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बुधवार, 22 मई 2013

बैठे बैठे सूझा कुछ नया ....

अपने ब्लॉग पर इधर उधर विचरते हुए सन 2011 की अंतिम पोस्ट 'कीबोर्ड पर थिरकती उंगलियाँ'  को दुबारा पढते हुए अचानक मन में ख्याल आया कि क्यों न इस पोस्ट पर आई टिप्पणियों के ज़रिए उन्हीं के ब्लॉग का ज़िक्र किया जाए....पोस्ट पर आई टिप्पणी हटा कर टिप्पणीकार के ब्लॉग की पोस्ट से अपनी पसन्द का एक छोटा सा अंश यहाँ दर्ज करके उनका आभार प्रकट किया है....


anju(anu) choudhary said... 
तुम मेरी सखी-सहेली भी 
और खुद में पूर्ण और सम्पूर्ण भी 
मेरी माँ...............||


Abhishek Ojha said...
बिन कुछ झूठ कहे हम हर सत्य को नहीं कह सकते या हमेशा कुछ ऐसा सत्य बचा रह जाएगा जिसे हम साबित नहीं कर सकते - हर कथन को साबित करना संभव नहीं !

मोबाइल और इन्टरनेट के जमाने में 
बहुत तेजी से बदल रहा है 
..........छोटा सा शहर  !!!

वन्दना said... ये थिरकन यूँ ही चलती रहे ........ 

यह मौसम है लू का
तपती धूप का मेरे लिये 
घर की ठंडक में दुबक कर
हर दुपहर को सोना है


छली जा रहीं नारियां, गली-गली में द्रोह ।
नष्ट पुरुष से हो चुका, नारिजगत का मोह |

 वृक्षारोपण द्वारा गलियों, बाजारों, सड़कों और राजमार्गों पर शीतल छाया की व्यवस्था की जा सकती है। 

कई लोग जानवरों को भी एक माँ की तरह पालते हैं. 

हमने तो यह बता दिया कि हम अपना समय कैसे बरबाद करते हैं। यह खुलासा केवल ब्लॉग लिखने तक सीमित है। बाकी हरकतों में समय की बरबादी के पत्ते हमने अभी नहीं खोले हैं। (बताइएगा कि हमने वक्त बरबाद किया या बिताया :) ...! ) 

आप सोच रहे होंगे कि आम भारतीय युवा भ्रष्टाचार के खिलाफ़ हैं परंतु यह अर्ध सत्य है..

जिसने स्‍वयं को वश में कर लिया है 
संसार की कोई  शक्ति उसकी विजय को 
पराजय में नहीं बदल सकती ... 

"मिलते हैं एक छोटे से ब्रेक के बाद ".

'वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान''। यह प्रसिद्ध पंक्ति सुमित्रानंदन पंत की है। 

कवि कल्पना कर करके
इतिहास काव्य रच देते हैं 

अरे जानते नहीं
रूहें साथ रहती हैं
जन्मों तक .......

इंटरनेट में सक्रियता की वजह से भविष्‍य को जानने के इच्‍छुक लोगों के दो चार जन्‍म विवरण प्रतिदिन मिलते हैं 

समय आ गया है विद्रोह का, विरोध का, लडाई का, अपनी बात दो टूक कहने का वरना यह समाज इन्सानों का नही दरिंदों और कायरों का बन जायेगा ।

ये पोस्ट महज मेरी सोच को दर्शाती हैं


राहे बर्बादी को तो ख़ुद ही चुना था मैनें
उसपे अब अश्क बहाने से भला क्या होगा 

mere vichar said...  
मैं ऐसे महान पुरुष को सुनने के लिए जीवित नहीं रहूँगा. मेरी उम्र काफी हो चुकी है.

Mukesh Kumar Sinha said...
काश, मेरे में होती
समुद्र जैसी गहराई
ताकि तू डूब पाती
मेरे अहसासों के भंवर में

सच्चे मन से दुआ करो तो कितनी जल्दी कुबूल होती है.

"शब्दहीन संवाद, शब्दीय संवाद से हमेशा ही मुखर रहा है" ------

अब तो कभी कभी लगता है कि उपग्रहों के समूह से जुड़ा यह नेवीगेटर, मेरे लिए फिल्मी गीत गुनगुना रहा हो “… तू जहाँ जहाँ चलेगा, मेरा साया साथ होगा… “   (पाबलाजी , आपकी टिप्पणी को दुबारा न पढ़ा होता तो पता ही नहीं चलता कि हमारा नाम भी कहीं लिया गया था कभी...शुक्रिया) 

कभी कभी
या शायद बहुधा
रिश्ते जलाए प्रेम पत्रों के अवशेष से रह जाते हैं

हर्बल गार्डन में कभी न कभी एक मौका घूमने का छोड़ना नहीं 

यही कामना है कि वो इसी तरह मानवीय और सामाजिक सरोकार से जुड़ निरंतर काव्य सृजन  करती रहें ।

उनको  जम्हूरियत  की  तो  परवाह  नहीं है ।
लूटा  गया  वतन  है ,ये   अफवाह   नहीं  है ॥

मेरी  आँखों में  ये आँसू नहीं  हैं...पानी  है..
एक सूरत है जो हरदम इसमें झिलमिलाये...!

S.N SHUKLA said...
सूर्य ढलने लगा पर मै अभी थका नहीं (शुक्ला जी आपकी अच्छी सेहत के लिए शुभकामनाएँ) 

vidya said...
एक आम से इंसान की आम सी बातों का जमावड़ा है मेरी कवितायें..

