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गुरुवार, 30 मई 2013

सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (6)

चित्र गूगल के सौजन्य से 
सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है....  मुझे दीदी कहती है...अपने मन की बात हर मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...
उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....   
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (1)    
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (2)
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (3) 
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (4)
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (5)

अच्छी तरह से जानती हूँ कि रश्मि रविजा की कहानी लिखने का कोई सानी नहीं, सिर्फ कहानी ही नहीं उनकी हर विधा का लेखन प्रभावित करता है. जया की कहानी भुलाए नहीं भूलती लेकिन सुधा से वादाख़िलाफ़ी करना उसकी तौहीन होती. इसलिए इतने लंबे अंतराल के बाद भी सुधा की कहानी लेकर आना कोई आसान नहीं था जबकि पाठक उस ब्लॉग का रास्ता ही भूल चुके होते हैं जो लम्बे अरसे तक बन्द रहता है. कहीं पढ़ा भी है कि "A post without comments is like that abandoned house down the end of your street" ऐसे में सुधा की मुस्कान मेरे लिए अनमोल उपहार है.

सुधा की कहानी उसी की ज़ुबानी सुनते हुए मुझे धीरज पर बेहद गुस्सा आ रहा था. समझ नहीं पा रही थी कि कोई इंसान इतना बेदर्द कैसे हो सकता है, तटस्थ रह कर कैसे किसी को तड़पते देख सकता है. क्या सिर्फ माँ-बाप की मर्ज़ी से शादी करने से कोई अपने फर्ज़ों से मुँह मोड़ सकता है. दस महीने बीतने के बाद भी डॉक्टर के पास अपनी पत्नी को न ले जाने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं. सुधा में भी हिम्मत नहीं थी कि अपने होने वाले बच्चे की खातिर खुद ही अस्पताल चली जाती. नहीं समझ पा रही रिश्तों के समीकरण..... ग्यारवें महीने में पहली बार अस्पताल जाती  सुधा की क्या हालत होगी....होने वाले बच्चे को बचाना मुमकिन हो पाएगा... सोच कर ही दिल और दिमाग सुन्न होने लगे. 
मझली जेठानी और बड़ी ननद के समझाने पर माताजी ने सुधा को अस्पताल ले जाने की इजाज़त दे दी. आनन-फानन उसे सरकारी अस्पताल ले गए जहाँ आम सुविधाओं का तो अभाव होती ही है , रोगी को इंसान भी नहीं समझा जाता. एक स्ट्रेचर पर लेटी सुधा दर्द से तड़पती रही लेकिन ग्लूकोस चढ़ाने के बाद कोई भी उसका हाल पूछने न आया. दर्द में पड़ी सुधा का बच्चे की साँसें पल पल धीमी होती जा रही थीं लेकिन डॉक्टर उसके साथ आए परिवार को कोसने के अलाव कुछ नहीं कर रहे थे. 11 महीने बाद तो माँ और बच्चे की सलामती के लिए फौरन सिज़ेरियन होना चाहिए था. सुधा उन दिनों को याद करके ही सिहर उठती है कुछ कहना उसके मुश्किल था. स्वाभाविक ही था क्यों कि   बच्चा पैदा हुआ जिसने बाहर आकर जीने के लिए कुछ पल संघर्ष भी किया लेकिन शायद माँ के गर्भ में इतना दर्द झेल चुका था कि अब उसमें ज़िन्दा रहने की ताकत ही खत्म हो चुकी थी. माँ को कभी न भूलने वाला दर्द देकर वह सदा के लिए इस बेदर्द दुनिया को छोड़कर चला गया. 
सुधा का दर्द 11 महीनों के उस दर्द से कहीं ज़्यादा गहरा था. दिखना अभी भी बन्द था. बढ़े हुए रक्तचाप के कारण आँखों के आगे का अंधेरा अभी वैसा ही बना हुआ था लेकिन ससुराल वालों को उसकी रत्तीभर भी चिंता नहीं थी. तीसरे दिन ही उसे अस्पताल से छुट्टी दिला कर घर ले जाने के लिए डॉक्टरों से कहा जाने लगा. उस वक्त सुधा की माँ का सब्र का बाँध टूट गया. 'मार दो , उसी  यहीं गला घोट कर मार दो' कह ज़ोर ज़ोर से रोने लगी. काश ऐसा उसने उन 11 महीनों में किया होता जब सुधा को डॉक्टर की सख़्त ज़रूरत थी. सुधा के ससुरालवाले चुपचाप घर वापिस लौट गए. 
बार बार एक ही ख्याल मन में आता है कि लड़की के माता-पिता अपने आप को इतना असहाय और लाचार क्यों बना लेते हैं. एक बेटी अपने माँ-बाप का घर छोड़ कर सदा के लिए अजनबी घर में आती है अपना नाम तक बदल लेती है. अजनबी जीवन-साथी को ही नहीं उसके पूरे परिवार को अपना मान लेती है. घर-गृहस्थी के अनगिनत काम, वंश बढ़ाने के अलावा पति और उसके परिवार के लिए अपने माता-पिता तक को भूल जाती है. शायद ससुराल वाले डरते हैं कि कहीं उनकी बेगार बहू उनके हाथ से निकल न जाए. इसी डर के कारण वे बहू से जुड़े हर रिश्ते को उससे दूर रखने की कोशिश करते हैं. सुधा के साथ भी कुछ ऐसा ही था. 
22 दिन अस्पताल रहने के बाद सुधा घर लौटी थी लेकिन किसी ने भी उसका हाल पूछना तो दूर एक नज़र देखा भी नहीं. घर का आख़िरी कमरा उसका अपना था जिसे वह खुद ही साफ करती. उस दिन भी उसने ही कमरा साफ़ किया और सिसकियाँ लेती हुई लेट गई. एक अजीब सा खालीपन था जिसे भरने के लिए उसके आँसू भी कम पड़ रहे थे. उधर सास थी कि उसे रोते देख सहानुभूति देने की बजाए और भी आग-बबूला हो जाती. 'अब बस कर रोना-धोना, बहुत  हुआ.... हमारे बच्चे भी जाया हुए पर ऐसी नौटंकी कभी नहीं की....ससुर के सामने रो-रो कर नाटक करते शर्म नहीं आती......'  इस तरह के कई नश्तर सुधा को चीर जाते लेकिन एक आह न निकलती. 
'अब खाना तुम्हारे मायके से आएगा क्या.....' कहती हुई सास अपने कमरे से बाहर निकली. ससुरजी की हिम्मत नहीं थी अपनी पत्नी के सामने कुछ बोलने की फिर भी धीरे से बोले, 'बच्चे , उठ कर बस एक दाल और दो दो चपातियाँ ही बना ले.' बुखार में तपती हुई सुधा चूल्हा सुलगाने के लिए रसोईघर आई. बड़ी मुश्किल से वह खाना बना पाई. पड़ोसन शीला चाची ने अपनी छत से ही उसे खाना बनाते हुए देख लिया था. रसोईघर आकर उसे गले से लगा कर उसके दुख को दूर करने की कोशिश में सुधा के तपते बदन ने उसे बेचैन कर दिया. सुधा की सास को वहीं से आवाज़ देती हुए बोली , ' क्या भाभी .. बिटिया तो बुखार में तप रही है और तुम उससे रोटियाँ बनवा रही हो....?' कह कर धीरज को आवाज़ दी कि फौरन गाँव के डॉक्टर को बुला लाए. 
उस वक्त तो सुधा के सास-ससुर चुप लगा गए. खाना खाकर दवा लेनी थी इसलिए जबरदस्ती कुछ कौर निगलने पड़े सुधा को... सिसकियाँ दबाती हुए अपने कमरे में चली गई. सुधा अपने पति को समझ न पाती जो अपने माता-पिता के डर से या किसी उपेक्षा भाव से उसके पास न आते. मन की बात बिना कहे चुपचाप पति को परमेश्वर मान कर उसके प्यार को जीतने की चाहत और भी बढ़ती जाती. फिर भी अन्दर बहते दर्द को रोकने के लिए बाँध बनाती काग़ज़ के टुकड़ों पर ... एक एक शब्द में रिसता दर्द बाहर निकलता तो कुछ राहत पा जाती सुधा.... 

