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शनिवार, 10 नवंबर 2007

दीपावली की पूजा !

खामोश घर में एक अजीब सी बेचैनी के साथ हम बैठे सोच रहे थे कि पर्वों का महत्त्व परिवार और मित्रों के साथ ही होता है. पर्व मनाए ही इसलिए जाते हैं कि आपस के मेल-मिलाप से प्रेम और भाईचारे का भाव बढ़े.
दीपावली का पर्व मिले जुले अनुभवों के साथ कुछ यादें छोड़ कर बीत गया. शायद यही पर्व व्यस्त जीवन में खुशी के दो पल देकर उर्जा प्रदान करते हैं. जीवन फिर से पुराने ढर्रे पर चलना शुरु हो जाता है. हम एक नए उत्साह के साथ संघर्षो से जूझने को तैयार हो जाते हैं.
अभी हम सोच ही रहे थे कि छोटी बहन का फोन आया. फोन पर बात कम और पटाखों की आवाज़ ज़्यादा आ रही थी. हँसते हुए बहन ने कहा कि पटाखों और संगीत की आवाज़ सुनकर ही मन को समझा लो. लेकिन ऐसा हो न सका.
माता-पिता और बच्चे परिवार की सबसे करीबी इकाई होते हैं. बेटे पिता को याद कर रहे थे जो काम के कारण आ नही सकते थे. उस समय एक दो मित्र भी बहुत बड़ा सहारा बन कर खुशी दे गए.
बहुत पहले पति एक लकड़ी की जड़ लेकर आए थे जो ओम की आकृति की थी लेकिन थोड़ा घुमा कर रखने पर वही ओम अल्लाह के रूप में दिखने लगता. हमने निश्चय कर लिया कि इसी लकड़ी के ओम की पूजा की जाएगी और साथ मे चाँदी के सिक्के को रखा जाएगा जिस पर एक तरफ गणेश जी और दूसरी तरफ लक्ष्मी जी का चित्र होता है.
पूजा की थाली सजाई गई जिसमें लकड़ी का ओम और चाँदी का सिक्का रखा गया. ताज़े फल और फूल के साथ दूध जलेबी. दिए की जलती लौ और अगरबत्ती से घर भर में एक अजीब सी चमक और महक फैल रही थी. संस्कृत के श्लोक, जो समझ में कम आते हैं लेकिन एक अद्भुत शक्ति का संचार करते हैं, सारे घर में गूँज उठे.
परिवार और मित्रों के लिए ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में सुख-शांति की कामना करते हुए हाथ जोड़ दिए.

बुधवार, 7 नवंबर 2007

प्राणों का दीप


















प्राणों का दीप जलने दो
जीवन को गति मिलने दो !

विश्व तरु दल को न सूखने दो
वसुधा को प्रेमजल सींचने दो !

विषमता का शूल न चुभने दो
जीवन-पथ को निष्कंटक करने दो !

अनिल से अनल को मिलने दो
प्रचंड रूप धारण करने दो !

सिन्धु-सरिता की सुषमा बढ़ने दो
धरा-अंबर की शोभा निखरने दो !

घन-चंचला कुसुम खिलने दो
विश्व उद्यान माधर्य बढ़ने दो !

प्राणों का दीप जलने दो
जीवन को गति मिलने दो !!

मंगलवार, 6 नवंबर 2007

मेरे पास सिर्फ एक लम्हा है !


मृत्यु अंधकारमय कोई शून्य लोक है

या

नवजीवन का उज्ज्वल प्रकाशपुंज है

या

मृत्यु-दंश है विषमय पीड़ादायक

या

अमृत-रस का पात्र है सुखदायक


तन-मन थक गए जब यह सोच सोच
तब मन-मस्तिष्क मे नया भाव जागा ------


मेरे पास सिर्फ एक लम्हा है
जो प्यार से लबालब भरा है !!

इस लम्हे को बूँद बूँद पीने दो
इस लम्हे को पल-पल जीने दो !

उसे बचपन सा मासूम ही रहने दो
मस्त हवा का झोंका बन बहने दो !

यौवन रस उसमें भर जाने दो
झर-झर झरने सा बह जाने दो !

इस लम्हे को ओस सा चमकने दो
इस लम्हे को मोम सा पिघलने दो !

पतझर के पत्तों सा झर जाने दो
झरझर कर पीले पत्तों सा गिर जाने दो !

लम्हा बना है अनगिनत पलों से कह लेने दो
लम्हा अजर-अमर है, इस मृग-तृष्णा में जीने दो !!

