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मंगलवार, 4 नवंबर 2008

नेह निमंत्रण सस्नेह स्वीकर...! ...

मन हर्षाया
निमंत्रण जो पाया
छाया उल्लास

उर्जा पाऊँगी
हर एक स्त्रोत से
नए भाव की


सौहार्द चर्चा के लिये नेह निमन्त्रण

सभी ब्लॉग लिखती महिला को नेह निमन्त्रण हैं सौहार्द चर्चा मे आने का । मिलने का दिन रविवार ९ नवम्बर तय किया गया हैं । समय और स्थान पता करने के लिये रंजना भाटिया अथवा रचना सिंह से संपर्क करे ।
अब तक जिन लोगो की स्वीकृत मिल गयी हैं

अनुराधा
मिनाक्षी
सुनीता शानू
मनविंदर
रंजना भाटिया
रचना

4 comments:

Web Media said...

Is it for woman leaving at certain place? If so I hope full coverage will be here. One suggestion if possible please do complete videography of the meeting. In my opininon it is history making event. - Amita

रचना said...

amita as of now we are getting together in delhi but every woman who blogs is invited
please get in touch with us

Web Media said...

Thats great, I have followed the Kavi Sammelan available as "Video In Internet" the first one, made a history in Internet, a Brave Heart Kavitri Sunita Shanoo.

Now it is great and pleasing news from you about the Nari Blogger. It is again a History in making from Delhi.

Mired Mirage said...

बहुत दूर होने के कारण आपके इस आयोजन में भाग नहीं ले सकूँगी परन्तु मेरी शुभकामनाएं ।
घुघूती बासूती

(काश ........ पंछी बन कर ब्लॉगजगत का फेरा एक लगा पाते.... दाना ज्ञान का चुगते...सबके जीवन अनुभव का पानी पी आते)

शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2008

आशा का दीप जलाया जाए तो प्रकाश होगा ही...

आजकल हम दिल्ली में हैं.....दुबई से चलते हुए मन में कई मंसूबे बाँधे थे कि भारत भ्रमण के बहाने ब्लॉगजगत की परिक्रमा ज़रूर करेंगे लेकिन यहाँ आकर दिन में तारे नज़र आने लगे... सबसे पहले तो एयरपोर्ट पर उतरते ही प्रीपेड टैक्सी के काउंटर पर ही मज़ेदार अनुभव हो गया... बात बहुत छोटी सी थी लेकिन माँ की डाँट ने सोचने पर लाचार कर दिया कि शायद गलती हो गई... एयरपोर्ट से वसंत कुंज के लिए 165 रुपए की रसीद काट कर 170 रुपए लेने वाले साहब से हमने 5 रुपए वापिस क्यों नही लिए .... सिस्टम को खराब करने का ज़िम्मेदार ठहरा दिया गया...
घर के गेट के आगे पड़ोसी पानी के पाइप से खूब देर तक अपनी कार को स्नान कराते हैं,,,पिछवाड़े में पानी की टंकियाँ ओवर फ्लो होती दिखती हैं जिन्हें देखकर कुछ कह न पाने की विकलता का बयान कैसे करें नहीं जानते...
पूरे देश में बहुत कुछ ऐसा हो रहा है जिसे हम चुपचाप देख सुन रहे हैं लेकिन कुछ न कर पाने की पीड़ा भी झेल रहे हैं..... किसी इंसान को अपने पालतू कुत्ते के साथ टहलते देखते ही मन में एक एहसास जागने लगता है कि काश अपने कुत्ते से प्यार करने वाला इंसान अपने आस पास के इंसानों को भी इतना ही प्यार दे पाता....
निराश होने की बजाय आशा का दीप जलाया जाए तो प्रकाश होगा ही... प्रेम, विश्वास और भाईचारे के भाव दिखने लगते हैं..... एक ड्राइवर लम्बे रास्ते से ले जाकर कि.मी. बढाकर पैसा ऐंठने की सोचता है तो दूसरा परिवार के सदस्य की तरह से हर तरह की मदद करने को तैयार दिखता है....
इसी प्यार और विश्वास ने बेटे वरुण को एक हकीम साहब के पास जाने को तैयार कर दिया... सालों से अंग्रेज़ी दवा लेने के बाद जड़ी बूटियों की दवा लेना आसान नहीं था... प्रेम और विश्वास चमत्कार कर देते हैं.... पिछले 4-5 दिन से बिना पेनकिलर लिए वरुण हैरान और परेशान है ... हमें आशा की एक किरण दिखाई देने लगी है कि अपने चमत्कारी देश का चमत्कार ज़रूर दिखाई देगा...

सोमवार, 27 अक्टूबर 2008

मंगलवार, 9 सितंबर 2008

ईरान के नन्हे आर्यान का हिन्दी प्रेम



पिछले दिनों पहली बार दिल और दिमाग ब्लॉग जगत से पूरी तरह से आज़ाद था... एक नन्हें नटखट बच्चे में गज़ब का आकर्षण, जिसने अपनी मीठी प्यारी बातों से ऐसा मन मोह लिया कि बाकि सब भूल गया... हाथ जोड़कर नमस्ते करके सबका मन मोह लेता और अपनी सब बातें मनवा लेता...
हमसे वादा ले लिया कि अगली बार मिलने पर उसे राजकुमार आर्यान और
धर्मवीर जैसी ही पोशाक तोहफे में लाकर देनी है.
प्यार के रिश्तों में धर्म, देश , रहन-सहन, खान-पान और भाषा बाधा नहीं बनते... उत्तरी ईरान के अली और लिडा से दोस्ती ऐसी हुई कि अब परिवार का ही एक हिस्सा हैं.... पिछले दिनों लिडा अपने छोटे बेटे के साथ कुछ दिन रहने आई...... छोटा बेटा आर्यान तीन साल का है जो हिन्दी सीखने की खूब कोशिश करता है..... छोटा 'ए' बिग 'बी' का दीवाना है.... अमिताभ बच्चन की फिल्में तो दीवानगी से देखता ही है... कुछ हिन्दी सीरियल हैं जिनके टाइटल गीतों को भी गुनगुनाता है.... राजकुमार आर्यान, धर्मवीर और मै तेरी परछाईं जैसे सीरियल देखना नही भूलता .... देसी घी से चुपड़ी चपाती और दाल का दीवाना आर्यान मनपसन्द सीरियल शुरु होते टीवी के आगे खड़ा हो जाता है.....
हिन्दी का क, ख, ग ना जानते हुए भी आर्यान को सुर में गुनगुनाते हुए देखकर हम हैरान रह गए ...
कुछ छोटे छोटे वीडियो जोड़कर एक मूवी बनाई है...आप भी देखिए नन्हे राजकुमार आर्यान को और सुनिए उसका गुनगुनाना......




