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सोमवार, 12 मई 2008

हाइकु (त्रिपदम)










कैसे लिखूँ मैं
बुद्धि जड़ हो गई
मन बोझिल

सोचा था मैंने
सफ़रनामा न्यारा
दर्ज करूँगी

लेखनी रुकी
थम गए हैं शब्द
गला रुँधा है

कविता हो न
लेख लिख न पाऊँ
बात बने न

अर्धांग रूठा
निपट अकेली माँ
दर्द गहरा

साथी जो छूटा
मन-पंछी व्याकुल
रोता ही जाए

समझूँ कैसे
माँ के अंतर्मन को
छटपटाऊँ

सरल नहीं
लिख पाना कुछ भी
हाल बेहाल

देखा जो मैंने
मैना जब चहकी
मन बहला

माँ ने भी देखा
ठंडी सी आह भरी
नैनों में नीर

पंछी निर्मोही
कर्म करे अपना
मोह न जाने

उड़ जाते हैं
चींचीं करते बच्चे
पाते ही पंख

यादों के साए
खुश्बू बनके छाएँ
करती इच्छा

शनिवार, 10 मई 2008

दिल्ली की गर्मी में माँ के आँचल की शीतल छाया



दिल्ली से कल ही लौटे. टैक्सी घर के सामने रुकी तो छोटा बेटा विद्युत बाहर ही खड़ा था . सामान लेकर अन्दर पहुँचे तो घर साफ-सुथरा पाकर मन प्रसन्न हो गया. एकाध नुक्सान को नज़र अन्दाज़ करना ज़रूरी होता है सो हमने उस ओर ध्यान ही नहीं दिया. बेटे के हाथ की चाय और दिल्ली की मिठाई ने सारी थकान दूर कर दी फिर भी कुछ देर आराम करने बिस्तर पर गए तो चावल पकने की खुशबू से नींद खुली. विद्युत ने चावल बना लिए थे जिसे पिछ्ले दिन की करी मिला कर बिरयानी बना कर परोस दिया. शाम की चाय वरुण ने बनाई. चाय पीकर कितना आनन्द आया बता नही सकते.
फिर शुरु हुआ ब्लॉग जगत का सफ़र जिसमें हम बहुत पीछे छूट गए थे. लिखने की राह पर चलने का उतना मज़ा नहीं जितना पढने का आनन्द आता है. फिर भी लिखने की लहर मन में आते ही लिख भी डालते हैं.....

अभी अभी कुछ त्रिपदम मन की लहरों से जन्मे........

गर्म हवा में
माँ का स्नेहिल साया
शीतल छाया

भूली मातृत्त्व
माँ की ममता पाई
बस बेटी थी

आज मैं लौटी
फिर से माँ बनके
प्यार लुटाती

ब्लॉग जगत
लगे परिवार सा
पाया फिर से

पढ़ना भाए
लिखना भूली जैसे
अनोखी माया

दिल्ली सफ़र
दर्ज करूँगी फिर
मनमर्जी से

मनमौजी मैं
लिखूँ पढूँ इच्छा से
मदमस्ती में

रविवार, 20 अप्रैल 2008

फिर जन्मे कुछ हाइकु (त्रिपदम)

