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शनिवार, 29 मई 2010

गुस्सा बुद्धि का आइडेंटिटी कार्ड है







इस पोस्ट का शीर्षक फुरसतिया ब्लॉग़ की पोस्ट ‘एक ब्लॉगर की डायरी’ से लिया गया है. नेट की परेशानी के कारण कुछ रचनाओं के प्रिंट आउट करवा कर पढ़ते हैं सो फुरसतिया पोस्ट को तो फुरसत होने पर ही पढ़ा जा सकता है.. पढती जा रही हूँ और सोचने के लिए कई विषय मिलते जा रहे हैं...

सबसे रोचक लगा ‘गुस्सा डीलर’ के बारे मे जानकर.... जब पढ़ा कि गुस्सा बुद्धि का आइडेंटिटी कार्ड हो गया है तब से सोच रहे हैं कि जितना गुस्सा कम, उतनी बुद्धि कम .... अब क्या करें कैसे उबाल आए कि हम भी बुद्धिजीवी बन जाएँ एक दिन में... गुस्सा होने की लाख कोशिश करने लगे...... पहले अपने ही घर से शुरु किया....पति शाम को ऑफिस से आते हैं...जी चाहता है कि बाहर घूम आएँ ...ताज़ी हवा में टहल आएँ ...इंतज़ार करने लगे कि आज तो बाहर बाहर से ही निकल जाएँग़े...आदत से मजबूर दरवाज़ा खोल दिया...मुस्कुरा कर स्वागत भी किया... हम कुछ कहते उससे पहले ही महाशय के चेहरे पर मन मन की थकावट देख कर चुप रह गए ... गुस्सा भी अन्दर ही अन्दर मन मसोस कर रह गया कि थके मानुस को क्यों परेशान करना....

बच्चों की बारी आई... उन पर आजमाना चाहा ...युवा लोग तो वैसे भी बुर्ज़ुगों के कोप का निशाना बने ही हुए है....दोनो बच्चे दुबई में हैं..अकेले रहने का पूरा मज़ा ले रहे हैं... दो दो दिन बीत जाते हैं बात किए हुए...आधी आधी रात तक घर से बाहर होते हैं लेकिन न जाने चिल्ला नहीं पाते कि शादी हो जाएगी तब तो बिल्कुल नहीं पूछोगे.... अभी से यह हाल है....फोन किया...बात सुनी..छोटे ने कहावत एक बार सुनी थी नवीं या दसवीं की हिन्दी क्लास में कि ‘बेटा बन कर सबने खाया बाप बन कर किसी नहीं’ बस तो ऐसा मीठा बन जाता है कि प्यार आने लगता है....गुस्सा कहाँ आता... बल्कि सोचने लगेगी कि यही वक्त है उनका मस्ती करने का..क्या करते हैं, कहाँ जाते हैं इतनी खबर ही बहुत है....

दोस्तों और रिश्तेदारों की बारी आई....कोई तो भला मानुस हो जो गुस्सा दिलवा दे ताकि बुद्धिजीवी होने का सपना इसी जन्म मे पूरा हो सके.... स्काइप, जीमेल, फेसबुक आदि पर कई रिश्तेदार और दोस्त होते हैं जो नज़रअन्दाज़ कर जाते हैं......हरी बत्ती हो तो बड़ों को नमस्कार कर देते हैं लेकिन छोटों की नमस्ते का इंतज़ार करते ही रह जाते हैं... किसी को मेल की...उसके जवाब के इंतज़ार में कई दिन बीत जाते हैं...सोचते रह जाते हैं कि काश गुस्सा आ जाए... दिल कहता है किसी को मेल का जवाब देने के लिए जबरदस्ती थोड़े ही कर सकते हैं. ब्लॉग़जगत के बारे में सोचने लगे... वहाँ अपनी बिसात कहाँ ..... सभी बुद्धिजीवी हैं...उनके पास तो बहुत गुस्सा है...और बुद्धि भी.... या कहूँ कि बहुत बुद्धि है इसलिए गुस्सा है... अब आप ही सोचिए कि क्या समझना है...