रविवार, 7 सितंबर 2008

एक साल का नन्हा सा चिट्ठा

एक डाल पर बैठा पंछी पंखों को खुजलाए
आसमान में उड़ने को जैसे ललचाए ....
की-बोर्ड का मन भी मस्ती से लगा मचलने
जड़ सी उंगलियाँ मेरी तेज़ी से लगीं थिरकने ....
मेरा चिट्ठा जैसे अभी कल ही जन्मा था
आज एक साल और दस दिन का भी हो गया........
घुटनों के बल चलता बालक जैसे रूठे, फिर ठिठके
वैसे ही खड़ा रहा थामे वक्त को .....
एक कदम भी आगे न बढ़ा
बस
अपने जैसे नन्हे बालक को देखता रहा
मुग्ध होता रहा ......
मोहित तो मैं भी थी उस नन्हे बालक पर
जो आया था ईरान से .....
तीन साल का नन्हा आर्यान हिन्दी से प्यार करता
हाथ जोड़कर नमस्ते कहता तो सब मंत्रमुग्ध हो जाते......
बड़ा बेटा वरुण भी उन्हीं दिनों इंजिनियर की डिग्री लाया
छोटे बेटे विद्युत ने अपने मनपसन्द कॉलेज में प्रवेश पाया ....
अर्दलान जो नन्हे आर्यान का बड़ा भाई , उसे भी नई दिशा मिली
गीत गाते गाते अपने देश से दूर विदेश में पढ़ने की सोची.....
बच्चों के उज्ज्वल भविष्य में व्यस्त माता-पिता
पल भर भी न रुकते , बस चलते ही जाते जीवन पथ पर
एक सितम्बर आई तो दोनों हम साथी इक पल को रुके .....
जीवन पथ पर जीवन साथी बन कर बाईस साल चले हम
चलते चलते कब और कैसे इक दूजे के सच्चे दोस्त बने हम .....
और जीने का मकसद पाया, रोते रोते हँसने का हुनर भी आया .......

एक साल का नन्हा सा चिट्ठा भी मुस्काया
छोटे छोटे पग भरता मेरी बाँहों में दौड़ा आया .....

रविवार, 17 अगस्त 2008

मेरे भैया ....मेरे चन्दा.... !

रक्षाबन्धन के दिन सुबह से ही 'मेरे भैया , मेरे चन्दा' गीत गुनगुनाते हुए आधी रात हो गई....... 11 साल की थी मैं जब नन्हा सा भाई आया हमारे जीवन में .......अनमोल रतन को पाकर जैसे दुनिया भर की खुशियाँ मिल गई हों....

मेरे भैया , मेरे चन्दा मेरे अनमोल रतन
तेरे बदले मे ज़माने की कोई चीज़ ना लूँ

तेरी साँसों की कसम खाके हवा चलती है
तेरे चेहरे की झलक पाके बहार आती है
इक पल भी मेरी नज़रों से तू जो ओझल हो

हर तरफ मेरी नज़र तुझको पुकार आती है
मेरे भैया , मेरे चन्दा मेरे अनमोल रतन
तेरे बदले मे ज़माने की कोई चीज़ ना लूँ

मेरे भैया , मेरे चन्दा मेरे अनमोल रतन
तेरे बदले मे ज़माने की कोई चीज़ ना लूँ


तेरे चेहरे की महकती हुई लड़ियो के लिए
अनगिनत फूल उम्मीदों के चुने है मैने
वो भी दिन आए कि उन ख्वाबो की ताबीर मिले
तेरे खातिर जो हसीं ख्वाब बुने है मैने...

मेरे भैया , मेरे चन्दा मेरे अनमोल रतन
तेरे बदले मे ज़माने की कोई चीज़ ना लूँ

शुक्रवार, 15 अगस्त 2008

झंडा ऊँचा रहे हमारा










"विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊँचा रहे हमारा

इसकी शान न जाने पाए, चाहे जान भले ही जाए"

-- "श्री श्यामलाल गुप्त 'पार्षद' "



राष्ट्रीय ध्वज राष्ट्र की स्वत्नत्रता , एकता और अस्मिता का प्रतीक होता है. इसके

सम्मान की रक्षा के लिए देशवासी अपने प्राण देने को तैयार रहते हैं. पराधीन

भारत में तिरंगे झंडे को प्रतिष्ठित करना आसान नहीं था. स्वतंत्रता संग्राम के समय

तिरंगे के सम्मान के लिए कई सैनानियों ने अपना बलिदान किया, जिसके

कई उदाहरण आज भी रोमांचित कर देते हैं.

'अंग्रेज़ों भारत छोड़ो' आन्दोलन के समय पटना विधान परिषद पर तिरंगा झंडा फहराने

के लिए एकत्रित समूह से निकल कर एक युवक आगे बढ़ा. पुलिस की बन्दूकें तनी थीं.

गोली चली. इसके पहले कि वह युवक गोली लगने के बाद ज़मीन पर गिरे, दूसरा

युवक आगे आया. उसने तिरंगा झंडा ऊँचा उठाए हुए कदम बढ़ाया, उसे भी गोली लगी.

इसके बाद तीसरा युवक आगे आकर तिरंगा थाम कर आगे बढ़ा और फिर गोली चली......गोली चलती रही और युवक ढेर होते रहे पर तिरंगा न रुका..... न झुका, आगे

ही आगे बढ़ता गया. अंत में सातवें युवक ने विधान परिषद पर तिरंगा फहरा ही दिया.

झंडे की शान रखने के लिए आज़ादी के दीवानो को भला कौन रोक सकता था.

इस अभियान में महिलाएँ भी पीछे नहीं रहीं. सन 1942 में श्री मती अरुणा आसफ अली ने झंडा फहराया तो असम की कनकलता मलकटरी नामक स्थान पर झंडा फहराते हुए

शहीद हो गई. मिदनापुर मे मातंगिनी हाज़रा ने गोली लगने के बाद भी झंडा हाथ से

नहीं छोड़ा. हमारा राष्ट्रीय झंडा न जाने कितने ही रूपों मे हमारे बीच लहराते हुए विजय

का उल्लास और मंगल का संकेत देता रहा है और देता रहेगा.