"मेरी अर्थी को काँधे से इक पल में उतारो ....
आप समझेंगे कि मैं ज़िन्दा हूँ तो फिर ऐसा क्यों
अरे समझो मेरी हालत को, मैं तो एक ज़िन्दा लाश हूँ ....
जिसे हर पल अपने ही काँधों पर उठाए घूम रही हूँ ...
अब इस लाश के वज़न को और ढोया नहीं जाता
ये भीगी आँखे रो-रो कर फरियाद करती है तुमसे
इन्हें चैन दो, मुक्ति दो, जला कर श्मशान में
हमेशा के लिए चैन से सो जाऊँ बस यह खुशी दो
चैन से सोकर रूह तो मुस्कुराएगी
तिल-तिल मरकर जीने से अच्छा है 
ज़िन्दगी भर सोने की खुशी मुझे मिल जाएगी..... !" (सुधा) 

इसी दौरान धीरज ने सागर भैया को फिर से कुवैत में नौकरी ढूँढने के लिए विनती की. दो ढाई साल तक बेरोज़ग़ारी से जूझते हुए धीरज के लिए सुधा और माता-पिता को झेलना भी दूभर हो गया था. काम था नही उस पर सुधा को थोड़ी सी हमदर्दी दिखाना भी माता-पिता को सुहाता नहीं था. धीरज अब झूठ बोलने लगा था. घर से खेतों में जाने का बहाना करके घर के पिछले दरवाज़े से वह सुधा के पास आ जाता. 3-4 घंटे उसके साथ बिता कर खेतों में जाकर कुछ सब्ज़ी ले आता घर के लिए.
 माता-पिता की ज़रूरत से ज़्यादा सख्ती ही शायद बच्चों को डरपोक बना देती है और यही डर उन्हें  झूठ बोलने पर मजबूर करता है. बचपन से शुरु हुआ यह सिलसिला शादी के बाद तक चलता रहता है. पति-पत्नी में संवाद की कमी का कारण भी  कुछ हद तक वही रहता है. 
इन सबमें डूबती उबरती सुधा अपनी ज़िन्दगी की नाव को खेती जा रही थी. धीरज को भी कुवैत में दुबारा नौकरी मिल गई थी. मन ही मन चैन की साँस लेकर धीरज सुधा के साथ हमदर्दी करने लगा था. पति की हमदर्दी पाकर भी सुधा निहाल हो जाती. बच्चे का जाने का ग़म गहरा था लेकिन उस पर वक्त की पट्टी बँधने से रिसना बन्द हो गया था. नए सिरे से ज़िन्दगी शुरु करने के लिए वह फिर तैयार थी. खुशी-खुशी धीरज को विदेश के लिए विदा करके सुधा बहुत रोई थी. सूजी हुई आँखें उसके मन की सारी कहानी कह जाते लेकिन सिवाय आईने के और कोई न देख समझ पाता. धीरज के दो बड़े भाई कभी कभी आते लेकिन भाभियों के पास न आने का बहुत बड़ा कारण होता बच्चों की पढ़ाई लिखाई. बहनों के अपने-अपने परिवार थे. सुधा इन सब बातों से अंजान बनकर सास-ससुर का ख्याल रखती. 
सुधा ने धीरज से वादा लिया था कि वह हर रोज़ उसे एक खत लिखेगा लेकिन शायद ऐसा मुमकिन नहीं था. गाँव का डाकिया अक्सर नज़र चुरा कर निकल जाता लेकिन जब चिट्ठी आती तो गली के मुहाने से ही शोर मचाते हुए आता, 'चाय मिलेगी तो खत दूँग़ा' और सुधा खिलखिलाती हुई झट से चाय  बना लाती चाहे बाद में सास-ससुर के ताने सहने पड़ते. 'दूध चीनी तो शायद तुम्हारी माँ दे जाती' 'बेचारा बेटा विदेश में कमाइयाँ कर रहा है और यह यहाँ लुटाने में लगी है' सुधा सफ़ाई में कुछ कहने की  हिम्मत न जुटा पाती. 