अब मन कुछ हल्का हुआ है... तसल्ली हुई है कि हम भी कुछ कुछ बुद्धि वाले हो गए हैं क्यों कि हल्का हल्का गुस्सा अपने आप में महसूस कर रहे हैं तभी तो यह पोस्ट लिख पाने में समर्थ हुए हैं.... लिखा हमने है...पढ़ना आपको है..........:)

मंगलवार, 25 मई 2010

बेबसी, छटपटाहट और गहरा दर्द










आज शाम भारत से एक फोन आया जिसने अन्दर तक हिला दिया. उम्मीद नहीं थी कि अपने ही परिवार के कुछ करीबी रिश्ते इस मोड़ पर आ जाएँगे जहाँ दर्द ही दर्द है. रिश्ते तोड़ने जितने आसान होते हैं उतना ही मुश्किल होता है उन्हें बनाए रखना. पल नहीं लगता और परिवार बिखर जाता है. परिवार एक बिखरता है लेकिन उसका असर आने वाले परिवारों पर बुरा पड़ता है. पति पत्नी अपने अहम में डूबे उस वक्त कुछ समझ नहीं पाते कि बच्चों पर इस बिखराव का क्या असर होगा.. मन ही मन बच्चे गहरी पीड़ा लेकर जिएगें, कौन जान पाता है.

आज तक समझ नहीं आया कि तमाम रिश्तों में कड़ुवाहट का असली कारण क्या हो सकता है... अहम या अपने आप को ताकतवर दिखाने की चाहत.....

न जाने क्यों एक औरत जो पत्नी ही नहीं माँ भी है .... उसकी सिसकियाँ मन को अन्दर तक भेद जाती हैं. पहली बार जी चाहा कि अपनी एक पुरानी पोस्ट को फिर से लगाया जाए. शायद कोई टूटने बिखरने से बच जाए.


नारी मन के कुछ कहे , कुछ अनकहे भाव !

मानव के दिल और दिमाग में हर पल हज़ारों विचार उमड़ते घुमड़ते रहते हैं. आज कुछ ऐसा ही मेरे साथ हो रहा है. पिछले कुछ दिनों से स्त्री-पुरुष से जुड़े विषयों को पढकर सोचने पर विवश हो गई कि कैसे भूल जाऊँ कि मेरी पहली किलकारी सुनकर मेरे बाबा की आँखों में एक चमक आ गई थी और प्यार से मुझे अपनी बाँहों में भर लिया था. माँ को प्यार से देख कर मन ही मन शुक्रिया कहा था. दादी के दुखी होने को नज़रअन्दाज़ किया था.

कुछ वर्षों बाद दो बहनों का एक नन्हा सा भाई भी आ गया. वंश चलाने वाला बेटा मानकर नहीं बल्कि स्त्री पुरुष मानव के दोनों रूप पाकर परिवार पूरा हो गया. वास्तव में पुरुष की सरंचना अलग ही नहीं होती, अनोखी भी होती है. इसका सबूत मुझसे 11 साल छोटा मेरा भाई था जो अपनी 20 साल की बहन के लिए सुरक्षा कवच बन कर खड़ा होता तो मुझे हँसी आ जाती. छोटा सा भाई जो बहन की गोद में बड़ा होता है, पुरुष-सुलभ (स्त्री सुलभ के विपरीत शब्द का प्रयोग ) गुणों के कारण अधिकार और कर्तव्य दोनों के वशीभूत रक्षा का बीड़ा उठा लेता है.

फिर जीवन का रुख एक अंजान नई दिशा की ओर मुड़ जाता है जहाँ नए रिश्तों के साथ जीवन का सफर शुरु होता है. पुरुष मित्र, सहकर्मी और कभी अनाम रिश्तों के साथ स्त्री के जीवन में आते हैं. दोनों में एक चुम्बकीय आकर्षण होता है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता.

