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गुरुवार, 13 सितंबर 2007

निराशा मुक्त


रसोई-घर से निकल , बैठी लेकर कागज़ पेन
लिखने बैठी कविता एक , हास्य व्यंग्य की
शब्द और भाव तलाश रही थी कि कि
अचानक बड़े बेटे की पुकार आई
"माँ , मेरा पायजामा तलाश कर दो प्लीज़"
झट से उठ पायजामा तलाश दिया उसे
छोटे बेटे को कहानी की किताब थमाई।
फिर से कमर कस बैठी और सोचा
दो पंक्तियाँ तो अवश्य लिख ही डालूँगीं ।
दिल औ' दिमाग पर छाई खीज के कोहरे को
यत्न से साफ़ किया ही था कि
पतिदेव दो मित्रों को साथ ले पधारे बोले ,
"अतिथि दो, भगवान का रूप लिए विराजे हैं
'अतिथि देवो भवः' सोच कर उठी मैं
मन में क्रोध , होठों पर मुस्कान लिए
अतिथि सत्कार किया सुसंस्कार लिए।
अर्धरात्रि तक काम समेट थककर चूर हुई
कक्ष में पहुँची गहन-निराशा में डूबी हुई
चित्त पर छाया क्रोध , हास्य-रस था नहीं
पति की आँखों में आभार, होठों पर मधुर मुस्कान थी
सोचा सब छोड़ यदि हास्य व्यंग्य की कविता लिखती ।
स्थिति होती घर की हास्यप्रद, व्यंग्य का निशाना बनती।
कविता न लिखने की गहन-निराशा से मुक्त होकर
पति के प्रेमपाश में सुख की आशा से बँधने लगी मैं।।

