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मंगलवार, 14 जून 2011

सुर्ख रंग लहू का कभी लुभाता तो कभी डराता





आज अचानक आटा गूँथने ही लगी थी कि तेज़ दर्द हुआ और हाथ बाहर खींच लिया... देखा छोटी उंगली से फिर ख़ून बहने लगा था....ज़ख़्म गहरा था...दर्द कम होने के बाद किचन में आने का सोच कर बाहर निकल आई...याद आने लगी कि रियाद में कैसे शीशे का गिलास धोते हुए दाएँ हाथ की छोटी उंगली कट गई थी और ख़ून इतनी तेज़ी से बह रहा था कि उसका सुर्ख रंग मन में एक अजीब सी हलचल पैदा करने लगा था... उंगली कुछ ज़्यादा ही कट गई थी लेकिन दर्द नहीं  हो रहा था.......
मैं बहते खून की खूबसूरती को निहार रही थी....चमकता लाला सुर्ख लहू.... फर्श पर गिरता भी खूबसूरत लग रहा था....अपनी ही उंगली के बहते ख़ून को अलग अलग एंगल से देखती आनन्द ले रही थी....
अचानक उस खूबसूरती को कैद करने के लिए बाएँ हाथ से दो चार तस्वीरें खींच ली....लेकिन अगले ही पल एक अंजाने डर से आँखों के आगे अँधेरा छा गया....भाग कर अपने कमरे में गई... सूखी रुई से उंगली को लपेट कर कस कर पकड़ लिया.... उसी दौरान जाने क्या क्या सोच लिया....
एक पल में ख़ून कैसे आँखों में चमक पैदा कर देता है और दूसरे ही पल मन को अन्दर तक कँपा देता है .... सोचने पर विवश हो गई कि दुनिया भर में होने वाले ख़ून ख़राबे के पीछे क्या यही कारण हो सकता है... 
बहते ख़ून की चमक...तेज़ चटकीला लाल रंग...उसका लुभावना रूप देखने की लालसा.... फिर दूसरे ही पल एक डर...गहरा  दुख घेर लेता हो .... मानव प्रकृति ऐसी ही है शायद...
पल में दानव बनता, पल मे देव बनता मानव शायद इंसान बनने की जद्दोजहद में लगा है...... 
क्या सिर्फ मैं ही ऐसा सोचती हूँ ......पता नहीं आप क्या सोचते हैं...  !!!!! 


मन भटका  
जंगली सोचें जन्मी
राह मिले न
*****
खोजे मानव  
दानव छिपा हुआ
देव दिखे न
*****
बँधी सीमाएँ
साँसें घुटती जाती
मुक्ति की चाह





12 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

मीनाक्षी जी ,

आपने तो एक नया नजरिया दे दिया सोचने के लिए ... हाईकू रचनाएँ गहन लगीं

Abhishek Ojha ने कहा…

"पल में दानव बनता, पल मे देव बनता मानव" बाकियों का पता नहीं पर मैं अक्सर ये सोचता हूँ. बहुत विरोधाभासी है मानव सोच. वैसे खून मैं देख नहीं पाता. आपकी फोटो भी देखकर सहम सा गया.

ashish ने कहा…

इन्सान और देवता में केवल सोच का ही फर्क है .लेकिन ये नहीं पता चला कि आंटे में क्या था कि उंगुली जख्मी हुई .

rashmi ravija ने कहा…

ओह!! आप बहुत बहादुर हैं.....हमें तो डर लगता है...और देखा भी नहीं जाता कि..खून का रंग कितना सुर्ख है....:(
हाइकु अच्छे बन पड़े हैं.

मीनाक्षी ने कहा…

@संगीताजी,सबका नज़रिया ही तो है जो हमें आकर्षित करता है...हाइकु भी उसी नज़रिए की ही देन होती है.
@अभिषेक..यही विरोधाभास सोच हैरान कर जाती है..:( यहाँ तो सिर्फ एक उंगली कटी..हर रोज़ जो बाहर की दुनिया में क्या नही होता....:(

मीनाक्षी ने कहा…

@आशीषजी,काँच का गिलास धोते हुए हाथ कई दिन पहले कटा था लेकिन आज सुबह आटा गूँथते हुए दर्द हुआ...सो उस दर्द से इस पोस्ट ने जन्म लिया :) आटे मे कुछ नही था...

डा० अमर कुमार ने कहा…

.हाय मैं बेहोश होते होते बचा :)
पहली बात यह कि यह नामुराद ब्लॉगिंग जो न करवाये... पोस्ट पर लगाने के लिये एक फोटो लेने का लोभ ?
दूसरी बात यह कि आपको सीरम कैल्शियम, बी.टी., सी.टी. और पी.टी. करवा लेना चाहिये । पुराने भरते हुये ज़ख्म से यूँ खून के रिस जाने की निगहबानी आवश्यक है ।

सुर्ख लहू
अपना या पराया
लागे क्यों यकशाँ

kshama ने कहा…

Badee ajeeb-see halchal ho gayee dilme!

मीनाक्षी ने कहा…

डॉअमर,अगर आप बेहोश हो गए तो फिर आपके रोगियों का क्या हाल होगा...ब्लॉग पर तस्वीर लगाने का लोभ होता तो हज़ारों ऐसी तस्वीरें है जिन्हे अब तक लगा चुके होते..
दूसरी बात...हज़ारो लोगों के ज़ख्म बिना दवा के भी भर ही जाते है..भर ही गया था लगभग,,यह तो आटा गूँथने के चक्कर मे फिर से दर्द जाग गया.ज़ख़्म तो 15 दिन पुराना है .

Arun sathi ने कहा…

बहुत सही कहा जी आपने, आदमी के अंदर ही सब कुछ है दानव भी मानव भी। आपने दोनों रंगों को ईमानदारी से परोसा , आभार।

ZEAL ने कहा…

बहुत अच्छी लगी ये प्रस्तुति। आस-पास घटती घटनाओं से सैकड़ों विचार जन्म ले लेते हैं और उपजती है एक पोस्ट। बहुत गहन अभिव्यक्ति लिए हुए इस पोस्ट के लिए बधाई ।

abhi ने कहा…

अभी एक महीने पहले, घर से वापस आ रहा था तो ट्रेन के वाशरूम के दरवाज्र से पीसकर मेरी ऊँगली कट गयी,..खून बहा, और मैंने तुरत अपने पॉकेट में से रुमाल निकाल के उसे अच्छे तरह से बाँध लिया...उस समय मुझे ये ख़याल भी नहीं आया खून के तरफ देखने का और ये सोचने का की खूबसूरत भी हो सकता है खून...मेरी तो रूह काँप गयी थी...ये सोच के की ट्रेन पे हूँ...
वाह, आप बहुत बहादुर हैं :) :)..