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गुरुवार, 18 अक्टूबर 2007

धरा गगन का मिलन असम्भव !

अम्बर की मीठी मुस्कान ने,
रोम रोम पुलकित कर दिया
उससे मिलने की चाह ने,
धरा को व्याकुल कर दिया .
मिलन असम्भव पीड़ा अति गहरी,
धरा गगन की नियति यही रहती
अंबर की आँखों से पीड़ा बरसती,
वसुधा अंबर के आँसू आँचल मे भरती

हरा आँचल लपेट सोई जब निशा के संग धरा
अम्बर निहारे रूप धरा का चन्दा के संग खड़ा

सूरज जैसा अम्बर का लाल हुआ रंग बड़ा
मिलन की तृष्णा बढ़ी , विरह का ताप चढ़ा

जब सूरज चंदा की दो बाँहें अम्बर ने पाईं
और प्यासी धरती को आगोश मे भरने आई

तब पीत वर्ण की चुनरी ओढ़े वसुधा शरमाई
यह सुन्दर छवि वसुधा की नीलाम्बर मन भाई.

आत्मबल


बैसाखियों के सहारे चलता सुन्दर युवक दिखा
अनोखी आभा से उसका मुख था खिला-खिला.


अंग उसके पीड़ा मे थे, तन का था बल छिना
आँखों के जुगनू रौशन थे, शक्ति से भरी हर शिरा.


उसे कुदरत से था नहीं कोई भी शिकवा न गिला
मस्तक चमकता था सदा किसी भी शिकन बिना.


पैरों में शक्ति नहीं पर पथ से अपने कभी न डिगा
कठिन राह पर आत्म-बल उसका कभी न गिरा.


स्वीकार किया, जिससे जो भी तिरस्कार मिला.
उसने सोचा नहीं था कि मिलेगा कभी यह सिला.


सोचता था अमूल्य है, एक ही मानव-जीवन मिला
कर्म में लगा वह, जीवन जी रहा था चिंता बिना.

बुधवार, 17 अक्टूबर 2007

काम वाली है, बाई नहीं, 'मेड' है

दिल्ली की माई नहीं , न ही बम्बई की बाई है
पाँच महीने पहले ही फीलिपंस से दुबई आई है.

नई फिलोपीनो 'मेड' को देख सर था चकराया .
प्रति घण्टा के हिसाब से तीन घण्टे था बुलाया

किसी कम्पनी में सेक्रेटरी है, आठ से छह तक
करेगी पार्ट-टाइम काम 'मेड' का तीस रोज़ो तक.

हाई हील के सैण्डल ठक ठक करती आई थी
बजते मोबाइल के साथ घर की बैल बजाई थी.

हाय मैडम, कह कर मुस्काई बोली -
दिस इज़ माई फर्स्ट जॉब,
प्लीज़ टेल मी वट टू डू ?

मेनिक्योरड पेडिक्योरड, ब्लो ड्रायर से
सेट किए कटे बाल .
मैं कभी उसे देखती थी , कभी खुद को.

चैट पर ऑनलाइन पति से बतिया रहे थे
जो वेब कैम मे हमे देख भी रहे थे..
इंतज़ार करें, कहा और नई मेड को
लगे देने निर्देश.

डोंट वरी मैडम , कैरी ऑन विद योर वर्क
मुझे भरोसा देकर खुद भी करने लगी वर्क

उसने झाड़-पोंछ शुरू की तो लगा नई है
टोकने की बजाए जैसा भी है सब सही है.

यही सोच कर --
वार्ता खिड़की पर पति से माफी माँगीं
सफाई का साज़ोसामान फिर देने भागी.

लौटी तो देखा वैब-कैम मे पति मुस्कुरा रहे थे
शरारती मुस्कान के साथ मेड को निहार रहे थे.

अरे वाह ! मुझे देख तो ऐसी मुस्कान आई नहीं
क्या मुझमे ऐसी सुन्दरता तुमने पाई नहीं ! !

आहत हुआ मन, न चाहते भी मीठी बातें चन्द कीं
फिर वैब-कैम ही नहीं, वार्ता-खिड़की भी बन्द की .


मेड अपना काम पूरी तल्लीनता से कर रही थी
साथ-साथ अंग्रेज़ी गीत भी गुनगुना रही थी.

मुझे याद आई दिल्ली की अपनी काम वाली
जो आती थी सदा बिना चप्पल पैर खाली.

झूठे बरतन, ठण्डा पानी, घटिया सा साबुन
सेठानी का कर्कश स्वर चुभता सा चाबुक.

हर सुबह देह का कोई अंग नीला सा होता
सूजी आँखें, चेहरे का रंग फीका सा होता.

