आज भी हर रोज़ की तरह खिड़की से बाहर उगते सूरज को देखा....साथ ही नज़र गई मस्जिद की ऊँची मीनार पर ...जाने क्यों उस खूबसूरत नज़ारे ने दिल मोह लिया...झट से कैमरे में कैद कर लिया उस खूबसूरती को .
मन में कुछ भाव उठे.....जी ने चाहा कि आप संग बाँटू उन भावों को इसलिए उतार दिया यहाँ .....
मस्जिद की ऊँची मीनार..... आफ़ताब के निकलने से पहले ही जाग जाती है.... हर रोज़...पाँच वक्त आवाज़ देकर हमें भी जगाती है.....जैसे कहती हो फज़र हुई... सूरज के आने से पहले उठो.... नया सवेरा हुआ...उस शक्तिपुंज का नाम लो जिसने यह दुनिया बनाई... दिनचर्या शुरु करो....
दोहर होते ही ऊँची मीनार फिर से आवाज़ देकर हमें काम रोक कर आराम करने का सन्देश देती है..... सब तरफ ख़ामोशी..... फुर्सत के पल..... उन पलों में खो न जाएँ..इसलिए असर के वक्त आवाज़ आती कि उठो उठो ....फिर से काम शुरु करो.... तब तक काम करो जब तक सन्ध्या न हो जाए...
उधर सूरज डूबा इधर महगरिब की अज़ान होती है.....यह आवाज़ सन्देश देती है कि साँझ हुई...अब घर की ओर चलो....अपने अपने घर पहुँच कर सब मिल जुल कर सारे दिन का लेखा जोखा सुनो सुनाओ....एक साथ बैठ कर रात का खाना खाओ.....अगले दिन की तैयारी में जुट जाओ...
मीनार से आखिरी आवाज़ सुनाई देती ईशा की......आज के सब काम सम्पन्न हुए.... शुक्र करो उस शक्ति का जिसने हमें मानव के रूप में इस धरती पर उतारा..... और फिर नए दिन की खूबसूरत शुरुआत की आशा लेकर मीठे सपनों की नींद में डूब जाओ......
बचपन तो लगभग ऐसा ही था....स्कूल जाने के लिए सुबह सवेरे उठ कर तैयार होना... मम्मी और दादी के भजनों की आवाज़ कानों में पड़ती तो एक अजीब सा सुकून मिलता.....स्कूल में दोपहर का खाना खाने से पहले हाथ धोकर भोजन मंत्र पढ़े जाते.... सन्ध्या का दीप जलता तो पूरे परिवार के साथ मिल कर आरती गाई जाती ... सूरज डूबने से पहले खाना तैयार हो जाता.... आठ बजते ही चटाई बिछाकर सब एक साथ रसोई में बैठ कर साथ साथ खाना खाते.... घर के बाहर गली में सैर करते हुए स्कूल और ऑफिस की बातें करते... सब कुछ अब जैसे सपने सा हो गया है लेकिन मीठे सपने सा....
9 टिप्पणियां:
@मीनाक्षी जी-आपको पढ़ना एक सुखद एहसास देता है ।नमाज़ के पांचों वक्त की व्याख्या अच्छी की है ....आभार !
बहुत शानदार तस्वीर, उससे भी शानदार आपकी व्याख्या. गजब
मेरी नई पोस्ट देखें
मिलिए हमारी गली के गधे से
स्मृतियों की महत्ता कहीं अधिक बढ़ जाती है जब समय अपने क़ाबू से बाहर हो जाता है और हमें समय का कारागार में रहने को बाध्य होना पड़ता है...
(तकनीकी गलती के कारण एक ही पोस्ट दो बार पब्लिश हो गई..माफी चाहूँगी...पहली पोस्ट की टिप्पणियाँ यहाँ डालना ज़रूरी लगा.)
ZEAL said...
कभी-कभी कुछ दृश्य और घटनाएं बीते हुए सुनहरे पलों की बहुत गहन याद दिला देती हैं। मन में उस मीठी याद के साथ एक टीस भी उठने लगती की वो सुन्दर पल अब खो गए हैं, कभी वापस नहीं मिलेंगे। इन्हीं यादों के साथ लगने लगता है , इतना सुन्दर जीवन इतना छोटा क्यूँ है ।
वाणी गीत said...
बचपन की सुमधुर स्मृतियाँ !
Arvind Mishra said...
यादों में डूब गयीं आप!
ajit gupta said...
पराए वातावरण की टीस मन को सालती ही है।
मीनाक्षी said...
@ज़ील..सही कहा...किसी एक दिन का उगता या ढलता सूरज बहुत कुछ याद दिला जाता है.
@वाणीगीत...बचपन जाता कहाँ है.. दिल के किसी कोने में गुम हो जाता है बस...
@मिश्राजी,खाली दिमाग, यादों का बसेरा...
@अजितजी, अपनो से अलग होने की टीस सालती है..जिसे बस में करने में करना है.
संगीता पुरी said...
सुनहरे पलों की यादें ऐसे ही भावुक कर देती है !!
हमारा बचपन ऐसे धार्मिक वातावरण के बीच नहीं बीता। इसलिए ये आवाज़े जब कभी कानों में पड़ी कभी ऐसे विचार मन में नहीं आए। ऐसे भी सुबह का सूरज देखें हमें महिनों हो जाते हैं।
बहरहाल पाँच वक़्तों की नमाज़ को आपका इस रूप में देखना अच्छा लगा।
बहुत अच्छी कामना - अच्छी प्रस्तुति के लिए बधाई तथा शुभकामनाएं !
यूँ ही कुछ देख...खो जाते हैं पुरानी यादों में...
पांचो नमाज का ब्यौरा जानना अच्छा लगा.
बहुत शानदार
अच्छी प्रस्तुति के लिए बधाई तथा शुभकामनाएं !
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