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गुरुवार, 19 मई 2011

डायरी के पुराने पन्ने


कुछ पुराने ड्राफ्ट जिन्हें एक एक करके मुक्त करने की सोच रही हूँ ....  यह सबसे पुराना ड्राफ्ट 3 जुलाई 2008 का लिखा हुआ  है..... जस का तस पब्लिश कर रही हूँ .... कुछ ड्राफ्ट अधूरे हैं उन्हें पोस्ट करने से शायद वे भी अपने आप में पूरे हो जाएँ..... 
इस वक्त शाम के 6 बजे हैं. छोटा बेटा दोस्तों के साथ बाहर है ... बड़ा बेटा वरुण और हम घर में ...कई दिनों के बाद आज मौका मिला कि इत्मीनान से कुछ लिखें लेकिन पढ़ने का मोह लिखने से रोक देता है. अभी की बात ही लीजिए... ज्ञान जी की पोस्ट पढ़ कर हम सोचने पर मज़बूर हो गए... " कोई मुश्किल नही है इसका जवाब देना। आज लिखना बन्द कर दूं, या इर्रेगुलर हो जाऊं लिखने में तो लोगों को भूलने में ज्यादा समय नहीं लगेगा।"
हम अपनी बात करें तो इस बात का बिल्कुल भय नहीं है क्योंकि हम उलटा सोचते हैं...कोशिश में रहते हैं कि हम किसी को भूलें... अच्छी बुरी यादों के साथ सब हमारे दिल में रहें... हम किसी के दिल में हैं या नहीं... किसी को हमारी ज़रूरत है कि नहीं इससे ज़्यादा ख्याल यह रहे कि दूसरे को लगता रहे कि उसकी ज़रूरत हमें है......

ब्लॉग जगत के बारे में सोचते हैं... अच्छा लगता है पढ़ना , जानना, समझना,,, इसी में ही वक्त बीत जाता है और लिखने की बस सोचते ही रह जाते हैं. ज्ञान जी की पोस्ट पढ़ने के बाद समीर जी की छोटी सी पोस्ट पढ़ने को मिली.... छोटी सी लेकिन भाव बहुत बड़ा लिए हुए .... सोचने लगे  कि हम 'हैरान पाठक ' तो हैं ही साधारण से  'हिन्दी ब्लॉगर' भी हैं .... सब काम छोड़कर लिखने बैठ गए..सोचा कि आँखें खराब होने पर भी समीर जी अगर छोटी सी पोस्ट ठेल सकते हैं तो क्यों हम  भी एक पोस्ट डालकर दोस्तों को बोर कर दें.. ..
सुखनसाज़ में हुसैन भाइयों की गज़ल सुनते सुनते शुरु हुए... बहुत दिनों पहले लिखी हुई कई रचनाएँ जो सिर्फ डायरी के पन्नों में ही कैद हैं ...उनकी याद गई.... विचार आया कि क्यों उन पुराने पलों को पन्नों की कैद से मुक्ति दे दी जाए लेकिन किश्तों में ही .... बहुत पुरानी बात याद रही है जब छोटे बेटे की बाहरवीं का रिज़ल्ट आना था .... आलोक जी की एक पोस्ट "टीचर की डायरी" पढ़कर अपने दोनों बेटों की याद गई जिन्हें हमने कभी नहीं कोसा कि 90% अंक लाने वाले बच्चों में उनका शुमार क्यों नहीं.... लाइफ के झटकों को झेलने के लिए मजबूती जिस व्यक्तित्व से आती है, वह गढ़ने का काम हो कहां रहा है।स्कूल बिजी हैं टापर गढ़ने में। पेरेंट्स बिजी हैं सुपर टापर बनाने में। व्यक्तित्व विकास के बुनियादी तत्व कहां से आयेंगे 


रेडियोनामा पर विविध भारती

कल पहली बार रेडियोनामा पर विविध भारती सुना


कल से ही रेडियोनामा पर विविध भारती सुन रहे हैं.....फेसबुक का पेज खुला था इसलिए तुरंत यूनूस साहब की वॉल पर धन्यवाद का सन्देश दिया..पता चला कि एक तकनीकी जानकार रोहित दवे जिन्होंने निस्वार्थ भाव से नेट पर विविध भारती को लाने का काम किया है...उनको भी धन्यवाद किया... 


