत देखकर चिंतित था. उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे.
एक तो बीमारी जो पकड़ में नहीं आ पाई. गलत दवाइयाँ लेने के कारण हालत और भी बिगड़ गई. दूसरा 'गल्फ वॉर' के कारण अच्छे भले लोगों का भी मानसिक संतुलन खो रहा था.
चार साल का बड़ा बेटा और तीन महीने का छोटा बेटा लेकर अच्छी भली उर्वशी भारत से लौट कर आई थी. नए घर में आकर सभी खुश थे. अचानक कुवैत-इराक युद्ध की घोषणा सुनकर सभी अवाक रह गए. पहले तो सभी सोच रहे थे कि साउदी अरब कोई खतरा नहीं लेकिन एक मिसाइल गिरने पर तहलका मच गया. कुछ लोगों ने परिवारों को अपने अपने देश वापिस भेज दिया. कई अध्यापक-अध्यापिकाओं ने नौकरी छोड़ दी. अशोक ने ऐसा बिल्कुल नहीं किया. उसे शायद ईश्वर पर उन लोगों से अधिक विश्वास था जो रोज़् पूजा-पाठ किया करते थे. उर्वशी मैटरनिटी लीव पर थी. उर्वशी के लिए दोनों बच्चों को सम्भालना कोई मुश्किल नहीं था लेकिन शायद अपने पर ध्यान देना भूल कर वह बच्चों और अशोक पर ध्यान ज़्यादा दे रही थी.
कारण कुछ भी रहा हो पर उर्वशी अपने आप को बचा न पाई और उसे मलेरिया हो गया. दुख की बात यह कि डॉक्टर समझ नहीं पाए कि हुआ क्या है और गलत दवाइयाँ देनी शुरु कर दीं. देखते ही देखते उर्वशी की हालत बहुत खराब हो गई. खाना-पीना छूट गया.
कमज़ोरी के कारण घर के काम इक्कठे होते जाते. बच्चों पर ध्यान देना चाह कर भी वह ऐसा न कर पाती. अशोक अपनी तरफ से घर और बाहर दोनों सम्भालने की कोशिश में लगा हुआ था.
उसे उर्वशी की चिंता सता रही थी जो पूरी पूरी रात सो न पाती. दो दिन पहले सोते-सोते उर्वशी डर के उठी तो फिर लाख कोशिशों के बाद भी अशोक उसे सुला न पाया. उर्वशी की आँखों की वीरागनी देख कर अशोक को उससे ही डर लगने लगा था. जो बार-बार अशोक से कह रही थी, ' प्लीज़ अशोक , देखो कमरे के बाहर, देखो.. सफेद कपड़ों में ममी खड़ी है, मुझे ले जाएगी. मैं मरने वाली हूँ. मेरे बच्चों का क्या होगा.'' कहते-कहते उसकी सिसकियाँ बँध गईं. गले से लगाते हुए अशोक ने कहा, ''मेरी बहादुर उर्वशी कहाँ खो गई जो कभी मालती की हालत देख कर, उसे माँ के साथ पीर की मज़ार पर जाते हुए देख कर हँसी थी.'' सिर पर हाथ फेरते हुए अशोक ने कहा, ''बच्चों को देखो जो बिल्कुल तंग नहीं करते, खाने पीने का कोई समय नहीं रहा फिर भी चुपचाप खेलते रहते हैं, उन्हें तुम्हारी ज़रूरत है.'' उर्वशी ने अपने आप को समेटने की कोशिश की लेकिन शायद मानसिक तनाव उसके बस में नहीं था.
डाक्टर समझ न पाए और गलत इलाज के कारण उर्वशी का मलेरिया और बिगड़ गया.
मानसिक संतुलन बिगड़ता चला गया. तरह तरह की बीमारियों का डर उस पर हॉवी हो गया था. 'गल्फ वॉर' के दौरान रियाद सरकार द्वारा मास्क और बच्चों के लिए बैग बाँटे गए कि स्कड मिसाइल के गिरते ही इस्तेमाल किया जाए. उन्हें देखकर उर्वशी के बचे खुचे होश भी उड़ गए.
आज तो उर्वशी ने हद ही कर दी थी. सायरन के बजते ही बिना सोचे – समझे नन्हे से बेटे को गीले तौलिए से पूरा ढक दिया. सोचा भी नहीं कि नन्हीं सी जान की साँस रुक जाएगी और बड़े बेटे को मास्क पहना दिया. सिगरेट पीने के लिए अशोक घर से नीचे उतरा था , सायरन की आवाज़ सुन कर पड़ोसी भारद्वाज जी और शेख साहब के साथ अशोक भी आकाश की ओर देखने लगा. अचानक ऊँचीं आवाज़ के साथ भयानक धमाका हुआ. लगा कि पास मे ही धमाका हुआ होगा लेकिन स्कड मिसाइल को ऊपर ही तोड़ दिया गया था. पता चला कि किसी पुरानी सरकारी इमारत पर डिबरियाँ गिरी थी जो पहले ही खाली करा ली गई थी.
अचानक अशोक को ध्यान आया कि उसे जल्दी ही घर जाना चाहिए. एक ही साँस में सीड़ियाँ चढ़्ता अशोक घर पहुँचा तो नज़ारा देख कर उसका मुहँ खुला का खुला रह गया. जल्दी से उसने छोटे बेटे के ऊपर से तौलिया उतारा. बेटे की चलती साँस से अशोक की साँस मेँ साँस आई. अब उसे लगने लगा कि उर्वशी को मानसिक चिकित्सक के पास ले जाना ज़रूरी हो गया है.