उन्हीं दिनों सुधा को पथरी का तेज़ दर्द उठा. देसी दवाइयों से इलाज चलता रहा लेकिन कुछ फर्क नहीं पड़ा. इस बार सुधा के बड़े भैया हिम्मत करके उसे घर ले आए. सुधा की हालत सही नहीं थी इसलिए वहीं रहकर इलाज कराने की सोची गई. अभी डॉक्टर को एक बार  ही दिखाया था कि तीसरे दिन ससुर जी और छोटी ननद गुस्से में उबलते हुए सुधा के मायके पहुँच गए. 'क्या समझ रखा है अपने आपको..... बेटी को लाने की हिम्मत कैसे की.... मेरे माँ-बाप की सेवा कौन करेगा... ' छोटी ननद बिना रुके गुस्से में बोलती जा रही थी. ससुरजी गुस्से में भरे चुप बैठे रहे. सुधा के भाई अन्दर ही अन्दर उबल रहे थे लेकिन माँ डर रही थी कि कहीं सुधा को माँ के घर बैठना पड़ेगा तो समाज को क्या मुँह दिखाएगी. उसी पल सुधा को उनके साथ लौटा दिया. मन ही मन माँ  शुक्र मना रही थी कि पथरी के दर्द की दवा बिटिया को खरीद कर दे दी थी. फिर से सुधा पुरानी दुनिया में लौट आई. बीच-बीच में दर्द इतना तेज़ उठता कि उसे कम करने के सब उपाय बेकार हो जाते. उस अजीब सी हालत में उसे दिखते अजीब सपने. उसे खुद याद नहीं कि जागते के सपने होते या सोते के सपने. दर्द काग़ज़ पर उतर आता सपने की शक्ल में. 

जब ज़िन्दा थे तो किसी ने प्यार से अपने पास न बिठाया
अब मर गए तो चारों ओर बैठे हैं !

पहले किसी ने मेरा दुख मेरा हाल न पूछा
अब मर गई तो पास बैठ कर आँसू बहाते हैं !

एक रुमाल तक भी भेंट न दी जीते जी किसी ने
अब गर्म शालें औ’ कम्बल ओढ़ाते हैं !

सभी को पता है ये शालें ये कम्बल मेरे किसी काम के नहीं
मगर बेचारे सब के सब दुनियादारी निभाते हैं !

जीते जी तो खाना खाने को कहा नहीं किसी ने
अब देसी घी मेरे मुँह में डाले जाते हैं !

जीते जी साथ में एक कदम भी चले नहीं हमारे साथ जो
अब फूलों से सजा कर काँधे पर बिठाए जाते हैं !

आज पता चला कि मौत ज़िन्दगी से कितनी अच्छी नेमत है
हम तो बेवजह ही ज़िन्दगी की चाहत में वक्त गँवाए जाते थे..!(सुधा)

बात करते-करते सुधा चुप हो गई लेकिन मेरे दिल और दिमाग में कई सवाल सिर उठाने लगे.. क्या कहूँ सुधा को अबला या सबला...!! 

क्रमश: 

बुधवार, 29 मई 2013

युद्ध की आग



आज जब चारों ओर इंसान इंसान को हैवान बन कर निगलते देखती हूँ तो बरबस इस कविता की याद आ जाती है जो शायद सन 2000 से भी पहले की लिखी हुई है जो 'अनुभूति' में तो छप चुकी थी लेकिन जाने कैसे ब्लॉग पर  पोस्ट न हो पाई. 
दुनिया के किसी भी कोने में होती जंग दिल और दिमाग को शिथिल कर देती है. अपने देश का हाल बेहाल हो या दुनिया के किसी दूसरे देश का बुरा हाल. मरता है तो एक आम आदमी जिसकी ज़रूरतें सिर्फ जीने के साधन जुटाने के लिए होती हैं. 
इस युद्ध की आग में प्रेम का सागर सूख जाए उससे पहले ही हमें इंसानियत के फूल खिलाने हैं. 


विश्व युद्ध की आग में जल रहा
मानव का हृदय सुलग रहा
प्रेम का सिन्धु सागर सूख रहा
द्वेष भाव के दलदल में डूब रहा

विश्व युद्ध की आग में जल रहा।
मानव का हृदय सुलग रहा।।

भोला बचपन हाथों से छूट रहा
मस्त यौवन रस भी सूख रहा
मातृहीन शिशु का क्रन्दन गूंज रहा
बिन बालक माँ को न कुछ सूझ रहा

विश्व युद्ध की आग में जल रहा।
मानव का हृदय सुलग रहा।।

पिता अपने बुढ़ापे का सहारा खोज रहा
पुत्र भी पिता के प्यार को तरस रहा
बहन का मन भाई बिन टूट रहा
प्राण भाई का बहन बिन छूट रहा

