अभी तो सूरज दमक रहा है. दिन अलस जगा है.
चंदा के आने का इंतज़ार अभी से क्यों लगा है !
बस उसी चंदा के ख्यालों में मेरा मन रमा है
नभ की सुषमा देखने का अरमान जगा है !
कविता के सुन्दर शब्दो का रूप सजा है
अब ब्लॉगवाणी पर पद्य मेरा हीरे सा जड़ा है !
नील गगन के नील बदन पर
चन्द्र आभा आ छाई !
ऐसी आभा देख गगन की
तारावलि मुस्काई !
नभ ने ऐसी शोभा पाई
सागर-मन अति भाई !
कहाँ से नभ ने सुषमा पाई
सोच धरा ने ली अँगड़ाई !
रवि की सवारी दूर से आई
उसकी भी दृष्टि थी ललचाई!
घन-तन पर लाली आ छाई
घनघोर घटाएँ भी सकुचाईं !
नील गगन के नील बदन पर
रवि आभा घिर आई !
ऐसी आभा देख गगन की
कुसुमावलि भी मुस्काई !
नील गगन के नील बदन पर
चन्द्र आभा आ छाई !
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सोमवार, 29 अक्टूबर 2007
रविवार, 28 अक्टूबर 2007
शनिवार, 27 अक्टूबर 2007
तस्वीरों की कहानी !
शुक्रवार, 26 अक्टूबर 2007
मेरे प्यारे काका सर्प न्यारे हैं बड़े !
माँ, आपकी अनुमति से आज अपनी इस कविता को पन्नों की कैद से आज़ाद कर रही हूँ. आज सुबह का पहला ब्लॉग जो खुला उसे पढ़कर बहुत सी पुरानी यादें ताज़ा हो गईं. वे सभी डर जो मुझे सताते थे वे किसी ओर को भी सताते हैं जानकर तसल्ली हुई कि मैं अकेली नहीं इस दुनिया में. मेरे जैसे बहुत हैं जो अन्दर ही अन्दर एक डर से जकड़े हुए हैं. कुछ लोग स्वीकर कर लेते हैं और कुछ लोग इस डर को चाह कर भी दिखा नहीं पाते.
(इस कविता में श्री अज्ञेय जी की कविता के एक अंश का सहारा लिया गया है जिससे कविता आगे बढ़ पाई. सही में कहा जाए तो मेरा एक सपना है और था कि उनसे एक मुलाकात कर पाती)
" मेरे आँगन में नीम के पेड़ तले
सदियों से एक विषधर हैं पले !

