
बैसाखियों के सहारे चलता सुन्दर युवक दिखा
अनोखी आभा से उसका मुख था खिला-खिला.
अनोखी आभा से उसका मुख था खिला-खिला.
अंग उसके पीड़ा मे थे, तन का था बल छिना
आँखों के जुगनू रौशन थे, शक्ति से भरी हर शिरा.
उसे कुदरत से था नहीं कोई भी शिकवा न गिला
मस्तक चमकता था सदा किसी भी शिकन बिना.
पैरों में शक्ति नहीं पर पथ से अपने कभी न डिगा
कठिन राह पर आत्म-बल उसका कभी न गिरा.
स्वीकार किया, जिससे जो भी तिरस्कार मिला.
उसने सोचा नहीं था कि मिलेगा कभी यह सिला.
सोचता था अमूल्य है, एक ही मानव-जीवन मिला
कर्म में लगा वह, जीवन जी रहा था चिंता बिना.