विश्व युद्ध की आग में जल रहा।
मानव का हृदय सुलग रहा।।

प्रेममयी सहचरी का न साथ रहा
मनप्राण का सहचर न पास रहा
मित्र का मित्र से विश्वास उठ रहा
मानव मानव का नाता टूट रहा

विश्व युद्ध की आग में जल रहा।
मानव का हृदय सुलग रहा।।
प्रेम का सिन्धु सागर सूख रहा
द्वेष भाव के दलदल में डूब रहा



सोमवार, 27 मई 2013

सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (5)

चित्र गूगल के सौजन्य से 

सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है....  मुझे दीदी कहती है...अपने मन की बात हर मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...
उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....   
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (1)    
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (2)
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (3) 
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (4)

ब्लॉग लेखन में फिर से सक्रिय होने का कारण अगर 'सुधा' है तो इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि ब्लॉग जगत का मोह भी कुछ कम नहीं है.. इसका मोह भी बहुत कुछ असल दुनिया के मोह जैसा ही है जिसका मोहक रूप बार बार अपनी तरफ खींच कर वापिस बुला लेता है ... ब्लॉग़ जगत के वासियों का मोह भी कुछ ऐसा ही है लेकिन बार बार एक लम्बे अंतराल के बाद मिलना ऐसा ही जैसे 'नज़र से दूर, दिल से दूर' फिर भी इतना यकीन तो है कि जब भी मिलेंगे अपनेपन से मिलेंगे....
शादी के बाद  ससुराल के पूरे परिवार के साथ सुधा पहला फेरा डालने अपने मायके पहुँच गई थी...धीरज को देख कर तो माँ समेत सभी परिवार वाले उसके ही आगे पीछे घूम रहे थे....किसी ने एक बार भी सुधा से नहीं पूछा कि वह कैसी है...हाँ बड़ी दीदी ने धीरज को हँसी हँसी में ताना ज़रूर मार था , "पहली बार नई दुल्हन को मायके क्या इस तरह लाते हैं,  बसों के धक्के और धूल फँकवाते हुए ....!" सुनकर बस खिसियानी हँसी हँस दिए थे धीरज.... छोटी भाभी ने हँसते हुए कहा , " जीजाजी के साथ सुधा ने बाहर ही जाना है...तब तक यहाँ धक्के धूल खा लेने दो दीदी..." तब भी धीरज कुछ न  बोले कि कम्पनी में काम न होने के कारण कई लोगों को देश वापिस भेज दिया गया है. धीरज भी अनिश्चित समय के लिए फिलहाल बेरोज़ग़ार ही कहे जा सकते थे उस वक्त.....
सुधा उस वक्त धीरज के साथ से ही इतनी खुश थी कि किसी बात का उस पर कोई असर न हुआ.... सुधा के परिवार वालों ने अपनी सामर्थ्य से भी ज़्यादा स्वागत सत्कार किया फिर भी सुधा के ससुराल वालों को खुश न कर सके...अक्सर हमारे समाज में यही देखने में आता है कि जितना लेन-देन को महत्त्व दिया जाए उतनी ही मात्रा में नाराज़गी और नाखुशी भी  बढ़ती है... 
 ससुराल लौटते ही सास ने थक कर चूर सुधा को रसोईघर में मेहमानों के लिए खाना बनाने के लिए लगा दिया और कुछ मेहमानों को बस स्टॉप तक छोड़ने चली गईं...लम्बे घूँघट को सँभालती हुई सुधा ने पहले पूरे घर की सफ़ाई की फिर खाना बनाने के लिए रसोईघर आई.. गैस का चूल्हा तो वहाँ था ही नहीं जिस पर उसने पहली बार हलवा बनाया था... मिट्टी के चूल्हे को कैसे सुलगाएगी .माँ के घर में काम खूब किया था लेकिन मिट्टी के चूल्हा यहीं देखा था...... सोचती हुई वहीं पास ही चारपाई पर बैठ गई... खुले आँगन में खुली रसोईघर बनी हुई थी, जो दो तरफ से बिना छत की छोटी छोटी दीवारों से ढकी हुई थी....सुधा टकटकी लगाए कच्चे चूल्हे को देख रही थी कि बड़ी ननद आ गई उसकी मदद करने...उन्होंने चूल्हा जलाने का तरीका बताया , बातों बातों में उन्होंने यह भी बता दिया कि उनके घर से गैस का चूल्हा आया था जो वापिस भिजवा दिया गया है...उनका घर पास में ही था......
 बस स्टॉप से लौटी सास ने जब बहू को चूल्हे के साथ उलझते देखा तो अपने गुस्से पर काबू न रख पाई....."ऐसे कैसे चलेगा...अभी तक चूल्हा ही नहीं जला तो खाना कब बनेगा" सास के तीखे तेवर देख कर वह सहम गई..हाथ तेज़ी से चलने लगे... चूल्हे पर दाल रखकर आटा गूँदने लगी...लम्बे घूँघट के कारण काम करना मुश्किल लग रहा था लेकिन किससे कहती.. जेठानियाँ भी घूँघट में ही बैठी दिखीं तो वह भी मन मसोस कर रग गई....बला की गर्मी...बिजली के साथ साथ हवा भी ग़ायब थी... जैसे-तैसे खाना खत्म किया कि चाय के लिए पुकार होने लगी...