Yunus Khan मेरा छायागीत रविवार को होता है। मैं तकनीकी लोगों Rohit Daveकी चर्चा इसलिए कर रहा हूं क्‍योंकि ये उन्‍होंने निस्‍वार्थ किया है। बिना किसी आर्थिक उम्‍मीद के। आज के ज़माने में ऐसा कहां होता है। हम कम से कम सलाम तो करें ऐसे लोगों को।


बाज़ार से म्यूज़िक सीडी खरीद सकते हैं....नेट से मुफ़्त में कई गाने डाउनलोड कर सकते हैं...लेकिन विविध भारती सुनने का आनन्द बयान नहीं किया जा सकता... एक अजीब सा एहसास मन को घेर लेता है... शायद बचपन के दिन याद आ जाते हैं जब छायागीत और हवामहल सुनते सुनते नींद आ जाती और रेडियो बजता ही रह जाता....सुबह मम्मी की डाँट से नींद खुलती... और रेडियो बन्द होता.... 

कई दिनों से मन खाली प्याले सा था....आज विविधभारती ने बचपन की याद दिला दी.... 
बचपन याद आया तो साथ लाया बचपना....गीत सुनते हुए लैपटॉप और कैमरा उठा कर बाहर निकल आए...
  काले आसमान के माथे पर गोल बिन्दिया सा चमकता चन्दा दिखा.... अपने माथे पर सजाने की चाहत से उसे आसमान के माथे से उतारना चाहा.... हाथ नहीं आया..... उंगलियों की आँख बना कर उसके अन्दर चमकती पुतली की तरह रख दिया......  उसे कैमरे में कैद कर लिया.... मन खुशी से झूम उठा... पचास में पन्द्रह का बचपना ..... वैसे देखा जाए तो उम्र के सभी पड़ाव मन के अन्दर कहीं किसी कोने में छिपे बसे रहते हैं.... वक्त नहीं मिलता उन्हें देखने का... या शायद हम देखना ही नहीं चाहते......
फेसबुक पर Sanjay Patel लिखते हैं अपनी वॉल पर " एक कटु यथार्थ>हम अपनी ज़िन्दगी की उलझनों में शरारतें करना भूल जाते हैं और कहने लगते हैं कि हम तो बड़े हो गये..आपको नहीं लगता कि महीने दो महीने में हमें बच्चा बन जाना चाहिये ?(काश! ऐसा हो पाता)"

वहाँ आया एक कमेंट अच्छा लगा आप भी देखिए... 

Tankeer Wahidi आसान है, बचपन का सरल अर्थ है निश्चल मासूम होना, जैसे-जैसे हम बडे होते हैं मन चालाक होता जाता है, ये चालाकियां बचपन से दूर ले जातीं हैं, अपने मन से छल कपट और चालाकियों को अलविदा करना शुरु कर दें बचपन पास आता जायेगा हां आयु तो अनुगामी है, किंतु अवस्था सामर्थ्य पर निर्भर है. हां आसान नहीं अपने चेहरों को गिरा देना किंतु यदि कर सको तो शुभ है. 


 बचपन सभी  जीना चाहते हैं... पर जाने क्यों नहीं जी पाते.....  सोचिए.... समझाइए....... 
इन तस्वीरों को भी देखिए..... 




अपने माथे पर सजाना चाहा चन्दा को गोल बिन्दिया सा 


लाख कोशिश करने पर भी हाथ न आया चन्दा 


उंगलियों की आँख में कैद किया चमकती पुतली सा 

शनिवार, 14 मई 2011

आज के दिन एक फूल खिला ...


