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गुरुवार, 13 सितंबर 2007

निराशा मुक्त


रसोई-घर से निकल , बैठी लेकर कागज़ पेन
लिखने बैठी कविता एक , हास्य व्यंग्य की
शब्द और भाव तलाश रही थी कि कि
अचानक बड़े बेटे की पुकार आई
"माँ , मेरा पायजामा तलाश कर दो प्लीज़"
झट से उठ पायजामा तलाश दिया उसे
छोटे बेटे को कहानी की किताब थमाई।
फिर से कमर कस बैठी और सोचा
दो पंक्तियाँ तो अवश्य लिख ही डालूँगीं ।
दिल औ' दिमाग पर छाई खीज के कोहरे को
यत्न से साफ़ किया ही था कि
पतिदेव दो मित्रों को साथ ले पधारे बोले ,
"अतिथि दो, भगवान का रूप लिए विराजे हैं
'अतिथि देवो भवः' सोच कर उठी मैं
मन में क्रोध , होठों पर मुस्कान लिए
अतिथि सत्कार किया सुसंस्कार लिए।
अर्धरात्रि तक काम समेट थककर चूर हुई
कक्ष में पहुँची गहन-निराशा में डूबी हुई
चित्त पर छाया क्रोध , हास्य-रस था नहीं
पति की आँखों में आभार, होठों पर मधुर मुस्कान थी
सोचा सब छोड़ यदि हास्य व्यंग्य की कविता लिखती ।
स्थिति होती घर की हास्यप्रद, व्यंग्य का निशाना बनती।
कविता न लिखने की गहन-निराशा से मुक्त होकर
पति के प्रेमपाश में सुख की आशा से बँधने लगी मैं।।

3 टिप्‍पणियां:

Yatish Jain ने कहा…

आपने कई लोगो के मन की बात कह दी, मेरे साथ भी बहुत बार ऐसा होता है बस जगह और पात्र बदल जाते है

बेनामी ने कहा…

mubarak !

बेनामी ने कहा…

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