चाय के इंतज़ार में कुछ मेहमान सुस्ताने लगे और कुछ अपना सामान बाँधने लगे.. तभी दिल्ली शहर से खबर आई कि धीरज के चचेरे भाई सागर का बेटा हुआ है. सुधा किस्मत वाली थी कह कर सभी उसे और एक दूसरे को  मुबारकवाद देने लगे. धीरज और सागर कुवैत  में एक ही कम्पनी में काम करते हैं.....सागर भैया कुवैत में ही थे लेकिन अणिमा भाभी अपने मायके में थी. सास-ससुर ने तय किया सभी बड़े  बेटे के घर जाएँग़े जहाँ सागर के बेटे का नामकरण किया जाएगा. एक खास बात दिखी थी यहाँ कि चाचा ताऊ के बच्चों में कोई फर्क नहीं समझा जाता.
सुधा पहली बार दिल्ली शहर आई थी. दिल्ली में घर खरीदना आसान नहीं,  किराए के घर भी कबूतरखाने जैसे होते हैं.,धीरज के बड़े भैया का घर बहुत छोटा था जिसमें दो भाई और उनके परिवार एक साथ रहते थे.  एक ही कमरे में दरियाँ बिछीं थीं और घर के सभी लोग एक साथ बैठे बातचीत में मगन थे.  घूँघट की ओट से सुधा सबको देख रही थी... सुन रही थी सबकी बातें जिनमें अणिमा भाभी का बार-बार ज़िक्र हो रहा था. आधी बात समझ आ रही थी और आधी बात सिर के ऊपर से निकल रही थी.
ससुरजी ने तय कर लिया था कि अगर अणिमा बच्चे के चोले की रस्म के लिए बड़े भैया के घर नहीं आएगी तो कोई उसके मायके नहीं जाएगा. परिवार के कुछ आदमी जाएँगें बस औपचारिकता निभाने के लिए. बात सिर्फ इतनी थी कि अणिमा भाभी और बच्चे की तबियत ठीक नहीं थी और 11 दिन के बच्चे को लेकर वे सफ़र नहीं करना चाहती थीं. उनकी 'न' ने घर भर में हंगामा खड़ा कर दिया . सभी भाभी को बुरा भला कहने लगे.
मन ही मन सुधा अणिमा भाभी और उनके बेटे को देखने के लिए उत्सुक थी.
धीरज चुप थे. एक पल के लिए नहीं सोचा कि सागर भैया को कितना बुरा लगेगा. उनकी खातिर एक बार साथ चलने के लिए कहते लेकिन न कुछ कह पाए और न ही साथ गए. सुधा ने महसूस किया कि उसके पति अपने माता-पिता से बहुत डरते हैं. वे चाहकर भी साथ चलने की बात नहीं कर पाए.
आदर और डर में फ़र्क होता है , अक्सर हमारे समाज के बुज़ुर्ग डर को आदर समझने की भूल कर बैठते हैं. कई बार घर के बड़ों के सामने बच्चे अपने मन की बात नहीं रख पाते.. उनके डर के कारण  ग़लत को ग़लत कहने से घबराते हैं. सभी नहीं तो अधिकाँश लोग इस त्रासदी को झेल रहे हैं. यही कारण है कि कभी बुज़ुर्गों की तानाशाही बच्चों को उग्र बना देती है तो कभी एक दम दब्बू. 
सुधा का बचपन भी ऐसे ही परिवार में बीता था जहाँ छोटी छोटी गलतियों पर साँकल से बाँध दिया जाता या कपड़े धोने वाले डंडे से पीट दिया जाता था. सुधा समेत सभी बेटियों को दसवीं के बाद सिलाई कढ़ाई सिखा कर घर बिठा दिया गया था. शादी के सपने देखते हुए सोचती थी कि पति के घर में आज़ादी मिलेगी. कुछ हद तक मिली भी लेकिन जंजीरें यहाँ भी थी.
दिल्ली से लौट कर अभी 15 दिन भी नहीं हुए थे कि सुधा को फिर दिल्ली जाने का आदेश हुआ. बिना कुछ सवाल जवाब किए अपनी दुल्हन को धीरज दिल्ली छोड़ आए अपनी मझली भाभी की सेवा के लिए जिन्हें अभी चौथा महीना शुरु हुआ था. सुधा का तो दिल ही बैठ गया क्योंकि उसे समझ आ गई थी कि बच्चा होने तक  उसे वहीं ठहरना होगा. वे दिन भी भुलाए नहीं भूलते. दो जेठानियों के बीच में पिसती सुधा ने कैसे अपने दिन बिताए, वही जानती है.
छोटी होने के कारण सुधा पर दोनों जेठानियाँ बड़े  रौब से हुक्म चलातीं. बड़ी  का काम अधूरा छोड़कर छोटी के काम को पूरा करती तो बड़ी नाराज़ हो जाती... बड़ी का काम करके आती तो छोटी का मुँह बना होता. कभी कभी तो दोनों की नाराज़गी में उसे भूखे पेट ही सोना पड़ता. शर्म के कारण दोनों में से किसी एक को भी कह न पाती कि उसे भूख लगी है. उस वक्त धीरज की याद आती कि क्या उन्हें भी उसकी याद आती होगी. एक बार भी आकर नहीं पूछा कि क्या हाल है, कैसे दिन कट रहे हैं. आए तो पूरे छह महीने बाद चाचा बनने के बाद.
सुधा की खुशी का ठिकाना नहीं था. धीरज के साथ बस पर बैठने के बाद ही उसे यकीन हुआ कि सच में वह ससुराल लौट रही है.
धीरज के चेहरे को एक पल देखते हुए सर झुकाकर सुधा ने पूछा, 'आपको मेरी एक बार भी याद नहीं आई इतने महीनों में' 'आई, पर क्या करता.' कह कर धीरज दूसरी तरफ देखने लगे. मन ही मन कितने ही सवाल लेकर सुधा ने सफर पूरा किया. उसके मन में एक गाँठ थी जो खुलने का नाम न लेती. तस्वीर से रिश्ता पक्का होने के बाद धीरज ने एक बार भी अकेले मिलने की कोशिश नहीं की थी. दो तीन बार कोशिश करने पर अकेले बाहर जाने की बजाए परिवार के साथ वक्त गुज़ारा.  सास-ससुर के पाँव छूकर अन्दर जाने ही लगी थी बैग रखने कि पीछे से आवाज़ आई, 'बहू मुँह हाथ धोकर चाय बना ले.'  लेटे लेटे ही सास ने कहा था. सुधा सास ससुर को खुश रखने के लिए कोई कसर न छोड़ती. फटाफट कपड़े बदल कर मुहँ हाथ धोकर चूल्हा जला कर चाय का पतीला रख दिया.
