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सोमवार, 3 सितंबर 2007

नूतन व पुरातन का समन्वय

भारतेन्दु युग से नूतन और पुरातन के बीच संघर्ष रहा है। भाषा के विकास के लिए भाषा से जुड़े‌ विषयों को पुराना ही रहने दें या नए-नए विषयों का समावेश किया जाए या पुराने विषयों का सरलीकरण किया जाए। इस संघर्ष में भारतेन्दु जैसे लेखकों ने तटस्थ न रहकर दिशा में नेतृत्व देकर आधुनिकता के आरम्भ के लिए ज़मीन तैयार की थी। आज फिर प्राचीन और नवीन के संधि-स्थल पर खड़े होकर कुछ विषयों को नया रूप देने की आवश्यकता अनुभव की जा रही है। महान् सन्त कबीर और रहीम जैसे समाज सुधारक और दार्शनिक कवियों ने छोटे-छोटे दोहे लिखकर मानव जीवन के व्यापारों एंव भावों का सफल चित्रण किया। समाज में एकात्मकता लाने के लिए काव्य को माध्यम बना कर जन-जन के मानस में पहुँचाने का कार्य किया लेकिन आज ये सन्त और उनका साहित्य धूल धूसरित रतन की भांति धूल में छिप गए हैं जो चिन्ता का विषय हैं। "मेरी बोली पूरब की, समझे बिरला कोय।" कबीर जी की इस पंक्ति को पढ़ कर लगता है कि आज पुरातन को नवीनता का रूप लेना ही होगा अन्यथा नई पीड़ी उनकी शिक्षा से परिपूर्ण रचनाओं से लाभ उठाने से वंचित रह जाएगी। पुरातन को नवीनता का रूप देने का भरसक प्रयत्न इस आशा से किया है कि विद्यार्थी ही नहीं आम जन-मानस भी सहज भाव से अर्थ ग्रहण कर सकेगा। १ रहिमन धागा प्रेम का , मत तोड़ो चटकाय । टूटे से फिर न जुड़े , जुड़े गाँठ पड़ जाए ।। "प्रेम का धागा , मत तोड़ो निष्ठुरता से । टूटा तो फिर जुड़ेगा , जुड़ेगा कई गाँठों से ।।" २ ऐसी वाणी बोलिए , मन का आपा खोए। औरन को शीतल करे , आपुहिं शीतल होए।। "मीठे मधुर बोलों से , मन को वश में कर लो। स्वयं को सभी को , शीतलता से भर दो ।।" ३ खीरा सर ते काटिए , मलियत लोन लगाए। रहिमन कड़वे मुखन को , चहियत इहै सजाए।।" "खीरा सिर से काटकर , नमक रगड़ा जाए । कड़वा बोल जो बोले , सर उसका पटका जाए।।" ४ चलती चाकी देख के , दिया कबिरा रोए। दो पाटन के बीच में , साबुत बचा न कोए।। "कबीर जी रोते थे , चलती चक्की को देखकर। दो पाटों के बीच में, सभी मिटे पिस कर ।।" ५ माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंधें मोहे । इक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंधूँगी तोहे।। "कुम्भकार से कहती मिट्टी, तू क्या मिटाएगा मुझे। इक दिन ऐसा आएगा, मैं मिटा दूँगी तुझे।। " (आबु धाबी में भारतीय राजदूत महामहिम श्री चन्द्र मोहन भण्डारी जी की अध्यक्षता में प्रथम मध्यपूर्व क्षेत्रीय हिन्दी सम्मेलन में छपी पत्रिका में प्रकाशित रचना । ) मीनाक्षी धन्वन्तरि

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