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गुरुवार, 5 मई 2011

अजन्मी बेटी का खूबसूरत एहसास

कहीं न कहीं किसी न किसी की ज़िंदगी में ऐसा कुछ घट जाता है जो मन को अशांत कर जाता है.......मन व्याकुल हो जाता है कि क्या उपाय किया जाए कि सामने वाले का दुख दूर हो सके... लेकिन सभी को अपने अपने हिस्से का जीवन जीना है... चाहे फिर आसान हो या जीना दूभर हो जाए... सुधा की भी कुछ ऐसी ही कहानी है जिसे अपने लिए खुद लड़ना है , अपने लिए खुद फैंसला करना है....
जाने कैसे कैसे ख़्याल सुधा के मन में आ रहे थे...सुबह से ही उसका दिल धड़क रहा था....आज शाम रिपोर्ट आनी थी ... कहीं फिर से लड़की हुई तो....कहीं फिर से नन्हीं जान को विदा होना पड़ा तो....नहीं नहीं इस बार नहीं...सुधा ने मन ही मन ठान लिया कि इस बार वह ऐसा कुछ नहीं होने देगी....
उसने पति धीरज को लाख समझाया था कि इस बार लड़का या लड़की जो भी होगा उसे बिना टैस्ट स्वीकार करेंगे......लेकिन तीसरी बार फिर माँ और बेटे में एक और ख़ून करने की साजिश हो रही थी...कितना रोई थी वह क्लिनिक जाने से पहले....पर सास ने चिल्ला चिल्ला कर सारा घर सिर पर उठा लिया था...’मुझे पोता ही चाहिए.... खानदान के लिए चिराग चाहिए बस’ पति चुप... बुत से हो गए माँ के सामने.. लाख मिन्नतें करने के बाद भी उनका दिल न पिघला... आखिर रोती सिसकती सुधा को क्लिनिक जाना ही पड़ा था....
डॉ नीना ने धीरज को एक कोने में ले जाकर खूब फटकारा था. ‘कैसे पति हो.. अपनी पत्नी की तबियत का तो ख्याल करो...तीसरी बार फिर से अगर टैस्ट करने पर पता चला कि लड़की ही है फिर क्या करोगे.... उसे भी खत्म करवा दोगे....’ धीरज की माँ ने सुन लिया और एकदम बोल उठी, ‘हाँ हाँ करवा देंगे....मुझे पोता ही चाहिए बस’
डॉ नीना कुछ न बोल पाईं.....चाहती तो पुलिस में रिपोर्ट कर देतीं लेकिन डोनेशन का बहुत बड़ा हिस्सा धीरज के पिता के नाम से क्लिनिक को आता था....न चाहते हुए भी डॉ को टैस्ट करना पड़ा...
सुधा अपने पति को देख कर मन ही मन सोच रही थी... जिसके मन में अपनी पत्नी के लिए थोड़ा सा भी प्रेम नहीं...वो  इस आदमी के साथ कैसे रह पाती है  ...उसे अपने आप पर हैरानी हो रही थी...पति से ज्यादा उसे खुद पर  घिन आ रही थी ,  अपने ही कमज़ोर वजूद से वह खुद से शर्मिन्दा हो रही थी....
 नहीं.....इस बार नहीं ...इस बार वह बिल्कुल कमज़ोर नहीं पड़ेगी.... इस बार बिल्कुल नहीं गिड़गिड़ाएगी...
फोन पर जब डॉ नीला ने बताया कि इस बार भी लड़की है तो पल भर के लिए उसका सिर घूम गया था...हाथ से रिसीवर छूट कर गिर गया....टीवी देखते देखते सास ने कनखियों से सुधा को देखा... फिर अपने बेटे की तरफ देखा... दोनो समझ गए थे कि डॉ नीला का ही फोन होगा...सास सुधा की ओर देखकर बेटे से कहती हैं... ‘लगता है कि फिर से मनहूस खबर आई है’
धीरज पूछते हैं... डॉ नीला ने रिपोर्ट के बारे में क्या बताया...चुप क्यों हो ....क्या हुआ....सुधा पीली पड़ गई थी..... धीमी आवाज़ में बस इतना ही कह पाई... “नहीं इस बार मैं क्लिनिक नहीं जाऊँगी...”
‘पता नहीं किस घड़ी मैं इस मनहूस को अपनी बहू बना कर लाई थी...एक पोते के लिए तरस गई...’ सास बोलती जा रही थी लेकिन सुधा के कानों में बस एक नन्हीं सी जान के सिसकने की आवाज़ आ रही थी... आँखें बन्द करके वहीं फोन के पास फर्श पर बैठ गई.....
एक बार फिर क्लिनिक चलने के लिए धीरज का आदेश...सास का चिल्लाना... सुधा पर किसी का कोई असर नहीं हो रहा था..वह सन्न सी बैठी रह गई, कुछ सोच कर वह उठी....गालों पर बहते आँसुओं को पोंछा......उसने एक फैंसला ले लिया था...इस बार वह मौत के खेल में भागीदार नहीं बनेगी , मन ही मन उसने ठान लिया , .ज़िन्दगी को नए सिरे से शुरु करने का फैंसला ले लिया था उसने ... सुधा तैयार तो हुई थी...लेकिन क्लिनिक जाने के लिए नहीं..सदा के लिए उस घर को छोड़ने के लिए....
उसके हाथ में एक सूटकेस था..... धीरज को यकीन नहीं  हुआ...वह सपने में भी नहीं सोच सकता था कि सुधा ऐसा कोई कदम उठा पाएगी... वह उसे रोकना चाहता था लेकिन अपनी ही शर्तों पर...
आज सुधा कहाँ रुकने वाली थी....वह तेज़ कदमों के साथ घर की दहलीज पार कर गई.... अचानक मेनगेट पर पहुँच कर  रुकी...कुछ पल के लिए धीरज के चेहरे पर जीत की मुस्कान आई लेकिन अगले ही पल गायब हो गई , सूटकेस नीचे रख कर सुधा ने गले से मंगलसूत्र उतारा......पति के हाथों में थमा कर फिर वापिस मुड़ी और बढ़ गई ज़िन्दगी की नई राह पर ....... राह नई थी लेकिन इरादे मजबूत थे... अब वह अकेली नहीं थी.. अजन्मी बेटी का प्यारा सा खूबसूरत एहसास उसके साथ था.....!  