रमादान करीम


आज पहला रोज़ा है, छोटे बेटे ने रात को ही चार बजे का अलार्म लगाते कह दिया था कि इस बार वह भी रोज़े रखेगा। बाहरवीं कक्षा का बच्चा समझदार होता है सो मैंने सुबह उठते ही बेटे को भी आवाज़ दी कि सहरी का समय हो गया है । हम दोनों ही समय पर उठ गए और ब्रश करके नाश्ता करते-करते पुरानी यादों में खो गए। साउदी अरब मक्का-मदीना का देश , जहाँ मैंने गृहस्थी शुरू की , उस देश की याद आना स्वाभाविक ही था । पति अभी वहीं हैं , इसलिए भूलना और कठिन है। बच्चों की शिक्षा के लिए माता-पिता समय-समय पर बिछुड़ते रहें हैं , हमारा भी वक्त आना था । मैं भी बच्चों के साथ दुबई आकर रहने लगी ।
रियाद में रमज़ान का महीना सारी दिनचर्या को बदल देता है , इस पवित्र महीने में पूरी तरह से समर्पित जीवन जिया जाता है । सहरी खाने के बाद फ़ज़र की नमाज़ अदा करके कुछ लोग सो जाते हैं और कुछ लोग पवित्र पुस्तक कुरानमजीद पढ़कर शान्ति पाते हैं। दोपहर से ही इफ़्तार की तैयारी शुरू हो जाती है। अलग-अलग देशों के लोग अलग-अलग व्यंजन इफ़्तार के समय परोसते हैं लेकिन खजूर के साथ रोज़ा खोलना अच्छा माना जाता है।
रियाद में जब पहली बार रोज़े रखे तो हिन्दू ही नहीं मुसलमानों का भी एक ही सवाल था 'क्यों' । 'क्यों' का कोई जवाब नहीं होता । भारत देश जो धर्म-निरपेक्ष है, जहाँ सभी देश के लोग प्रेम-भाव के साथ मिलजुल कर रहते हैं , वहाँ के निवासी सभी धर्मों को आदर देते हैं ।
मेरे विचार में सभी धर्मों को जानना और समझना , उन्हें आदर देना रिश्तों को अटूट बनाता है। अभी जैसे कल की ही बात हो , मह्गरिब की अज़ान पर कोई भी घर आता तो ड्राइंगरूम में जानमाज़ देखकर नमाज़ पढ़ने बैठ ही जाता, कई मुस्लिम मित्र हैरान होते थे कि हमें ही नहीं बच्चों को भी मालूम था कि किबला की दिशा किधर है, किस तरफ़ मुहँ करके नमाज़ अदा करनी है।
यादों का रेला आता है तो बहुत सी बातों को मन में ही छोड़ जाता है । आज पति-देव याद आ रहे हैं क्योंकि हमेशा उनके हाथों की बनी इफ़्तार से रोज़े खुलते थे। पतिदेव कहा करते थे कि इफ़्तार बनाने और परोसने से मुझे भी कुछ सवाब मिल जाएगा। आज शाम की पहली इफ़्तारी मैं और बच्चे मिलकर बनाएँगें और रोज़ा खोलेगें। खजूर और चाय हम सभी को पसंद है।
जीवन में हर तरह की परिस्थिति का स्वागत करना ही जीने की कला है। अपने जीवनकाल के बीस साल साउदी अरब में बिताए । सबसे बड़ी बात यह सीखी कि सिर्फ़ अच्छी बातों को ही देखो । बुरे भावों या विचारों का ध्यान सपने में भी न करो। बस जीवन आसानी से कट जाता है।
अपने विचारों को मैंने कभी न अपने बच्चों पर थोपा न ही अपने शिष्यों पर लागू करने की कोशिश की। ऐसा जीवन जीने की कोशिश की कि उन्हें जो अच्छा लगे वे अपने जीवन में उतार सकें । कई बार ऐसा हुआ कि विश्वास और मज़बूत होता गया जब देखा कि जो हम चाहते कि बच्चे अमल करें , पहले स्वयं ही उस साँचें में ढलना पड़ता है। जीने की कला को सीखना या सिखाना है तो ईमानदारी और विश्वास का होना बहुत ज़रूरी होता है।
मुझे लगता है भावों की बहती धार को रोकना होगा , तेज़ बहाव में सब कुछ बह जाता है जो मैं नहीं चाहती। जिस तरह छोटी-छोटी बातें जल्दी समझ आतीं हैं , उसी तरह छोटे-छोटे लेख मन में आसानी से उतर जाते हैं। अपने शिष्यों के साथ १२-१३ वर्षों के अनुभव ने मुझे यही सिखाया है । यदि आप मेरे विचारों से सहमत नहीं हैं या मेरे भावों को पढ़कर किसी प्रकार की चोट पहुँची हो तो क्षमा चाहूँगी ।

बुधवार, 12 सितंबर 2007

खिलने दो खुशबू पहचानो



खिलने दो, खुशबू पहचानो
महकी बगिया कहती है सबसे
न तोड़ो, खिल जाने दो
इस जग में पहचान बनाने दो।

खिलती कलियों की मुस्कान को जानो
आकाश को छूते उनके सपनों को मानो
खिलने दो खुशबू पहचानो
महकी बगिया कहती है सबसे।

कण्टक-कुल से भरे कठिन रस्ते हैं इनके
फिर भी कुछ करने की चाह भरी है इनमें
न तोड़ो खिल जाने दो
इस जग में पहचान बनाने दो।

जीवनदान मिले तो जड़ भी चेतनमन पाए
जगती का कण-कण शक्तिपुंज बन जाए
खिलने दो खुशबू पहचानो
महकी बगिया कहती है सबसे।

न तोड़ो खिल जाने दो
इस जग में पहचान बनाने दो
महकी बगिया कहती है सबसे
खिलने दो, खुशबू पहचानो।


गुरुवार, 6 सितंबर 2007

"विद्यार्थी आदर्श कहाएँ"


जीवन को हम सफल बनाएँ
सीधे सच्चे इसाँ बन जाएँ
विद्यार्थी आदर्श कहाएँ
उन्नति पथ पर बढ़ते जाएँ।।


अनुशासन के नियम निभाएँ
सदाचार को लक्ष्य बनाएँ
झूठ कपट को दूर भगाएँ
सत्य अहिंसा को अपनाएँ।।

जीवन को हम सफल बनाएँ
सीधे सच्चे इसाँ बन जाएँ


सहनशील हम वीर कहाएँ
संयमशील सदा कहलाएँ
वैर-भाव और घृणा मिटाएँ
अच्छी सच्ची सीखें अपनाएँ।।

