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सोमवार, 2 मई 2011

खूबसूरत देश का सपनीला सफ़र


(सन 2002 में पहली बार जब मैं अपने परिवार के साथ ईरान गई तो बस वहीं बस जाने को जी चाहने लगा. एक महीने बाद लौटते समय मन पीछे ही रह गया. कवियों और लेखकों ने जैसे कश्मीर को स्वर्ग कहा है वैसे ही ईरान का कोना कोना अपनी सुन्दरता के लिए जन्नत कहा जाता है. सफ़र की पिछली (ईरान का सफ़र ,
ईरान का सफ़र , ईरान का सफ़र 3, ईरान का सफ़र 4 )इन किश्तों में अपने दिल के कई भावों को दिखाने की कोशिश की है...

पिछली पोस्ट में उन्मुक्तजी ने शीर्षक बदलने का सुझाव दिया था, असल में हम भी शीर्षक बदलने की सोच रहे थे...यात्रा वृतांत 200-250 शब्दों तक ही रहे, इस बात का भी ध्यान रखना जरूरी लगा.. होता यह है कि जब यादों का बाँध टूटता है तो फिर कुछ ध्यान नही रहता.....आशीषजी ने राजनीतिक और सामाजिक ढाँचे के बारे में विस्तार से जानने की इच्छा व्यक्त की....ज़िक्र करने के लिए तो बहुत कुछ है.... ग़रीबी...शोषण,...अंकुश ... दोहरा जीवन जीने को विवश लोग.... इन सब बातों का ज़िक्र बीच बीच में आ ही जाता है बस उन्हें अनुभव करने की ज़रूरत है.

ईरान पहुँच कर एक बार भी नहीं लगा कि हम किसी पराए देश में है....तेहरान से रश्त.... रश्त से रामसार की सैर कर आए थे... अब लिडा के मॉमान बाबा को मिलने जाना था ... दावत के लिए उन्होंने पहले ही कह रखा था... अगले दिन कुछ तोहफे और ताज़े फूलों के साथ दोपहर के ख़ाने के लिए वहाँ पहुँचे....पहली बार मिलते ही बड़ी बेटी का ख़िताब दे दिया...लिडा पहले से ही मुझे दीदी कहती ही थी.....ताज़ी चाय..मिठाई..फल अलग अलग तरह चीज़..
सब कुछ मेज़ पर पहले से ही सजा था... उनके एक दोस्त भी आए हुए थे...मि.आसिफ..जिन्हें भारत के मसाले बेहद पसन्द हैं...उन्हें तुन्द (मिर्ची) खाना ही स्वादिष्ट लगता है... दिलचस्प यह था कि सारी बातचीत का अनुवाद लिडा बहुत खूबसूरती से कर रही थी.....जब थक जाती तो चुप रहने को कह देती... सब मुस्कुरा कर रह जाते.. हालाँकि रियाद में बोलने लायक कुछ कुछ फारसी तो सीख ली थी लेकिन फिर भी लम्बी बातचीत के लिए अली या लिडा का ही सहारा था....
वरुण के लिए खास कावियार मँग़वाया गया था... तरह तरह की चीज़ थी... अपने यहाँ की तरह प्याज़ टमाटर का तड़का नहीं था न ही दस तरह के मसाले थे..फिर भी मेज़ पर सजे पकवान मन मोह रहे थे...कभी कभी नए तरीके से पके खाने का भी बहुत अच्छा स्वाद होता है... जितनी मेहनत और दिल से उन्होंने खाना बनाया होगा उससे कहीं ज़्यादा स्वाद लेकर हम सब खा रहे थे और तारीफ़ भी कर रहे थे.... बीच बीच में विजय को याद करके दोनो मातापिता ‘जा ए विजय खाली’ कह देते..मतलब कि यहाँ एक कुर्सी विजय की खाली है... विजय की फ्लाइट हफ्ते बाद की थी, सुनकर दोनों के चेहरों पर मुस्कान आ गई...
खाने के बाद फोटो खिंचवाने का दौर चला और साथ ही अपने देश की हिन्दी फिल्मों की बातें शुरु हुई..कई फिल्मों और हीरो हिरोइन और उनके गीत आज भी याद किए जाते हैं वहाँ ....एक सवाल जो सबसे ज्यादा पूछा जाता है कि 5-6 मीटर लम्बा कपड़ा औरतें कैसे पहनती हैं ... क्या चलने में कोई मुश्किल नहीं होती....अगली पार्टी में साड़ी पहन कर आने का वादा किया.... 

मॉमान बार बार कहतीं मेरी प्यारी बेटियाँ मीनू लिडा 
 


ईरानी माता पिता के साथ, पीछे अली, लिडा, वरुण, विद्युत, मि.आसिफ़, अर्दलान 


10 टिप्‍पणियां:

kshama ने कहा…

Tasveeron ke saath,yatra warnan/sansmaran padhne me bahut aanand aaya!

Udan Tashtari ने कहा…

विवरण के साथ तस्वीरें अच्छी लगीं

उन्मुक्त ने कहा…

यह शीर्षक और चिट्ठी की लम्बाई ठीक लगी।

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

इरान में भी मसाले नहीं खाते? तो क्‍या केवल भारतीय ही मसाले खाते हैं?

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

मनमोहक संस्मरण ,,,,

चित्रों के संयोजन ने और खूबसूरती बढ़ा दी |

Abhishek Ojha ने कहा…

छोटे पोस्ट पढने में आसानी होती है. वैसे मैं खुद भी कोशिश करता रहता हूँ छोटा करने की.
यात्रा वृतांत जारी रहे. किसी म्यूजियम या पुरानी जगह की सैर हुई हो और कुछ ऐतिहासिक बातें हो तो वो भी लिखिए.

Manish Kumar ने कहा…

पिछली सभी कड़ियाँ पढ़ीं। अच्छा लगा ईरान के लोगों और उनके खानपान के बारे में जानना।

Manish Kumar ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
बेनामी ने कहा…

यह शीर्षक और चिट्ठी की लम्बाई ठीक लगी

बेनामी ने कहा…

पिछली सभी कड़ियाँ पढ़ीं। अच्छा लगा