सोमवार, 2 मई 2011

खूबसूरत देश का सपनीला सफ़र


(सन 2002 में पहली बार जब मैं अपने परिवार के साथ ईरान गई तो बस वहीं बस जाने को जी चाहने लगा. एक महीने बाद लौटते समय मन पीछे ही रह गया. कवियों और लेखकों ने जैसे कश्मीर को स्वर्ग कहा है वैसे ही ईरान का कोना कोना अपनी सुन्दरता के लिए जन्नत कहा जाता है. सफ़र की पिछली (ईरान का सफ़र ,
ईरान का सफ़र , ईरान का सफ़र 3, ईरान का सफ़र 4 )इन किश्तों में अपने दिल के कई भावों को दिखाने की कोशिश की है...

पिछली पोस्ट में उन्मुक्तजी ने शीर्षक बदलने का सुझाव दिया था, असल में हम भी शीर्षक बदलने की सोच रहे थे...यात्रा वृतांत 200-250 शब्दों तक ही रहे, इस बात का भी ध्यान रखना जरूरी लगा.. होता यह है कि जब यादों का बाँध टूटता है तो फिर कुछ ध्यान नही रहता.....आशीषजी ने राजनीतिक और सामाजिक ढाँचे के बारे में विस्तार से जानने की इच्छा व्यक्त की....ज़िक्र करने के लिए तो बहुत कुछ है.... ग़रीबी...शोषण,...अंकुश ... दोहरा जीवन जीने को विवश लोग.... इन सब बातों का ज़िक्र बीच बीच में आ ही जाता है बस उन्हें अनुभव करने की ज़रूरत है.

ईरान पहुँच कर एक बार भी नहीं लगा कि हम किसी पराए देश में है....तेहरान से रश्त.... रश्त से रामसार की सैर कर आए थे... अब लिडा के मॉमान बाबा को मिलने जाना था ... दावत के लिए उन्होंने पहले ही कह रखा था... अगले दिन कुछ तोहफे और ताज़े फूलों के साथ दोपहर के ख़ाने के लिए वहाँ पहुँचे....पहली बार मिलते ही बड़ी बेटी का ख़िताब दे दिया...लिडा पहले से ही मुझे दीदी कहती ही थी.....ताज़ी चाय..मिठाई..फल अलग अलग तरह चीज़..
सब कुछ मेज़ पर पहले से ही सजा था... उनके एक दोस्त भी आए हुए थे...मि.आसिफ..जिन्हें भारत के मसाले बेहद पसन्द हैं...उन्हें तुन्द (मिर्ची) खाना ही स्वादिष्ट लगता है... दिलचस्प यह था कि सारी बातचीत का अनुवाद लिडा बहुत खूबसूरती से कर रही थी.....जब थक जाती तो चुप रहने को कह देती... सब मुस्कुरा कर रह जाते.. हालाँकि रियाद में बोलने लायक कुछ कुछ फारसी तो सीख ली थी लेकिन फिर भी लम्बी बातचीत के लिए अली या लिडा का ही सहारा था....
वरुण के लिए खास कावियार मँग़वाया गया था... तरह तरह की चीज़ थी... अपने यहाँ की तरह प्याज़ टमाटर का तड़का नहीं था न ही दस तरह के मसाले थे..फिर भी मेज़ पर सजे पकवान मन मोह रहे थे...कभी कभी नए तरीके से पके खाने का भी बहुत अच्छा स्वाद होता है... जितनी मेहनत और दिल से उन्होंने खाना बनाया होगा उससे कहीं ज़्यादा स्वाद लेकर हम सब खा रहे थे और तारीफ़ भी कर रहे थे.... बीच बीच में विजय को याद करके दोनो मातापिता ‘जा ए विजय खाली’ कह देते..मतलब कि यहाँ एक कुर्सी विजय की खाली है... विजय की फ्लाइट हफ्ते बाद की थी, सुनकर दोनों के चेहरों पर मुस्कान आ गई...
खाने के बाद फोटो खिंचवाने का दौर चला और साथ ही अपने देश की हिन्दी फिल्मों की बातें शुरु हुई..कई फिल्मों और हीरो हिरोइन और उनके गीत आज भी याद किए जाते हैं वहाँ ....एक सवाल जो सबसे ज्यादा पूछा जाता है कि 5-6 मीटर लम्बा कपड़ा औरतें कैसे पहनती हैं ... क्या चलने में कोई मुश्किल नहीं होती....अगली पार्टी में साड़ी पहन कर आने का वादा किया.... 