14 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि को भारत जब पूर्णता: स्वतंत्र हुआ और संविधान सभी

ने राष्ट्र की बागडोर सँभाल ली तब श्रीमती हंसा मेहता ने अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को

एक नया तिरंगा झंडा भेंट करते हुए कहा "यह उचित है कि इस महान सदन पर जो पहला झंडा फहराया जाने वाला है, वह भारत की महिलाओं का उपहार है."

अगले दिन 15 अगस्त 1947 के शपथ ग्रहण समारोह के बाद राष्ट्रपति भवन के ध्वज-दंड

पर हमारा राष्ट्रीय ध्वज फहरा उठा।

देश विदेश में रहने वाले सभी भारतवासियों को स्वतंत्रता दिवस पर मंगलकामनाएँ.... यही कामना है कि हम अपने देश की आज़ादी की रक्षा करते हुए दुनिया के दूसरे देशों की आज़ादी का सम्मान करें।

इस शुभ दिवस पर पूरे विश्व को शांति और भाईचारे का सन्देश दें .... !

बुधवार, 13 अगस्त 2008

उसकी मुस्कान भूलती नहीं







टाइम टू ग्लो अप --- पहली हैड लाइन को पढ़कर अचानक उसके मुस्कुराते चेहरे पर नज़र गई... 10-12 साल के इस लड़के के चेहरे पर गज़ब की मुस्कान चमक रही थी.... बार बार अपने बालों को हल्का सा झटका देकर पीछे करता लेकिन रेशम से बाल फिसल कर फिर उसके माथे को ढक देते...
बन्द होठों पर मुस्कान थी और चमकती आँखें बोल रही थी... कार के शीशे से अखबार को चिपका कर खड़ा हुआ था...बिना कुछ कहे....बस लगातार मुस्कुराए जा रहा था . ... हरी बत्ती होने का डर एक पल के लिए भी उसे नहीं सता रहा था... लाल बत्ती पर रुकी कई गाड़ियों के बीच में वह कितनी ही बार आकर खड़ा होता होगा. पता नहीं कितनी प्रतियाँ बेच पाता होगा....वह बिना कुछ बोले खड़ा था ...... बेसब्र होकर शीशे को पीट नहीं रहा था.... मन में कई तरह के ख्याल आ रहे थे.... क्या यह बच्चा स्कूल जाता होगा.... घर में कौन कौन होगा.... माँ अपने दुलारे बेटे को कैसे तपती दुपहरी में भेज देती होगी.... किसी अच्छे घर का बच्चा लग रहा था..... टी शर्ट उसकी साफ सुथरी थी.... सलीके से अखबारों का बंडल उठा रखा था लेकिन हाथ के नाखून कटे होने पर भी एक दो उंगलियों के नाखूनों में मैल थी...... जो भी हो उसके चेहरे पर छाई उस मुस्कान ने बाँध लिया था.....सूझा ही नहीं कि जल्दी से एक अखबार खरीद लेती ..... उसे भी जैसे कोई ज़रूरत नहीं थी अखबार बेचने की.... जितनी देर लाल बत्ती रही उतनी देर हम उस बच्चे में अपने देश के हज़ारों बच्चों का मुस्कुराता अक्स देखते रहे .... अनायास ही मन से दुआ निकलने लगी कि ईश्वर मेरे देश के सभी बच्चों को भी इस बच्चे जैसे ही प्यारी मुस्कान देना ...
आज अनुराग जी की पोस्ट पर हाथ में तिरंगे झण्डे लेकर खड़े बच्चे को देखकर सोचा कि आज़ादी के जश्न में लाल बत्ती पर खड़े मुस्कुराते बच्चों के लिए ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की कामना करूँ.....

गुरुवार, 7 अगस्त 2008

सुलगे मन में जीने की इच्छा सुलगी

जले हुए तन से
कहीं अधिक पीड़ा थी
सुलगते मन की
गुलाबी होठों की दो पँखुडियाँ
जल कर राख हुई थीं
बिना पलक की आँखें
कई सवाल लिए खुली थीं
माँ बाबूजी के आँसू
उसकी झुलसी बाँह पर गिरे
वह दर्द से तड़प उठी...
खारे पानी में नमक ही नमक था
मिठास तो उनमे तब भी नही थी
जब कुल दीपक की इच्छा करते
जन्मदाता मिलने से भी डरते
कहीं बेटी जन्मी तो............
सोच सोच कर थकते
पूजा-पाठ, नक्षत्र देखते ,
फिर बेटे की चाह में मिलते
कहीं अन्दर ही अन्दर
बेटी के आने के डर से
यही डर डी एन ए खराब करता
होता वही जिससे मन डरता
फिर उस पल से पल पल का मरना
माँ का जी जलना, हर पल डरना
बेचैन हुए बाबूजी का चिंता करना
अपनी नाज़ुक सी नन्ही को
कैसे इस दुनिया की बुरी नज़र से
बचा पाएँगें...
कैसे समाज की पुरानी रुढियों से
मुक्त हो पाएँगे....
झुलसी जलती सी ज़िन्दा थी
सफेद कफन के ताबूत से ढकी थी
बिना पलक अपलक देख रही थी
जैसे पूछ रही हो एक सवाल
डी एन ए उसका कैसे हुआ खराब
बाबूजी नीची नज़र किए थे
माँ के आँसू थमते न थे
अपराधी से दोनो खड़े थे
सोच रहे थे अभिमन्यु ने भी
माँ के गर्भ में ज्ञान बहुत पाया था
गार्गी, मैत्रयी, रज़िया सुल्तान
जीजाबाई और झाँसी की रानी ने
इतिहास बनाया
इन्दिरा, किरनबेदी, लता, आशा ने
भविष्य सजाया
फिर हमने क्यों न सोचा....
काश कुछ तो ज्ञान दिया होता...
समाज के चक्रव्यूह को तोड़ने का
कोई तो उपाय दिया होता....
माँ बाबूजी कुछ कहते उससे पहले
दोनो की आँखों से
पश्चाताप के दो मोती लुढ़के
उसके स्याह गालों पर ढुलके
उस पल में ही जलते तन में
अदभुत हरकत सी हुई
सुलगे मन में जीने की इच्छा सुलगी
उस उर्जा से शक्ति गज़ब की पाई
नए रूप में नए भाव से
मन की बगिया महकी !

