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गुरुवार, 30 जून 2011

एक कर्मयोद्धा सा


रियाद में अपने घर की खिड़की से ली गई तस्वीर 




सड़क के उस पार शायद कोई मजदूर बैठा है
कड़ी धूप में सिर झुकाए जाने क्या सोचता है...
मैं खिडकी के अधखुले पट से उसे देखती हूँ
जाने क्या है उसके मन में यही सोचती हूँ ..
कुछ देर में अपनी जेब से पर्स निकालता है
शायद अपने परिवार की फोटो निहारता है
बहुत देर तक एकटक देखता ही रहता है
कभी होठों से तो कभी दिल से लगाता है
जाने कितने सालों से घर नहीं गया होगा...
अपनों को याद करके कितना रोया होगा..
विधाता ने किस कलम से उनका भाग्य लिखा...

एक पल के लिए दुखी होती हूँ ------
दूसरे ही पल मुझे वह -------
हर बाधा से जूझता एक कर्मयोद्धा सा दिखा..!!


रविवार, 26 जून 2011

पलाश




लाल फूलों से दहकता पलाश
जैसे पछतावे की आग में जलता हो...
कभी उसने शिव पार्वती के
एकांत को भंग किया था





शांति दूत सा सफेद पलाश
खड़ा मेरे आँगन में ...
कभी निहारती उसे
कभी अपने आप को
वर्षों तक अपने शरीर को उसके आग़ोश में
सरंक्षित रखने की इच्छा जाग उठी ...


शुक्रवार, 24 जून 2011

खिड़की के बाहर खड़े पेड़




खिड़की के बाहर खड़े पेड़
हमेशा मुझे लुभाते हैं....
उनकी जड़ें कितनी गहरी होगीं..
मानव सुलभ चाहत खोदने की ...
उनका तना कितना मज़बूत होगा ...
इच्छा होती छूकर उन्हें कुरेदने की ...
उनकी शाखाओं में कितना लचीलापन होगा...
पकड़ कर उन्हें झुका लूँ
या झूल जाऊँ उन संग
खिड़की के बाहर खड़े पेड़
हमेशा मुझे बुलाते हैं..
कभी सर्द कभी गर्म
हवाओं का रुख पाकर

अचानक शाख़ों में छिपे पंछी चहचहाते
जबरन ध्यान तोड़ देते हैं मेरा.....!!! 

