रियाद में अपने घर की खिड़की से ली गई तस्वीर |
सड़क के उस पार शायद कोई मजदूर बैठा है
कड़ी धूप में सिर झुकाए जाने क्या सोचता है...
मैं खिडकी के अधखुले पट से उसे देखती हूँ
जाने क्या है उसके मन में यही सोचती हूँ ..
कुछ देर में अपनी जेब से पर्स निकालता है
शायद अपने परिवार की फोटो निहारता है
बहुत देर तक एकटक देखता ही रहता है
कभी होठों से तो कभी दिल से लगाता है
जाने कितने सालों से घर नहीं गया होगा...
अपनों को याद करके कितना रोया होगा..
विधाता ने किस कलम से उनका भाग्य लिखा...
एक पल के लिए दुखी होती हूँ ------
दूसरे ही पल मुझे वह -------
हर बाधा से जूझता एक कर्मयोद्धा सा दिखा..!!
12 टिप्पणियां:
सटीक चित्रण किया है कर्मयोद्धा का ..
वाह..अंतिम पंक्ति ने तो कविता के भाव ही बदल दिए...सचमुच कर्मयोद्धा किन-किन चीज़ों का त्याग करते हैं...कहाँ समझने की कोशिश करते हैं हम..( BTW workaholic के लिए शब्द भी मिल गया...'कर्मयोद्धा":) थैंक्स
बढ़िया अभिव्यक्ति
akele baitha aadmi sach ko baariki se dekhta hai...
.हाँ ठीक तो है.. कर्मयोद्धा !
आप इन्हें करम-योद्धा भी कह सकती हैं, भाग्य की प्रतिकूलता से लड़ कर अपना रास्ता निकालता हुआ पुरुषार्थी, करम-योद्धा !
दो पहलु ...
अनायास ही एक शेर याद आ गया -
"यहाँ मजदुर को मरने की जल्दी कुछ यूँ भी है
जिंदगी की कशमकश में कफ़न महंगा न हो जाए.."
अंतिम पंक्ति लेकिन कमाल की है.
@रश्मि..समझ जाएँ तो ज़िन्दगी में कोई हलचल ही न रहे :)
@र.प्रभाजी..अकेले में ही हम अन्दर बाहर का चिंतन कर पाते हैं..
@डॉअमर..कर्म और करम में अंतर शायद भाषा का ही है...
@अभिषेक..कभी कभी कम मे बहुत कुछ कहा समझ आता है..
@अभि...शेर दिल को छू गया..शुक्रिया
kabhi maa kabhi patni to kabhi batee yaad aate hai,
phir wo kacha makaam aur chat tuti yaad atte hai,
kbhi baadh to kabhi sukha wo kahti yaad aate hai,
kabhi wo marial gayee aakhri saan latee yaad aate hai
bech ka zameen ko aya tha kauch kamaney aao zameen yaad atte hai,
sochta hoon chala jaoo yeh nushthoor shar chor key, haon kee bahoot yaad aate hai
per ruk jata hoon soch key aur thida,
aan makaan kee pacci chat yaad aate hai,
bate school janey lagyee aab us ke tasveer samney aate hai,
ghar nal laga leya patni ko mushkil na aab to gayee bhee tandrust nazar aate hai,
zara kuch aur jod loon iis makaan main yeh soch kar phir kaam karney ke himat aa jatee hai
bus yeh sochtey sochtey janey kitney saal log apni zameen say alag rahtey hain. nayee jagha per ghar to basa latey hain per dil ko nahi basa patey us ko to hamesha apni hee mitti kee yaad aate hai.
aap ney bahoot sahee anubhav keya hai us mazdoor jo najaney kaya soch raha ho ga us waqat
bahoot badiya
aisey hee likhi raheyn
Puran chand
बहुत ही स्वाभाविक चित्रण...
ओह क्या तस्वीर खींच दी आपने दीदी । सिर्फ़ अपनी खिडकी से चंद मिनटों तक उसे देख कर । सोचता हूं कि गरीब और मजदूरों की शक्ल हमेशा एक सी ही क्यों रहती है , हर देश में , हर संसार में
ये मजदूर जो अपने अपने घरों को छोड़ कर इसलिए आये की उनका परिवार सुखी रहे ... बच्चे पढ़ लिख जाएँ ... किसी कर्म योद्धा से कम नहीं हैं ...
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