हमारे घर के आँगन में खिले दो फूल 

आज बड़े बेटे वरुण का जन्मदिन है.....सुबह सुबह विजय सोए हुए वरुण के माथे पर हाथ फेर कर निकल गए ऑफिस के लिए......दरवाज़ा खुलते ही सूरज की तीखे तेवर को सहन न कर पाई और वहीं से विदा करके उन्हें अन्दर आ गई...सुबह के सवा छह बजे थे लेकिन सूरज को देख कर लग रहा था जैसे दोपहर हो गई हो....बेटे के कमरे में गई.....उसे निहारा...मन ही मन आशीर्वाद दिया......
रसोईघर में गई...पानी पीकर कुछ पल डाइनिंग टेबल पर बैठी रही.....बेटे को कहा भी था कि अगर छोटे  भाई के साथ अपना जन्मदिन मनाना हो तो चला जाए लेकिन जाने क्या सोच कर रुक गया......कभी कभी अपने ही बच्चों के मन की बात जान नहीं पाते हम...बेचैनी सी होने लगती है ....इसी सोच में डूबी अपने कमरे में आई...
लैपटॉप ऑन किया...जीमेल...फेसबुक....ब्लॉगज़.....खुले थे...
उन्हें मिनिमाइज़ करके स्क्रीन पर लगे दो गुलाबी फूलों को निहारने लगी...हमारे आँगन में खिले दो गुलाब के फूल.... उस घर में चारों तरफ फूल पौधे थे...खुला और बहुत बड़ा घर था... उस घर से मीठी यादें जुड़ी थीं तो कुछ बेहद कड़वी ....जिन्हें भूलना नामुमकिन है......कुछ पढ़ने लिखने का जी नहीं चाहा...उठी...रोज़ की दिनचर्या से फारिग हो कर योग करना शुरु किया... आज उसमें भी दिल नहीं लग रहा था...अपने मोबाइल पर भजन लगा कर आँखें बन्द कर लीं.....
दो भजन सुनकर फिर से स्क्रीन के सामने आ बैठी.....चमकती स्क्रीन के उस पार कितने ही लोग बैठे हैं लेकिन क्या कोई मेरे मन का हाल जान सकता है....मुँह चिढ़ाती स्क्रीन जैसे कह रही हो.... ‘मुझे क्या पता’
उठ कर फिर बेटे के कमरे में गई... प्यार से थपकाया... जन्मदिन की मुबारक देकर उसे उठने के लिए कह कर नाश्ता बनाने में किचन में आ गई.....चाय के साथ कड़क टोस्ट वरुण को अच्छा लगता है....हम दोनों ने किचन में ही लैपटॉप रख कर विद्युत से बातें करते हुए चाय  नाश्ता किया....मन कुछ हल्का हुआ....विद्युत की मस्ती कुछ अलग है....मम्मी पापा और चाचू के साथ बाहर खाना खाने जाना...जब यहाँ आओगे तो एक बार फिर  दोस्तों के साथ मस्ती करेंगे....
दोनों बेटों के साथ बातचीत करने से लगा जैसे कुछ ही दूरी पर सब एक साथ बैठे थे... अपने कमरे में आकर कुछ ब्लॉग़ पढ़े ..कुछ टिप्पणियाँ कीं.... फिर सोचा कि कुछ लिखा जाए....

वरुण ने मुझे देखा... कीबोर्ड पर उंगलियाँ रुक रुक चल रही हैं..मेरा दिल और दिमाग कहीं खोया है..... शायद अतीत की उन मीठी यादों में जहाँ से वापिस लौटने का जी न चाहे..... समझ गया वह.....पास आकर खड़ा हो गया.... हल्की मुस्कान चेहरे पर.... आँखें बोलती सी..........
मेरे बारे में क्या है लिखने को...... '25 साल का एक ........' मुझे देख कर आगे कुछ न कह पाया.... मैं वहीं जड़ हो गई....कहना चाहती थी....’क्या कहते हो.....क्यों कहते हो......’ कुछ कहने से पहले ही जैसे वह समझ गया..... “सच है मम्मी..... यही सच है ...... जानता हूँ समाज के अनुसार मुझे भी अपने पापा की तरह नौकरी करके परिवार बनाने की बात सोचनी चाहिए...एक पुराने ढर्रे सी ज़िन्दगी जीने की सीख को अपना लेना चाहिए.....पर मैंने अपने मन की खिड़्कियाँ बन्द कर ली हैं.....
बचपन था वो....जब 12 साल की उम्र में दर्द ने जकड़ा लिया था ...... स्कूल और कॉलेज उसी दौरान खत्म हुए....... मुझे कुछ याद नहीं..... शायद मैं याद रखना ही नहीं चाहता.... बस याद है दर्द से मुक्ति पाकर दो साल का मस्त जीवन ..... छोटे भाई के साथ आधी आधी रात तक की मस्ती....हर रोज़ की आवारागर्दी.... सबके साथ
कदम से कदम मिला कर चलने की खुशी... नए पंखों के साथ उड़ने का आनन्द सिर्फ मैं ही महसूस कर सकता हूँ .....हर रोज़ किसी नई राह पर जाने की ललक..... बस यही याद है मुझे......जैसे सारा जीवन जी लिया हो.....
सर्जरी के बाद से अब तक नहीं सोचा था..... सोचना ही नहीं चाहता था......लेकिन आज सोचता हूँ ..... खुशी के पल जितने मिले...उन्हें सहेज लिया....अब उनसे ताकत लेकर नए जीवन की शुरुआत करनी है....बस आपका आशीर्वाद चाहिए...
बेटा बोलता जा रहा था और मैं सुन रही थी....शायद हर इंसान की अपनी एक दुनिया होती है...जिसमें वह अपने तरीके से सोचता है,,,जीता है... दुखी होता है...खुश होता है....माँ हूँ फिर भी मानती हूँ कि शायद बेटे के मन का कोई कोना है जो मैं नहीं देख पाई...क्या पता....कई कोने हो अनदेखे....फिर भी दुआ है कि वह हर पल भरपूर जी ले....