मंगलवार, 21 जून 2011

'हरी मिर्च' के साथ 'स्वप्न मेरे' बन गए यादगार पल

वीडियो से ली गई तस्वीर में मनीषजी और दिगम्बरजी 


महीनों या शायद सालों से मिलने की सोच सच में बदली तो खुशी का कोई ठिकाना ही न था.. बहुत दिनों की कोशिश रंग ले ही आई और हमें दिगम्बर नासवा (स्वप्न मेरेऔर मनीष जोशी 
('हरी मिर्च') से मिलने का मौका मिल ही गया. बस उसी खुशी में उन पलों को तस्वीरों में कैद करना ही भूल गए.
पहले थोड़ा हिचकचाए थे कि घर कई महीनो से बच्चों के हवाले था...दीवारों पर अल्मारी के शीशे के पल्लों पर तस्वीरें बनी हैं... घर के सभी कोनों में बच्चों का ही सामान दिखाई देता है... इस झिझक को तोड़ा बच्चों ने... याद दिलाया कि आप तो दिखावे में यकीन नहीं करती थी फिर अब क्या हुआ.... आप दोनों ब्लॉग मित्रों को बुलाइए उन्हें बिल्कुल बुरा नहीं लगेगा क्यों कि सब जानते हैं कि बच्चों से घर घर लगता है.....बच्चों से बात करते करते बस जोश आया और दोनो परिवारों को फोन कर दिया... मिलना तय हुआ 17 जून शुक्रवार ...
मनीषजी  और उनकी पत्नी मोना पहले पहुँचे....पहली बार मिलने पर भी लगा ही नहीं कि हम पहली बार मिले...एक अपनापन लिए मुस्कुराते दो चेहरे सामने थे जिनकी मुस्कान देख कर मन खुश  हो गया...उनके हाथ में फूल देख कर तो खुश हुए लेकिन बच्चों के लिए चॉकलेट्स और घर के लिए खुशबू का तोहफा पाकर समझ न पाए कि क्या करें क्या कहें.... कुछ ही देर में दिगम्बर और उनकी पत्नी अनिता भी आ गए...स्वागत में खड़े कभी उन्हें देखते तो कभी उनके लाए तोहफे को... पता नहीं क्यों किसी से उपहार पाकर मन समझ नहीं पाता कि कैसे व्यवहार किया जाए... हाँ देते वक्त कोई मुश्किल नहीं होती... आते ही दिगम्बरजी ने समीरजी की दो पुस्तकें भी थमा दीं (सिर्फ पढ़ने के लिए ली हैं) और भी कई किताबों का लालच दे दिया .. मन ही मन सोच लिया कि अगली बार उन्हीं के घर जाकर उनकी किताबों का संग्रह देखा जाएगा ... वैसे हम सबने ही तय कर लिया कि अगली मुलाकात जल्दी ही होगी...
दिगम्बरजी कुछ संकोची स्वभाव के लगे लेकिन अनिता उनके विपरीत खिलखिलाती सी मिली....
गहरी नदी की धारा सी शांत लेकिन कहीं चंचल लगने वाली मोना के व्यक्तित्व ने जहाँ प्रभावित किया वहीं झरने सी झर झर बहती अनिता के स्वभाव ने मन मोह लिया.... समुद्र की गहराई लिए हुए दो ब्लॉगर कवि धीरे धीरे सहज हो गए और फिर महफिल ऐसी लगी कि मन ने चाहा बस यूँ ही दोनों कवियों का कविता पाठ चलता रहे...    
विद्युत को जब पता चला कि कविता पाठ होने वाला है तो  एक छोटा सा विडियो कैमरा सोफे पर फिक्स कर दिया ताकि दिगम्बरजी और मनीषजी की कविता रिकॉर्ड कर ली जाएहालाँकि बाद में डाँट भी खाई कि तस्वीरें लेने का ख्याल क्यों ना आया........खैर दोपहर के खाने के बाद दोनों कवियों की कविता सुनने की माँग हुई तो वरुण का लैपटॉप थमा दिया गया कि अपनी ऑनलाइन ड्यारी (ब्लॉग़) खोलिए और कुछ अपनी पसन्द का सुना दीजिए....हमें सबसे अच्छा यह लगा कि दोनो बच्चे इस दौरान हमारे साथ ही बैठे रहे और कविताओं को न सिर्फ सुना ...उनको समझने की कोशिश भी की. 
पढ़ी गई कविताओं के लिंक भी लगा रही हूँ,,,, साथ साथ पढ़ने में शायद कोई रुचि रखता हो ... 
मनीषजी की  जीवन साथी कविता वीडियो में दर्ज नहीं हो पाई लेकिन चुहलकदमी और  बढ़ते हुए बच्चे का लुत्फ आप ले सकते हैं... उसके बाद उन्होंने लैपटॉप दिगम्बरजी को पकड़ा दिया... उनकी मुक्त छन्द की कविताएँ बच्चों को आसानी से समझ आ रही थी इसलिए रौ में वह पढ़ते गए और सब उसी रौ में सुनते गए ... उफ़ .... तुम भी न नीला पुलोवर बड़ी शिद्दत से अम्मा फिर तुम्हारी याद आती है  झूठ   
लेकिन मैं झूठ नहीं कहूँगी कि जब भी दोनो कवियों से फिर मिलना होगा उनकी कविताएँ सुनने का मौका नहीं जाने दूँग़ी...!!!








