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शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

बच्चों के सुनहरे भविष्य की आस

सन 2007 का शिक्षक दिवस नहीं भूलता , उसी दिन त्यागपत्र देकर अपने प्रिय शिष्यों से अलविदा ली थी , यह कह कर कि जल्दी लौटूँगी लेकिन वह दिन नहीं आया. एक शिक्षक के लिए शिक्षा और शिष्य ही अहम होते हैं और जब उन्हें त्याग दिया जाए तो शिक्षक की अपनी आभा भी उनके साथ ही चली जाती है. बस यादों का समुन्दर रह जाता है जिसके किनारे बैठ कर उन आती जाती लहरों में अपना सुनहरा अतीत हिलोरें मारता दिखाई देता है.
शुक्र की छुट्टी , नाश्ता के बाद की अलसाई सी सुबह , हम पति-पत्नी दोनों अपनी अपनी आभासी दुनिया में विचरते हुए अपने अपने ख्यालों को एक दूसरे के साथ भी बाँट रहे हैं. यूट्यूब पर शिक्षक दिवस के गीत चल रहे हैं. 'झूठ से बचे रहें सच का दम भरें' गीत सुनते ही पिछले दिनों की एक छोटी सी फारसी फिल्म याद आ गई जिसमें दिखाया गया कि किस तरह एक अध्यापक बच्चों को 2 + 2 = 4 नहीं 5 होते हैं, सिखाने की भरपूर कोशिश करता है. न चाहते हुए भी क्लास के सारे बच्चे 2+2=5 कहने लगते हैं लेकिन एक बच्चा इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं होता , उसके लिए 2+2=4 ही होते हैं. उस बच्चे का जो अंत होता है उसे देख कर मन बेचैन हो उठा.
आज जिस तरह से जीवन के मूल्यों और आस्थाओं से विश्वास उठता जा रहा है. सच्चाई और ईमानदारी को कमज़ोरी का पर्याय माने जाने लगा है, ऐसे में आदर्श दुनिया का सपना देखना भी मूर्खता है ! अपने आसपास क्या सच है क्या झूठ है , समझ ही नहीं आता.



देश और भाषा को नज़रअन्दाज़ करते हुए सिर्फ फिल्म देख कर उसका गहरा अर्थ समझा जाए तो बेहतर होगा. आज का कड़वा सच .... क्या दो और दो चार होते हैं - के साथ जीना आसान है या पूरी दुनिया में जिस तरह से दो और दो को पाँच दिखा कर समाज देश और दुनिया चल रही है , उसी बहाव में बहते जाना सही है..... अपनी पहचान , अपने वजूद को खोकर नित नए मुखौटे के साथ जीना क्या इतना आसान है !!

आज ही नहीं हर दिन ऐसे ही विचार मन में उभरते हैं
मंथन होता है कि क्या जो हूँ ऐसा ही गढ़ा गया था मुझे
शायद हाँ , शायद नहीं, पर जो भी हूँ जैसी भी हूँ
मुझे अपने सभी पुराने नए छोटे बड़े सभी गुरु
प्रिय हैं, आदरणीय हैं, जो मुझे ऐसा चिंतन देते हैं
हर दिन उभरती हज़ार सोचें उन्हीं की देन है
रखती हैं जो उपजाऊ मेरे मन को हमेशा

विज्ञान और इंटरनेट की तेज़ी ने दिमाग को कुंद कर दिया
मशीन की तेज़ी लिए दिमाग ने दिल से सोचना छोड़ दिया
महसूसने के भाव को भुला कर कुशाग्र से कुटिल हो गया
दया करुणा और प्रेम भाव की राह को धूमिल करता गया
फिर भी राह पर जमी धूल को हटाने की आस जगाता गया

आज दो और दो को पाँच कहने वालों में चार को मानने वाले भी हैं चाहे कम हैं जिनके कारण दुनिया खूबसूरत लगती है , उन्हीं चंद लोगों के नाम आज का दिन ही नहीं हर दिन शिक्षक दिवस हो, यही कामना है !!

12 टिप्‍पणियां:

रश्मि प्रभा... ने कहा…

झूठ,सच हमेशा रहे हैं - हर तरह के लोग हमेशा रहे हैं

रश्मि शर्मा ने कहा…

हमेशा हर तरह के लोग मि‍लते हैं...कुछ जोड़-तोड़ में उस्‍ताद...कुछ नि‍हायत सीधे। पर जिंदगी यूं ही चलती है।

वाणी गीत ने कहा…

कुछ झूठ के बीच कुछ सच का नुकसान होते हुए भी उसका अस्तित्व बना रहा है !
कभी ख़ुशी कभी ग़म !

सदा ने कहा…

सच कहा आपने .... बेहतरीन प्रस्‍तुुति

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

सुन्दर सार्थक विचार साझा किये आपने ..... गैजेट्स में गुम हो हमारी संवेदनशीलता और वैचारिक शक्ति तो खो ही रही है | बाकि तो जीवन में हर रंग है

abhi ने कहा…

एकदम सच कहा है आपने...मशीन की तेज़ी लिए दिमाग ने दिल से सोचना छोड़ दिया..

ये शोर्ट फिल्म जो आपने लगता है, कितना कुछ कह रहा है ! बहुत कड़वा सच है.. ! ईरानी फ़िल्में ऐसी ही होती हैं, बहुत प्रभावित करती हैं वो !

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

कल 14/सितंबर/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
धन्यवाद !

yashoda Agrawal ने कहा…

शुभ प्रभात मीनाक्षी बहन
आभार व्यक्त करती हूँ
भाई यशवन्त को
मुझे आप तक पहुंचाया
इस आलेख ने काफी से अधिक प्रभावित किया मुझे
साधुवाद आपको

सादर

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

सच और झूठ ,अच्छाई और बुराई का मिश्रण हर युग में रहां है यहाँ तक कि सत्य युग में ,केवल मात्राओं में अंतर है |
दिल की बातें !

Rohitas Ghorela ने कहा…

विचारणीय आलेख
मेरा मानना है की आज कल हर तरह की शिक्षा का होना जरूरी है...ताकि झूट और सच में फर्क कर सकें.
लेकिन साथ उसी उसी शिक्षा का दें जो सही हो और उसी को ही प्रयोग में लायें.
:)


मेरे ब्लॉग तक भी आईये बहुत अच्छा लगेगा रंगरूट

Jyoti khare ने कहा…

मन को छूती सुंदर सार्थक सटीक रचना ---
सादर ---

संजय भास्‍कर ने कहा…

सुन्दर सार्थक विचार साझा किये आपने