मॉमान बार बार कहतीं मेरी प्यारी बेटियाँ मीनू लिडा 
 


ईरानी माता पिता के साथ, पीछे अली, लिडा, वरुण, विद्युत, मि.आसिफ़, अर्दलान 


गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

जन्मदिन मुबारक हो माँ ...!




दुलारी अपने माँ बाबूजी की आखिरी संतान और सातवीं बेटी थी ...सारे घर की लाडली....दुलारी के पैदा होने से पहले से ही दूर के एक रिश्तेदार आते..हर बार एक लड़की का नाम ले लेते कि इसे बहू बना कर ले जाऊँगा....दुलारी की माँ हँस पड़ती..अरे भई पहले बेटा तो पैदा करो फिर बहू की सोचना....पंडितजी तो धुन के पक्के थे ...उन्हे तो पक्का विश्वास था कि इसी घर की बेटी उनके घर की बहू बनेगी.....
एक दिन ईश्वर ने पंडितजी की सुन ही ली... लाखो मन्नतो के बाद बेटा पैदा हुआ... अपने नाम को सार्थक करेगा... अपने पिता का नाम रोशन करेगा...सोच कर नाम रखा गया ओम.... उधर ओम के पैदा होने के बाद तोषी और दो साल बाद दुलारी का जन्म हुआ...
पडितजी बहुत खुश थे.....अपने सात साल के बेटे ओम को लेकर फिर गए दुलारी की माँ से मिलने... दुलारी की माँ की मेहमाननवाज़ी पूरे खानदान मे मशहूर थी.... चाय नाश्ते का इंतज़ाम किया...फिर इधर उधर की बाते होने लगी.... नन्हा ओम गली के दूसरे बच्चों के साथ गुल्ली डंडा खेलने में मस्त हो गया.... लाख बुलाने पर भी खाने पीने की चीज़ों पर नज़र तक न डाली....
दुलारी अपनी दो साल बडी बहन तोषी के साथ लडको को खेलते देख रही थी...ओम के पिता ने जैसे ही दोनो
लडकियो को देखा ... लपके अपने बेटे ओम की तरफ.... ‘अच्छा बेटा ...बता तो सही तू किससे शादी करेगा.... ‘
दो बार बताने पर भी कुछ न बोला ओम....शायद उसे शादी का मतलब ही पता नहीं था.....पडितजी कहाँ कम थे...
झट से बोले...’अच्छा तो ऐसा कर...दोनो मे से जो तुझे अच्छी लगती हो उसके सिर  पर डंडा रख दे... ओम ने एक पल दोनो को देखा और दुलारी के सर पर डंडा रख छुआ कर भाग गया फिर से खेलने....
बस इस तरह हो गई बात पक्की....दुलारी और ओम की.....दुलारी ने अभी दसवीं पास ही की थी कि उधर से शादी की जल्दी होने लगी..पंडितजी को लगा कि वे ज़्यादा दिन ज़िन्दा नहीं रहेंगे...इसलिए दुनिया से छह महीने पहले कूच करने से पहले ही झट मंगनी पट शादी कर दी...
दोनो बँध गए जन्मजन्म के बँधन में.... तीन बच्चे हुए... दो लडकियाँ ...एक लडका...मिलजुल कर सुख दुख साथ साथ बाँट कर चलते रहे.... ज़िन्दगी के ऊबड़ खाबड़ रास्ते पर दोनो एक साथ बढते रहे आगे.... बच्चों को उनकी मंज़िल तक पहुँचाने में कोई कसर नहीं छोडी..... सब अपने अपने घर परिवार में सुख शांति से खुश थे .... ओम और दुलारी जानते थे कि बच्चे हर मुश्किल का डट कर सामना करेंगे..... 
एक दिन ज़िन्दगी जीने की जंग मे ओम हार गए.... रह गई अकेली दुलारी .... जीने की चाहत न होने पर भी जीना....मुहाल था...लेकिन बस नहीं था.... मन को मुट्ठी मे कस कर बाँधे दुलारी जीने के हर पल की कोशिश में जुटी है....


बुधवार, 27 अप्रैल 2011

ईरान का सफ़र 4 (रश्त, रामसार)


(सन 2002 में पहली बार जब मैं अपने परिवार के साथ ईरान गई तो बस वहीं बस जाने को जी चाहने लगा. एक महीने बाद लौटते समय मन पीछे ही रह गया. कवियों और लेखकों ने जैसे कश्मीर को स्वर्ग कहा है वैसे ही ईरान का कोना कोना अपनी सुन्दरता के लिए जन्नत कहा जाता है. अपने दर्द को पीकर जीना यहाँ के लोगों को आता है इसलिए भी जन्नत है..  
सफ़र की पिछली किश्तों में ईरान का सफ़रईरान का सफ़र 2 ईरान का सफ़र 3 अपने दिल के कई भावों को दिखाने की कोशिश की है...)
गूगल द्वारा


तेहरान से निकले तो लगा था कि अभी 300किमी का लम्बा सफ़र कार से तय करना है... मैं और विद्युत तो
ठीक थे... वरुण को देखा कि शायद उसे थकावट होगी लेकिन वह भी खुश ही दिखाई दिया...अली अंकल के साथ कार में आगे बैठने में उसे और भी मज़ा आ गया... रास्ते में एक बार भी रुकने के लिए नहीं कहा....गाज़विन रुकने के बाद फिर चाय के लिए शाम को ही रुके...