बुधवार, 15 जून 2011

नूतन व पुरातन का समन्वय (कबीर जयंती)


"डॉअमर की पोस्ट पढ़ने पर ही पता चला कि आज कबीर जयंती है ... या अध्यापन के दिनों में पता चलता कि कौन सी जयंती किस दिन है...संत  कबीर और रहीम हमेशा से प्रिय रहे क्यों कि बच्चों  को पढ़ाते हुए उनका ज़िक्र न हो ऐसा हो ही नही सकता था...नवीं दसवीं के बच्चों को कबीर के दोहे याद कराने के लिए उनका अर्थ समझाने के लिए क्या क्या पापड़ नहीं बेले थे...कभी बच्चों को पॉप की नकल करके दोहे सुनाने की भी इजाज़त दे दी थी.... उन्हीं बच्चों के कारण ही ऐसा लेख लिख पाए कि किसी भी तरह जीवन मूल्यों का महत्त्व कहने वाले संत फकीर उन्हें याद रह पाएँ" 
(यह लेख 2007 में पोस्ट किया जा चुका है जब हमने अभी नया नया ब्लॉग बनाया ही था... किसी ने पढ़ा भी न हो शायद....आज 'कबीर जयंती' के  दिन फिर से इसे पोस्ट करने का श्रेय डॉ अमर को जाता है)


भारतेन्दु युग से नूतन और पुरातन के बीच संघर्ष रहा है। भाषा के विकास के लिए भाषा से जुड़े‌ विषयों को पुराना ही रहने दें या नए-नए विषयों का समावेश किया जाए या पुराने विषयों का सरलीकरण किया जाए। इस संघर्ष में भारतेन्दु जैसे लेखकों ने तटस्थ न रहकर दिशा में नेतृत्व देकर आधुनिकता के आरम्भ के लिए ज़मीन तैयार की थी। आज फिर प्राचीन और नवीन के संधि-स्थल पर खड़े होकर कुछ विषयों को नया रूप देने की आवश्यकता अनुभव की जा रही है।
महान् सन्त कबीर और रहीम जैसे समाज सुधारक और दार्शनिक कवियों ने छोटे-छोटे दोहे लिखकर मानव जीवन के व्यापारों एंव भावों का सफल चित्रण किया। समाज में एकात्मकता लाने के लिए काव्य को माध्यम बना कर जन-जन के मानस में पहुँचाने का कार्य किया लेकिन आज ये सन्त और उनका साहित्य धूल धूसरित रतन की भांति धूल में छिप गए हैं जो चिन्ता का विषय हैं।
"मेरी बोली पूरब की, समझे बिरला कोय।" कबीर जी की इस पंक्ति को पढ़ कर लगता है कि आज पुरातन को नवीनता का रूप लेना ही होगा अन्यथा नई पीड़ी उनकी शिक्षा से परिपूर्ण रचनाओं से लाभ उठाने से वंचित रह जाएगी।
पुरातन को नवीनता का रूप देने का भरसक प्रयत्न इस आशा से किया है कि विद्यार्थी ही नहीं आम जन-मानस भी सहज भाव से अर्थ ग्रहण कर सकेगा।

१ रहिमन धागा प्रेम का , मत तोड़ो चटकाय ।
टूटे से फिर न जुड़े , जुड़े गाँठ पड़ जाए ।।
"प्रेम का धागा , मत तोड़ो निष्ठुरता से ।
टूटा तो फिर जुड़ेगा , जुड़ेगा कई गाँठों से ।।"

२ ऐसी वाणी बोलिए , मन का आपा खोए।
औरन को शीतल करे , आपुहिं शीतल होए।।
"मीठे मधुर बोलों से , मन को वश में कर लो।
स्वयं को सभी को , शीतलता से भर दो ।।"

३ खीरा सर ते काटिए , मलियत लोन लगाए।
रहिमन कड़वे मुखन को , चहियत इहै सजाए।।"
"खीरा सिर से काटकर , नमक रगड़ा जाए ।
कड़वा बोल जो बोले , सर उसका पटका जाए।।"

४ चलती चाकी देख के , दिया कबिरा रोए।
दो पाटन के बीच में , साबुत बचा न कोए।।
"कबीर जी रोते थे , चलती चक्की को देखकर।
दो पाटों के बीच में, सभी मिटे पिस कर ।।"

५ माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंधें मोहे ।
इक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंधूँगी तोहे।।
"कुम्भकार से कहती मिट्टी, तू क्या मिटाएगा मुझे।
इक दिन ऐसा आएगा, मैं मिटा दूँगी तुझे।। "
मीनाक्षी धन्वन्तरि

(आबु धाबी में भारतीय राजदूत महामहिम श्री चन्द्र मोहन भण्डारी जी की अध्यक्षता में प्रथम मध्यपूर्व क्षेत्रीय हिन्दी सम्मेलन में छपी पत्रिका में प्रकाशित रचना । )

मंगलवार, 14 जून 2011

सुर्ख रंग लहू का कभी लुभाता तो कभी डराता





आज अचानक आटा गूँथने ही लगी थी कि तेज़ दर्द हुआ और हाथ बाहर खींच लिया... देखा छोटी उंगली से फिर ख़ून बहने लगा था....ज़ख़्म गहरा था...दर्द कम होने के बाद किचन में आने का सोच कर बाहर निकल आई...याद आने लगी कि रियाद में कैसे शीशे का गिलास धोते हुए दाएँ हाथ की छोटी उंगली कट गई थी और ख़ून इतनी तेज़ी से बह रहा था कि उसका सुर्ख रंग मन में एक अजीब सी हलचल पैदा करने लगा था... उंगली कुछ ज़्यादा ही कट गई थी लेकिन दर्द नहीं  हो रहा था.......
मैं बहते खून की खूबसूरती को निहार रही थी....चमकता लाला सुर्ख लहू.... फर्श पर गिरता भी खूबसूरत लग रहा था....अपनी ही उंगली के बहते ख़ून को अलग अलग एंगल से देखती आनन्द ले रही थी....
अचानक उस खूबसूरती को कैद करने के लिए बाएँ हाथ से दो चार तस्वीरें खींच ली....लेकिन अगले ही पल एक अंजाने डर से आँखों के आगे अँधेरा छा गया....भाग कर अपने कमरे में गई... सूखी रुई से उंगली को लपेट कर कस कर पकड़ लिया.... उसी दौरान जाने क्या क्या सोच लिया....
एक पल में ख़ून कैसे आँखों में चमक पैदा कर देता है और दूसरे ही पल मन को अन्दर तक कँपा देता है .... सोचने पर विवश हो गई कि दुनिया भर में होने वाले ख़ून ख़राबे के पीछे क्या यही कारण हो सकता है... 
बहते ख़ून की चमक...तेज़ चटकीला लाल रंग...उसका लुभावना रूप देखने की लालसा.... फिर दूसरे ही पल एक डर...गहरा  दुख घेर लेता हो .... मानव प्रकृति ऐसी ही है शायद...
पल में दानव बनता, पल मे देव बनता मानव शायद इंसान बनने की जद्दोजहद में लगा है...... 
क्या सिर्फ मैं ही ऐसा सोचती हूँ ......पता नहीं आप क्या सोचते हैं...  !!!!! 


मन भटका  
जंगली सोचें जन्मी
राह मिले न
*****
खोजे मानव  
दानव छिपा हुआ
देव दिखे न
*****
बँधी सीमाएँ
साँसें घुटती जाती
मुक्ति की चाह





रविवार, 12 जून 2011

एक पिता के कुछ यादगार पल बच्चों के नाम ...