फिर एक अंजान पुरुष धर्म का पति बनकर जीवन में आता है. जीवन का सफर शुरु होता है दोनों के सहयोग से. दोनों करीब आते हैं, तन और मन एकाकार होते हैं तो अनुभव होता है कि दोनों ही सृष्टि की रचना में बराबर के भागीदार हैं. यहाँ कम ज़्यादा का प्रश्न ही नहीं उठता. दोनों अपने आप में पूर्ण हैं और एक दूसरे के पूरक हैं. एक के अधिकार और कर्तव्य दूसरे के अधिकार और कर्तव्य से अलग हैं , बस इतना ही.

अक्सर स्त्री-पुरुष के अधिकार और कर्तव्य आपस में टकराते हैं तब वहाँ शोर होने लगता है. इस शोर में समझ नहीं पाते कि हम चाहते क्या हैं? पुरुष समझ नहीं पाता कि समान अधिकार की बात स्त्री किस स्तर पर कर रही है और आहत स्त्री की चीख उसी के अन्दर दब कर रह जाती है. कभी कभी ऐसा तब भी होता है जब हम अहम भाव में लिप्त अपने आप को ही प्राथमिकता देने लगते हैं. पुरुष दम्भ में अपनी शारीरिक सरंचना का दुरुपयोग करने लगता है और स्त्री अहम के वशीभूत होकर अपने आपको किसी भी रूप में पुरुष के आगे कम नहीं समझती.

अहम को चोट लगी नहीं कि हम बिना सोचे-समझे एक-दूसरे को गहरी चोट देने निकल पड़ते हैं. हर दिन नए-नए उपाय सोचने लगते हैं कि किस प्रकार एक दूसरे को नीचा दिखाया जाए. यह तभी होता है जब हम किसी न किसी रूप में अपने चोट खाए अहम को संतुष्ट करना चाहते हैं. अन्यथा यह सोचा भी नहीं जा सकता क्यों कि स्त्री और पुरुष के अलग अलग रूप कहीं न कहीं किसी रूप में एक दूसरे से जुड़े होते हैं.

शादी के दो दिन पहले माँ ने रसोईघर में बुलाया था. कहा कि हाथ में अंजुलि भर पानी लेकर आऊँ. खड़ी खड़ी देख रही थी कि माँ तो चुपचाप काम में लगी है और मैं खुले हाथ में पानी लेकर खड़ी हूँ. धीरज से चुपचाप खड़ी रही..कुछ देर बाद मेरी तरफ देखकर माँ ने कहा कि पानी को मुट्ठी में बन्द कर लूँ. मैं माँ की ओर देखने लगी. एक बार फिर सोच रही थी कि चुपचाप कहा मान लूँ या सोच समझ कर कदम उठाऊँ. अब मैं छोटी बच्ची नहीं थी. दो दिन में शादी होने वाली है सो धीरज धर कर धीरे से बोल उठी, 'माँ, अगर मैंने मुट्ठी बन्द कर ली तो पानी तो हाथ से निकल जाएगा.'

माँ ने मेरी ओर देखा और मुस्कराकर बोली, "देखो बेबी , कब से तुम खुली हथेली में पानी लेकर खड़ी हो लेकिन गिरा नहीं, अगर मुट्ठी बन्द कर लेती तो ज़ाहिर है कि बह जाता. बस तो समझ लो कि दो दिन बाद तुम अंजान आदमी के साथ जीवन भर के लिए बन्धने वाली हो. इस रिश्ते को खुली हथेली में पानी की तरह रखना, छलकने न देना और न मुट्ठी में बन्द करना." खुली हवा में साँस लेने देना ...और खुद भी लेना.

अब परिवार में तीन पुरुष हैं और एक स्त्री जो पत्नी और माँ के रूप में उनके साथ रह रही है, उसे किसी प्रकार का भय नहीं, न ही उसे समानता के अधिकार के लिए लड़ना पड़ता है. पुरुष समझते हैं कि जो काम स्त्री कर सकती है, उनके लिए कर पाना असम्भव है. दूसरी ओर स्त्री को अपने अधिकार क्षेत्र का भली-भांति ज्ञान है. परिवार के शासन तंत्र में सभी बराबर के भागीदार हैं.