बुधवार, 11 मई 2011

उड़ान


 रेगिस्तान का सूर्यास्त 
















चंचल मन की चाह अधिक है

कोमल पंख उड़ान कठिन है

सीमा छूनी है दूर गगन की

उड़ती जाऊँ मदमस्त पवन सी

साँसों की डोरी से पंख कटे

पीड़ा से मेरा ह्रदय फटे

दूर गगन का क्षितिज न पाऊँ

आशा का कोई द्वार ना पाऊँ !
(मन के भाव नारी कविता ब्लॉग़ पर जन्म ले चुके थे,,,आज उन्हें अपने ब्लॉग़ पर उतार दिए...)

रविवार, 8 मई 2011

माँ

माँ .........

लिखने को कुछ नहीं पर एहसास बेशुमार हैं.......
याद आते हैं बचपन के दिन.....
माँ का प्यार.....मारती फिर दुलारती.....
रोते रोते गले लगाती.... बाँहों में भरती
लाख चाहने पर भी रोक न पाती.....
सब का गुस्सा मुझ पर उतारती...

लिखने को कुछ नहीं पर एहसास बेशुमार है...
याद आते हैं जवानी के दिन.....
गलत जाते कदमों को रोक लेती...
मचलती चाहतों को भाँप लेती..
अनकही कहानी सारी सुन लेती...
मुखरित होता मौन समझ लेती...

लिखने को कुछ नहीं पर एहसास बेशुमार है...
याद आते हैं अब दोस्ती के दिन...
पल में दोस्त बन नसीहत लेना...
पल में माँ बन कर नसीहत देना..
पल में रूठना , पल में हँस देना..
पल पल का हिसाब लेना देना....

स्पाइस गर्लज़ का 'ममा' गीत माँ के नाम ....


