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शुक्रवार, 18 मार्च 2011

एक नया सफ़रनामा








एक हफ्ते से सोच रहे हैं कि कैसे पतिव्रता नारी बन कर दिखाएँ... इतने दिनों बाद रियाद लौटे हैं.... पतिदेव की कुछ सेवा की जाए...... लेकिन साहब हैं कि हम से पहले ही उठ कर तैयार हो कर ..नाश्ता वाश्ता करके हमें ‘गुड मॉर्निग’ कह कर निकल जाते हैं....नींद को झटका देकर जब तक आँख खुलती है तो वे निकल चुके होते हैं....

सारा दिन इसी सोच में गुज़र जाता है कि अगले दिन पक्का उठेंगे....

अभी तक तो सफ़लता मिली नहीं ,,,, जाने कल .......

घर के सामने ही मस्ज़िद है... फ़ज़र की अज़ान बहुत ज़ोरों से होती है लेकिन न जाने क्यों हमें ही सुनाई नहीं देती..विजय के लिए अज़ान सुनते ही फौरन उठ जाते हैं...आँखों पर सूरज की तेज़ किरणें दस्तक देतीं हैं तो नींद खुलती है.......खिड़की खोलते हैं तो उसी मस्ज़िद की मीनार के पीछे से चिलकता सूरज आग उगलता सा घूरता सा देख रहा होता है..... सूरज को प्रणाम करके वहीं खिड़की की ओट में बैठ जाते हैं..प्रणाम करते ही सूरज देवता प्रसन्न हो जाते हैं....ताज़ी हवा का झोंका और सूरज की मुस्कुराहट तन मन को गहरे तक तरो ताज़ा कर देती हैं... बरसों बाद ऐसा मौका मिला है कि बिस्तर पर बैठे बैठे ही उदय होते सूरज को निहारने का मौका मिल रहा है...

वहीं बैठ कर सुबह की पहली चाय की चुस्कियाँ लेती हूँ... कभी कभी यह एकांतवास भी मन को अच्छा लगता है ....दिल्ली में काम वाली बाई की खटपट , धोबी और कूड़ा ले जाने वाले की आवाज़ें... कबाड़ी और सब्ज़ीवाले की सुरीली तानें ...कुछ भी तो नहीं सुनाई देता.... चार पाँच बार अज़ान की सदा और आती जाती कारों की आवाज़ें .... बस...इतना ही.... हॉर्न तो यहाँ बजता ही नहीं....

विजय जानते हैं कि यहाँ आकर हम लिखने पढने के अलावा कुछ भी नहीं कर सकते.... इसलिए अपना लैपटॉप घर पर रख कर जाते हैं... मेरा लैपटॉप रिपेयर के लिए गया हुआ है... खैर...... लिखने से ज़्यादा पढने का भूत सवार रहता है ...... जाने क्यों.... शायद अपने ही मन की बात किसी न किसी ब्लॉगर के लेखन में पढ़ कर महसूस होता है कि यही तो था मेरे मन में...उन्हें पढ़कर बेहद सुकून मिलता है....


मंगलवार, 15 मार्च 2011

ब्लॉग जगत के सभी नए पुराने मित्रों को प्रणाम !

मानव प्रकृति ऐसी है कि एक बार जिससे जुड़ जाए फिर उससे टूटना आसान नहीं होता चाहे फिर 7 महीने और 10 दिन का अंतराल ही क्यों न आ जाए.... इससे पहले भी लम्बे अंतराल आए लेकिन घूम फिर कर फिर आ पहुँचते इस विराट वट वृक्ष की छाया तले..... जड़े गहरी हैं... शाखाएँ अनगिनत...हर बार नन्हीं नन्हीं नई शाखाएँ उभरती दिखाई देतीं.... पुरानी और भी मज़बूत होती , जड़ों से जुड़ती दिखती हैं.....