एक शाम लम्बी बातचीत के दौरान निश्च्य किया गया कि मानसिक चिकित्सक के पास जाना ही पड़ेगा. अगले दिन दोनों बच्चों को बेबी सिटर के पास छोड़ कर दोनों अस्पताल गए. डॉक्टर ने दोनो से ही अलग अलग काफी देर तक बातचीत की. दिमाग को शांत रखने के लिए दवा दी गई. दवा क्या थी बस दिमाग को पूरी तरह से सुला दिया जाता था. मानसिक तनाव के कारण दिमाग की नसें जो कमज़ोर हो गई थीं , दवा से और सुन्न कर दीं गई.
हालत ठीक होने की बजाय और खराब हो गई. दवा लेकर सोने पर होश तो चले ही जाते थे पर जागते हुए भी होश हवास गुम थे. ममी अभी भी दिखाई देती थी, रात को सोते सोते उर्वशी अभी भी चिल्ला उठती थी. सफेद कपड़ों में लिपटी ममी का खौफ अभी उतरा नहीं था कि भयानक बीमारियों का डर, उस पर कुवैत इराक की लड़ाई से मानसिक तनाव जो बढ़्ता ही जा रहा था. कुछ साल पहले ही 'एयर क्रेश' के सपने आना बन्द हुए थे और अब यह मुसीबत. अशोक चाह कर भी कुछ नही कर पा रहा था.
एक शाम अशोक जब घर लौटा तो देखा कि दोनों बच्चे शाम के समय का नाश्ता कर रहे हैं. उसे अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ. किचन से निकलती उर्वशी के हाथों में चाय की ट्रे थी. 'मैने खिड़की से आपको कार पार्क करते देख लिया था. सोचा कि पानी तो गर्म है ही सो चाय बना ली जाए." उर्वशी के होठों पर वही पुरानी चिर परिचित मुस्कान खेल रही थी. अशोक की आँखें नम हो गईं. दोनों ने मिल कर चाय नाश्ता किया और बच्चों को तैयार करके बाहर घूमने निकल पड़े.
अशोक ने इस अचानक हुए परिवर्तन के बारे में चाह कर भी नहीं पूछा. उर्वशी सोच रही थी कि कब और कैसे अशोक को बताए कि एक ही दिन में आए परिवर्तन का कारण वह स्वयं ही है. अपने आप को समेट कर बिना सहारे खड़े होना आसान नहीं है लेकिन बच्चों को देख कर माँ की ममता जीत गई. कैसी विडम्बना थी कि उर्वशी की माँ ने फोन की बातचीत की दौरान अपनी ममता का हाथ खींच कर भी उसे एक अंजाना सम्बल दे दिया था. " उर्वशी, तुम्हारी मदद कोई नहीं कर सकता है. मैं भी नहीं. अपने ही बनाए चक्रव्यूह से ही तुम्हे खुद ही निकलना है. सब कुछ तुम्हारे अन्दर है. तुम चाहो तो एक ही झटके में डर के तानो-बानो से बाहर निकल सकती हो." फोन पर माँ की बात सुनकर पहले तो उर्वशी को अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ फिर अपने आप को संयत करके फोन रख कर खिड़्की के पास आकर बैठ गई थी.
आकाश में उड़ते पक्षियों को देखा, सड़क के किनारे डस्टबिन के आस-पास घूमती बिल्लियों को देखा. खिड़्की खुलते ही चार पाँच मक्खियों को अन्दर आते देखा तो उर्वशी सोचने पर विवश हो गई कि सब आराम से जी रहे हैं, अपना अपना काम कर रहे हैं. तो फिर उसे ही बेचैनी क्यों है.. शाम के वक्त फीका सा चाँद तो होता ही है लेकिन उसे लगने लगा कि चाँद रो रहा है. क्यों ... चाँद क्यों रोता है...! नहीं ऐसा नहीं हो सकता . सबको चाँद हँसता हुआ दिखाई देता है फिर मुझे ही क्यों रोता हुआ दिखाई दे रहा है.
अपने आप से बातें करते करते उर्वशी के दिमाग की उलझी नसें धीरे धीरे सुलझने लगीं. मन ही मन उसने निश्चय कर लिया कि वह अपने अन्दर की बुझी शक्ति को खुद रोशन करेगी. बहुत कठिन था लेकिन असम्भव नहीं था. उर्वशी ने एक डायरी बना ली थी. अपने मन में उठे तूफानों को पन्नों में उतार देती, डर से जुड़ी भावनाओं को बह जाने देती. मन को शक्ति देने वाली किताबें पढ़ती, ध्यान में बैठती, समय समय पर अपने ही व्यवहार का विश्लेषण करती. धीरे धीरे उसे अनुभव होने लगा कि जब कभी भी हमने अपने आप से बहुत प्यार किया है, अपने आसपास के लोगों से मोह किया है, असुरक्षा की भावना बढ़ी है, मन में अशांति पैदा हुई है. मृत्यु रूपी अन्धकार से भरी अमावस की रात बिताने पर ही जीवन की नई सुबह का सूरज दिखता है.
उर्वशी के जीवन में भी कुछ ऐसा ही हुआ. अपने आप से मोह छोड़ते ही उसे अंजाने डर से भी मुक्ति मिल गई. अशोक को फिर से वही पुरानी उर्वशी मिल गई जो अन्धेरों से बिल्कुल नहीं डरती थीं. बच्चों के साथ बैठे अशोक को किचन से उर्वशी के गुनगुनाने की आवाज़ आ रही थी. '' आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है." (इति)
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