( जिन कविताओं को पढ़कर इस रचना का जन्म हुआ , सभी उर्जा स्त्रोत जैसी यहीं कहीं छिपीं हुई हैं)

बुधवार, 6 अगस्त 2008

प्रेम चमकते हीरे सा.. !













प्रेम का भाव, उस भाव के आनन्द की अनुभूति...इस पर बहुत कुछ लिखा गया है.. अक्सर बहस भी होती है लेकिन बहस करने से इस विषय को जाना-समझा ही नही जा सकता ... केवल प्रेम करके ही प्रेम को जाना जा सकता है।
प्रेम करते हुए ही प्रेम को पूरी तरह से जाना जा सकता है... नदी में कूदने की हिम्मत जुटानी पड़ती है तभी तैरना आता है ... प्रेम करने का साहस भी कुछ वैसा ही है.. किसी के प्रेम में पड़ते ही हम अपने आप को धीरे धीरे मिटाने लगते हैं...समर्पण करने लगते हैं..अपने आस्तित्त्व को किसी दूसरे के आस्तित्त्व में विलीन कर देते हैं... यही साहस कहलाता है...
प्रेम का स्वरूप विराट है...उसके अनेक रूप हैं... शिशु से किया गया प्रेम वात्सल्य है जिसमे करुणा और संवेदना है तो माँ से किया गया प्रेम श्रद्धा और आदर से भरा है...उसमें गहरी कृतज्ञता दिखाई देती है... यही भाव किसी सुन्दर स्त्री से प्रेम करते ही तीव्र आवेग और पागलपन में बदल जाते हैं.. मित्र से प्रेम का भाव तो अलग ही अनुभूति कराता है, उसमें स्नेह और अनुराग का भाव होता है...
प्रेम के सभी भाव फूलों की तरह एक दूसरे से गुँथे हुए हैं...हमारा दृष्टिकोण , हमारा नज़रिया ही प्रेम के अलग अलग रूपों का अनुभव कराता है।

मेरे विचार में प्रेम चमकते हीरे सा समृद्ध है.... कई रंग हैं इसमें और कई ठोस परतें हैं . हर परत की अपनी अलग चमक है जो अदभुत है... अद्वितीय है !!!

(घुघुतीजी के स्नेह भरे आग्रह का परिणाम है यह पोस्ट... प्रेम भाव को शब्दों का रूप देने के लिए वक्त चुराना पड़ा नहीं तो इस वक्त हम कोई ब्लॉग़ पढ़ रहे होते )

सोमवार, 21 जुलाई 2008

यादों का दर्द .... बैंग बैंग ... !

दो दिन पहले मम्मी का फोन आया तो अब तक उनकी सिसकियाँ भूलतीं नहीं..... जीवन साथी के बिना रहने का दर्द... तीनों बच्चों की ममता... छटपटाती माँ समझ नहीं पाती कैसे उड़ कर जब जी चाहे अपने साथी से मिले और कोसे कि क्यों अचानक छोड़ चला गया.... मरहम से बच्चे दूर दूर ...कैसे उन्हें एक साथ मिल पाए... एक बेटी दिल्ली में...एक बेटी दुबई में..एक बेटे सा दामाद साउदी अरब में.. . और खुद सात समुन्दर पार बेटे के साथ जिससे दूर होना भी आसान नहीं... चाह कर वहाँ से निकलना आसान नहीं... पोता दादी का दीवाना.... जितने दिन दादी दूर..उतने दिन पोता बीमार....
बड़ी बेटी ही नहीं मैं माँ की दोस्त भी हूँ.... .... कई बार पुरानी यादों का पिटारा खोल खोल कर दिखा चुकी मम्मी की एक याद आज फिर ताज़ा हो गई.... पिछले दिनों एक अंग्रेज़ी फिल्म 'किल बिल' देखी... जिसमें ज़रूरत से ज़्यादा मारकाट थी लेकिन फिर भी हमें उस मारकाट के नीचे दबा भावात्मक पक्ष भी देखने को मिला ... यहाँ फिल्म की समीक्षा करने की बजाय बात उस फिल्म के एक गीत की है जो हमें बेहद पसन्द है... और मम्मी की यादों से कहीं जुड़ा सा पाती हूँ......
बात उन दिनों की है जब मम्मी पाँच साल की थी तब छह सात के डैडी अपने पिताजी के साथ उनके घर गए थे मिलने.... दूर के रिश्तों का तो हमें पता नहीं लेकिन कुछ ऐसा ही था और अक्सर दोनो परिवार एक दूसरे से मिलते जुलते थे। उस दिन कुछ अनोखा हुआ था... कुछ बच्चे एक साथ मिल कर गुल्ली डंडा खेल रहे थे.... छह सात साल के एक लड़के से उसके पिता ने पूछा , "बेटा ,,, तुम्हें 'अ' या 'ब' में कौन ज़्यादा अच्छी लगती है ? " लड़के ने पहले पिता को फिर उन दोनों लड़कियों को देखा ... अचानक अपने हाथ का डंडा 'अ' के सिर पर रख दिया... बस बात पक्की हो गई... लड़के के पिता ने कहा ....आज से यह 'अ' बिटिया हमारी अमानत आपके पास.... जल्दी ही हम अपनी बहू बना कर ले जाएँगे......रानी बिटिया को राजा बेटा राज कराएगा.... 'अ' से अम्मी बन गई हमारी प्यारी सी...

'किल बिल' फिल्म का 'बैंग बैंग' गीत सुनकर पता नहीं क्यों डैडी की याद आ गई जो मम्मी को अचानक कुछ कहे बिना सदा के लिए छोड़ कर चले गए.... बचपन की यादों से लेकर आखिरी पल की यादें...पल-पल एक-एक याद गोली की तरह सीधा सीने को चीरती सी निकल जाती हैं.... और मैं चाह कर भी कुछ नहीं पाती....




I was five and he was six
We rode on horses made of sticks
He wore black and I wore white
He would always win the fight

Bang bang, he shot me down
Bang bang, I hit the ground
Bang bang, that awful sound
Bang bang, my baby shot me down.

Seasons came and changed the time
When I grew up, I called him mine
He would always laugh and say
"Remember when we used to play?"

Bang bang, I shot you down
Bang bang, you hit the ground
Bang bang, that awful sound
Bang bang, I used to shoot you down.

Music played, and people sang
Just for me, the church bells rang.