नौकरी थी नहीं. जमापूंजी से घर चल रहा था. आने वाले बच्चे के लिए कोई भी तैयार नहीं था. धीरज तो बिल्कुल नहीं. शादी करके घर बसाना, पत्नी का ख्याल रखना , बच्चे पैदा करते वक्त छोटी छोटी बातों का ध्यान रखना , ऐसा कुछ भी नहीं था धीरज में. सुधा फिर भी उसे पति परमेश्वार मान कर उसकी ही नहीं उसके माता-पिता की जी जान से सेवा करती. उसे अपना बचपन याद आ जाता जब माँ को खुश करने के लिए वह घर के कई काम जल्दी से खतम करके माँ की गोद में जा बैठती, 'माताजी, मैंने इतने सारे कपड़े धो दिए. मुझे प्यार करो न' और माँ उसके सिर पर हाथ फेर देती. सुधा उसी में ही खुश हो जाती. यहाँ भी वह उसी जोश से काम करके सोचती कि कभी तो धीरज , सास-ससुर प्यार से उसकी पीठ थपथपाएँगें. लेकिन हर शाम उसकी चाहत भी अंधेरों में गुम हो जाती. इस तरह हर सुबह नई उमंग और आशा के साथ वह काम में जुट जाती और शाम होते होते सूरजमुखी के फूल जैसे मुरझा जाती.
तीसरा महीना भी खतम हो गया लेकिन किसी ने भी अस्पताल में उसका नाम लिखवाने की नहीं सोची. गाँव के अस्पताल से नर्स आती पूछताछ के लिए लेकिन उसे बाहर से भेज दिया जाता. गाँव की दाई के भरोसे छोड़ कर सास निश्चिंत हो गई थी. धीरे धीरे अंदर का जीव आकार लेने लगा जिसका असर सुधा के ऊपर साफ दिखने लगा था. अब उससे गाय का दूध निकालने के लिए बैठा न जाता, बड़ी मुश्किल से चारा पानी दे पाती. धीरज होते तो कोई मुश्किल न होती लेकिन रसोई तो खुद ही बनानी पड़ती. अगर किसी दिन सुधा की सास धीरज को सुधा की मदद करते देख लेती तो आसमान सिर पर उठा लेती. 'हे भगवान, हमने तो जैसे बच्चे जने ही नहीं थे' 'तेरी बीवी तो अनोखा बच्चा पैदा कर रही है' 'बीवी के घुटनों के साथ जुड़ कर बैठ जा' ऐसी बातें सुनकर धीरज घर देर से ही लौटता. उस दौरान सुधा की हालत और भी बुरी हो जाती. नीचे बैठकर रसोई पकाना अब उसके लिए अज़ाब होने लगा था.
दसवाँ महीना खतम होने को था. दिन ब दिन सुधा की तबियत बिगड़ती जा रही थी.  तब भी उसकी सास उसे कोसने से न चूकती. 'इसे अक्ल तो है नहीं...दिन गिनने कहाँ आते हैं..इसे पता नहीं ही नहीं होगा कि कौन सा महीना चल रहा है ' हर बार हर किसी को यही बात कहकर टाल देती. उधर धीरज डर के मारे कुछ कर न पाता या माता-पिता के सिरदर्दी समझ कर चुप था. उस वक्त सुधा को समझ नहीं आता कि जिससे शादी हुई है उसका क्या फर्ज़ है लेकिन धीरज के तर्क कुछ और होते कि अगर अपने आप वह अस्पताल ले गया तो घर भर में कलह-क्लेश होगा. नौंवाँ  महीना खतम होते-होते उसे दिखना बंद हो गया. दीवार पकड़ पकड़ कर घर के काम खतम करती. परिवार के लिए जल्दी खाना बनाकर रख देती.  दिन ब दिन सुधा की हालत बद से बदतर होने लगी लेकिन सास पर इस बात का भी कोई असर नहीं हुआ. उसका कहना था गर्भ ठहरने के दौरान ऐसा अक्सर होता है.  आस-पड़ोस के लोग आकर सुधा को अस्तपताल ले जाने की बात करते तो इस बात का गुस्सा भी सुधा पर ही उतरता कि लोग अपने आप को सयाना समझ कर उसे उपदेश देने आते हैं.
ग्यारवाँ महीना अभी शुरु ही हुआ था कि मझली जेठानी घर आईं. सुधा की हालत देख कर उससे रहा न गया. बड़ी ननद को साथ लेकर आई  सास-ससुर को समझाने लगी, 'सुधा की हालत तो देखो, अब तो ले जाओ उसे अस्पताल नहीं तो बच्चे समेत यहीं मर जाएगी.' पता नहीं क्या सोच कर सास ने सुधा को अस्पताल ले जाने की हामी भर दी.
सुधा की कहानी उसी की ज़ुबानी सुनते हुए मुझे धीरज पर बेहद गुस्सा आ रहा था. समझ नहीं पा रही थी कि कोई इंसान इतना बेदर्द कैसे हो सकता है, तटस्थ रह कर कैसे किसी को तड़पते देख सकता है. क्या सिर्फ माँ-बाप की मर्ज़ी से शादी करने से कोई अपने फर्ज़ों से मुँह मोड़ सकता है. दस महीने बीतने के बाद भी डॉक्टर के पास अपनी पत्नी को न ले जाने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं. सुधा में भी हिम्मत नहीं थी कि अपने होने वाले बच्चे की खातिर खुद ही अस्पताल चली जाती. नहीं समझ पा रही रिश्तों के समीकरण..... ग्यारवें महीने में पहली बार अस्पताल जाती  सुधा की क्या हालत होगी....होने वाले बच्चे को बचाना मुमकिन हो पाएगा... सोच कर ही दिल और दिमाग सुन्न होने लगे. 