गुरुवार, 20 मई 2010

त्रिपदम (ग्रीष्म ऋतु के)



लू सी जलती
ऋतु गर्मी की आई
धू धू करती
*
किरणें तीली
सूरज की माचिस
धरा सुलगी
*
सड़कें काली
तपती रेत जले
खुश्क हवाएँ
*
दम घुटता
धूल में घर डूबा
दीवारें रोतीं
*
रेतीला साया
दबी चहुँ दिशाएँ
घुटी हवाएँ

सोमवार, 17 मई 2010

त्रिपदम (हाइकु)

डरा कपोत

बिल्ली टोह में बैठी

बचेगा कैसे

**

सोचा मैंने भी

खामोश हूँ क्यों

बैठी जड़ सी

**

क्या मैं ऐसी हूँ

तटस्थ या नादान

भावुक जीव

**

पंछी आज़ाद

आँख कान थे बंद

ध्यान मग्न था

**

मैं-मैं या म्याऊँ

करते प्राणी सब

कौन मूर्ख

**

सभी निराले

गुण औगुण संग

स्वीकारा मैंने


रविवार, 9 मई 2010

मेरे तो लगभग सभी दिन ऐसे ही खास होते हैं..!

आज न जाने क्यों सुबह नींद ही नहीं खुली.... विजय ऑफिस चले गए..बच्चे भी कब उठ गए पता ही नहीं चला.... छोटे की आवाज़ से नींद खुली कि चाय नाश्ता तैयार है मम्मी.... फ्रेश होकर किचन में गई तो मुस्कुराते हुए बच्चों ने ‘हैप्पी मदर्ज़ डे’ कह कर स्वागत किया... मन ही मन मैं सोच रही थी कि मेरे तो लगभग सभी दिन ऐसे ही खास होते हैं.... !

पिछले कुछ दिनों से सुबह आठ बजे विजय ऑफिस के लिए निकलते तो मैं भी उनके साथ हो लेती.... मुझे सहेली के घर छोड़ते हुए विजय ऑफिस निकल जाते और शाम को घर लौटते हुए ले लेते..इस बीच दोनो बेटे खुशी खुशी अपनी पसन्द का नाश्ता बनाते खाते और मस्ती करते....दोपहर के खाने में सूप, मैकरोनी या अंडे लेते लेकिन सबसे आसान और बढ़िया लगता रोटी पर जैतून का तेल डाल कर उसपर ज़ातर (अरब का खास मसाला) लगा कर खाते. कौन जान सकता है माँ के अलावा कि यह दिन उनके सबसे मज़ेदार दिन होते हैं...

‘बच्चे बेचारे खुद ही कैसे खाना बनाते और खाते हैं?’ दो तीन करीबी रिश्तेदार ऐसा पूछ चुके हैं... हालाँकि जानते हैं कि बच्चे अब बड़े हो चुके हैं.. बड़ा बेटा इंजिनियरिंग करके मास्टर्ज़ करने की सोच रहा है और छोटे ने कॉलेज का दूसरा साल अभी खत्म किया है और समर जॉब तलाश कर रहा है.

ज्यों ज्यों बच्चे बड़े होते हैं... अपनी एक अलग दुनिया बनाने में जुट जाते हैं...वे चाहते हैं कि उन पर विश्वास किया जाए कि वे अपनी दुनिया अपने बलबूते पर बना सकते हैं...लेकिन अगर उन्हें हमारी ज़रूरत है तो हम उनकी मदद के लिए तैयार भी रहें... हम हैं कि इसी भुलावे में रहते हैं कि हमारे बिना बच्चों का गुज़ारा कैसे होगा.....