आजकल एकांतवास में हैं...सहेज कर रखे हुए अपने ब्लॉग को एक अरसे बाद जतन से खोला....एक अजब सा भाव मन को छू गया.....उदास , ख़ामोश और खाली खाली सा लगा.... पहले सोचा वादा करते हैं कि अब नियमित आते रहेंगे, फिर सोचा नहीं नहीं.... अगर न पाए तो....... कितनी बार ऐसा हो चुका है कि नियमित होने का वादा निभा नहीं पाए......

जब भी मौका मिलेगा ज़िन्द्गी के इस सफ़र की छोटी छोटी यादों का ज़िक्र करने आते रहेगे.....

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

मैं अपराधिनी.....!

पिछली पोस्ट में अपने आप को अनफिट कहा क्योंकि अपने देश के साँचे में फिट होने के लिए तपने की ज़रूरत है, वैसा न करके हम पाप के भागीदार हो जाते हैं..... आज कहती हूँ कि मैं अपराधिनी भी हूँ ..... अत्याचार करने वाले से अधिक अत्याचार सहने वाला दोषी होता है...... कई दिनों का मौन आज टूटा जब रसोईघर की अल्मारियों को अन्दर से पैंट करने के लिए खोला गया....... पड़ोसी ने बेदर्दी से किचन की दीवार ऐसे तुड़वाई जिसे देख कर एक और सदमा लगा..... किचन केबिनेट के अन्दर टूटी दीवार देख कर दिल बैठ गया..... इंसान इतना स्वार्थी हो गया है कि एक पल के लिए नहीं सोचता कि खाली हाथ आए हैं खाली हाथ ही जाना है.....
मन ही मन अपने आप को कई नाम से पुकारने लगती हूँ....कभी अपने आप को कोसती हूँ कि क्यों नहीं घर के बाहर खड़ी होकर ज़ोर ज़ोर से चिल्ला कर पड़ोसी की सोई हुई आत्मा को जगा दूँ.... फिर खुद ही अपने आप पर हँसने लगती हूँ ..... सोई हुई आत्मा को तो जगाया जा सकता है लेकिन जहाँ आत्मा मर चुकी हो वहाँ पत्थर पर सिर पटकने वाली बात हो जाती है........
कहा जाता है 'यथा राजा, तथा प्रजा' फिर लोगों को दोष देने का कोई लाभ नहीं..... घर के पिछवाड़े पानी की अनगिनत टंकियाँ बहती हुई देख कर लगता है जैसे इंसानियत बह कर गटरों में गुम हो रही है...... क्यों न हो...जब देश के नेता दूध के टैंक सड़कों पर बहाते हुए नहीं सोचते कि हज़ारों नवजात शिशु दूध के बिना मर जाते हैं....

















डी.डी.ए के बन्द फ्लैट की किचन के ऊपर टॉयलेट.... !!!!






गुरुवार, 17 जून 2010

अपने देश के साँचें में अनफिट... !!!!!

कई साल विदेश रहने के बाद लगता है कि अब अपने देश के साँचें में फिट नहीं हो पाते....दोस्त बना कर उल्लू सीधा करने में माहिर नहीं है इसलिए लगता है कि हमें अपने देश में रहने का कोई हक नहीं है..... चालाकी...धूर्तता....स्वार्थ साधने की कला में कुशल नहीं तो यहाँ आकर बेवकूफ ही गिने जाएँगें....

पिछले साल बड़े बेटे की सर्जरी के सिलसिले में दिल्ली आए तो लगभग साल भर रुकना पड़ा...उस दौरान कई बार चाहा कि यहाँ रहने के अपने अनुभव लिखित रूप में दर्ज किए जाएँ लेकिन समय ही नहीं मिला.... उसी दौरान जाना कि अगर पड़ोसी अच्छे नहीं मिलते तो समझिए आपसे बड़ा अभागा कोई नहीं.... उससे बड़ा अभागा वह जिसे धूर्त, चालाक और स्वार्थी पड़ोसी मिल जाएं....

चित्रों देखिए और समझिए कि कैसे एक पड़ोसी आपको बेवकूफ बना सकता है.......