मेरे प्यारे काका सर्प न्यारे हैं बड़े
माथे पर उनके मणिमाणिक हैं जड़ें !
होती हर सन्ध्या मेरी काका के संग
बैठ कर मैं भी रंग जाती उनके रंग !
लेकिन आज जाने क्यों उदास थे पड़े
बेचैनी से दूध का कटोरा किए थे परे !
खड़ी थी व्याकुल मैं आँखों में आसूँ भरे
मुझे देख पीड़ा में घाव उनके हुए हरे !
सम्मानित अतिथि एक हमारे घर थे विराजे
जाने-माने कविराज हमारे घर थे जो पधारे !
आँगन में आए थे टहलने , देखा सर्पराज को
आश्चर्य चकित हुए, देखा जब नागराज को !
मन में उनके प्रश्न कई एक साथ जन्मे
उत्तर एक पाने को कविराज थे मचले !
पूछने लगे उत्साहित होकर सर्पराज से ----
"हे साँप , तुम सभ्य हुए नहीं, न होगे
नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया
फिर कैसे सीखा डसना , विष कहाँ से पाया !"
मैं सुनकर सकते में आई , फिर सँभली
खिसियानी बिल्ली सी फीकी हँसी हँस दी !
फिर बोली विषधर से, अपने प्यारे काका से
यह तो सीधा कटाक्ष हुआ है शहरी मानव पे !
मेरी तुलना मानव से क्यों -- काका मेरे चिल्लाए
मानव से तुलना क्यों यह सोच-सोच भन्नाए !
विषधर मेरा नाम जैसा अन्दर , बाहर भी वैसा
विष उगलना मेरा काम, अन्दर बाहर एक जैसा !
मानव-मन से कब विष उगलेगा, कब अमृत बरसेगा
उसका मन पाषाण रहेगा या मोम सा भी पिघलेगा !
कोई न जाने, वो खुद न जाने , मायाकार स्वयं न जाने
फिर मेरी तुलना मानव से क्यों मेरा मन यह न माने !
करारी चोट लगी सुनकर अपने काका की बातें
मन तड़पा रोया काका की बातें थीं गहरी घातें !
मैंने मानव-जन्म क्यों पाया, सोच-सोच मन अकुलाया
विषधर काका जैसे मैं भी हो जाऊँ मन मेरा भरमाया !!!!
गुरुवार, 25 अक्टूबर 2007
तपता - हँसता जीवन !
सूरज का अहम देख कर
चन्द्र्मा मन ही मन मुस्करा उठा
और सोचने लगा -
अपनी आग से सूरज
धरती को देता है नवजीवन ही नहीं
मन-प्राण भी उसका झुलसा देता है.
धरती के हरयाले आँचल से
टके हुए ओस के मोती चुरा लेता है.
स्वयं पल-पल जलता है
और प्रकृति का रोम-रोम भी जला देता है
अपने आप में भूला, जलता जलाता सूरज
मेरे आसितत्व को ही भुला देता है
समझता नहीं सूरज कि मैं भी
धरती के मन-प्राणों में शीतलता भर देता हूँ
अपनी सुषमानूभूति से मैं
जलती धरती को मुस्काना सिखा देता हूँ.
मैने दोनो को हँस कर देखा
और सोचा कि मेरे जीवन में
दोनों का ही महत्त्व है ---
सूरज जीवन में जलना तपना सिखाता है
चन्द्र्मा जलते-तपते जीवन में हँसना सिखा देता है......!
चन्द्र्मा मन ही मन मुस्करा उठा
और सोचने लगा -
अपनी आग से सूरज
धरती को देता है नवजीवन ही नहीं
मन-प्राण भी उसका झुलसा देता है.
धरती के हरयाले आँचल से
टके हुए ओस के मोती चुरा लेता है.
स्वयं पल-पल जलता है
और प्रकृति का रोम-रोम भी जला देता है
अपने आप में भूला, जलता जलाता सूरज
मेरे आसितत्व को ही भुला देता है
समझता नहीं सूरज कि मैं भी
धरती के मन-प्राणों में शीतलता भर देता हूँ
अपनी सुषमानूभूति से मैं
जलती धरती को मुस्काना सिखा देता हूँ.
मैने दोनो को हँस कर देखा
और सोचा कि मेरे जीवन में
दोनों का ही महत्त्व है ---
सूरज जीवन में जलना तपना सिखाता है
चन्द्र्मा जलते-तपते जीवन में हँसना सिखा देता है......!
बुधवार, 24 अक्टूबर 2007
ज़िन्दगी इत्तेफाक है !
घर पहुँच कर राहत की साँस ली कि आज फिर हम बच गए. हर रोज़ बेटे को कॉलेज छोड़ने और वापिस आने में 80 किमी के सफर में कोई न कोई सड़क दुर्घटना का शिकार दिख ही जाता है. कभी कभी 160 किमी भी हो जाता है गर कोई टैक्सी या प्राइवेट ड्राइवर ने मिले. मेरे रास्ते में हर रोज़ की दुर्घटनाओं में से चुने कुछ चित्र हैं -

रास्ते में दुबई के हिन्दी रेडियो सुनना संजीवनी बूटी सा काम करता है. अचानक बीच में ही रेडियो प्रसारण में फोन वार्ता में एक महिला की दर्द भरी आवाज़ मे मदद के लिए गुहार थी . एक सड़क दुर्घटना में उसके 22 साल के बेटे को एक टाँग से हाथ धोना पड़ा, महीना भर कोमा रहा जिसकी तीमारदारी में 25 साल के बड़े बेटे को नौकरी से निकाल दिया गया. सुनकर दिल बैठ गया... मृत्यु चुपचाप आकर ले जाए तो कोई दुख नहीं क्योंकि एक दिन जाना ही है लेकिन इस तरह अंग-भंग होना या अकाल मृत्यु का पाना पूरे वजूद मे एक सिहरन पैदा कर देता है.
फौरन हमने दूसरा हिन्दी स्टेशन ढूँढा जहाँ जो गीत बजा बस उसके सुनते ही सारा डर हवा हो गया.
आप भी सुनिए और सोचिए कि सुर और लय का हमारे ऊपर क्या असर होता है.
ज़िंदगी इत्तेफाक़ है

रास्ते में दुबई के हिन्दी रेडियो सुनना संजीवनी बूटी सा काम करता है. अचानक बीच में ही रेडियो प्रसारण में फोन वार्ता में एक महिला की दर्द भरी आवाज़ मे मदद के लिए गुहार थी . एक सड़क दुर्घटना में उसके 22 साल के बेटे को एक टाँग से हाथ धोना पड़ा, महीना भर कोमा रहा जिसकी तीमारदारी में 25 साल के बड़े बेटे को नौकरी से निकाल दिया गया. सुनकर दिल बैठ गया... मृत्यु चुपचाप आकर ले जाए तो कोई दुख नहीं क्योंकि एक दिन जाना ही है लेकिन इस तरह अंग-भंग होना या अकाल मृत्यु का पाना पूरे वजूद मे एक सिहरन पैदा कर देता है.फौरन हमने दूसरा हिन्दी स्टेशन ढूँढा जहाँ जो गीत बजा बस उसके सुनते ही सारा डर हवा हो गया.
आप भी सुनिए और सोचिए कि सुर और लय का हमारे ऊपर क्या असर होता है.
ज़िंदगी इत्तेफाक़ है
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