क्रमश:







गुरुवार, 23 मई 2013

अपनी सोच को पिंजरे में बंद रखना !


अक्सर सोचती हूँ कि सोचूँ नहीं ..सोचों को मन के पिंजरे में कैद रखूँ लेकिन फिर भी कहीं न कहीं से किसी न किसी तरीके से वे कभी न कभी बाहर आ ही जाती हैं ज़ख़्मी...कमज़ोर...लेकिन साँसें लेतीं हुईं......

आज भी कुछ सोचें छटपटाती हुई बाहर निकल ही आईं.... दुनिया का कोई कोना नहीं जहाँ सुख के साथ साथ दुख न हो लेकिन कुछ देशों का इतना बुरा हाल है कि भूले से वहाँ की खबर पढ़ लो तो फिर रातों की नींद उड़ जाती है...जिन देशों में गृह युद्ध चल रहे हैं वहाँ के बारे में जानकर तो यकीन होने लगता है कि इंसान पर हैवानियत की जीत हो रही है ...  ...एक ही देश के लोग एक दूसरे के दुश्मन होकर आपस में ही कट मरते हैं लेकिन इस मारकाट में भी दुश्मन को हराने का सबसे सस्ता उपलब्ध साधन जब 'औरत' बनती है तो उस समय दिल और दिमाग में जैसे ज़हरीला धुँआ सा भरने लगता  है कि बस अभी साँस रुकी ....आज सीरिया की खबर पढ़ कर सुबह से ही मन बेचैन था... सोचा ....ओह..फिर सोच... लेकिन नहीं मुमकिन नहीं सोच को कैद करना...जो कैद से निकली कुछ यहाँ आ पहुँची....ज़मीन और जूता भी ऐसी ही एक सोच थी जिसे याद करके आज भी रूह काँप जाती है.....

 

धरती धीरे धीरे घूम रही है
उसपर रहने वाले लोग दौड़ रहें हैं...

जाने किधर का रुख किए हैं...
शायद उन्हें खुद पता नहीं..

मैं अक्सर एक कोने में रुक जाती हूँ
उन्हें दौड़ते देख रोकना चाहती हूँ

अगले ही पल डर से सहम जाती हूँ
सभी के सभी मुझे वनमानुष से लगते हैं 

आँखें बन्द कर लेती हूँ कबूतर की तरह
तभी एक मासूम आ बैठती है मेरे पास

अपनी सोच को पिंजरे में बंद रखना
कहकर सिसकियों से रोने लगती है

सवालभरी नज़र से देखती हूँ उसे
अपनी सोच को उसने पंख दिए थे

सोच समेत उसे कैद कर लिया था   
जहाँ उसे कई ज़िन्दा लाशें दिखीं थीं.

जिन्हें बार बार रौंधा जाता बेदर्दी से  
पैरों तले कुचली साँसें फिर चलने लगतीं 

उनकी पुकार...उनकी चीखें जो कैद थी
उस मासूम के साथ बाहर आ गईं थी...


उनके ज़ख़्मी चेहरे उसका पीछा करते हैं..
उनका दर्द कानों में लावे सा बहता है

अब मेरे कानों में उनका दर्द ठहर गया है
मेरी पलकों में उनकी दर्दभरी पुकार छिपी है...!! 

बुधवार, 22 मई 2013

बैठे बैठे सूझा कुछ नया ....

अपने ब्लॉग पर इधर उधर विचरते हुए सन 2011 की अंतिम पोस्ट 'कीबोर्ड पर थिरकती उंगलियाँ'  को दुबारा पढते हुए अचानक मन में ख्याल आया कि क्यों न इस पोस्ट पर आई टिप्पणियों के ज़रिए उन्हीं के ब्लॉग का ज़िक्र किया जाए....पोस्ट पर आई टिप्पणी हटा कर टिप्पणीकार के ब्लॉग की पोस्ट से अपनी पसन्द का एक छोटा सा अंश यहाँ दर्ज करके उनका आभार प्रकट किया है....


anju(anu) choudhary said... 
तुम मेरी सखी-सहेली भी 
और खुद में पूर्ण और सम्पूर्ण भी 
मेरी माँ...............||


Abhishek Ojha said...
बिन कुछ झूठ कहे हम हर सत्य को नहीं कह सकते या हमेशा कुछ ऐसा सत्य बचा रह जाएगा जिसे हम साबित नहीं कर सकते - हर कथन को साबित करना संभव नहीं !

मोबाइल और इन्टरनेट के जमाने में 
बहुत तेजी से बदल रहा है 
..........छोटा सा शहर  !!!

वन्दना said... ये थिरकन यूँ ही चलती रहे ........ 

यह मौसम है लू का
तपती धूप का मेरे लिये 
घर की ठंडक में दुबक कर
हर दुपहर को सोना है


छली जा रहीं नारियां, गली-गली में द्रोह ।
नष्ट पुरुष से हो चुका, नारिजगत का मोह |

 वृक्षारोपण द्वारा गलियों, बाजारों, सड़कों और राजमार्गों पर शीतल छाया की व्यवस्था की जा सकती है। 

कई लोग जानवरों को भी एक माँ की तरह पालते हैं. 

