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बुधवार, 17 सितंबर 2014

उतरते सूरज की कहानी...



हर शाम जाते सूरज की बाँहों से
 किरणें मचल कर निकल जातीं...
नन्हीं रंगबिरंगी सुनहरी किरणें 
बादलों के आँचल से लिपट जातीं...








गुस्से में लाल पीला होता  
सूरज उतरने लगता आसमान से नीचे
गहराती सन्ध्या से सहमे बादल
 धकेल देते किरणों को उसके पीछे 

  
  


शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

बच्चों के सुनहरे भविष्य की आस

सन 2007 का शिक्षक दिवस नहीं भूलता , उसी दिन त्यागपत्र देकर अपने प्रिय शिष्यों से अलविदा ली थी , यह कह कर कि जल्दी लौटूँगी लेकिन वह दिन नहीं आया. एक शिक्षक के लिए शिक्षा और शिष्य ही अहम होते हैं और जब उन्हें त्याग दिया जाए तो शिक्षक की अपनी आभा भी उनके साथ ही चली जाती है. बस यादों का समुन्दर रह जाता है जिसके किनारे बैठ कर उन आती जाती लहरों में अपना सुनहरा अतीत हिलोरें मारता दिखाई देता है.
शुक्र की छुट्टी , नाश्ता के बाद की अलसाई सी सुबह , हम पति-पत्नी दोनों अपनी अपनी आभासी दुनिया में विचरते हुए अपने अपने ख्यालों को एक दूसरे के साथ भी बाँट रहे हैं. यूट्यूब पर शिक्षक दिवस के गीत चल रहे हैं. 'झूठ से बचे रहें सच का दम भरें' गीत सुनते ही पिछले दिनों की एक छोटी सी फारसी फिल्म याद आ गई जिसमें दिखाया गया कि किस तरह एक अध्यापक बच्चों को 2 + 2 = 4 नहीं 5 होते हैं, सिखाने की भरपूर कोशिश करता है. न चाहते हुए भी क्लास के सारे बच्चे 2+2=5 कहने लगते हैं लेकिन एक बच्चा इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं होता , उसके लिए 2+2=4 ही होते हैं. उस बच्चे का जो अंत होता है उसे देख कर मन बेचैन हो उठा.
आज जिस तरह से जीवन के मूल्यों और आस्थाओं से विश्वास उठता जा रहा है. सच्चाई और ईमानदारी को कमज़ोरी का पर्याय माने जाने लगा है, ऐसे में आदर्श दुनिया का सपना देखना भी मूर्खता है ! अपने आसपास क्या सच है क्या झूठ है , समझ ही नहीं आता.



देश और भाषा को नज़रअन्दाज़ करते हुए सिर्फ फिल्म देख कर उसका गहरा अर्थ समझा जाए तो बेहतर होगा. आज का कड़वा सच .... क्या दो और दो चार होते हैं - के साथ जीना आसान है या पूरी दुनिया में जिस तरह से दो और दो को पाँच दिखा कर समाज देश और दुनिया चल रही है , उसी बहाव में बहते जाना सही है..... अपनी पहचान , अपने वजूद को खोकर नित नए मुखौटे के साथ जीना क्या इतना आसान है !!

आज ही नहीं हर दिन ऐसे ही विचार मन में उभरते हैं
मंथन होता है कि क्या जो हूँ ऐसा ही गढ़ा गया था मुझे
शायद हाँ , शायद नहीं, पर जो भी हूँ जैसी भी हूँ
मुझे अपने सभी पुराने नए छोटे बड़े सभी गुरु
प्रिय हैं, आदरणीय हैं, जो मुझे ऐसा चिंतन देते हैं
हर दिन उभरती हज़ार सोचें उन्हीं की देन है
रखती हैं जो उपजाऊ मेरे मन को हमेशा

विज्ञान और इंटरनेट की तेज़ी ने दिमाग को कुंद कर दिया
मशीन की तेज़ी लिए दिमाग ने दिल से सोचना छोड़ दिया
महसूसने के भाव को भुला कर कुशाग्र से कुटिल हो गया
दया करुणा और प्रेम भाव की राह को धूमिल करता गया
फिर भी राह पर जमी धूल को हटाने की आस जगाता गया

आज दो और दो को पाँच कहने वालों में चार को मानने वाले भी हैं चाहे कम हैं जिनके कारण दुनिया खूबसूरत लगती है , उन्हीं चंद लोगों के नाम आज का दिन ही नहीं हर दिन शिक्षक दिवस हो, यही कामना है !!

रविवार, 24 अगस्त 2014

फूल और पत्थर




मेरे घर के गमले में 
खुश्बूदार फूल खिला है
सफ़ेद शांति धारण किए 
कोमल रूप से मोहता मुझे .... 
छोटे-बड़े पत्थर भी सजे हैं 
सख्त और सर्द लेकिन
धुन के पक्के हों जैसे 
अटल शांति इनमें भी है 
मुझे दोनों सा बनना है 
महक कर खिलना 
फिर चाहे बिखरना हो 
सदियों से बहते लावे में 
जलकर फिर सर्द होकर 
तराशे नए रूप-रंग के संग 
पत्थर सा बनकर जीना भी है !!