छह महीने बाद हम और माँ घर लौटे तो देख कर हैरान कि किस तरह से कोई किसी की शराफत का नाजायज़ फ़ायदा उठा सकता है.....

घर का रूप रंग बिगड़ चुका था.... डोर बैल का कनैक्शन कट चुका था...टीवी की केबल वायर का कोई अता पता नहीं था.... बाहर मेन गेट की बिजली भी नदारद थी.... शुक्र हो छोटी बहन का जिसने मज़दूर बुला कर बाहर के मेन गेट से इमारत बनाने का सामान उठवा कर अन्दर आने की जगह बनवा दी थी....

जैसे तैसे रात गुज़री .... अगली सुबह पीछे का दरवाज़ा खोलने का सोची तो पता चला कि पीछे से सीमेण्ट की चादरों के कारण दरवाज़ा खुल ही नहीं सकता... कलेजा मुहँ को आ गया... लोग कैसे इतने सम्वेदनहीन हो जाते हैं कि किसी की छोटी छोटी सुविधाओं को भी नज़रअन्दाज़ कर जाते हैं.....

नाश्ते के बाद अगला कमरा देखा तो हैरान रह गए..... कैसे उस कमज़ोर कमरे को ढकने की कोशिश की गई थी.....पहले से ही कमज़ोर कमरे के कन्धे टूट चुके थे... जिन दीवारों के गिरने

के डर से कोई वहाँ जाता नहीं था उसी की दीवारों पर दो दो ईंटों का सहारा देकर नई छत बना ली गई थी.....

पहली बार जाना कि यहाँ के कुशल ठेकेदार पुरानी कमज़ोर छत के ऊपर दो ईटों के सहारे पर एक नई छत भी बना सकते हैं.... हैरानी उस ठेकेदार की बहादुरी पर भी है या पैसा इस कदर ज़रूरत बन गया है कि कोई भी अपना ईमान बेचने पर तैयार हो सकता है.... कमज़ोर दीवारें..कमज़ोर छत और उस पर नई छत बना कर.... बीच के हिस्से को चालाकी से ढक कर लोगों की ज़िन्दगी को खतरे में डाल दिया जाता है....

ऐसी ही कई छोटी छोटी बातें होती हैं जिन्हें देख सुन और अनुभव करके लगता है कि आत्माएँ मर चुकी हैं.... या भारी स्वार्थ के नीचे दब चुकी हैं

आज से अपने बच्चों को कभी अपने देश में बसने के लिए नहीं कहूँगी....अपनी जन्मभूमि है तो यहाँ आने से कोई रोक भी नहीं सकता... कोसेंगे, कुढेगें , निन्दा करेंगे लेकिन फिर भी आते जाते रहेंगे...!

(मन के भाव पढ़े....चित्र देखे..... आप क्या कहते हैं.....क्या पता हर चौथे पाँचवें पड़ोसी के साथ ऐसा ही होता हो...... बताइए ....मन को कुछ राहत मिले....







गेट पर ताला है लेकिन बिना पूछे कंसट्रक्शन शुरु कर दी.















छत और दीवारें कमज़ोर हैं... लेकिन पुरानी छत को तोड़े बिना ही ऊपर छत और बाल्कनी बनाई जा रही है.












छत का एक कोना टूट रहा है..










दबाव डालने पर शायद कच्चा पक्का कॉलम डाल दिया गया बिना बीम के....

















बेचारी रोती छत.... जिस पर एक और नई छत का भार ....















मेन गेट के ऊपर के छज्जे को गिरा दिया गया... न रही लाइट और न पता चला कि डोर बैल की तार कहाँ से गुज़र रही थी...

















आगे का हिस्सा... जहाँ कहने पर दो कॉलम बस दिखावे मात्र के लिए खड़े कर दिए गए....
















गेट के बिल्कुल सामने पड़े इस ढेर को हमारे आने से एक दिन पहले छोटी बहन और उसके पति ने उठवाया...