हमने तो यह बता दिया कि हम अपना समय कैसे बरबाद करते हैं। यह खुलासा केवल ब्लॉग लिखने तक सीमित है। बाकी हरकतों में समय की बरबादी के पत्ते हमने अभी नहीं खोले हैं। (बताइएगा कि हमने वक्त बरबाद किया या बिताया :) ...! ) 

आप सोच रहे होंगे कि आम भारतीय युवा भ्रष्टाचार के खिलाफ़ हैं परंतु यह अर्ध सत्य है..

जिसने स्‍वयं को वश में कर लिया है 
संसार की कोई  शक्ति उसकी विजय को 
पराजय में नहीं बदल सकती ... 

"मिलते हैं एक छोटे से ब्रेक के बाद ".

'वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान''। यह प्रसिद्ध पंक्ति सुमित्रानंदन पंत की है। 

कवि कल्पना कर करके
इतिहास काव्य रच देते हैं 

अरे जानते नहीं
रूहें साथ रहती हैं
जन्मों तक .......

इंटरनेट में सक्रियता की वजह से भविष्‍य को जानने के इच्‍छुक लोगों के दो चार जन्‍म विवरण प्रतिदिन मिलते हैं 

समय आ गया है विद्रोह का, विरोध का, लडाई का, अपनी बात दो टूक कहने का वरना यह समाज इन्सानों का नही दरिंदों और कायरों का बन जायेगा ।

ये पोस्ट महज मेरी सोच को दर्शाती हैं


राहे बर्बादी को तो ख़ुद ही चुना था मैनें
उसपे अब अश्क बहाने से भला क्या होगा 

mere vichar said...  
मैं ऐसे महान पुरुष को सुनने के लिए जीवित नहीं रहूँगा. मेरी उम्र काफी हो चुकी है.

Mukesh Kumar Sinha said...
काश, मेरे में होती
समुद्र जैसी गहराई
ताकि तू डूब पाती
मेरे अहसासों के भंवर में

सच्चे मन से दुआ करो तो कितनी जल्दी कुबूल होती है.

"शब्दहीन संवाद, शब्दीय संवाद से हमेशा ही मुखर रहा है" ------

अब तो कभी कभी लगता है कि उपग्रहों के समूह से जुड़ा यह नेवीगेटर, मेरे लिए फिल्मी गीत गुनगुना रहा हो “… तू जहाँ जहाँ चलेगा, मेरा साया साथ होगा… “   (पाबलाजी , आपकी टिप्पणी को दुबारा न पढ़ा होता तो पता ही नहीं चलता कि हमारा नाम भी कहीं लिया गया था कभी...शुक्रिया) 

कभी कभी
या शायद बहुधा
रिश्ते जलाए प्रेम पत्रों के अवशेष से रह जाते हैं

हर्बल गार्डन में कभी न कभी एक मौका घूमने का छोड़ना नहीं 

यही कामना है कि वो इसी तरह मानवीय और सामाजिक सरोकार से जुड़ निरंतर काव्य सृजन  करती रहें ।

उनको  जम्हूरियत  की  तो  परवाह  नहीं है ।
लूटा  गया  वतन  है ,ये   अफवाह   नहीं  है ॥

मेरी  आँखों में  ये आँसू नहीं  हैं...पानी  है..
एक सूरत है जो हरदम इसमें झिलमिलाये...!

S.N SHUKLA said...
सूर्य ढलने लगा पर मै अभी थका नहीं (शुक्ला जी आपकी अच्छी सेहत के लिए शुभकामनाएँ) 

vidya said...
एक आम से इंसान की आम सी बातों का जमावड़ा है मेरी कवितायें..

Rakesh Kumar said...
 हम सभी विषाद से सर्वथा मुक्त हो आनन्द ,शान्ति और  उन्नति की ओर
निरंतर अग्रसर हो.

shikha varshney said...
अपना तो वो हो जो मिले जमघट में भी
अपनों की तरह, पूरे अधिकार से

मुसाफिर  हैं हम  मुसाफिर  हो तुम भी 
कही न कही  फिर किसी मोड़  पर मुलाकात होगी 

Varun said... 
ब्लॉगर नहीं एक पाठक हूँ 

46 डिग्री में भी लोकतंत्र चालू है . 

माँ के बारे में जितना भी कहा जाए कम है! 

भ्रष्टाचार हमारे ख़ून में .....

''Choose to love- rather than hate.

कहीं तो होगा ऐसा कोई रहीम 
जिससे मैं जी भर बातें कर सकूँ 

सुनामी सा उनमुक्त कहर 
कुछ अधिक ही हानि पहुंचाता 

"नहीं चला मोदी का जादू"


मैंने भावना का वरण किया हैमेरे लिए वह संबंध और संबंधों से बड़ा है।

अब्दुल सुभान (42 साल) पिछले 19 सालों से अपनी दोनों आंखों से लाचार है। बावजूद इसके सुभान न सिर्फ कपड़ों की सिलाई करता है बल्कि अपने घरेलू कार्यों को भी बखूबी अंजाम देता है। 

The human mind is double edge sword

अब आप Blogvarta.com से आकर्षित डिजाईन के पोस्टकार्ड चुनकर अपनें किसी भी मित्र या सम्बन्धी को किसी त्यौहार, जन्मदिन बधाई, किसी भी प्रकार का कोइ सूचना पत्र भेज सकतें हैं! 

कुछ  आती हैं यादें बचपन की कुछ दिखती हैं धुंधली सी तस्वीरें 

आज की इस पोस्ट को बनाना सार्थक हुआ ... पाबलाजी की बदौलत जान पाए कि 'राष्ट्रीय सहारा' की आधी दुनिया में  18अक्टूबर 2011 की पोस्ट  "कीबोर्ड पर थिरकती उंगलियाँ" को  शामिल किया गया था ... !