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मंगलवार, 31 मई 2011

बाड़े में बन्द जीवन


गर्मियों के दिन हैं...सूरज डूबने पर ही बाहर निकलने की सोची जा सकती हैं...शाम होते ही बाहर निकले तो लगा जैसे सूरज हवाओं में घुल कर बह रहा हो .... बला की गर्मी लेकिन उस गर्मी को मारने के लिए ही निकले थे.... इन दिनों तरबूज़ और ख़रबूज़े जैसे फल अमृत समान लगते हैं...सालों से एक ख़ास जगह से ही फल खरीदते आए  हैं...शहर से कुछ दूरी पर एक वादी की तरफ़ जाते पक्की सड़क बन्द हो जाती है उसी के किनारे एक पिकअप गाड़ी में तरबूज़ों का ढेर लगा रहता है और नीचे छोटे छोटे बक्सों में ख़रबूज़े होते हैं....उसी गाड़ी के पीछे नज़र दौडाओ तो दूर एक टैंट हैं ,,,पानी का टैंक पड़ा है और कुछ दूरी पर शौचालय है.... एक तरफ बड़ा सा बाड़ा बना है भेड बकरियों को रखने का... ग़ौर करने पर देखा कि आजकल उनका मालिक आराम से बैठा रहता है ... झुंड का झुंड साँझ होते ही खुद ब खुद बाड़े में चली जाती हैं.... पहले यही भेड़ बकरियाँ बाड़े से बहुत दूर निकल जातीं... मालिक लाठी लेकर पीछे-पीछे भागता...ऊँची आवाज़ में गाली देता हुआ किसी एक को ज़ोर से मार देता....मार खाती भेड़ बकरी की तड़पती आवाज़ से पहले मेरे मुँह से चीख़ निकल जाती .... अक्सर ऐसा ही होता.. शाम ढलने का वक्त होता....लाठी से मार मार कर भेड- बकरियों को वह बाड़े के अन्दर कर रहा होता... हम कार में ही बैठे बैठे उसके आने का इंतज़ार करते...वह हाथ से बजा बजा कर तरबूज़ छाँट कर देता जो मिशरी सा मीठा निकलता....उसके उन्हीं हाथों से मुझे चिढ़ थी जिनमें हमेशा एक लाठी भी होती भेड़ बकरियों को हाँकने के लिए.... पति मेरे दुख को देख कर बड़े आराम से कह देते .... कुछ दिनों की बात है फिर वे अपने आप ही बाहर नहीं जाएँग़ी... उन्हें यही बाड़ा प्यारा लगने लगेगा... हुआ भी यही आज मालिक के हाथ में लाठी नहीं थी... वह आराम से पिकअप के पास एक कुर्सी पर बैठा था... सारी भेड़ बकरियाँ अपने आप ही बाड़े के अन्दर जा रही थीं ....शायद अब उन्हें लगने लगा है कि इससे बढ़िया जीवन और कहीं नहीं हो सकता या सोचती होंगी कि यही उनके जीवन की नियति है.....अचानक दिल से इक आह सी उठी .......!!!!  

13 टिप्‍पणियां:

Arvind Mishra ने कहा…

मुक्ति की छटपटाहट -निःशब्द !

रश्मि प्रभा... ने कहा…

haath me laathi ki ab zarurat rahi kahan , niyti ko sweekar ker lene ke baad ........ aapki taklif samajh sakti hun

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

हम सबका जीवन भी ऐसे ही बाड़े में बन्‍द है, बस अपने आप ही चले जाते हैं कोई लाठी से ठेलता नहीं है। बढिया सोच।

Udan Tashtari ने कहा…

शायद यही तो जीवन है.....भावपूर्ण विचार.

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....


चिट्ठे आपके , चर्चा हमारी

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

सबके अपने अपने बादे हैं ... इंसान पैदा होते ही बादे में रहता आया है ..इसलिए उसे हांकना नहीं पड़ता ... जानवर सीख जाते हैं कुछ दिन बाद कि यही उनकी ज़िंदगी है ..

rashmi ravija ने कहा…

बहुत बड़ी बात कह गयीं,आप ...इस पोस्ट के माध्यम से.
कुछ दिनों बाद इस नियति को बिना किसी प्रतिरोध के स्वीकार कर लेना...आदत में शुमार हो जता है

Minakshi Pant ने कहा…

वाह जीवन की सार्थकता को बहुत ही खूबसूरती प्रस्तुत किया आपने दोस्त पढ़कर मज़ा आ गया और बिल्कुल सटीक निशाना सच में यही सच्चाई भी है | अपनी - अपनी जगह से देर सबेर सभी वाकिफ हो ही जातें हैं |
बहुत खुबसूरत अंदाज़ |

निवेदिता श्रीवास्तव ने कहा…

मीनाक्षी ,सच लिखा है ,जो बात या हालात पहले कष्टकारी लगते हैं वही बाद में आदत सी बन जाती है .... शायद यही जीवन है .....

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

यही होता है जब जिंदगी बंधन को ही अपनी नियति मान लेती है ....

Abhishek Ojha ने कहा…

वक्त वक्त की बात है. समय सबको समझौते करना सीखा ही देता है !

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

समय के साथ ढल जाना कई बार नियति बन जाती है..... निशब्द करती पोस्ट

Unknown ने कहा…

Bahut badiya