Now he's gone, I don't know why
And till this day, sometimes I cry
He didn't even say goodbye
He didn't take the time to lie.

Bang bang, he shot me down
Bang bang, I hit the ground
Bang bang, that awful sound
Bang bang, my baby shot me down...

रविवार, 20 जुलाई 2008

ब्लॉग अल्मारी में पोस्ट की सजी पोशाकें .....

कल बेटे वरुण ने पूछा कि इतने दिन से आपने अपने ब्लॉग पर कुछ लिखा क्यों नहीं... ? हम बस मुस्कुरा कर रह गए...सच में हम खुद
नहीं जानते कि क्यों ऐसा हो रहा है... क्यों हम कुछ लिख कर भी पब्लिश का बटन नहीं दबा पाते... हरे रंग की डायरी के कितने ही पन्ने नीले रंग की स्याही से रंग गए लेकिन उन्हें टाइप करके कोई भी रंग नहीं दे पा रहे.....


सुबह की कॉफी पीते समय कुश की कलम से लिखी कहानी एक पतंग की पढ़ी ,,,उसमें समीर जी की उड़ती पतंग पर भी नज़र गई ... सोचा काश हम लाल रंग की पतंग हो जाएँ... सूरज के लाल अँगारे सा रंग उधार लेकर ...या फिर लाल लहू के सुर्ख रंग में डूब जाएँ .....एक ऊर्जा लिए हुए... ऐसी ऊर्जा जो अपने को ही नहीं ...अपने आस पास के वातावरण में भी असीम शक्ति भर दे.... फिर कोई पतंग काले माझे से लहू-लुहान होकर अपना वजूद न खो सके... या फिर नीले आसमान में अपने आसपास उड़ती रंग-बिरंगी पतंगों को देखकर सिर्फ सपने न देखे बल्कि उन सपनो को पा ले....

आधी अधूरी कहानियाँ ...कविताएँ और लेख...ऐसे जैसे बिना इस्तरी
किए सिलवटों वाली पोशाकें...जिन्हें अपने ब्लॉग और डायरी की अल्मारी में
ठूँस ठूँस कर भर दिया हो... उधर से आँख बन्द करके दूसरे की अल्मारी को खोल
खोल कर देखते है तो सलीके से सजी हुई अलग अलग रंग की पोशाकें देख कर मन
भरमा जाता है....बस उन्हें देखने के मोह में सब भूल जाते हैं....


बस उसी मोह जाल में जकड़े खड़े थे कि घुघुती जी की अल्मारी पर नज़र गई.... मृतकों के लिए.... यहाँ तो पंचभूत के एक तत्व मिट्टी की नश्वर पोशाक दिखी... जो कभी हमें भी त्यागनी पड़ेगी... मिट्टी की पोशाक में सिलवटें आते ही उसे त्यागना पड़ेगा.... मन ही मन हम मुस्कुरा रहे थे कि हम ऐसे ही अपने आधे अधूरे लेखन की सलवटो पर शरमा रहे थे... हम खुद भी तो ऐसी ही पोशाक हैं.... आत्मा तो निकल जाएगी किसी नई पोशाक की खोज में.....

हम भी निकले एक नई अल्मारी की खोज में...नई पोशाकों को देखने की लालसा में....
कुछ अल्मारियों की पोशाकें इतनी आकर्षक हैं कि उन्हें देखे बिना
नहीं रहा जाता.... बनावट ...रंगों का चयन... नए ज़माने के नए डिज़ाइन....
मानसिक हलचल होने लगती है कि काश हम भी ऐसा ज्ञान पा सकते.
लेकिन होता कुछ और है..जिस विषय पर हम चिंतन करते रह जाते हैं...उस पर कोई और कारीगर अपना हुनर दिखा जाता है...

मम्मी का पर्स , उनकी अल्मारी, उनके दहेज का पुराना लोहे का ट्रंक... आज भी उन्हें बार बार खोल कर देखने का जी चाहता है...ठीक वैसे ही ब्लॉग जगत की ऐसी अल्मारियाँ हैं जो हम बार बार खोलने से बाज़ नहीं आते... किसी पोशाक को झाड़ते ही धूल के कण धूप में चमकने लगते हैं तो किसी पोशाक में वही कण जुगनू से जगमग करने लगते हैं....


एक अल्मारी ऐसी है जिसे खोलते ही लगता है कि उसकी एक एक पोशाक सिर्फ मेरे लिए है... जिसमें प्रेम के सुन्दर भाव से बनी हर पोशाक की अपनी ही खूबसूरती दिखाई देती है....

कुछ अल्मारियों को खोलते ही....लहराती पोशाकों के पीछे से संगीत के लहराते स्वर सुनाई देने लगे .... दिल और दिमाग को सुकून देने वाला मधुर संगीत स्वर..... और कहीं आत्मा को बेचैन कर देने वाली स्वर लहरी सुनाई देने लगी.....

जाने से पहले ओशो का चिंतन में आज की पोस्ट 'सहनशीलता' पढ़ कर बच्चो को सुना रहे हैं ....

और भी कई ब्लॉग्ज़ हैं जो परिवार में पढ़े जाते हैं और उन पर चर्चा भी होती है... उन पर फिर कभी बात करेंगे....


मन ही मन बेटे वरुण को शुक्रिया अदा कर रहे हैं कि उसके एक सवाल ने ब्लॉग जगत में नई पोस्ट को जन्म दिया...




गुरुवार, 10 जुलाई 2008

दिल कुछ कहना चाहता है लेकिन कह नहीं पाता....

आज अनिलजी के ब्लॉग़ पर गीत सुना.. " माई री,,,, मैं कासे कहूँ अपने जिया की बात" ..... सच में कभी कभी हम समझ नहीं पाते कि दिल की बातें किससे कहें...और कभी कभी तो हम चाह कर कुछ कह नही पाते...मन की बातें मन में ही रह जाती हैं... चाहते हैं कि अनकही को कोई समझ ले... इसके लिए कभी हम शब्दों का चक्रव्यूह रचते हैं तो कभी किसी चित्र...किसी गीत...किसी चलचित्र के माध्यम से अपने मन की बात करते हैं...
सोचते है कि कोई भटकते मन की खामोशी और बेचैनी समझ पाएगा .... लेकिन ऐसा कम ही होता है.... हमारे दिल ने भी एक गीत के माध्यम से कुछ कहना चाहा था.. जिसे शायद किसी ने सुना ही नहीं... कुछ दिल ने कहा .... कुछ भी नही..............