चाय और बिस्कुट की छोटी सी दुकान... बड़ी सी केतरी (केतली) स्टोव पर उसके ऊपर काली चाय की कूरी (छोटी केतली) ...शीशे के छोटे छोटे गिलासों में फीकी काली चाय और साथ में दो तीन टुकड़े गेन्द के... गेन्द चीनी या शक्कर ही है जो बेतरतीब से टुकड़ों में थी...मुँह में रखी और घूँट लिया ईरानी चाय का....पहला घूँट लेते ही ताज़गी महसूस हुई..... अपने यहाँ की दूध की चाय से बहुत हल्की...
डूबते सूरज की लाल स्याही ने जैसे आसमान को रंग दिया हो


चाय खत्म करते उससे पहले ही दिन खत्म हो गया.... सलोनी साँझ ने चारों ओर के नज़ारे को और भी खूबसूरत बना दिया था...हल्की हल्की ठंड़ी हवा गालों को थपथपा रही थी... एक ठंडी झुरझुरी सी हुई... फौरन कार में जा बैठे....
चलते चलते अब सिर्फ पहाड़ियों के काले साए दिखाई दे रहे थे.... उन पर कहीं कम तो कहीं ज़्यादा घरों में जलती रोशनी के कारण वे सभी तारों से टिमटिमाते दिखाई दे रहे थे...

रश्त से 30 किमी पहले इमामज़ादा हाशिम की मस्जिद आती है.... जिसके बाहर दान बक्सा लैटर बॉक्स की तरह का दिखाई दे रहा था...अली ने रुक कर जेब से रियाल निकाले और हम सब को छूते हुए दानबक्से में डाल दिए... इस रास्ते से आते जाते अली कुछ पैसा दान के बक्से में डालने के लिए ज़रूर रुकते हैं....धार्मिक सोच नहीं बस दान करना है इस मकसद से.....बातों बातों में पता चला कि अपने जन्मस्थान करमशाह के यतीमख़ाने में किसी एक बच्चे के लिए हर महीने की मदद निश्चित की हुई है....
रश्त से 30किमी पहले इमामज़ादा हाशिम 


साढ़े सात हम रश्त में दाख़िल हुए....उत्तरी ईरान के गिलान प्रांत का रश्त शहर समुन्दर से सात मीटर नीचे है और सबसे ज्यादा नमी वाला इलाका माना जाता है...रश्त शहर सबको आकर्षित करता है...ईरान के सभी राज्यों के लोग यहाँ छुट्टियाँ मनाने आते हैं...यहाँ की सिल्क फैक्टरी, धान के खेत...चाय की बागवानी... देखने लायक है... यहाँ के घर ईरान के बाकि राज्यों से अलग दिखते हैं...लाल स्लेटों की छतें और चौड़े बरामदे हर घर में दिखते हैं ..चाहे विला हो या फ्लैटस.....

लगभग सभी घरों की छतें लाल स्लेटों से बनी होती हैं

यहाँ भी ट्रेफिक का वही हमारे देश जैसा हाल दिखा...लेकिन यहाँ भी कारें और उनके ड्राइवर  एक दूसरे की भाषा समझते हैं...एकदम पास से निकल जाते हैं  या निकलने देते हैं...औरतें भी उसी तरीके से ड्राइवरिंग करते हुए दिखीं.....सड़कों पर सबसे ज़्यादा पेजो कार दिखीं...हर मोटर साइकिल पर आगे बड़ा सा शीशा देख कर अजीब सा लगा....

नए पुराने बाज़ारों को पार करते हुए आगे बढ़ रहे थे... सड़के के किनारे फुटपाथ पर लोगों की भीड़ पैदल ही चलती दिखाई दी...सभी औरतों ने ओवरकोट और स्कार्फ़ पहना था....ओवरकोट काले और नीले रंग के ही थे..कहीं कोई चटकीला रंग नहीं दिखा.... ओवरकोट जिसे यहाँ मोंटू कहा जाता है....कुछ का घुटनो तक और कुछ का घुटनों से नीचे था...काली पैंट या जींस के साथ..... बालों का डिज़ाइन दिखाने के लिए लड़कियों ने स्कार्फ़ से आधा सिर ही ढक रखा था....चौंकाने वाली बात यह थी कि लगभग दस में से आठ जवान लड़के लड़कियों के नाक पर बैंडेज थी... पूछने पर पता चला कि कुछ बच्चे नाक की सर्जरी करा कर दिखाने चाहते हैं कि वे दकियानूसी नहीं बल्कि नए ज़माने की सोच रखते हैं.....औरतें भी इस सोच को दिखाने के लिए आगे रहती हैं...आइब्रोज़ , लिप लाइनर और आई लाइनर की खूबसूरती के लिए टैटूज़ बनवाए जाते हैं....कुल मिलाकर कॉस्मैटिक सर्जरी यहाँ दीवनगी की हद तक का शौक है....