ड्रेन पाइप से सजा मेन गेट





















पीछे का दरवाज़ा सीमेण्ट की चादरों से बन्द...


















शनिवार, 12 जून 2010

आज भी उसे इंतज़ार है .. !


















एस.एम. बेहद खुश थी...बारटैंडर ने वोडका का तीसरा गिलास उसके सामने रख दिया था... तीसरे गिलास के बाद न पीने का वादा मन ही मन किया...लज़ानिया ठंडा हो चुका था...उसने काँटे से एक टुकड़ा काटना चाहा लेकिन चीज़ का लम्बा धागा खिंचता चला गया और उसने उसे वापिस प्लेट में रख दिया...
बहुत देर से वह एम.के. को दूर से ही देख रही थी...वह भी अकेला बैठा था... एक ही गिलास कब से उसके सामने था जिसे खत्म करने का कोई इरादा नहीं लग रहा था उसका...न जाने कैसा आकर्षण था उसमें......कई बार दोनो की नज़रें मिलीं........ किसी दूसरे देश में किसी अजनबी के साथ बात करने का कोई कारण नहीं था.... इसलिए एस.एम ने अपनी आँखें बन्द कर ली और संगीत का आनन्द लेने लगी...
हमेशा की तरह संगीत सुनते ही उसकी भूख प्यास खत्म हो जाती और पैर थिरकने लग जाते......उसे संगीत के लिए किसी भाषा की ज़रूरत नहीं लगती थी.....मधुर लय पर पैर अपने आप ही थिरकने लगते.... अपनी धुन में मस्त उस पल को पूरी तरह से जीना चाहती थी.. आँखें अधखुली सी...होठों पर मुस्कान..... एक ही साँस में वोडका खत्म करके वह अकेली ही डांस फ्लोर पर जाकर खड़ी हो गई..... धीरे धीरे संगीत की धुन तेज़ होती जा रही थी....उसके पैर भी उतनी ही तेज़ी से थिरक रहे थे.......... अचानक लड़खड़ा कर गिर जाती कि अचानक किसी ने उसे सँभाल लिया....
उसकी मज़बूत बाँहों के घेरे में आते ही एस.एम को एक अजब सी कँपकँपी हुई... एम.के. ने उसे लपक कर पकड़ लिया था.....उसकी आँखों में गज़ब की कशिश थी...........उसकी आँखों की तेज़ चमक देखकर एस.एम. झेंप गई....उसे लगा जैसे उसकी चोरी पकड़ी गई हो....सँभलने की कोशिश में फिर से लड़खड़ा गई....एम.के. की बाँहों में आते ही जैसे उसे बहाना मिल गया अजनबियत दूर करने का...
उसने किसी तरह से अपने आप को समेटा...एम.के. ने पूछा कि वो ठीक तो है...एस,एम. ने शुक्रिया कहना चाहा लेकिन संगीत की ऊँची आवाज़ में दोनों की आवाज़ें दब रही थीं...दोनों बाहर लॉबी में आ गए... पल भर में दोनों का अजनबीपन दूर हो गया...... एम.के. व्यापार के सिलसिले में यहाँ आया था.... एस.एम. छोटी बहन के घर छुट्टियाँ बिताने आई थी...
धीरे धीरे एम.के. और एस.एम. की मुलाकातें बढ़ती गईं... दोनों आज़ाद पंछी जैसे खुले आसमान में जी भर कर उड़ने लगे थे ....दोनों के दिल और दिमाग में रंग-बिरंगी तितलियाँ बस गईं थी...एक दूसरे की खुशबू ने मदमस्त कर दिया था.... कुछ दिन जैसे कुछ पलों में बीत गए... एक दिन अचानक एम.के. वापिस आने का वादा करके चला गया......
मॉम्म्म्म्म...प्लीज़्ज़्ज़्ज़्ज़ डोंट गो आउट टुडे ..... बेटे की आवाज़ सुनकर एस.एम के बाहर जाते कदम अचानक रुक गए...लेकिन.....'आई विल कम बैक सून...माई लव' कहती हुई वह निकल जाती है.....चार साल से हर शाम एस.एम. उसी 'बार' में जाती..... एक गिलास वोडका लेती और कुछ देर बैठ कर लौट आती....
आज भी उसे इंतज़ार है एम.के. का........