मन को समझाने के लिए मन ही मन यह गीत गुनगुनाते हैं...

मंगलवार, 8 जुलाई 2008

बादलों की शरारत

खिलखिलाती धूप से
बादलों ने छेड़ाखानी की
धरा की ओर दौड़ती किरणों का
रास्ता रोक लिया ....
इधर उधर से मौका पाकर
बादलों को धक्का देकर
भागी किरणें...
कोई सागर पर गिरी
तो कोई गीली रेत पर
हाँफते हाँफते किरणों ने
आकुल होकर छिपना चाहा ....
बादलों की शरारत देख
लाल पीली धूप तमतमा उठी
अब बादलों की बारी थी
दुम दबा कर भागने छिपने की
चिलचिलाती धूप से छेड़ाखानी
मँहगी पड़ी
अपने ही वजूद को बचाने की
नौबत आ पड़ी.... !

रविवार, 6 जुलाई 2008

जीत की मुस्कान








एक बार फिर मध्य प्रदेश जिसे हम भारत का दिल कहते हैं, ने दिल मोह लिया...पहले भी हमने मध्य प्रदेश पर एक कविता लिखी थी...आज फिर कुछ लिखने को जी चाह रहा है.. सुबह सुबह गल्फ न्यूज़ के पन्ने खोलते ही एक प्यारी सी मुस्कान में शारजाह की एयरलाइन 'एयर अरेबिया' की एयर होस्टेस खड़ी दिखाई दी. रंजिता कोठाल जो मध्य प्रदेश के जबलपुर की ट्राइब से है उसके सपनों को पंख मिल गए....

21 साल की रंजिता एक महीने में एक लाख रुपया (Dhs 8,573) वेतन तो पाती ही है लेकिन उसके साथ साथ जो उसके व्यक्तित्त्व में निखार आया वह देखते ही बनता है. माता पिता को यकीन ही नही कि उनकी बेटी जिसने बी ए भी नहीं किया इतना पैसा कमा सकती है.

उसी तरह से दक्षिण भोपाल की 17 साल की सोनम ने अपने किसान पिता को जब एक विज्ञापन पढ़ कर सुनाया तो एक बार उन्हें भी यकीन नहीं आया कि एयर होस्टेस की ट्रेनिंग पर एक भी पैसा खर्च नहीं करना पड़ेगा. उसी पल पिता ने अपनी बेटी को ट्रेनिंग के लिए रवाना कर दिया.

राज्य सरकार द्वारा एयर होस्टेस की मुफ्त ट्रेनिंग एक सराहनीय कदम है जिससे दूर दराज की उपजातियों और दलित वर्ग की लड़कियों को दुनिया देखने का अवसर तो मिलेगा ही , घर परिवार का जीवन स्तर भी उन्नत होगा. समाज में उनकी एक नई पहचान बनेगी.

पूरी खबर पढ़ने के लिए आप भी गल्फ न्यूज़ के पन्ने पर जाइए....

शनिवार, 5 जुलाई 2008

तोड़ दो सारे बन्धन और अपने बल पर मुक्ति पाओ..!

गन्दे लोगों से छुड़वाओ... पापा मुझको तुम ले जाओ...
खत पढ़कर घर भर में छाया था मातम....

पापा की आँखों से आँसू रुकते थे....
माँ की ममता माँ को जीते जी मार रही थी ....

मैं दीदी का खत पढ़कर जड़ सी बैठी थी...
मन में धधक रही थी आग, आँखें थी जलती...
क्यों मेरी दीदी इतनी लाचार हुई...
क्यों अपने बल पर लड़ पाई...

माँ ने हम दोनों बहनों को प्यार दिया ..
पापा ने बेटा मान हमें दुलार दिया....
जूडो कराटे की क्लास में दीदी अव्वल आती...
रोती जब दीदी से हर वार में हार मैं पाती...

मेरी दीदी इतनी कमज़ोर हुई क्यों....
सोच सोच मेरी बुद्धि थक जाती...

छोटी बहन नहीं दीदी की दीदी बन बैठी...
दीदी को खत लिखने मैं बैठी..

"मेरी प्यारी दीदी.... पहले तो आँसू पोछों...
फिर छोटी की खातिर लम्बी साँस तो खीचों..
फिर सोचो...
क्या तुम मेरी दीदी हो...
जो कहती थी..
अत्याचार जो सहता , वह भी पापी कहलाता...
फिर तुम.....
अत्याचार सहोगी और मरोगी...
क्यों .... क्यों तुम कमज़ोर हुई...
क्यों... अत्याचारी को बल देती हो....
क्यों.... क्यों... क्यों...

क्यों का उत्तर नहीं तुम्हारे पास...
क्यों का उत्तर तो है मेरे पास....

तोड़ दो सारे बन्धन और अपने बल पर मुक्ति पाओ..
अपने मन की आवाज़ सुनो फिर राह चुनो नई तुम..
ऊँची शिक्षा जो पाई उसके अर्थ ढूँढ कर लाओ ..
अपने पैरों पर खड़े होकर दिखलाओ तुम ....

दीदी बनके खत लिखा है दीदी तुमको...
छोटी जानके क्षमा करो तुम मुझको....

शुक्रवार, 4 जुलाई 2008

अपने हिस्से की छोटी सी खुशी....