शुक्रवार की रात रियाद से दुबई पहुँची...फ्लाइट एक घंटा लेट थी लेकिन छोटा बेटा जल्दी ही एयरपोर्ट आ गया था.. इसलिए घर पहुँचते पहुँचते 11.30 बज गए.....बड़े बेटे ने पास्ता बना कर रखा था..अभी वह परोसता कि एक दोस्त आ गई....उसका आना हमारे लिए 'अतिथि देवो भव:' जैसा ही था... स्वागत तो हमने वैसे ही किया जैसे तिथि बता कर आए मेहमानों का करते हैं...
मेरे मुस्कुराते चेहरे को देख कर उसे राहत हुई और फौरन अपने बेटे को भेज कर पति और माँ को बुलवा लिया.....बेटी भी बड़े गौर से देख रही थी कि कहीं मम्मी ने आकर कोई गलती तो नहीं कर दी...लेकिन यह सौ फीसदी सच है कि मुझे उनका इस तरह आना अच्छा ही लगा...सहेली का बेटा नानी को व्हील चेयर पर लेकर अन्दर आया तो सलाम दुआ करते हुए वे उसी चेयर पर  ही बैठी रहीं... कुछ देर मेरे कहने पर सोफे पर आ कर बैठ गई.....
पूरा परिवार बार बार यही कह रहा था कि आप थक गई है तो हम चले जाते हैं...लेकिन कुछ ही देर में उन्हें तसल्ली हो गई कि हम सभी ने उनका दिल से स्वागत किया... छोटे बेटे ने झट से चाय भी बना दी....अचानक मिलने के लिए आना....एक साथ बैठना....मिल कर अपनी खुशी ज़ाहिर करना......वे पल यादगार बन गए.
हमें तो सहेली की माँ बहुत प्यारी लग रही थीं....कमज़ोर नाज़ुक सा सिलवटों भरा चेहरा उस पर बच्चों जैसी मासूम मुस्कान...बड़े ध्यान से बातें सुनती आनन्द ले रही थीं... एक पल भी चेहरे पर शिकन नहीं आने दी कि आधी रात को सोने के वक्त पर कहाँ कहाँ भटकना पड़ रहा है....इकलौती बेटी है, उसी के साथ ही रहना है... दामाद प्यार आदर देने वाले.....न चाहते भी दो बजे के करीब अगले वीक एंड पर मिलने का वादा लेकर चले गए...
उसके बाद बच्चों के साथ हल्का डिनर किया...फिर बातों का दौर चले बिना नींद कैसे आती..विजय रियाद में अकेलापन महसूस कर रहे थे इसलिए वे भी लाइन पर आ गए..... सोते सोते तीन बज गए.... अगले दिन दस बजे नींद खुली...सुबह की दिनचर्या से निपट कर चाय नाश्ता करके घर के काम में लग गए...कल का पूरा दिन घर का काम करके आज लगा कि बस अब और नहीं...... अब कुछ देर अपने लिए....अपने लिए वक्त निकालना हम अक्सर भूल ही जाते हैं.... अपने लिए जीने की कला न सीखी तो फिर दूसरे के जीवन को कलात्मक कैसे बना पाएँग़े.....यही सोच कर घर के कामों को नज़रअन्दाज़ किया और आ बैठे यहाँ ...... 
पिछले दिनों अपने देश में जो हुआ या जो हो रहा है ...या जो होना चाहिए उसके लिए बस एक ही बात जो हमेशा मन में आती रही है कि मुझे देश और समाज के लिए कुछ करना है तो घर से ही शुरु करना होगा....अपने बच्चों को इंसान बना दिया तो वह भी समाज और देश के लिए ही कुछ करने जैसा है.....खुद को अपने परिवार को लेकर सही रास्ते पर चलना है...हम अगर इतना भी कर लें तो एक इकाई के दीपक जैसे जलने से हल्की रोशनी तो होगी ही....जीवन कर्म जो पहले से ही तय हैं उन्हें जी जान से करने में जुटे हैं.....
इसी दौरान कुछ पल ऐसे यादगार बन जाते हैं जिन्हें सबके साथ बाँटने का जी चाहता है..... 
ईंट पत्थरों में काम करने वाले पति विजय भी कुछ लिख पाएँगे यह मेरे लिए चौंकाने की बात थी...उड़नतश्तरी की एक कविता को पढ़ कर विजय के मन में कुछ भाव आए...जो इस तरह से यहाँ उतरे... 