खैर....जिस सहेली के घर गई थी...उसके दो छोटे छोटे बेटे हैं. बड़ा बेटा ढाई साल का और छोटा बेटा अभी पाँच महीने का है.. हम दोनो सहेलियाँ एक साथ रियाद स्कूल में पढ़ाया करतीं थीं, अब दोनों ही नौकरी छोड़ चुके हैं. जब भी रियाद आना होता है तो मिल बैठकर ज़िन्दगी की अनबूझ पहेली को सुलझाने की बातें होती तो कभी ज़िन्दगी को उस्ताद मान कर उससे जो भी सीखा उस पर बातचीत होती...,,,,

बीच बीच में दोनों बच्चों के साथ बच्चे बनकर खेलना शुरु करते तो वक्त का पता ही नहीं चलता....कब सुबह से शाम हो जाती और विजय पहुँच जाते लेने...शाम को घर आते तो गर्मागर्म चाय के साथ बच्चे स्वागत करते....चारों साथ मिल कर चाय पीते और इधर उधर की गपशप करते....

अपनी कई छोटी बड़ी समस्याओं को सुलझाने का सबसे बढिया उपाय है एक साथ बैठकर खुलकर बातचीत करना .....लम्बे अर्से के बाद परिवार एक हुआ है तो जितना भी वक्त मिलता है , साथ साथ गुज़ारते हैं... एक दूसरे की सुनते हैं, समझते हैं.... माता-पिता का सम्मान और बच्चों से प्यार परिवार का आधार तो है ही लेकिन अगर एक और रिश्ता ‘दोस्ती’ का बना लिया जाए तो एक दूसरे को और भी ज़्यादा सम्बल मिलता है.

रविवार, 2 मई 2010

एक घर की कहानी ऐसी भी











सुमन दमकते सूरज को देखती तो कभी कार के खराब ऐ.सी को कोसती....आज कई दिनों बाद निकले सूरज देवता जैसे अपनी मौजूदगी का एहसास कराने की ठान कर उदय हुए थे...पिछले हफ्ते हल्की फुल्की फुहार से मिली शांति आज न जाने कहाँ काफ़ूर हो गई थी.... अम्माजी के लिए आँखों की दवा और माँ का चश्मा लेने छोटे बाज़ार जाना था जहाँ पार्किंग की हमेशा से ही मुश्किल रही है.... फिर भी उसने हार न मानी और कार दूर खड़ी करके चिलचिलाती धूप में सिर को दुपट्टे से ढकती बाज़ार की ओर चल दी. सुबह स्कूल जाते वक्त अचानक दूसरे कमरे से अम्माजी की धीमी लेकिन मिश्री सी मीठी आवाज़ सुनाई दी थी.....’सुमन्न्न्न्न,,,, मेरी मुन्नो.... अखाँ दी दवाई खतम हो गई है...’ ऊँचा सुनती हैं लेकिन फिर भी अपनी आवाज़ को न जाने कैसे नीचा रख पाती हैं अम्माजी ...चार दिन से दवाई खत्म ठीक और सुमन भूल जाती...आज उसने ठान ही लिया था कि जैसे भी होगा वह आज दवाई और माँ का चश्मा लाना नहीं भूलेगी....