जीवन को हम सफल बनाएँ
सीधे सच्चे इसाँ बन जाएँ


गुरूओं में श्रद्धा रख पाएँ
त्याग मार्ग पर चलते जाएँ
नरमी को हम भूल ना पाएँ
प्रेमगीत हम गाते जाएँ ।।

जीवन को हम सफल बनाएँ
सीधे सच्चे इसाँ बन जाएँ
विद्यार्थी आदर्श कहाएँ
उन्नति पथ पर बढ़ते जाएँ।।

हरी भरी दूब


हरी-हरी दूब पर इधर-उधर भागते बच्चों को कभी देखती तो कभी व्यास नदी के किनारे छप-छप करते नन्हीं-नन्हीं हथेलियों से एक-दूसरे पर पानी उछालते बच्चों की मधुर मुस्कान को देखती जो मन-मोहिनी थी। कितनी ही बार झुक-झुक कर बच्चे नदी की बहती शीतल धारा के मीठे पानी को अंजुलि से मुँह में भरने की कोशिश कर रहे थे, दो बूँद पानी मुँह में जाता बाकि नदिया में फिर से बह जाता , पर बच्चों को झुकने में कोई परेशानी नहीं हो रही थी । काश मेरा बचपन लौट आए तो मैं भी उन जैसे ही खेल-खेल में ही ठंडे पानी से खेलती और पीकर अपनी प्यास बुझाती। शायद बुढ़ापा आ रहा है या मेरा अहम् मुझे झुकने से मना कर रहा है । मानव की प्रकृति भी अद्भुत है , प्रेम पाने की लालसा सदा रहती है लेकिन आत्मसमर्पण करना कठिन लगता है । मैं टूट सकती हूँ लेकिन झुक नहीं सकती। झुकने का डर कायरता की निशानी है । वास्तव में झुकने से कुछ मिलेगा ही , कुछ भी खोने का भय होना ही नहीं चाहिए। बच्चों को देख रही हूँ जो हरी मुलायम घास पर दौड़ रहे हैं लेकिन आश्चर्य हो रहा है घास का व्यवहार देखकर जो अपना हरयाला आँचल बिछाए बच्चों को हँसते मुस्कराते देख खुशी से झूम रही है । दूर-दूर तक नज़र गई तो देखा कि पिछले हफ्ते आए तूफ़ान से कितने ही पेड़ जड़ समेत धराशायी हो गए। तूफ़ान के सामने बड़े-बड़े पेड़ हार गए, टूट गए, अब उनमें दुबारा खड़े होने की ज़रा सा भी शक्ति नहीं रही । दूसरी तरफ हरी दूब को जीने की कला आती है , तूफ़ान आया , चला गया पर दूब और भी अधिक निखर गई , जैसे सोना आग में तप निखर जाता है हरी मुलायम दूब और भी निखर उठी।

सोच रही हूँ कि प्रकृति कितना कुछ सिखाती है लेकिन हम अपने अहम् में डूबे , अपने अन्दर की लड़ाइयों में व्यस्त अनदेखा कर जीवन की डगर पर बढ़ने की कोशिश में लगे रहते हैं।

बुधवार, 5 सितंबर 2007

शिक्षक दिवस

आज शिक्षक दिवस पर सबको मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ । डॉ॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णनन् जैसे महान् शिक्षक का जन्मदिन शिक्षक-दिवस के रूप में मनाया जाता है। आज के ही दिन मुझे किसी एक विद्यार्थी को उसके लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए अपने शिक्षक पद से त्याग-पत्र देना पड़ा। मेरा विश्वास है कि एक बार शिक्षा और शिष्यों से नाता जुड़ जाए तो उसे तोड़ना आसान नहीं। मेरा प्यार और आशीर्वाद सदा मेरे शिष्यों के साथ रहेगा। आज एक कविता ने जन्म लिया जो मेरे शिष्यों के नाम -- 