पार्किंग की कमी और चुस्त रहने के लिए लोग पैदल चलना ज्यादा पसन्द करते हैं...यूँ ही नज़र चली गई और देखा कि सबके जूते आरामदायक हैं जिसके कारण चलने  में कोई मुश्किल नहीं होती होगी...रियाद में तो बिल्कुल फैशन नहीं पैदल चलने का, बशर्ते कि डॉक्टर चलने की हिदायत दे तभी लोग सैर करते दिखाई देते हैं वह भी वहीं जहाँ सैर के लिए रास्ते बनाए हों...  दुबई में खूब लम्बी सैर हो जाती है चाहे मॉल हो या खुले बाज़ार हों...और अपने देश का तो कहना ही क्या....

कार बाज़ार से होती हई एक गली में मुड़ी और रुक गई... समझ गए कि घर आ गया है...घर पहली मंज़िल पर था...पहली मंज़िल की एक खिड़की खुली और लिडा ने नीचे झाँका.....लिडा और बेटा अर्दलान दोनों नीचे आ गए...
सभी एक दूसरे से गले मिले..... सामान लेकर ऊपर पहुँचे... घर के अन्दर घुसने से पहले जूते बाहर उतारे...
बेटे अर्दलान ने दरवाज़े पर रुकने के लिए कहा और एक फोटो खींच ली, उसके बाद से सोने तक उसने कई तस्वीरें खींची....

अर्दलान ने दरवाज़े पर ही रोक कर एक तस्वीर खींच ली 

 ताज़ा चाय और वहाँ की खास मिठाइयों के साथ स्वागत हुआ.....डिनर में वहाँ के पकवानों के साथ साथ अपने देश की काली उड़द की दाल भी बनी थी, उसे बनाने का तरीका वह इंडिया से सीख कर आई थी...एम.डी.एच का करी मसाले का इस्तेमाल किया गया था...हमारी तरह दाल सब्ज़ी को तड़का नहीं लगाया जाता...उबलती हुई दाल सब्ज़ियों और माँसाहारी भोजन में मसाले और टमेटो प्यूरी डाल दी जाती हैं...
डिनर टेबल पर - विद्युत की कला अर्दलान के चेहरे पर.. 

लगा ही नहीं कि किसी अजनबी देश में हैं या अजनबी लोगों से मिलना हो रहा है... हालाँकि अर्दलान कुछ झिझक रहा था, उसे अंग्रेज़ी बिल्कुल नहीं आती थी लेकिन फिर भी उसे अपने पर यकीन था कि जल्दी ही वरुण विद्युत के साथ बात करते हुए सीख लेगा....

डिनर के बाद ताज़े फल और एक बार फिर चाय का दौर चला... संगीत को लगातार बज ही रहा था लेकिन रोचक बात यह थी कि हिन्दी गीत बज रहे थे..... उस वक्त तय किया गया कि अगले ही दिन रामसार चलेंगे...खासकर वरुण के लिए... गर्म पानी के चश्मे में नहाना सेहत के लिए तो अच्छा है ही , वहाँ की खूबसूरती भी देखने लायक है..... 

अगले दिन निकले रामसार की ओर....अली लिडा के दोस्त मारी और उसके पति बच्चों सहित एक खास जगह पर हमारा इंतज़ार कर रहे थे.... अपनी अपनी कार में दोनों परिवार निकल पड़े रामसार की ओर.... आसपास की खूबसूरती देख कर हम दंग रह गए....कुदरत की इस खूबसूरती से दुनिया बेखबर है.....हरे भरे पहाड़...पाम, ओक और नारंगी के पेड़ों से लदे पहाड़....दूर दूर तक फैले रंगबिरंगे फूलों का बिछौना.....न कंकरीट का जंगल...न इंसानों की भीड़...खामोश खूबसूरत कुदरत को जैसे यहाँ सुकून मिल रहा हो....


रश्त से निकलते 

रामसार मज़न्दरान जिले का बहुत ही खूबसूरत शहर है...यह शहर अलबोर्ज पहाड़ियों, गर्म पानी के चश्मे,  और आखिरी शाह के म्यूज़ियम(मूज़ेह ख़ाक ए शाह) के कारण मशहूर है....

अलबोर्ज पर्वत श्रृंखला अज़रबाइजान और अर्मेनिया से होती हुए पूर्व की ओर तुर्कमेनिस्तान और अफगानिस्तान तक चली जाती है....तेहरान से निकलते हुए जब गाजविन पहुँचते हैं तो अचानक ही कुदरत अपना रूप बदल लेती है.... अलबोर्ज 
पहाड़ियों की खूबसूरती देखते ही बनती है...

अलबोर्ज की पहाड़ियाँ 

यहाँ के गर्म पानी के चश्मे सेहत के लिए अच्छे माने जाते हैं.... अली ने औरतों और अपने लिए अलग अलग हमाम बुक करवा लिए..औरतें एक तरफ चली गईं और आदमी बच्चों के साथ दूसरी तरफ चले गए... बहुत गर्म पानी था... लेकिन कुछ ही पलों में सारी थकान एक दम दूर और गज़ब की उर्जा शक्ति की महसूस हुई.....

