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शुक्रवार, 28 सितंबर 2007

वासन्ती वैभव


वात्सल्यमयी वसुधा का वासंती वैभव निहार
गगन प्यारा विस्मयविमुग्ध हो उठा।
धानी आँचल में छिपे रूप लावण्य को
आँखों में भर कर बेसुध हो उठा।

सकुचाई शरमाई पीले परिधान में
नवयौवना का तन-मन जैसे खिल उठा।
गालों पर छाई रंग-बिरंगे फूलों की आभा
माथे पर स्वेदकण हिमहीरक सा चमक उठा।

चंचल चपला सी निकल गगन की बाँहों से
भागी तो रुनझुन पायल का स्वर झनक उठा।
दिशाएँ बहकीं मधुर संगीत की स्वरलहरी से
मदमस्त गगन का अट्ठहास भी गूंज उठा।

महके वासंती यौवन का सुधा-रस पीने को
आकुल व्याकुल प्यासा सागर भी मचल उठा।
चंदा भी निकला संग में लेके चमकते तारों को
रूप वासंती अम्बर का नीली आभा से दमक उठा।

कैसे रोकूँ वसुधा के
जाते वासंती यौवन को
मृगतृष्णा सा सपना सुहाना
सूरज का भी जाग उठा
पर बाँध न पाया रोक न पाया
कोई जाते यौवन को
फिर से आने का स्वर किन्तु
दिशाओं में गूंज उठा ।।

3 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

जितना भव्य और सुन्दर चित्र है उतनी ही सुन्दर अभिव्यक्ति भी. वाह!! बधाई.

Divine India ने कहा…

मैं तो अभी-तक यही सोंच रहा हूँ कि यह अभिव्यक्ति चित्र को देखते हुए निकली या अभिव्यक्ति में ही चित्र उभर आया…
क्या कहा जाए… मेरी कुछ पसंदीदा रचना में यह
आगई है… बहुत ही सुंदर कल्पना की उड़ान, सौंदर्य और जिज्ञासा का अद्भुत संगम…।
मेरे पढ़ने के लिए एक अच्छी जगह…।

Sanjeet Tripathi ने कहा…

सुंदर!! फोटो भी और शब्द श्रृंगार भी!!