"डॉअमर की पोस्ट पढ़ने पर ही पता चला कि आज कबीर जयंती है ... या अध्यापन के दिनों में पता चलता कि कौन सी जयंती किस दिन है...संत कबीर और रहीम हमेशा से प्रिय रहे क्यों कि बच्चों को पढ़ाते हुए उनका ज़िक्र न हो ऐसा हो ही नही सकता था...नवीं दसवीं के बच्चों को कबीर के दोहे याद कराने के लिए उनका अर्थ समझाने के लिए क्या क्या पापड़ नहीं बेले थे...कभी बच्चों को पॉप की नकल करके दोहे सुनाने की भी इजाज़त दे दी थी.... उन्हीं बच्चों के कारण ही ऐसा लेख लिख पाए कि किसी भी तरह जीवन मूल्यों का महत्त्व कहने वाले संत फकीर उन्हें याद रह पाएँ"
(यह लेख 2007 में पोस्ट किया जा चुका है जब हमने अभी नया नया ब्लॉग बनाया ही था... किसी ने पढ़ा भी न हो शायद....आज 'कबीर जयंती' के दिन फिर से इसे पोस्ट करने का श्रेय डॉ अमर को जाता है)
भारतेन्दु युग से नूतन और पुरातन के बीच संघर्ष रहा है। भाषा के विकास के लिए भाषा से जुड़े विषयों को पुराना ही रहने दें या नए-नए विषयों का समावेश किया जाए या पुराने विषयों का सरलीकरण किया जाए। इस संघर्ष में भारतेन्दु जैसे लेखकों ने तटस्थ न रहकर दिशा में नेतृत्व देकर आधुनिकता के आरम्भ के लिए ज़मीन तैयार की थी। आज फिर प्राचीन और नवीन के संधि-स्थल पर खड़े होकर कुछ विषयों को नया रूप देने की आवश्यकता अनुभव की जा रही है।
महान् सन्त कबीर और रहीम जैसे समाज सुधारक और दार्शनिक कवियों ने छोटे-छोटे दोहे लिखकर मानव जीवन के व्यापारों एंव भावों का सफल चित्रण किया। समाज में एकात्मकता लाने के लिए काव्य को माध्यम बना कर जन-जन के मानस में पहुँचाने का कार्य किया लेकिन आज ये सन्त और उनका साहित्य धूल धूसरित रतन की भांति धूल में छिप गए हैं जो चिन्ता का विषय हैं।
"मेरी बोली पूरब की, समझे बिरला कोय।" कबीर जी की इस पंक्ति को पढ़ कर लगता है कि आज पुरातन को नवीनता का रूप लेना ही होगा अन्यथा नई पीड़ी उनकी शिक्षा से परिपूर्ण रचनाओं से लाभ उठाने से वंचित रह जाएगी।
पुरातन को नवीनता का रूप देने का भरसक प्रयत्न इस आशा से किया है कि विद्यार्थी ही नहीं आम जन-मानस भी सहज भाव से अर्थ ग्रहण कर सकेगा।
१ रहिमन धागा प्रेम का , मत तोड़ो चटकाय ।
टूटे से फिर न जुड़े , जुड़े गाँठ पड़ जाए ।।
"प्रेम का धागा , मत तोड़ो निष्ठुरता से ।
टूटा तो फिर जुड़ेगा , जुड़ेगा कई गाँठों से ।।"
२ ऐसी वाणी बोलिए , मन का आपा खोए।
औरन को शीतल करे , आपुहिं शीतल होए।।
"मीठे मधुर बोलों से , मन को वश में कर लो।
स्वयं को सभी को , शीतलता से भर दो ।।"
३ खीरा सर ते काटिए , मलियत लोन लगाए।
रहिमन कड़वे मुखन को , चहियत इहै सजाए।।"
"खीरा सिर से काटकर , नमक रगड़ा जाए ।
कड़वा बोल जो बोले , सर उसका पटका जाए।।"
४ चलती चाकी देख के , दिया कबिरा रोए।
दो पाटन के बीच में , साबुत बचा न कोए।।
"कबीर जी रोते थे , चलती चक्की को देखकर।
दो पाटों के बीच में, सभी मिटे पिस कर ।।"
५ माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंधें मोहे ।
इक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंधूँगी तोहे।।
"कुम्भकार से कहती मिट्टी, तू क्या मिटाएगा मुझे।
इक दिन ऐसा आएगा, मैं मिटा दूँगी तुझे।। "
मीनाक्षी धन्वन्तरि
(आबु धाबी में भारतीय राजदूत महामहिम श्री चन्द्र मोहन भण्डारी जी की अध्यक्षता में प्रथम मध्यपूर्व क्षेत्रीय हिन्दी सम्मेलन में छपी पत्रिका में प्रकाशित रचना । )