कहा जाता है कि पूरी दुनिया के मुकाबले सबसे ज्यादा प्राकृतिक रेडियोधर्मिता (natural radioactivity)  रामसार में पाई जाती है.... सेहत पर बुरा असर होते नहीं देखा गया है बल्कि यहाँ के लोगों की सेहत और अच्छी पाई गई..इसलिए यहाँ गर्म पानी के चश्मे स्पा के रूप में लोग अपने और पर्यटकों के लिए प्रयोग करते हैं.

रामसार में गर्म पानी का चश्मा (स्पा) 

नहाने के बाद दोपहर के खाने के लिए वहाँ से बाहर निकले....कुछ देर में एक रेस्तराँ में पहुँचे जहाँ बिना देर किए ही टेबल पर खाना लग गया...खाने से पहले अखरोट, चीज़, हरे पत्ते , अखरोट और अनारजूस के पेस्ट में जैतून और वहाँ की रोटी संगक रखी जाती है, रोटी में चीज़, अखरोट का टुकड़ा और हरा पत्ता रख कर उसे लपेट कर खाया जाता है.... कभी जैतून डाल कर खाया जाता.... दोनों ही तरीकों से खाना एक नया अनुभव तो था ही... स्वाद भी बढिया लगा....उसके बाद मेन कोर्स का खाना आता है....अब यहाँ मेनकोर्स में क्या खाया...शाकाहारियों का ध्यान रखते हुए इस पर चर्चा नहीं करते....
उसके बाद म्यूज़िम देखने का प्रोग्राम बना..हालाँकि वरुण थक चुका था फिर भी चुप रहा... म्यूज़ियम पहुँच कर थोड़ा घूम फिर कर वहीं के रेस्तराँ में बैठ गया.....हम सब भी जल्दी ही वापिस लौट आए... अखरोट और दालचीनी से भरे बिस्कुटों के साथ चाय पी और घर की ओर लौटे.....

आख़िरी शाह के म्यूज़ियम के बाहर 

छोटे बेटे विद्युत के साथ लिडा की दोस्त मारी

अभी रास्ते में ही थे कि लिडा की मम्मी का फोन आ गया कि कल हम सब उनके यहाँ पहुँचे डिनर के लिए....उन्हें ना करने का तो कोई सवाल ही नहीं था...मारी और फरज़ाद भी अपने घर आने की दावत दे चुके थे....लिडा की एक और दोस्त कियाना का भी फोन आ चुका था.....बड़े बुर्ज़ुगों का प्यार और आशीर्वाद तो स्वाभाविक होता है लेकिन दोस्तों के दोस्तों का प्यार और सत्कार पाकर हम मंत्रमुग्ध हो गए...अगले दिन लिडा के मॉमान बाबा को आने का वादा करके घर पहुँचे..घर पहुँच कर ताज़ी चाय और फलों के साथ साथ लिडा की पसन्द के हिन्दी गीत सुने........

अगली बार सफर की कुछ और यादों के साथ मिलते हैं फिलहाल अभी इतना ही...ख़ानाबदोश ज़िन्दगी है..पुरानी तस्वीरें मिलना मुश्किल लगा फिर भी कुछ तस्वीरें जुटाने में कामयाब हो गए...
कैसा लगा यहाँ तक का सफ़र ज़रूर बताइएगा.....  

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

ईरान का सफ़र 3

Source Unknown
ज़िन्दगी के सफ़र के अनुभव ही मेरी धरोहर हैं.... सफ़र के हर पड़ाव पर कुछ न कुछ सीखा और अपनी यादो में सहेज कर रख लिया......सफ़र की उन्हीं यादों को यहाँ उतारने की हर कोशिश बेदिली से शुरु हुई शायद.. या  बार बार कोई न कोई रुकावट आती रही ज़िन्दगी में.... जिस कारण लिखना मुश्किल होता रहा.. .... हर बार आधे अधूरे सफ़रनामे लिख कर बीच में ही छोड़ दिए...इस बार मन ही मन निश्चय किया कि ब्लॉगजगत के इस विशाल समुन्दर में अपनी ब्लॉग नैया को एक नए विश्वास के साथ उतारना ही है...कोशिश न की तो अफसोस रहेगा....आज उसी कोशिश की शुरुआत है.....बिना आलस , बिना डरे लेखन की पतवार ली और खेने लगे अपनी ब्लॉग नैया को......

हालाँकि कहा जाता है कि किसी भी सफर को समय पर लिखित रूप में दर्ज कर लिया जाए तो अच्छा रहता है...  फिर भी पूरी कोशिश करूँगी कि पुरानी यादों को उसी खूबसूरती से यहाँ सजा सकूँ .....ईरान के सफ़र  की दो पोस्ट लिख चुकी हूँ लेकिन वह तो सिर्फ भूमिका ही थी....विस्तार तो अभी देना बाकि था.... इस  सफ़र का हर सफा खूबसूरत है....  

 मेरे लिए बहुत ज़रूरी है  अपने लोगों को उस देश के आम लोगों के दिल की खूबसूरती दिखाना ...अलग देश, धर्म , जाति, भाषा , खानपान और रहनसहन के दो इंसानों में  कुछ पलों की दोस्ती इतनी प्रगाढ़ हो जाएगी सोचा नहीं था... लेकिन दो दोस्त ही नहीं बने ... दोनों के परिवारों में भी उतना ही प्यार मुहब्बत हुआ...... 