मंगलवार, 8 जून 2010

मन ही मन वे बिखर रहे थे....!













एक था मुन्ना , एक थी नन्हीं
नट्खट मुन्ना, चंचल नन्हीं

भाई बहन में कभी न बनती
सुबह शाम झगड़े में कटती

नए नए खिलौने आते
मुन्ने को फिर भी न भाते

तोड़-फोड़ करता था मुन्ना
फिर भी था मम्मी का बन्ना

नन्हीं की थी बस इक गुड़िया
वही थी उसकी बस इक दुनिया

नन्हे हाथों से उसे सजाए
लोरी गाकर उसे सुलाए

परियों की शहज़ादी थी
अपने पापा की प्यारी थी

इक दिन मम्मी पापा में
हुई लड़ाई ज़ोर ज़ोर से

कई दिनों तक चुप्पी छाई
मुन्ना नन्ही को कभी न भाई

मुन्ना जब भी झगड़ा करता
नन्ही रूठ के रोती चिल्लाती

मम्मी पापा हरदम कहते
बार बार यही समझाते

झगड़ा करना बुरी बात है
रूठ के रोना बुरी बात है

झगड़ा करके हम गले थे लगते
मम्मी पापा क्यों ऐसा न करते

मम्मी पापा झगड़ा क्यों करते
रूठ के दोनो बात न करते

भोले बच्चे समझ न पाए
मम्मी पापा ऐसा क्यों करते

मम्मी पापा अलग हुए थे
दोनो बच्चे सहम गए थे

पापा संग गई सुबकती नन्ही
रोते मुन्ने को ले गई थी मम्मी

दोनो बच्चे बिछुड़ गए थे
मन ही मन वे बिखर गए थे.....!!


( विवाह सूत्र में बँधने से पहले अगर हम पूरी तरह से तैयार हो जाएँ और समझे कि हम समाज के एक पुण्य कर्म में हिस्सा लेने जा रहे हैं जिसे हमने बखूबी निभाना है तो मुश्किलें कम हो जाएँ.... लेकिन अक्सर उसके विपरीत होता है और समाज की जड़ें कमज़ोर होने लगती हैं)



शुक्रवार, 4 जून 2010

मेरे घर के आँग़न में









एक जून , मंगलवार की रात शारजाह एयरपोर्ट उतरे.. ज़मीन पर पैर रखते ही जान में जान आई... जब भी हवाई दुर्घटना की खबर पढ़ते तो एक अजीब सी बेचैनी मन को घेर लेती... फिर धीरे धीरे मन को समझा कर सामान्य होने की कोशिश करते.... लेकिन रियाद से दुबई आने से पहले एक बुरा सपना देखा था जिसमें दो हवाई जहाज आसमान में आपस में टकरा कर गिर जाते हैं और हम कुछ नहीं कर पाते...जड़ से आकाश की ओर देखते रह जाते हैं...

पैसे की बचत की दुहाई देकर हमने पतिदेव से कहा कि बस से चलते हैं जो बहुत आरामदायक होती हैं...लेकिन 12 घंटे के सफ़र की बजाए डेढ़ घंटे का सफ़र ज़्यादा सही लगा उन्हें और अंत में हवाई यात्रा ही करनी पड़ी.... सालों से सफ़र करते हुए हमेशा ईश्वर पर विश्वास किया ..ऐसे कम मौके आए जब हमने विश्वास न किया हो और बाद में लज्जित होना पड़ता...सोचते सोचते दुखी हो जाते कि कितने एहसानफ़रामोश हैं जो उस पर शक करके भी सही सलामत ज़मीन पर उतर आते हैं...