आज फ़िर उसकी आंखें नम थी... आँसू के दो मोती दोनों आंखों के किनारे अटके पड़े थे..गिरते तो टूट कर बिखर जाते लेकिन मैं ऐसा कभी न होने दूँगी.... . मैं चाहती तो क्लास टीचर होने के नाते उसके घर फ़ोन कर सकती थी कि स्कूल के फन फेयर में शीमा की ज़रूरत है लेकिन ऐसा करने का मतलब था शीमा को अपने घर में अजनबी बन कर रहने देना... अपने हिस्से की छोटी छोटी खुशियों को चुनने का मौका न देना.... आजकल वह अपने कमरे में ही बैठी रहती है.. दसवीं क्लास की पढ़ाई के बहाने ... न अम्मी के काम हाथ बंटाने की चाहत , ना अब्बा को सलाम का होश... छोटे भाई बहनों से खेलना तो वह कब का भूल चुकी थी... शायद इस उम्र में हर बच्चे का आक्रोश बढ़ जाता है...किशोर उम्र...पल में गुस्सा पल में हँसी... पल में सारा जहान दुश्मन सा दिखता और पल में सारी दुनिया अपनी सी लगती........ भाई अकबर शाम की मग़रिब के बाद खेलने जाता है तो देर रात तक लौटता है.... उस पर ही क्यों इतनी पाबंदी.सोच सोच कर शीमा थक जाती लेकिन उसे कोई जवाब न मिलता..... आज भी वह अम्मी अब्बू से बात करने की हिम्मत नही जुटा पायी थी ...
'मैम्म ,,, नही होता मुझसे... मैं बात नही कर पाउंगी...आप ही फोन कर दीजेये न...प्लीज़ ....' इतना कहते ही शीमा की आंखों से दोनों मोती गालों से लुढ़कते हुए कहीं गुम हो गए .... मेरा कलेजा मुंह को आ गया... अपने आप को सयंत करते हुए बोली... 'देखो शीमा ,, अपने पैरेंट्स से तुम्हें ही बात करनी होगी,,,,अगर अभी तुम अपने मन की बात न कह सकीं तो फिर कभी न कह पाओगी... अम्मी के काम में हाथ बँटाओ...सभी कामों में हाथ बँटाती हूँ, शीमा ने फौरन कहा... .. अब्बू से कभी कभी बात करो... चाहे अपनी पढ़ाई की ही....यह सुनते ही उसका चेहरा सफेद पड़ गया... अब्बू से सलाम के बाद हम सब भाई बहन अपने अपने कमरों में चले जाते हैं...यह सुनकर भी हर रोज़ क्लास में आने के बाद मुझे शीमा से बात करके उसे साहस देना होता... हर सुबह मैं सोचती कि आज शीमा दौड़ी दौड़ी आएगी और खिलखिलाते हुए कहेगी.... ''मैम्म.... अम्मी अब्बू ने फन फेयर में आने की इजाज़त दे दी.... " ऐसा करना ज़रूरी था...घर से स्कूल ..स्कूल से घर...बस यही उसकी दिनचर्या थी... कभी कभार कुछ सहेलियाँ घर आ जातीं लेकिन हर किसी में कोई न कोई खामी बता कर अगली बार से उससे मिलने की मनाही हो जाती... उसका किसी सहेली के घर जाना तो वह सपने में भी नहीं सोच सकती थी.... मैं चाहती थी कि किसी तरह से कभी कभी वह अपने मन की बात अपने माता-पिता से कर पाए... कहीं न कहीं एक उम्मीद कायम थी कि कभी कुछ पलों की आज़ादी....कभी कुछ पलों के लिए पँख फैलाने की चाहत पूरी हो सके.... मन को मज़बूत करके उसमें अपने लिए थोड़ी आज़ादी खुद हासिल करने की चाहत भरने की कोशिश मेरी थी....सोचती थी शायद एक दिन शीमा कह पाएगी कि अपने हिस्से की थोड़ी सी खुशी लेने मे वह सफल हुई......
फन फेयर का दिन भी आ गया...प्रवेश द्वार पर ड्यूटी होने पर भी मन शीमा की ओर था... आँखें उसी को खोज रही थीं... ..मेरी शिफ्ट खत्म होते ही गेम्स एरिया की ओर बढ़ते हुए क्लास की दूसरी लड़कियों से शीमा के बारे में पूछा लेकिन किसी को कुछ पता नही था....
अचानक पीछे से किसी ने आकर मुझे अपनी बाँहों में ले लिया.... मैम्ममममममम ....मैं आ गई.... अम्मी अब्बू ने आखिर भेज ही दिया..कल शाम की चाय बनाकर अम्मी को दी और उसी वक्त ही फन फेयर पर जाने की बात की... अब्बू से बात करने को कहा... पूरे हिजाब में जाने की कसम खाई.... मामू को जासूसी करने की दुहाई भी दी.... पता नहीं अम्मी को क्या हुआ कि अब्बू से हमारी वकालत कर दी..... पूरे हिजाब में आने की शर्त कबूल.... कोई फर्क नही पड़ता .... मुझे तो सब दिख रहा है न.... उसकी चहकती आवाज़ ने मुझे नई ज़िन्दगी दे दी हो जैसे .... मेरी आँखों से गिरते मोती मेरे ही गालों पर ढुलक रहे थे....ये खुशी के चमकते मोती थे...

कुछ दिल ने कहा......

कुछ भी नही.......


रविवार, 29 जून 2008

सागर में डूबता सूरज ...















सागर में डूबते सूरज को
वसुधा ने अपनी उंगली से
आकाश के माथे पर सजा दिया...
साँवला सलोना रूप और निखार दिया

यह देख
दिशाएँ मन्द मन्द मुस्काने लगीं
सागर लहरें स्तब्ध सी
नभ का रूप निहारने लगीं...
गगन के गालों पर लज्जा की लाली छाई
सागर की आँखों में जब अपने रूप की छवि पाई ....

स्नेहिल सन्ध्या दूर खड़ी सकुचाई
सूरज की बिन्दिया पाने को थी अकुलाई ...
सोचा उसने
धीरे धीरे नई नवेली निशा दुल्हन सी आएगी
अपने आँचल में चाँद सितारे भर लाएगी..
फूलों का पलना प्यार से पवन झुलाएगी
संग में बैठी वसुधा को भी महका जाएगी..

बुधवार, 25 जून 2008

हमारे नन्हे मुन्ने दोस्त......