पहली पोस्ट -
मानव मन प्रकृति की सुन्दरता में रम जाए तो संसार की असुन्दरता ही दूर हो जाए। प्रकृति की सुन्दरता मानव मन को संवेदनशील बनाती है। हाफिज़ का देश ईरान एक ऐसा देश है जहाँ प्रकृति की सुन्दरता देखते ही बनती है। सन 2002 में पहली बार जब मैं अपने परिवार के साथ ईरान गई तो बस वहीं बस जाने को जी चाहने लगा। एक महीने बाद लौटते समय मन पीछे ही रह गया।

दूसरी पोस्ट -
ईरानी लोगों का लखनवी अन्दाज़ देखने लायक होता है. हर बार मिलने पर झुक कर सलाम करते-करते बहुत समय तक हाल-चाल पूछना हर ईरानी की खासियत है. 'सलाम आगा'-सलाम श्रीमान् 'सलाम खानूम'-सलाम श्रीमती 'हाले शोमा चतुरी?'-आपका क्या हाल है? 'खूबी?'-अच्छे हैं, 'शोहरे शोमा खूबी?'- आपके पति कैसे हैं?, 'खानूम खूबे?'- श्रीमती कैसी हैं?', 'बच्चेहा खूबी?'-बच्चे ठीक हैं? 'खेली खुशहाल शुदम'- बहुत खुशी हुई मिलकर 'ज़िन्दाबशी' – लम्बी उम्र हो,

पहली पोस्ट में लिखा था कि विजय ऑफिस के किसी काम से रियाद ही रुक गए थे.. ईरान के लिए पहली बार  विजय के बिना ही  दोनों बेटों के साथ  पहुँची  थी.. तेहरान एयरपोर्ट पर दोस्त अली पहले से ही इंतज़ार में खड़े थे....यहाँ बता दूँ कि अली और लिडा को पहले अपने देश में मिल चुके थे... दोनों की इच्छा थी ताजमहल देखने की ...उस सफ़र के सफ़े को फिर कभी खोलूँगी.....

कार में सामान रख कर निकले अगले सफ़र के लिए.....तेहरान से रश्त 300 किमी की दूरी कार से तय करनी थी.....रास्ते में बर्फबारी हुई तो छह सात घंटे भी लग सकते थे.....हरे भरे पहाड़.... उनमें से निकलती खूबसूरत लम्बी चौड़ी सड़कें.... बीच बीच में लम्बी लम्बी सुर्ंगे... जिनमें से गुज़रते हुए कार की लाइटस ऑन करनी पड़ती थी.... अपना कश्मीर भी कम खूबसूरत नहीं है...लेकिन एक नए अंजान देश की खूबसूरती भी मन मोह रही थी....

रास्ते में छोटे छोटे शहर आए... सड़क के किनारे अलग अलग चीज़ों से सजी दुकानें मन में उत्सुकता जगा रही थीं कि क्या क्या रखा होगा उनमें....अब पहली बार आना हुआ था सो थोड़ी झिझक भी हो रही थी कि पूछें या नहीं.....हम अभी सोच ही रहे थे कि उन्होंने खुद ही बतलाना शुरु किया...

"शीशे और प्लास्टिक की बोतलों में सिरका है और उनमें साबुत लहसुन है... जितना पुराना होगा उतना ही दवा का काम करेगा..फारसी में सिरका को सिरकेह कहते हैं और लहसुन है सीर.. .कुछ बोतलों में अखरोंट और अनार जूस के पेस्ट में बिना गुठली के जैतून हैं"..अखरोट को गेर्दु कहते हैं लेकिन अनार और जैतून हमारी भाषा जैसे ही हैं.... .दिल किया अभी खरीददारी शुरु कर दें...लेकिन कार रुकवाएँ कैसे.... खैर चुपचाप सुन कर मन ही मन कल्पना कर रहे थे करके कि कैसा स्वाद होगा.....

कार में ईरानी गीत बज रहे थे जिन्हें सुनकर दिल और दिमाग को एक अजीब सा सुकून मिल रहा था...हालाँकि बोल कुछ कुछ ही समझ आ रहे थे लेकिन कुल मिला कर ईरानी संगीत ने दिल को छू लिया.....

 सफ़र के नए सफे के खुलने तक  फिलहाल उस सफ़र के दौरान का हमारा सबसे पसन्दीदा गीत सुनिए.....

pouya - safar.mp3





रविवार, 24 अप्रैल 2011

आफ़ताब और अज़ान








आज भी हर रोज़ की तरह खिड़की से बाहर उगते सूरज को देखा....साथ ही नज़र गई मस्जिद की ऊँची मीनार पर ...जाने क्यों उस खूबसूरत नज़ारे ने दिल मोह लिया...झट से कैमरे में कैद कर लिया उस खूबसूरती को .
मन में कुछ भाव उठे.....जी ने चाहा कि आप संग बाँटू उन भावों को इसलिए उतार दिया यहाँ ..... 