गुरुवार, 5 मई 2011

अजन्मी बेटी का खूबसूरत एहसास

कहीं न कहीं किसी न किसी की ज़िंदगी में ऐसा कुछ घट जाता है जो मन को अशांत कर जाता है.......मन व्याकुल हो जाता है कि क्या उपाय किया जाए कि सामने वाले का दुख दूर हो सके... लेकिन सभी को अपने अपने हिस्से का जीवन जीना है... चाहे फिर आसान हो या जीना दूभर हो जाए... सुधा की भी कुछ ऐसी ही कहानी है जिसे अपने लिए खुद लड़ना है , अपने लिए खुद फैंसला करना है....
जाने कैसे कैसे ख़्याल सुधा के मन में आ रहे थे...सुबह से ही उसका दिल धड़क रहा था....आज शाम रिपोर्ट आनी थी ... कहीं फिर से लड़की हुई तो....कहीं फिर से नन्हीं जान को विदा होना पड़ा तो....नहीं नहीं इस बार नहीं...सुधा ने मन ही मन ठान लिया कि इस बार वह ऐसा कुछ नहीं होने देगी....
उसने पति धीरज को लाख समझाया था कि इस बार लड़का या लड़की जो भी होगा उसे बिना टैस्ट स्वीकार करेंगे......लेकिन तीसरी बार फिर माँ और बेटे में एक और ख़ून करने की साजिश हो रही थी...कितना रोई थी वह क्लिनिक जाने से पहले....पर सास ने चिल्ला चिल्ला कर सारा घर सिर पर उठा लिया था...’मुझे पोता ही चाहिए.... खानदान के लिए चिराग चाहिए बस’ पति चुप... बुत से हो गए माँ के सामने.. लाख मिन्नतें करने के बाद भी उनका दिल न पिघला... आखिर रोती सिसकती सुधा को क्लिनिक जाना ही पड़ा था....
डॉ नीना ने धीरज को एक कोने में ले जाकर खूब फटकारा था. ‘कैसे पति हो.. अपनी पत्नी की तबियत का तो ख्याल करो...तीसरी बार फिर से अगर टैस्ट करने पर पता चला कि लड़की ही है फिर क्या करोगे.... उसे भी खत्म करवा दोगे....’ धीरज की माँ ने सुन लिया और एकदम बोल उठी, ‘हाँ हाँ करवा देंगे....मुझे पोता ही चाहिए बस’
डॉ नीना कुछ न बोल पाईं.....चाहती तो पुलिस में रिपोर्ट कर देतीं लेकिन डोनेशन का बहुत बड़ा हिस्सा धीरज के पिता के नाम से क्लिनिक को आता था....न चाहते हुए भी डॉ को टैस्ट करना पड़ा...
सुधा अपने पति को देख कर मन ही मन सोच रही थी... जिसके मन में अपनी पत्नी के लिए थोड़ा सा भी प्रेम नहीं...वो  इस आदमी के साथ कैसे रह पाती है  ...उसे अपने आप पर हैरानी हो रही थी...पति से ज्यादा उसे खुद पर  घिन आ रही थी ,  अपने ही कमज़ोर वजूद से वह खुद से शर्मिन्दा हो रही थी....
 नहीं.....इस बार नहीं ...इस बार वह बिल्कुल कमज़ोर नहीं पड़ेगी.... इस बार बिल्कुल नहीं गिड़गिड़ाएगी...
फोन पर जब डॉ नीला ने बताया कि इस बार भी लड़की है तो पल भर के लिए उसका सिर घूम गया था...हाथ से रिसीवर छूट कर गिर गया....टीवी देखते देखते सास ने कनखियों से सुधा को देखा... फिर अपने बेटे की तरफ देखा... दोनो समझ गए थे कि डॉ नीला का ही फोन होगा...सास सुधा की ओर देखकर बेटे से कहती हैं... ‘लगता है कि फिर से मनहूस खबर आई है’
धीरज पूछते हैं... डॉ नीला ने रिपोर्ट के बारे में क्या बताया...चुप क्यों हो ....क्या हुआ....सुधा पीली पड़ गई थी..... धीमी आवाज़ में बस इतना ही कह पाई... “नहीं इस बार मैं क्लिनिक नहीं जाऊँगी...”
‘पता नहीं किस घड़ी मैं इस मनहूस को अपनी बहू बना कर लाई थी...एक पोते के लिए तरस गई...’ सास बोलती जा रही थी लेकिन सुधा के कानों में बस एक नन्हीं सी जान के सिसकने की आवाज़ आ रही थी... आँखें बन्द करके वहीं फोन के पास फर्श पर बैठ गई.....
एक बार फिर क्लिनिक चलने के लिए धीरज का आदेश...सास का चिल्लाना... सुधा पर किसी का कोई असर नहीं हो रहा था..वह सन्न सी बैठी रह गई, कुछ सोच कर वह उठी....गालों पर बहते आँसुओं को पोंछा......उसने एक फैंसला ले लिया था...इस बार वह मौत के खेल में भागीदार नहीं बनेगी , मन ही मन उसने ठान लिया , .ज़िन्दगी को नए सिरे से शुरु करने का फैंसला ले लिया था उसने ... सुधा तैयार तो हुई थी...लेकिन क्लिनिक जाने के लिए नहीं..सदा के लिए उस घर को छोड़ने के लिए....
उसके हाथ में एक सूटकेस था..... धीरज को यकीन नहीं  हुआ...वह सपने में भी नहीं सोच सकता था कि सुधा ऐसा कोई कदम उठा पाएगी... वह उसे रोकना चाहता था लेकिन अपनी ही शर्तों पर...
आज सुधा कहाँ रुकने वाली थी....वह तेज़ कदमों के साथ घर की दहलीज पार कर गई.... अचानक मेनगेट पर पहुँच कर  रुकी...कुछ पल के लिए धीरज के चेहरे पर जीत की मुस्कान आई लेकिन अगले ही पल गायब हो गई , सूटकेस नीचे रख कर सुधा ने गले से मंगलसूत्र उतारा......पति के हाथों में थमा कर फिर वापिस मुड़ी और बढ़ गई ज़िन्दगी की नई राह पर ....... राह नई थी लेकिन इरादे मजबूत थे... अब वह अकेली नहीं थी.. अजन्मी बेटी का प्यारा सा खूबसूरत एहसास उसके साथ था.....!  