बिछा देता हूँ कुछ पुरानी यादों के पत्र
चुनता हूँ एक एक करके खुशी के वो पल
लगा देता हूँ एक फ्रेम में चुन चुन कर...
वो गाँव की कच्ची गली में चलना सँभल कर
तोड़ना चोरी से कच्चे आम छुप छुप कर
नहाना मटमैले तालाब में टीले से कूद कर
वो गीले कपड़ों में आना छुप कर...
स्कूल छूटा और जवानी आई निकलना सज सँवर कर
इंतज़ार बस का करना लोगों से नज़र चुरा कर
पता नहीं कब जवानी उड़ गई पंख लगा कर
गृहस्थी में रखा पाँव जमा कर
जीने मरने की कसमें साथ खा कर
बच्चों की....! 

बच्चों का बचपन उनके नए नए खेल

फिर उनका किशोर जीवन, जवानी में क़दम 
बस यही ज़िन्दगी के कुछ पल जो रखे हैं संजो कर
बना दूँ उसकी तस्वीर टाँग दूँ दीवार पर
और निहारूँ उसे जिस पल
पाऊँ अपने चेहरे पर एक मुस्कान
निश्छल !!!  
काश कि
देखता रहूँ उसे हर पल...!  

माँ का स्नेह तो जग जाहिर है लेकिन एक पिता का प्यार बच्चो के प्रति.....
उन्हीं की पसन्द का एक वीडियो 'Save The Children by Marvin Gaye'



शनिवार, 4 जून 2011

टूटते देश के लोगों को बसाने का प्रयास



आजकल वरुण का कज़न साहिल (नाम बदला हुआ) दक्षिण सूडान में है सयुंक्त राष्ट्र की तरफ से शांति की बहाली के लिए वहाँ नियुक्त हुआ है... अक्सर रोज़ ही बात हो जाती है... एक दिन भी खबर न आए तो पूरा परिवार चिंता करने लगता है ...साहिल का कहना है “ यहाँ आकर मुझे लगा मेरा देश तो हज़ारो लाखों मे एक है... यहाँ के लोगो की हालत देख कर बहुत दुख होता है” याद आ जाती  हैं....विभाजन के दौर की सुनाई गई दादी की कहानियाँ “ साहिल की बातें मेरे लिए दुनिया के एक ऐसे कोने की जानकारी है जो रोचक भी है और बेहद भयानक भी
उतर और दक्षिण सूडान में सालों से गृहयुद्ध चल रहा था...अब जाकर कुछ आशा की किरण दिखाई दी है... पूरी दुनिया से स्वयंसेवी संस्थाएँ वहाँ काम कर रही हैं..सयुंक्त राष्ट्र तो है ही....सबकी अपनी अपनी कहानियों का सच और उनसे जुड़े अनुभव है...

जहाँ साहिल है वहाँ बिजली नहीं हैं..कोई बाज़ार नहीं है....वे लोग यू एन के कैम्पस में ही रहते हैं...खूबसूरत हरे भरे देश का मौसम भी अच्छा रहता है.... यहाँ शरिया का कानून भी नहीं है लेकिन कई सालों से हो रही लड़ाई के कारण रहने के लिए न घर है... न पेट भर खाना... औरतें और बच्चे सड़क के किनारे ही गुज़र बसर कर रहे हैं...उनकी हालत सबसे ज़्यादा खराब है....बच्चों को समय पर मेडिकल सुविधा न मिलने पर वे जल्दी ही दुनिया से कूच कर जाते हैं... उन्हें ज़िन्दा रखने की भरपूर कोशिश की जा रही है ...धीरे धीरे शिक्षा , मेडिकल सुविधाएँ , घर और खाने की ज़रूरतों को पूरा करने की कोशिश की जा रही है. झुग्गी झोपड़ी की तरह के घरों को टुकलू कहा जाता है उनमें रहने वालों के लिए अब घर बनाए जा रहे हैं..  
आजकल साहिल किसी दूसरे राज्य में  हैं जहाँ सब कुछ शांत था लेकिन फिर से वहाँ लड़ाई हुई और उस दौरान 4000 शरणार्थी और आ गए जिनके लिए खाने पीने और रहने की व्यवस्था की जा रही है..