मस्जिद की ऊँची मीनार..... आफ़ताब के निकलने से पहले ही जाग जाती है.... हर रोज़...पाँच वक्त आवाज़ देकर हमें भी जगाती है.....जैसे कहती हो फज़र हुई... सूरज के आने से पहले उठो.... नया सवेरा हुआ...उस शक्तिपुंज का नाम लो जिसने यह दुनिया  बनाई... दिनचर्या शुरु करो.... 
दोहर होते ही ऊँची मीनार फिर से आवाज़ देकर हमें काम रोक कर आराम करने का सन्देश देती है..... सब तरफ ख़ामोशी..... फुर्सत के पल..... उन पलों में खो न जाएँ..इसलिए  असर के वक्त आवाज़ आती कि उठो उठो ....फिर से काम शुरु करो.... तब तक काम करो जब तक सन्ध्या न हो जाए... 
उधर सूरज डूबा इधर महगरिब की अज़ान होती है.....यह आवाज़ सन्देश देती है कि साँझ हुई...अब घर की ओर चलो....अपने अपने घर पहुँच कर सब मिल जुल कर सारे दिन का लेखा जोखा सुनो सुनाओ....एक साथ बैठ कर रात का खाना खाओ.....अगले दिन की तैयारी में जुट जाओ...  

मीनार से आखिरी आवाज़ सुनाई देती ईशा की......आज के सब काम सम्पन्न हुए.... शुक्र करो उस शक्ति का जिसने हमें मानव के रूप में इस धरती पर उतारा..... और फिर नए दिन की खूबसूरत शुरुआत की आशा लेकर मीठे सपनों की नींद में डूब जाओ......
बचपन तो लगभग ऐसा ही था....स्कूल जाने के लिए सुबह सवेरे उठ कर तैयार होना... मम्मी और दादी के भजनों की  आवाज़ कानों में पड़ती तो एक अजीब सा सुकून मिलता.....स्कूल में दोपहर का खाना खाने से पहले हाथ धोकर भोजन मंत्र पढ़े जाते.... सन्ध्या का दीप जलता तो पूरे परिवार के साथ मिल कर  आरती गाई जाती ... सूरज डूबने से पहले खाना तैयार हो जाता.... आठ बजते ही चटाई बिछाकर सब एक साथ रसोई में बैठ कर साथ साथ खाना खाते.... घर के बाहर गली में सैर करते हुए स्कूल और ऑफिस की बातें करते... सब कुछ अब जैसे सपने सा हो गया है लेकिन मीठे सपने सा....

आफ़ताब और अज़ान






आज भी हर रोज़ की तरह खिड़की से बाहर उगते सूरज को देखा....साथ ही नज़र गई मस्जिद की ऊँची मीनार पर ...जाने क्यों उस खूबसूरत नज़ारे ने दिल मोह लिया...झट से कैमरे में कैद कर लिया उस खूबसूरती को .
मन में कुछ भाव उठे.....जी ने चाहा कि आप संग बाँटू उन भावों को इसलिए उतार दिया यहाँ ..... 
 
मस्जिद की ऊँची मीनार..... आफ़ताब के निकलने से पहले ही जाग जाती है.... हर रोज़...पाँच वक्त आवाज़ देकर हमें भी जगाती है.....जैसे कहती हो फज़र हुई... सूरज के आने से पहले उठो.... नया सवेरा हुआ...उस शक्तिपुंज का नाम लो जिसने यह दुनिया  बनाई... दिनचर्या शुरु करो.... 
दोहर होते ही ऊँची मीनार फिर से आवाज़ देकर हमें काम रोक कर आराम करने का सन्देश देती है..... सब तरफ ख़ामोशी..... फुर्सत के पल..... उन पलों में खो न जाएँ..इसलिए  असर के वक्त आवाज़ आती कि उठो उठो ....फिर से काम शुरु करो.... तब तक काम करो जब तक सन्ध्या न हो जाए... 
उधर सूरज डूबा इधर महगरिब की अज़ान होती है.....यह आवाज़ सन्देश देती है कि साँझ हुई...अब घर की ओर चलो....अपने अपने घर पहुँच कर सब मिल जुल कर सारे दिन का लेखा जोखा सुनो सुनाओ....एक साथ बैठ कर रात का खाना खाओ.....अगले दिन की तैयारी में जुट जाओ...  

मीनार से आखिरी आवाज़ सुनाई देती ईशा की......आज के सब काम सम्पन्न हुए.... शुक्र करो उस शक्ति का जिसने हमें मानव के रूप में इस धरती पर उतारा..... और फिर नए दिन की खूबसूरत शुरुआत की आशा लेकर मीठे सपनों की नींद में डूब जाओ......
बचपन तो लगभग ऐसा ही था....स्कूल जाने के लिए सुबह सवेरे उठ कर तैयार होना... मम्मी और दादी के भजनों की  आवाज़ कानों में पड़ती तो एक अजीब सा सुकून मिलता.....स्कूल में दोपहर का खाना खाने से पहले हाथ धोकर भोजन मंत्र पढ़े जाते.... सन्ध्या का दीप जलता तो पूरे परिवार के साथ मिल कर  आरती गाई जाती ... सूरज डूबने से पहले खाना तैयार हो जाता.... आठ बजते ही चटाई बिछाकर सब एक साथ रसोई में बैठ कर साथ साथ खाना खाते.... घर के बाहर गली में सैर करते हुए स्कूल और ऑफिस की बातें करते... सब कुछ अब जैसे सपने सा हो गया है लेकिन मीठे सपने सा....