Rakesh Kumar said...
 हम सभी विषाद से सर्वथा मुक्त हो आनन्द ,शान्ति और  उन्नति की ओर
निरंतर अग्रसर हो.

shikha varshney said...
अपना तो वो हो जो मिले जमघट में भी
अपनों की तरह, पूरे अधिकार से

मुसाफिर  हैं हम  मुसाफिर  हो तुम भी 
कही न कही  फिर किसी मोड़  पर मुलाकात होगी 

Varun said... 
ब्लॉगर नहीं एक पाठक हूँ 

46 डिग्री में भी लोकतंत्र चालू है . 

माँ के बारे में जितना भी कहा जाए कम है! 

भ्रष्टाचार हमारे ख़ून में .....

''Choose to love- rather than hate.

कहीं तो होगा ऐसा कोई रहीम 
जिससे मैं जी भर बातें कर सकूँ 

सुनामी सा उनमुक्त कहर 
कुछ अधिक ही हानि पहुंचाता 

"नहीं चला मोदी का जादू"


मैंने भावना का वरण किया हैमेरे लिए वह संबंध और संबंधों से बड़ा है।

अब्दुल सुभान (42 साल) पिछले 19 सालों से अपनी दोनों आंखों से लाचार है। बावजूद इसके सुभान न सिर्फ कपड़ों की सिलाई करता है बल्कि अपने घरेलू कार्यों को भी बखूबी अंजाम देता है। 

The human mind is double edge sword

अब आप Blogvarta.com से आकर्षित डिजाईन के पोस्टकार्ड चुनकर अपनें किसी भी मित्र या सम्बन्धी को किसी त्यौहार, जन्मदिन बधाई, किसी भी प्रकार का कोइ सूचना पत्र भेज सकतें हैं! 

कुछ  आती हैं यादें बचपन की कुछ दिखती हैं धुंधली सी तस्वीरें 

आज की इस पोस्ट को बनाना सार्थक हुआ ... पाबलाजी की बदौलत जान पाए कि 'राष्ट्रीय सहारा' की आधी दुनिया में  18अक्टूबर 2011 की पोस्ट  "कीबोर्ड पर थिरकती उंगलियाँ" को  शामिल किया गया था ... !

गुरुवार, 19 मई 2011

डायरी के पुराने पन्ने


कुछ पुराने ड्राफ्ट जिन्हें एक एक करके मुक्त करने की सोच रही हूँ ....  यह सबसे पुराना ड्राफ्ट 3 जुलाई 2008 का लिखा हुआ  है..... जस का तस पब्लिश कर रही हूँ .... कुछ ड्राफ्ट अधूरे हैं उन्हें पोस्ट करने से शायद वे भी अपने आप में पूरे हो जाएँ..... 
इस वक्त शाम के 6 बजे हैं. छोटा बेटा दोस्तों के साथ बाहर है ... बड़ा बेटा वरुण और हम घर में ...कई दिनों के बाद आज मौका मिला कि इत्मीनान से कुछ लिखें लेकिन पढ़ने का मोह लिखने से रोक देता है. अभी की बात ही लीजिए... ज्ञान जी की पोस्ट पढ़ कर हम सोचने पर मज़बूर हो गए... " कोई मुश्किल नही है इसका जवाब देना। आज लिखना बन्द कर दूं, या इर्रेगुलर हो जाऊं लिखने में तो लोगों को भूलने में ज्यादा समय नहीं लगेगा।"
हम अपनी बात करें तो इस बात का बिल्कुल भय नहीं है क्योंकि हम उलटा सोचते हैं...कोशिश में रहते हैं कि हम किसी को भूलें... अच्छी बुरी यादों के साथ सब हमारे दिल में रहें... हम किसी के दिल में हैं या नहीं... किसी को हमारी ज़रूरत है कि नहीं इससे ज़्यादा ख्याल यह रहे कि दूसरे को लगता रहे कि उसकी ज़रूरत हमें है......

ब्लॉग जगत के बारे में सोचते हैं... अच्छा लगता है पढ़ना , जानना, समझना,,, इसी में ही वक्त बीत जाता है और लिखने की बस सोचते ही रह जाते हैं. ज्ञान जी की पोस्ट पढ़ने के बाद समीर जी की छोटी सी पोस्ट पढ़ने को मिली.... छोटी सी लेकिन भाव बहुत बड़ा लिए हुए .... सोचने लगे  कि हम 'हैरान पाठक ' तो हैं ही साधारण से  'हिन्दी ब्लॉगर' भी हैं .... सब काम छोड़कर लिखने बैठ गए..सोचा कि आँखें खराब होने पर भी समीर जी अगर छोटी सी पोस्ट ठेल सकते हैं तो क्यों हम  भी एक पोस्ट डालकर दोस्तों को बोर कर दें.. ..
सुखनसाज़ में हुसैन भाइयों की गज़ल सुनते सुनते शुरु हुए... बहुत दिनों पहले लिखी हुई कई रचनाएँ जो सिर्फ डायरी के पन्नों में ही कैद हैं ...उनकी याद गई.... विचार आया कि क्यों उन पुराने पलों को पन्नों की कैद से मुक्ति दे दी जाए लेकिन किश्तों में ही .... बहुत पुरानी बात याद रही है जब छोटे बेटे की बाहरवीं का रिज़ल्ट आना था .... आलोक जी की एक पोस्ट "टीचर की डायरी" पढ़कर अपने दोनों बेटों की याद गई जिन्हें हमने कभी नहीं कोसा कि 90% अंक लाने वाले बच्चों में उनका शुमार क्यों नहीं.... लाइफ के झटकों को झेलने के लिए मजबूती जिस व्यक्तित्व से आती है, वह गढ़ने का काम हो कहां रहा है।स्कूल बिजी हैं टापर गढ़ने में। पेरेंट्स बिजी हैं सुपर टापर बनाने में। व्यक्तित्व विकास के बुनियादी तत्व कहां से आयेंगे