सोमवार, 2 मई 2011

खूबसूरत देश का सपनीला सफ़र


(सन 2002 में पहली बार जब मैं अपने परिवार के साथ ईरान गई तो बस वहीं बस जाने को जी चाहने लगा. एक महीने बाद लौटते समय मन पीछे ही रह गया. कवियों और लेखकों ने जैसे कश्मीर को स्वर्ग कहा है वैसे ही ईरान का कोना कोना अपनी सुन्दरता के लिए जन्नत कहा जाता है. सफ़र की पिछली (ईरान का सफ़र ,
ईरान का सफ़र , ईरान का सफ़र 3, ईरान का सफ़र 4 )इन किश्तों में अपने दिल के कई भावों को दिखाने की कोशिश की है...

पिछली पोस्ट में उन्मुक्तजी ने शीर्षक बदलने का सुझाव दिया था, असल में हम भी शीर्षक बदलने की सोच रहे थे...यात्रा वृतांत 200-250 शब्दों तक ही रहे, इस बात का भी ध्यान रखना जरूरी लगा.. होता यह है कि जब यादों का बाँध टूटता है तो फिर कुछ ध्यान नही रहता.....आशीषजी ने राजनीतिक और सामाजिक ढाँचे के बारे में विस्तार से जानने की इच्छा व्यक्त की....ज़िक्र करने के लिए तो बहुत कुछ है.... ग़रीबी...शोषण,...अंकुश ... दोहरा जीवन जीने को विवश लोग.... इन सब बातों का ज़िक्र बीच बीच में आ ही जाता है बस उन्हें अनुभव करने की ज़रूरत है.

ईरान पहुँच कर एक बार भी नहीं लगा कि हम किसी पराए देश में है....तेहरान से रश्त.... रश्त से रामसार की सैर कर आए थे... अब लिडा के मॉमान बाबा को मिलने जाना था ... दावत के लिए उन्होंने पहले ही कह रखा था... अगले दिन कुछ तोहफे और ताज़े फूलों के साथ दोपहर के ख़ाने के लिए वहाँ पहुँचे....पहली बार मिलते ही बड़ी बेटी का ख़िताब दे दिया...लिडा पहले से ही मुझे दीदी कहती ही थी.....ताज़ी चाय..मिठाई..फल अलग अलग तरह चीज़..
सब कुछ मेज़ पर पहले से ही सजा था... उनके एक दोस्त भी आए हुए थे...मि.आसिफ..जिन्हें भारत के मसाले बेहद पसन्द हैं...उन्हें तुन्द (मिर्ची) खाना ही स्वादिष्ट लगता है... दिलचस्प यह था कि सारी बातचीत का अनुवाद लिडा बहुत खूबसूरती से कर रही थी.....जब थक जाती तो चुप रहने को कह देती... सब मुस्कुरा कर रह जाते.. हालाँकि रियाद में बोलने लायक कुछ कुछ फारसी तो सीख ली थी लेकिन फिर भी लम्बी बातचीत के लिए अली या लिडा का ही सहारा था....
वरुण के लिए खास कावियार मँग़वाया गया था... तरह तरह की चीज़ थी... अपने यहाँ की तरह प्याज़ टमाटर का तड़का नहीं था न ही दस तरह के मसाले थे..फिर भी मेज़ पर सजे पकवान मन मोह रहे थे...कभी कभी नए तरीके से पके खाने का भी बहुत अच्छा स्वाद होता है... जितनी मेहनत और दिल से उन्होंने खाना बनाया होगा उससे कहीं ज़्यादा स्वाद लेकर हम सब खा रहे थे और तारीफ़ भी कर रहे थे.... बीच बीच में विजय को याद करके दोनो मातापिता ‘जा ए विजय खाली’ कह देते..मतलब कि यहाँ एक कुर्सी विजय की खाली है... विजय की फ्लाइट हफ्ते बाद की थी, सुनकर दोनों के चेहरों पर मुस्कान आ गई...
खाने के बाद फोटो खिंचवाने का दौर चला और साथ ही अपने देश की हिन्दी फिल्मों की बातें शुरु हुई..कई फिल्मों और हीरो हिरोइन और उनके गीत आज भी याद किए जाते हैं वहाँ ....एक सवाल जो सबसे ज्यादा पूछा जाता है कि 5-6 मीटर लम्बा कपड़ा औरतें कैसे पहनती हैं ... क्या चलने में कोई मुश्किल नहीं होती....अगली पार्टी में साड़ी पहन कर आने का वादा किया.... 

मॉमान बार बार कहतीं मेरी प्यारी बेटियाँ मीनू लिडा 
 


ईरानी माता पिता के साथ, पीछे अली, लिडा, वरुण, विद्युत, मि.आसिफ़, अर्दलान