खुद नन्ही-सी जान, कई रिश्तों का बोझा ढोती
घुटती-पिसती-मरती रहती पर कभी न रोती.

रविवार, 14 अक्टूबर 2007

कजरारी आँखें


काले बुरके से झाँकतीं कजरारी आँखें

कुछ कहती, बोलती सी सपनीली आँखें !


कभी कुछ पाने की बहुत आस होती

कभी उन आँखों में गहरी प्यास होती !


बहुत कुछ कह जातीं वो कजरारी आँखें

काले बुरके से झाँकतीं सपनीली आँखें !


कभी रेगिस्तान की वीरानगी सी छाती

कभी उन आँखों में गहरी खोमोशी होती !


कभी वही खामोशी बोलती सी दिखती

बोलती आँखें खिलखिलाती सी मिलतीं !



शुक्रवार, 12 अक्टूबर 2007

तुम



फूलों से खूशबू पाकर , जीवन में महकना तुम
काँटों से ताकत पाकर, दुखों से लड़ना तुम !

हार शब्द को याद कभी न रखना तुम
कठिन पलों को हँस कर गुज़ारना तुम !

वक्त को अपनी मुट्ठी में बंद रखना तुम
रेत सा कभी हाथ से जाने न देना तुम !

गए वक्त की यादों को संजोए रखना तुम
आए वक्त का मुस्कान से स्वागत करना तुम !


कड़वे अतीत को प्यार से सदा याद करना तुम
मीठे भविष्य का सुन्दर सपना तैयार करना तुम !

( आज के दिन यह कविता परिचित- अपरिचित सभी लोगों के नाम )

गुरुवार, 11 अक्टूबर 2007

हरा भरा इक कोना


किरणों ने ली जब अंगड़ाई , झट से प्यारा सूरज गमका
हुई तारों की धुंधली परछाईं, धीरे से प्यारा चंदा दुबका

धरती पर लोहा, ताँबा और स्टील भी चमका
चिमनी ने भी मुख से अपने धुआँ तब उगला


सुबह सुबह जब बच्चों, बूढों का झुंड जो निकला
कोहरा नहीं, धुएँ से उनकी साँस घुटी, दम निकला


तारकोल की सड़कों से दुर्गन्ध का निकला भभका
क्रोध की लाली से जब सूरज का चेहरा दमका

सड़कों पर निकले बस, स्कूटर और रिक्शा
कानों में तीखा कर्कश उनका हार्न बजा

ईंट-पत्थरों के इस नगर में इमारतों का जाल बिछा
डिश और केबल तारों का सब ओर नया नक्शा खिंचा

खुली खिड़की से बौछार पड़ी आँचल भीगा तन-मन का
भीगी क्यारी की सुगन्ध जो फैली, तब सपना टूटा भ्रम का

सौन्द्रर्य बढ़ेगा अवश्य विश्व निकेतन की सुषमा का
यदि हरा-भरा इक कोना है मेरे घर के आँगन का


यदि हरा-भरा इक कोना है मेरे घर के आँगन का !!

( समीर जी का ''ताज्जुब न करो' लेख पढ़ कर अपनी लिखी एक कविता याद आ गई, समीर जी और उन सबको समर्पित जो पर्यावरण के लिए जन-मानस में चेतना भर रहे हैं)

बुधवार, 10 अक्टूबर 2007

निराश न हो मन।

अकेला ही चलना होगा जीवन-पथ पर
अकेला ही बढ़ना होगा मृत्यु-पथ पर।।
निराश न हो मन।

इस दुनिया में भटक रहा तू व्याकुल होकर
रिश्तों के मोह में उलझा तू आकुल होकर
उस दुनिया में जाएगा तू निष्प्राण होकर
नवरूप पाएगा प्रकाशपुंज से प्रकाशित होकर
निराश न हो मन।

जननी ने जन्म दिया स्नेह असीम दिया
रक्त से सींचा रूप दिया आकार दिया
बहती नदिया सा आगे कदम बढ़ा दिया
ममता ने मुझे निपट अकेला छोड़ दिया
निराश न हो मन।

जन्म के संगी साथी मिल खेले हर पल
जीवन के कई मौसम देखे हमने संग-संग
पलते रहे हम नया-नया लेकर रूप-रंग
बढ़ते-बढ़ते अनायास बदले सबके रंगढंग
निराश न हो मन।

नवजीवन शुरू हुआ जन्म-जन्म का साथी पाकर
नवअंकुर फूटे, प्यारी बगिया महकी खुशबू पाकर
हराभरा तरूदल लहराया, मेरे घर-आंगन में आकर
जीवन-रस को पर सोख लिया पतझर ने आकर
निराश न हो मन ।

(निराशा के दिनों में लिखी गई रचना अनुभूति में छ्पी )