सोमवार, 5 नवंबर 2007

'जब मैं मर गया उस दिन' /'जब मैं मर जाऊँ उस दिन'



कभी कभी ऐसा संयोग होता है कि हम हैरान रह जाते हैं. अभी परसों ही रवीन्द्र जी का व्यंग्य लेख 'जब मैं मर गया उस दिन' पढा था और उसके बाद चिट्ठाकारों की टिप्पणियाँ भी पढ़ने को मिलीं. उच्च कोटि का व्यंग्य सबने सराहा. 'जब मैं मर जाऊँ उस दिन' यह बात आज अपने बेटे के मुँह से सुनने पर मैं सकते में आ गई. कोई टिप्पणी नहीं सूझ रही थी. साहित्यकार, लेखक , चिट्ठाकार और कवियों की मृत्यु पर लिखी गई रचनाओं को हम ध्यान से पढ़ते हैं और प्रशंसा भी करते हैं लेकिन जब अपनी संतान इस तरह के विषय पर चर्चा करना चाहे तो हम उनका मुँह बन्द कर देना चाहते हैं.
पहली बार अनुभव हुआ कि पढ़ने और सुनने में पीड़ा अलग-अलग थी. पता नहीं क्यों आज अचानक बेटे को सूझा कि माँ को सामने बिठा कर इसी विषय पर ही चर्चा करनी है कि 'जब मैं मर जाऊँ उस दिन' उसे चेरी के सुन्दर पेड़ के नीचे ही सदा के लिए सुला दिया जाए. दार्शनिक बना बेटा माँ को समझाने की कोशिश कर रहा था कि मृत्यु से बड़ा कोई सच नहीं. बहुत पहले जापान के चेरी पेड़ के बारे में बताते हुए बेटा बोला था कि इस पेड़ से खूबसूरत कोई पेड़ नहीं और इस पेड़ के नीचे आराम की नींद सोने का आनन्द अलौकिक ही होगा. उस समय मुझे सपने मे भी ख्याल नहीं आया था कि आराम की नींद से अर्थ चिर निद्रा लगाया जा रहा है. मैं हतप्रभ टकी टकी सी लगाए मुस्कराते बेटे को देख रही थी जिसकी बातों से मेरे चेहरे की मुस्कराहट गायब हो चुकी थी.

कैक्टस के स्वादिष्ट फल !


कौन कहता है कि कैक्टस में सिर्फ कांटे ही कांटे होते हैं , उसमें रंग-बिरंगे फूल भी होते हैं और फल तो और भी स्वादिष्ट होते हैं. रवि रतलामी जी की कैक्टस गार्डन पर सुन्दर एलबम देखकर उसके मीठे रसदार फल की याद ताज़ा हो गई और मुहँ में पानी आ गया. सोचा कि आप सबसे उस स्वाद को बाँटा जाए. कैक्टस के फलों का सेवन स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है. कैक्टस के फल के चित्र और उसे काटने का तरीका बताने के लिए एक वीडियो लगाने का प्रयास किया है.







रविवार, 4 नवंबर 2007

दुनिया एक किताबखाना

दुनिया एक किताबखाना है , हर शख्स यहाँ बेनाम किताब है
किताबों की इस दुनिया में , दाना भी हैं औ' अनपढ़ बेहिसाब हैं !!

जिल्द देख कर कभी कभी
किताब को नाम दिया जाता है ,
पहले पन्ने को पढ़ कर भी
कभी कभी नाम दिया जाता है !

दुनिया एक किताबखाना है , हर शख्स यहाँ बेनाम किताब है

बनावट एक सी है हर किताब की
जिल्द फर्क फर्क हर किताब की
सुनहरा वर्क देख मन ललचा उठे
खूबसूरत लिखावट देख सब भरमा उठे !

दुनिया एक किताबखाना है , हर शख्स यहाँ बेनाम किताब है

सादी किताब सीधी तकरीर
कोई-कोई ही समझे ये तदबीर
सादा लिबास सादा नाम
कोई न देखे उसका काम !!

दुनिया एक किताबखाना है , हर शख्स यहाँ बेनाम किताब है

शनिवार, 3 नवंबर 2007

मेरे सपनों का जश्न




क्यों तटस्थ रहूँ मैं सदा मौन
अनुचित पर चिंतन करे कौन !

क्यों खामोश रहे मेरी सोच
क्यों ने मिले उसे कोई बोल !


क्यों उठे हूक जब होती चूक
क्यों चुभे शूल जब होती भूल !


क्यों हर वर्ग अलग हर पर्व मनाएँ
क्यों ने वर्ग सभी सब पर्व मनाएँ !

क्यों मेरी दीवाली, तेरी ईद, बड़ा-दिन उसका
क्यों न हो हर पर्व तुम्हारा , मेरा उसका !

सीधा नहीं सवाल , बड़ा ही जटिल प्रश्न है
मेरे सपनों का जश्न नहीं, यह और जश्न है !!