अम्माजी...माँ की माँ हैं....मेरी प्यारी नानी जिसके पोपले से मुहँ पर हमेशा एक प्यारी सी मुस्कान रहती पर न जाने क्यों माँ के चेहरे पर वही मुस्कान कभी न देख पाती, शायद छोटी उम्र से ही पति का साथ छूटने पर समाज में अपने आप को मज़बूत दिखाने के लिए मुस्कान को चेहरे पर आने ही न दिया हो...पढ़ी लिखी न होने पर भी माँ ज़मीनों का हिसाब किताब खूब कर लेती थीं... पापाजी तो कब का छोड़ कर जा चुके थे...माँ ने ही पुश्तैनी ज़मीन्दारी की आमदनी से तीनों भाई बहन को पाल पोसकर बड़ा किया... पढ़ाया लिखाया... और अपने पैरों पर खड़ा होने की हिम्मत दी...
माँ अपनी अम्माजी की लाड़ली थीं तो नानाजी अपने दो बेटों पर घमंड करते, उनका गुणगान करते न थकते.... नानाजी ने कभी पीछे मुड़कर न देखा था...... अम्माजी की सारी खुशियाँ, सारे शौक दोनो बेटों के साथ विदेश जाकर बस गए... नानाजी बड़े मामाजी के साथ रहने अमेरिका चले गए और छोटे मामाजी ने शुरु शुरु में नानी यानि अम्माजी को आने की खूब मिन्नतें कीं लेकिन न जाने क्यों अम्माजी अपनी इकलौती बेटी को छोड़ कर न जा पाईं या शायद अपनी मिट्टी को छोड़ पाने की हिम्मत न जुटा पाईं ...यही माँ के साथ हुआ ... वीरजी कनाडा गए ....दीदी के लिए एक अच्छा लड़का मिल गया सो उसे भी वहीं बुला कर ब्याह कर दिया उसका.... पीछे रह गई सुमन ......... अम्माजी और माँ के साथ ....
दीदी जब कनाडा गईं थी उस समय सुमन ने बारहवीं पास की थी और कॉलेज में दाखिला लेने के लिए सोच रही थी....दीदी के जाते ही घर खाली खाली सा लगने लगा....आगे की पढ़ाई के लिए घर से दूर जाना मुमकिन नहीं था इसलिए पास के कॉलेज में बी.ए. पास कोर्स के लिए फॉर्म भर दिया... खाली पीरियड में घर आकर दोपहर का खाना तैयार करने में माँ की मदद करना सुमन को अच्छा लगता. कभी कभी कपड़े निचोड़ कर तार पर भी डाल जाती.... अम्माजी सुमन को देख देख खुशी से फूली न समाती...’मेरी मुन्नो... मेरी शहज़ादी... देखना शीला...राज करेगी.... ‘ माँ को कहतीं और बलाएँ लेने लगती...सुमन मुस्कुरा कर फिर से कॉलेज भाग जाती......
देखते ही देखते कॉलेज खत्म हुआ.... अपने ही स्कूल में पढ़ाने का सपना कब से सुमन की आँखों में पल रहा था....लेकिन बी.एड करने के लिए कहाँ जाए...पढ़ाने के लिए तो टीचर ट्रेनिंग भी तो चाहिए....माँ तो दूर पढ़ने के लिए भेज भी देतीं लेकिन अम्माजी की जान तो जैसे सुमन में ही थी.... उन दिनों पत्राचार के माध्यम से रोहतक से बी.एड हुआ करती थी सो वहीं से बी.एड कर ली. ....अपने ही स्कूल में नौकरी की अर्ज़ी देते ही वहाँ गणित की टीचर भी लग गई....
अम्माजी और माँ के साथ सुमन के दिन मज़े से कट रहे थे....कुछ अपने जो सात समुन्दर पार थे, कभी उनकी याद आती लेकिन जल्दी ही उदासी दूर भी हो जाती ...यह सोचने की फुर्सत ही नहीं थी कि वे लोग इतनी दूर क्यों जा बसे..विदेश में सभी खुशहाल हैं फिर क्यों उदास होना,,यह सोच कर सुमन नानी और माँ को पल भर में बोझिल माहौल से बाहर ले आती...लेकिन कभी कभी उन दो जोड़ी बूढ़ी आँखों में एक वीराना सा इंतज़ार दिखता..वह भी कुछ पल के लिए फिर सुमन की खिलखिलाती हँसी में कहीं गुम हो जाता....