मंगलवार की रात नीचे उतरे तब भी ऐसा ही महसूस हुआ... फिर से उस असीम शक्ति से माफ़ी माँगी और छोटे बेटे को गले लगा लिया जो लेने आया था.....एयरपोर्ट शारजाह में और घर दुबई में ...दूरी लगभग 35-40 किमी....पहली बार बेटा ड्राइविंग सीट पर था और पिता पिछली सीट पर मेरे साथ बैठे थे.....120-130 की स्पीड पर कार भाग रही थी लेकिन डर नहीं लगा शायद धरती का चुम्बकीय आकर्षण....ममता की देवी माँ की गोद में बच्चे को बिल्कुल डर नहीं लगता लेकिन पिता की गोद में बच्चा फिर भी डरता है... उसका अतिशय बलशाली होना भी शायद बच्चे को असहज कर देता है, शायद मुझे धरती माँ भोली भाली से लगती है और आसमान गंभीर पिता जैसे लगते....

11 बजे के करीब घर पहुँच गए....अपनी तरफ से दोनो बच्चों ने घर को साफ सुथरा रखा हुआ था... बड़े बेटे के हाथ की चाय पीकर सारी थकान ग़ायब हो गई....फिर सिलसिला शुरु हुआ छोटी छोटी बातों पर ध्यान देने का.... डिनर का कोई इंतज़ाम नहीं था... बड़े ने लेबनानी खाना और छोटे ने 'के.एफ.सी' पहले ही खा लिया था...छोटा बेटा हमें घर छोड़ कर किसी काम से बाहर निकल गया, यह कह कर कि वह जल्दी ही खाना लेकर लौटेगा लेकिन महाशय पहुँचे देर से....

जब भी आवाज़ ऊँची होने को होती है तो जाने कैसे दिल और दिमाग में चेतावनी की घंटी बजने लगती है और हम दोनो ही शांत हो जाते हैं.... बच्चे खुद ब खुद समझ कर माफ़ी माँगने लगते हैं....मुस्कुरा कर हमारी ही कही बातें हमें याद दिलाने लगते हैं कि इंसान तो कदम कदम पर कुछ न कुछ नया सीखता ही रहता है और माहौल हल्का फुल्का हो जाता .... मुक्त भाव से खिलखिलाते परिवार को देख कर मुक्त छन्द के शब्द भी भावों के साथ मिलजुल कर खिलखिला उठते......


मेरे घर के आँगन में...

छोटी छोटी बातों की नर्म मुलायम दूब सजी

कभी कभी दिख जाती बहसों की जंगली घास खड़ी

सब मिल बैठ सफ़ाई करते औ’ रंग जाते प्रेम के रंग....


मेरे घर के आँगन में......

नन्हीं मुन्नी खुशियों के फूल खिले हैं..

काँटों से दुख भी साथ लगे हैं...

खुशियाँ निखरें दुख के संग ...


मेरे घर के आँगन में .....

नहीं लगे हैं उपदेशों के वृक्ष बड़े..

छोटे सुवचनों के हरे भरे पौधे हैं....

खुशहाली आए सुवचनों के संग..


मेरे घर के आँगन में...

पता नहीं क्यों बड़ी बड़ी बातों के

खट्टे खट्टे नीम्बू नहीं लगते..

छोटी छोटी बातों की खुशबू तो है...


मेरे घर के आँगन में....

उड़ उड़ आती रेत जलन चुभन की

टीले बनने न देते घर भर में

बुहारते सरल सहज गुणों से


मेरे घर के आँग़न में

उग आते मस्ती के फूल स्वयं ही

उड़ उड़ आते आज़ादी के पंछी

आदर का दाना देते सबको


मेरे घर के आँग़न में

विश्वास का पौधा सींचा जाता

पत्तों को गिरने का डर नहीं होता

प्रेम से पलते बढ़ते जाते..


मेरे घर के आँगन में....

बहुत पुराना प्रेम वृक्ष है छायादार

सत्य का सूरज जगमग होता उस पर

देता वो हम को शीतलता का सम्बल हर पल