 शिक्षक दिवस पर अध्यापन को त्यागा , 
उत्तरदायित्व नए निभाने को कदम बढ़ाया ।
 प्यारे बच्चे बेहद याद मुझे जब आते , 
दिन काँटे से चुभते काटे ना कटते । 
अंर्तमन को मैंने समझाया , 
अंर्तजाल में मन को लगाया। 
अनकहे को कहने का मन ललचाया,
 'माई पॉडकॉस्ट' में अपना स्वर लहराया। 
मन भरमाने का नया इक रस्ता पाया, 
मेरा मन तब अति हरषाया।।

सोमवार, 3 सितंबर 2007

नूतन व पुरातन का समन्वय

भारतेन्दु युग से नूतन और पुरातन के बीच संघर्ष रहा है। भाषा के विकास के लिए भाषा से जुड़े‌ विषयों को पुराना ही रहने दें या नए-नए विषयों का समावेश किया जाए या पुराने विषयों का सरलीकरण किया जाए। इस संघर्ष में भारतेन्दु जैसे लेखकों ने तटस्थ न रहकर दिशा में नेतृत्व देकर आधुनिकता के आरम्भ के लिए ज़मीन तैयार की थी। आज फिर प्राचीन और नवीन के संधि-स्थल पर खड़े होकर कुछ विषयों को नया रूप देने की आवश्यकता अनुभव की जा रही है। महान् सन्त कबीर और रहीम जैसे समाज सुधारक और दार्शनिक कवियों ने छोटे-छोटे दोहे लिखकर मानव जीवन के व्यापारों एंव भावों का सफल चित्रण किया। समाज में एकात्मकता लाने के लिए काव्य को माध्यम बना कर जन-जन के मानस में पहुँचाने का कार्य किया लेकिन आज ये सन्त और उनका साहित्य धूल धूसरित रतन की भांति धूल में छिप गए हैं जो चिन्ता का विषय हैं। "मेरी बोली पूरब की, समझे बिरला कोय।" कबीर जी की इस पंक्ति को पढ़ कर लगता है कि आज पुरातन को नवीनता का रूप लेना ही होगा अन्यथा नई पीड़ी उनकी शिक्षा से परिपूर्ण रचनाओं से लाभ उठाने से वंचित रह जाएगी। पुरातन को नवीनता का रूप देने का भरसक प्रयत्न इस आशा से किया है कि विद्यार्थी ही नहीं आम जन-मानस भी सहज भाव से अर्थ ग्रहण कर सकेगा। १ रहिमन धागा प्रेम का , मत तोड़ो चटकाय । टूटे से फिर न जुड़े , जुड़े गाँठ पड़ जाए ।। "प्रेम का धागा , मत तोड़ो निष्ठुरता से । टूटा तो फिर जुड़ेगा , जुड़ेगा कई गाँठों से ।।" २ ऐसी वाणी बोलिए , मन का आपा खोए। औरन को शीतल करे , आपुहिं शीतल होए।। "मीठे मधुर बोलों से , मन को वश में कर लो। स्वयं को सभी को , शीतलता से भर दो ।।" ३ खीरा सर ते काटिए , मलियत लोन लगाए। रहिमन कड़वे मुखन को , चहियत इहै सजाए।।" "खीरा सिर से काटकर , नमक रगड़ा जाए । कड़वा बोल जो बोले , सर उसका पटका जाए।।" ४ चलती चाकी देख के , दिया कबिरा रोए। दो पाटन के बीच में , साबुत बचा न कोए।। "कबीर जी रोते थे , चलती चक्की को देखकर। दो पाटों के बीच में, सभी मिटे पिस कर ।।" ५ माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंधें मोहे । इक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंधूँगी तोहे।। "कुम्भकार से कहती मिट्टी, तू क्या मिटाएगा मुझे। इक दिन ऐसा आएगा, मैं मिटा दूँगी तुझे।। " (आबु धाबी में भारतीय राजदूत महामहिम श्री चन्द्र मोहन भण्डारी जी की अध्यक्षता में प्रथम मध्यपूर्व क्षेत्रीय हिन्दी सम्मेलन में छपी पत्रिका में प्रकाशित रचना । ) मीनाक्षी धन्वन्तरि