कभी कभी पुरानी यादें दौड़ती चली आती हैं और गले लग जाती हैं जिनसे मिलकर हम मस्ती में डूब कर उनके संग खेलने लगते हैं. हिन्दी के बुज़ुर्ग अध्यापक सिद्दिकी साहब जो अब रिटायर होकर भारत लौट चुके हैं कभी अपने हिन्दी ज्ञान से और कभी शायरी से मालामाल कर देते. उनकी शायरी को पचाने का मादा किसी किसी में ही होता. उनके चाहने वालों में अव्वल नम्बर पर आते थे हमारे प्रिंसिपल साहब जो स्कूल के लगभग हर जश्न का आग़ाज़ उनकी शायरी से करवाते. प्रिंसिपल साहब से अपनी तारीफ़ सुनकर उनके चेहरे की रौनक देखने वाली होती थी. उन्हीं दिनों की एक रचना आज अचानक याद आ गई.
जब भी हमें शायर कहकर पुकारा जाता
दिल हमारा बाग़-बाग़ हो जाया करता !
तन से पहले मन मंच पर पहुँच जाया करता
शायरी करने को जी मचल मचल जाया करता !
लेकिन ------------
नाम हमारा सुनते ही श्रोताओं पर गिरते कई बम
उनका रुख देखते ही हमारा भी निकल जाता दम !
हिम्मत कर फिर भी बढ़ाते कदम
सीधा पहुँचते मंच पर हम !
एक ही साँस में पढ़ जाते लाइनें दस
फिर लेते थोड़ा हम दम !
कुछ श्रोताओं का होता सब्र कम
शोर कुछ श्रोताओं का जाता बढ़ !
कुछ श्रोताओं की बेरुखी सहते हम
कुछ श्रोताओं की मुस्कान भी पाते हम !
फिर भी मैदान में डटे सिपाही से हम
पीछे न हटते, हार न मानते हम !
सब्र से बैठे हुए लोगों पर
अपनी शायरी का सिक्का जमाते हम