माँ की सहेली शोभा  जब भी आती सुमन को अपने घर की बहू बनाने का सपना लेकर जाती और फिर टूटे सपने के साथ फिर लौट कर आती....एक एक करके उनके दोनों बेटे विदेश जा बसे थे और वहीं अपने घर भी बसा लिए थे..... लेकिन शोभा  के जेठ जेठानी का इकलौता बेटा उन्हीं के साथ ही रहता था....कुरुक्षेत्र के एक कॉलेज में प्रोफेसर था... अपने खुद के पैसे से मकान खड़ा किया था उसने...कार और मोटर साइकल थी... दहेज के सख्त खिलाफ....लेकिन लड़की को खाली हाथ तो ले जाना नहीं था...दहेज के रूप में अम्माजी और माँ को साथ ले जाने की ज़िद...
पहली बार माँ की आँखों को डबडबाते देखा था.... उन्होंने अशोक का माथा चूम लिया था....ढेरों आशीष देकर गले से लगा लिया था....तब से लेकर आज तक माँ और अम्माजी ने कभी अशोक को दामाद नहीं माना...और अशोक भी तो सोने से खरे स्वभाव जैसे हैं...
‘बहनजी, चश्मा तैयार हो गया है... इतना इंतज़ार करवाने के लिए माफ़ी चाहता हूँ’ गुप्ता ओप्टिकल के एक कर्मचारी के कहने पर सुमन के विचारों की तन्द्रा टूटी.... ओह... स्कूल से निकले पूरे दो घंटे हो गए थे...सुधा बेटी घर पहुँच चुकी होगी....और मम्मी को न देख कर सारा घर आसमान पर उठा लेगी....सोचते सोचते सुमन के पैरों में तेज़ी आ गई थी....कार के शीशे खोल कर अन्दर बैठी सुमन ने सीधा घर जाने की सोची...... एक बार ख्याल आया कि अशोक को भी कॉलेज से ले लूँ लेकिन एक और घंटे की देरी हो जाएगी....
आजकल सुधा अपने कॉलेज मोटर साइकिल पर जाती है... अशोक ने खुद ही बेटी को मोटर साइकिल चलाना सिखाया है......कभी बेटी या बेटे में फ़र्क नहीं किया.... पीयूष छोटा भाई है सुधा का....कभी कभी बड़ा भाई बनने की कोशिश करता है लेकिन सुधा उसे फिर से सीधा कर लेती है.....पीयूष भी कम नहीं है...चुप हो जाता है...जानता है कुछ दिनों के बाद मोटर साइकिल उसकी ही होने वाली है....
चार बजने वाले थे...सुमन घर पहुँची तो सुधा को माँ के साथ रसोई में देखा...आँखों ही आँखों में माँ को शुक्रिया अदा करके सुमन अम्माजी को आँखों की दवा देकर फ्रेश होने चली गई....पाँच बजे अशोक और पीयूष घर आ जाएँगे...उन दोनो के आने से पहले ही सुमन फ्रेश होकर रसोईघर में माँ का हाथ बँटाने आ गई....
कॉलेज से आकर अशोक अम्माजी और माँ के साथ बैठकर जब तक चाय की चुस्कियों के साथ कॉलेज की गपशप न कर लें...उन्हें मज़ा ही नहीं आता...इसी बीच कब सुधा और पीयूष को साथ बैठने की आदत हो गई ...पता ही नहीं चला.... दोनो भाई बहन बड़ी नानी और छोटी नानी के दीवाने हैं..
सुमन को यही शाम का वक्त सबसे अच्छा लगता है जब सब मिल कर चाय के खनकते प्यालों के साथ खिलखिलाते भी हैं, यही पल तो सारे दिन की थकान को दूर भी कर देते हैं......
सुमन सोचने पर मजबूर हो जाती है कि आजकल जितना भी देखने सुनने को मिलता है.... कहाँ कुछ कमी रह जाती है कि घर के बड़े बुज़ुर्ग अपने ही बच्चों द्वारा उपेक्षित होने लगते हैं...
(सुमन की कहानी का सच वास्तविक जीवन से जुड़ा है..ऐसे बहुत से परिवार होंगे जहाँ जो है , जैसा है...उसे वैसे का वैसा ही स्वीकार किया जाता होगा....)
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