आजकल बहुत बारिश हो रही है...ऊपर से कच्ची सड़कें , बार बार गाढ़ियाँ गड्ढों में फँस जाती हैं..लोगों के लिए खाने पीने का सामान पहुँचाना बहुत मुश्किल हो रहा है ...
 हैरानी वाली बात यह दिखी कि यहाँ के लगभग सभी लोगों के हाथ में AK47 गन दिखाई देती है.... भेड़ बकरियाँ चराने वाले चरवाहों के हाथ में भी लाठी की जगह गन होती है लेकिन उसे चलाना किसी एक को भी नहीं आता. एक नया देश बनेगा उसकी सुरक्षा के लिए वहाँ की सेना और पुलिस में अनपढ़ और अनट्रेंड लोग हैं जिन्हें कई कई दिनों तक खाना नसीब नहीं हुआ ... छोटे छोटे बच्चे भी वहाँ की सेना का हिस्सा हैं उनके हाथ में भी वही गन देख कर मन बहुत खराब हो होता है....
साहिल का कहना है “अच्छा लगता है जब आप यहाँ के हालातों के बारे में पूछती हैं...मानसिक बल मिलता है कि हम कुछ न कुछ तो कर ही पाएँगे इन लोगो के लिए....खासकर औरतों और बच्चों के लिए सब सुविधाएँ जुटाने की भरसक कोशिश होती है.... 

गृहयुद्ध के दौरान औरत की जो दुर्दशा होती है उसे शब्दों में ढाला ही नहीं जा सकता... किसी घटना के लिए  ‘रौंदी हुई ज़मीन’ शीर्षक सोच कर ही सिहर उठी थी.....उसे ‘ज़मीन और जूता’ नाम देकर अपनी कल्पना से ज़मीन जूते और नाख़ून के निशान सोचना भी तकलीफ़देह था...सोचती हूँ जो मुक्तभोगी हैं उनके दर्द का क्या.... कैसे वे अपना दर्द झेलतीं होंगी....!!!! 


गुरुवार, 2 जून 2011

बादलों का आंचल

 साँझ के वक्त आसमान से उतरते सूरज की कुछ तस्वीरें लीं....कुछ भाव भी मन में आ गए बस उन्हें इस तरह यहाँ उतार दिया.... चित्र को क्लिक करके देखिए...शायद अच्छा लगे..... 






बुधवार, 1 जून 2011

ज़मीन और जूता



एक मासूम सी उदास लड़की की खाली आँखों में रेगिस्तान का वीरानापन था
सूखे होंठों पर पपड़ी सी जमी थी पर उसने पानी का एक घूँट तक न पिया था
वह अपने ही  देश के गृहयुद्ध की विभीषिका से गुज़र कर आई थी
उसकी उदासी उसका दर्द उसके जख़्म नर-संहार की देन थी 
उसे चित्रकारी करने के लिए पेपर और रंगीन पेंसिलें दी गई थीं
कितनी ही देर काग़ज़ पेंसिल हाथ में लिए वह बैठी काँपती रही थी 
आहिस्ता से उसने सफ़ेद काग़ज़ पर काले रंग की पैंसिल चलाई थी
सफ़ेद काग़ज़ पर उसने काले से हैवान की तस्वीर बनाई थी
काले  हैवानों से भरे सफ़ेद काग़ज़ ज़मीन पर बिखराए थे
उसी ज़मीन के कई छोटे छोटे टुकड़े भी चित्रों मे उतार दिए थे
हर चित्र में ज़मीन का एक टुकड़ा, उस पर कई जूते बनाए थे
रौंदी हुई ज़मीन पर जूतों के हँसते हुए हैवानी चेहरे फैलाए थे
लम्बे नुकीले नाख़ून ख़ून में सने सने मिट्टी में छिपे हुए थे
बारिश की गीली मिट्टी में अनगिनत तीखे दाँत गढ़े हुए थे
स्तब्ध ठगी सी खड़ी खड़ी क्या बोलूँ बस सोच रही थी   
व्यथा कथा जो कह न पाई , तस्वीरें उसकी बोल रही थीं