चिट्ठा चित्तेरा
पुकारे बार-बार
लौटी फिर से

मन मोहता
मधुशाला का साकी
बहके पग


गहरा नशा
डगमग पग हैं
बेसुध मन

कलम चली
शब्दों को पंख लगे
उड़ते भाव

लो आया ग्रीष्म
जला, तपा भभका
सन्नाटा छाया

बरसे आग
जले धरा की देह
दहका सूरज

लू का थपेड़ा
थप्पड़ सा लगता
बेहोशी छाती

प्यास बुझे न
जल है प्रेम बूँद
तरसे मन

खुश्क से पत्ते
पैरों तले चीखते
मिटे पल में

बुधवार, 9 अप्रैल 2008

शैशव की स्मृति



स्मृतियाँ लौटीं , शैशव की याद आई
घुटनों के बल कितनी माटी खाई

चूड़ियाँ माँ की कानों में खनकी
भूली यादों से आँखें भर आईं

ममता की चक्की चलती चूल्हा जलता
स्नेह भरे हाथों से फिर खाना पकता

रोटी पर माखन साग को ढकता
दही छाछ जो पेट को फिर भरता

खोजते नन्हे पैर तपती धूप में छाया
धूल भरी राहों में डोलती वो काया

चोरी से बेर तोड़ना बेहद भाता था
मन-पंछी सैंकड़ों सपने लाता था

सन्ध्या का सूरज रक्तिम आभा को लाता
दीपक का प्रकाश घर-भर में छा जाता

बेटी की सुन पुकार टूट गया सपना
जैसे पीछे कोई छूट गया हो अपना

खट्टी मीठी यादों का टूटे सँग ना
फिर याद आ गया छूट गया अँगना

गुरुवार, 3 अप्रैल 2008

पर चलती क़लम को रोक लिया

पुरानी यादों की चाशनी में नई यादों का नमक डाल कर चखा तो एक अलग ही स्वाद महसूस किया. जो महसूस किया उसे कविता की प्लेट में परोस दिया. आप भी चखिए और बताइए कि कैसा स्वाद है !















पढ़ने-लिखने वाले नए नए दोस्त हमने कई बनाए
दोस्तों ने ज़िन्दगी आसान करने के कई गुर सिखाए
उन्हें झुक कर शुक्रिया अदा करना चाहा
पर उनके अपनेपन ने रोक लिया.

दोस्त या अजनबी सबको सुनते और अपनी कहते
देखी-सुनी बेतरतीब सोच को भी खामोशी से सुनते
पलट कर हमने भी वैसा ही कुछ करना चाहा
पर मेरी तहज़ीब ने रोक लिया.

नई सोच को नकारते बैठते कई संग-दिल आकर
हैरान होते उनकी सोच को तीखी तंगदिल पाकर
हमने भी उन जैसा ही कुछ सोचना चाहा
पर आती उस सोच को रोक लिया.

सीरत की सूरत का मजमून न जाना सबने
लोगों पर तारीजमूद को बेरुखी माना हमने
सबसे मिलकर हमने भी बेरुख होना चाहा
पर हमारी नर्मदिली ने रोक लिया.

साथ चलने वालों से दाद की ख्वाहिश नहीं थी
तल्ख़ तंज दिल में न होता यह चाहत बड़ी थी
मिलने पर यह अफसोस ज़ाहिर करना चाहा
पर आते ज़ज़्बात को रोक लिया.

सोचा था चुप रह जाते दिल न दुखाते सबका
पर खुशफहमी दूर करें समझा यह हक अपना
सर्द होकर कुछ सर्द सा ही क़लाम लिखना चाहा
पर चलती क़लम को रोक लिया.

सोमवार, 31 मार्च 2008

साँसों का पैमाना टूटेगा






















कभी हाथ में प्रेम का प्याला
गले से उतरे जैसे हो हाला

सीने में उतरे चुभे शूल सा
इक पल में फिर लगे फूल सा

पाश में बाँधे मोह का प्याला
कभी शूल सा कभी फूल सा

पल पल पीती प्रेम की हाला
रोम-रोम में जलती ज्वाला

*******************

साँसों का पैमाना टूटेगा
पलभर में हाथों से छूटेगा

सोच अचानक दिल घबराया
ख्याल तभी इक मन में आया

जाम कहीं यह छलक न जाए
छूट के हाथ से बिखर न जाए

क्यों न मैं हर लम्हा जी लूँ
जीवन का मधुरस मैं पी लूँ

(चित्र गूगल के सौजन्य से)




बुधवार, 26 मार्च 2008

मेरे त्रिपदम (हाइकु)










सपना आया
साया मन को भाया
स्नेह की छाया

खड़ी मुस्काये
आज नहीं तो कल
पाना तुझको

विश्वास मुझे
जन्मों जन्मों का नाता
मिलना ही है