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रविवार, 14 अक्तूबर 2007

कजरारी आँखें


काले बुरके से झाँकतीं कजरारी आँखें

कुछ कहती, बोलती सी सपनीली आँखें !


कभी कुछ पाने की बहुत आस होती

कभी उन आँखों में गहरी प्यास होती !


बहुत कुछ कह जातीं वो कजरारी आँखें

काले बुरके से झाँकतीं सपनीली आँखें !


कभी रेगिस्तान की वीरानगी सी छाती

कभी उन आँखों में गहरी खोमोशी होती !


कभी वही खामोशी बोलती सी दिखती

बोलती आँखें खिलखिलाती सी मिलतीं !



7 टिप्‍पणियां:

Sanjeet Tripathi ने कहा…

सुंदर रचना!!

"कभी कुछ पाने की बहुत आस होती
कभी उन आँखों में गहरी प्यास होती !"

बहुत बढ़िया!!

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत कुछ कह जातीं वो कजरारी आँखें
काले बुरके से झाँकतीं सपनीली आँखें!

-अति सुन्दर. कविता जल्दी खत्म हो गई. :)

बेनामी ने कहा…

अच्छा लगा ।

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

कविता बहुत अच्छी है। पर बुर्के में खिलखिलाहट होती है या घुटन? कौन बतायेगा?

Divine India ने कहा…

आँख ही तो जीवन है…
जो अव्यक्त भी होता है वह आँखों में हमेशा व्यक्त रहता है…।
अच्छी कविता!

Batangad ने कहा…

बुरके में फंसी आंखे तो, शायद सपने भी ठीक से नहीं देख पाती होंगी?

Anita kumar ने कहा…

अच्छी रचना है