बुधवार, 16 जुलाई 2014

ना लफ़्ज़ खर्च करना तुम, ना लफ़्ज़ खर्च हम करेंगे

ना लफ़्ज़ खर्च करना तुम
ना लफ़्ज़ खर्च हम करेंगे  --------- 

ना हर्फ़ खर्च करना तुम
ना हर्फ़ खर्च हम करेंगे -------- 

नज़र की स्याही से लिखेंगे
तुझे हज़ार चिट्ठियाँ  ------  


काश कभी ऐसा भी हो कि बिना लफ़्ज़ खर्च किए कोई मन की बात सुन समझ ले. लेकिन कभी हुआ है ऐसा कि हम जो सोचें वैसा ही हो... 

बस ख़ामोश बातें हों ...न तुम कुछ कहो , न मैं कुछ कहूँ .... लेकिन बातें खूब हों.... नज़र से नज़र मिले और हज़ारों बातें हो जाएँ.... 

मासूमियत से भरे सपनों के पीछे भटकना अच्छा लगता है...गूँगा बहरा हो जाने को जी चाहता है...जी चाहता है सब कुछ भूलकर बेज़ुबान कुदरत की खूबसूरती में खो जाएँ  ...... 

फिल्म "बर्फी" का यह गीत बार बार सुनने पर भी दिल नहीं भरता... 




सोमवार, 30 जून 2014

इक नए दिन का इंतज़ार


हर नया दिन सफ़ेद दूध सा
धुली चादर जैसे बिछ जाता 
सूरज की  हल्दी का टीका सजा के
दिशाएँ भी सुनहरी हो उठतीं  
सलोनी शाम का लहराता आँचल
पल में स्याह रंग में बदल जाता  
वसुधा रजनी की गोद में छिपती 
चन्दा तारे जगमग करते हँसते
मैं मोहित होकर मूक सी हो जाती 
जब बादल चुपके से उतरके नीचे 
कोमल नम हाथों से गाल मेरे छू जाते 
और फिर होने लगता 
इक नए दिन का इंतज़ार .....! 

शनिवार, 28 जून 2014

छोटे बेटे के जन्मदिन पर पूरा परिवार एक साथ !

आसमान की ऊँचाइयों को झूने की चाहत 

पिछले महीने बड़े बेटे वरुण का जन्मदिन था. आज छोटे बेटे विद्युत का जन्मदिन है. अपनी डिजिटल डायरी में विद्युत का ज़िक्र दिल और दिमाग में उठती प्यार की तरंगों को उसी के नाम जैसे ही बयान करने की कोशिश कर रही हूँ .....
कल दोपहर  विजय रियाद से पहुँचे , एक साथ पूरे परिवार का मिलना ही जश्न जैसा हो जाता है. एक साथ मिल कर बैठना और पुरानी यादों को ताज़ा करने का अपना ही आनन्द है. मदर टेरेसा की एक 'कोट' याद आ रही है.
" What can you do to promote world peace? Go home and love your family"  Mother Teresa 

बड़े बेटे ने इलैक्ट्रोनिक्स में इंजिनियरिंग की लेकिन छोटे का रुझान कला के क्षेत्र में था इसलिए उसने विज़ुयल ग्राफिक्स की डिग्री ली. किसी भी काम को अच्छी तरह से करने की दीवानगी ही सफलता की ओर ले जाती है फिर काम चाहे कैसा भी हो. अगर अपनी मनपसन्द का काम हो तो उसे करने का आनन्द दुगुना हो जाता है.
मुझे याद आता है ग्यारवीं में स्कूल की कैंटीन का मेन्यू  बोर्ड को अपनी कलाकारी से निखार कर बिरयानी, समोसे और पैप्सी के रूप में पहली कमाई का ज़िक्र किया तो खुशी हुई थी. उन्हीं दिनों मॉल में 15 दिन के लिए जम्बो इलैक्ट्रोनिक्स में नौकरी की, जिससे माता-पिता और पैसे की कीमत का और ज़्यादा पता चला. अपनी कमाई से अकूस्टी ड्रम सेट खरीदा , उसे बेचकर कैमरा .... इस तरह पढ़ाई के दौरान कई बार बीच बीच में छोटे छोटे काम करके अपनी कमाई का मज़ा लेता बहुत कुछ सीखता चला गया.

आज अपनी ही मेहनत से अपनी मंज़िल की ओर बढ़ रहा है. नित नया सीखने की ललक देख कर खुशी होती है. कुछ बच्चों को पता होता है किस रास्ते पर चल कर वे अपने लक्ष्य को पा सकते हैं. विद्युत भी उनमें से है जिसे बचपन से ही पता था कि उसे क्या करना है.

कल और आज की कुछ तस्वीरें कहती हैं उसकी कहानी ....


नन्हा फोटोग्राफर 



आज भी हाथ में कैमरा है 





बचपन की कलाकारी 

कला की दुनिया में अभी बहुत सीखना है

ढेर सारे प्यार और आशीर्वाद के साथ विद्युत की पसंद का एक गीत ......