हम यहाँ दमाम में और हमारे नन्हे मुन्ने दोस्त दुबई में.. अर्बुदा का फोन आया कि बच्चे हर रोज़ स्कूल से आते जाते हमारे दरवाज़े की ओर नज़र भर देख कर सोचते हैं कि मीनू आंटी आज भी नही आयी . अपनी मम्मी से सवाल करते हैं तो एक ही जवाब मिलता है कि जल्दी आ जायेंगी..वरुण विद्युत अपने पापा से मिलने गए हैं... पापा से ...? विजय अंकल से ...? हाँ जी ...अर्बुदा के कहने पर थोडी देर हैरान परेशान से होते है .. फ़िर अचानक याद आती है...फ़िर दुबारा एक ही सवाल पूछने लगते हैं.... मीनू आंटी कब वापिस आएगी.... जल्दी आ जायेगी....कहते हुए अर्बुदा अपने घर की ओर बढ़ जाती है तो बच्चे भी पीछे चुपचाप चल पड़ते हैं..
दिन में एक दो बार उनके साथ खेल ना लो , अर्बुदा और हमें बात करने की इजाज़त नही मिलती... बच्चों को शायद प्यार लेना आता है...दिल और दिमाग के तार जल्दी ही प्यार करने वालों से मिल जाते हैं... इला खासकर कभी हमारी गोदी में तो कभी अर्बुदा की गोद में चढ़ जाती है... उसे देखते ही ईशान भी कहाँ पीछे रहता है... बातों का पिटारा उसके पास भी बहुत बड़ा है...(ऐसे ही कहा जाता है कि औरतें ज्यादा बोलती हैं... असल में पुरूष ही ज़्यादा बोलते हैं यह तो एक सर्वे में सिद्ध हो चुका है) ... खैर हम चाय लेकर बैठते हैं, अभी गपशप की सोचते हैं कि बच्चे हमारे पास और अर्बुदा दूर से मुस्कुरा कर बस देखती रह जाती है कि कब उसकी बारी आयेगी...हम दोनों बातचीत करने की कितनी ही बार कोशिश कर लें लेकिन जीत बच्चों की होती है...
खैर हम उनकी तस्वीरों से दिल बहलाते रहे और सोचते रहे काश देशो में कोई सीमा न होती और न कोई कागजी औपचारिकता ....नन्हे मुन्ने दोस्तों को कैसे समझायें कि अब हम बड़े हो गए हैं... बड़े होकर हम सब ऐसे ही बन जाते हैं...!!!!!!!

आप मिलेंगे हमारे दोस्तों से .......!! मिलेंगे तो फ़िर से बचपन में लौटने का मन करेगा .... !!!



शनिवार, 21 जून 2008

चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जाएगा

घर की सफाई और सफर की तैयारी में लगे हैं..  
अपनी पेकिंग करते करते अज़ीज़ नाजा की एक कव्वाली सुन रहें हैं...
जो हमें बहुत अच्छी लगती है ....
दरअसल इसके बोल तो बहुत पहले ही लिख कर रखे थे...
लेकिन कभी मौका ही नही मिला कि पोस्ट बनाई जाए...
आज काम के बाद के आराम के पलों में वक्त हाथ में आया तो पोस्ट पब्लिश कर दी....
सोचा हम ही क्यों आप भी लुत्फ़ लें....





हुए नामवर बेनिशान कैसे कैसे
ज़मीन खा गई नौजवान कैसे कैसे

आज जवानी पर इतराने वाले कल पछताएगा
3
चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जाएगा  2 
ढल जाएगा, ढल जाएगा - 2 
 
तू यहाँ मुसाफ़िर है , यह सराय फानी है
चार रोज़ की मेहमाँ तेरी ज़िन्दगानी है 
जन-ज़मीन ज़र ज़ेवर कुछ ना साथ जाएगा
खाली हाथ आए है खाली हाथ जाएगा
जान कर भी अंजान बन रहा है दीवाने
अपनी उम्रेफ़ानी पर तन रहा है दीवाने
इस कदर तू खोया है इस जहाँ के मेले
तू खुदा को भूला है फँस के इस झमेले में
आज तक यह देखा है पाने वाला खोता है
ज़िन्दगी को जो समझा ज़िन्दगी पे रोता है
मिटने वाली दुनिया का एतबार करता है
क्या समझ के तू आखिर इससे प्यार करता है
अपनी अपनी फिक्रों में जो भी है वो उलझा है
जो भी है वो उलझा है
ज़िन्दगी हक़ीकत में क्या है कौन समझा है
क्या है कौन समझा है
आज समझ ले 
आज समझ ले कल यह मौका हाथ ना तेरे आएगा
ओ गफलत की नींद में सोने वाले धोखा खाएगा
चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जाएगा  2 
ढल जाएगा  2 
 
मौत ने ज़माने को यह समाँ दिखा डाला
कैसे कैसे उस ग़म को ख़ाक़ में मिला डाला 
याद रख सिकन्दर के हौसले तो आली थे
जब गया था दुनिया से दोनो हाथ खाली थे
अब ना वो हलाकू है और ना उसके साथी हैं 
जंग ओ जू वो पोरस है और ना उसके हाथी हैं 
कल जो तनके चलते थे अपनी शान ओ शौकत पर 
शमा तक नहीं जलती आज उनकी क़ुरबत पर 
अदना हो या आला हो सबको लौट जाना है 
सबको लौट जाना है  2
 
मुफलिसोंतवन्दर का कब्र ही ठिकाना है 
कब्र ही ठिकाना है  2
जैसी करनी 
जैसी करनी वैसी भरनी आज किया कल पाएगा
सिर को उठाकर चलने वाले एक दिन ठोकर खाएगा
चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जाएगा  3
ढल जाएगा, ढल जाएगा - 2 
 
मौत सबको आनी है कौन इससे छूटा है
तू फ़ना नही होगा यह ख्याल झूठा है
साँस टूटते ही सब रिश्ते टूट जाएँगे
बाप माँ बहन बीवी बच्चे छूट जाएँगे
तेरे जितने है भाई वक्त का चलन देंगे
छीन कर तेरी दौलत दो ही गज़ कफ़न देगे
जिनको अपना कहता है कब ये तेरे साथी है 
कब्र है तेरी मंज़िल और ये बाराती है
लाके कब्र में तुझको उल्टा पाके डालेंगे
अपने हाथों से तेरे मुहँ पे खाक़ डालेंगे
तेरी सारी उल्फत को खाक में मिला देगे
तेरे चाहने वाले कल तुझे भुला देंगे
इसलिए यह कहता हूँ खूब सोच ले दिल में
क्यों फँसाए बैठा है जान अपनी मुश्किल में
कर गुनाहो से तौबा आगे बस सँभल जाए
आगे बस सँभल जाए  2
दम का क्या भरोसा है जान कब निकल जाए 
जान कब निकल जाए 
मुट्ठी बाँध के आनेवाले 
मुट्ठी बाँध के आनेवाले हाथ पसारे जाएगा
धन दौलत जागीर से तूने क्या पाया क्या पाएगा
चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जाएगा  2 
ढल जाएगा, ढल जाएगा  8

मंगलवार, 17 जून 2008

बंद कमरे की एक छोटी सी खिड़की ...!

कई दिनों से दमाम में हूँ , दोनों बेटे और हम घर में रहते हैं...नया शहर होने के कारण कोई मित्र भी नही... हाँ पति के सहकर्मी बार बार कहते हैं कि अपनी पत्नी को कभी भी उनके यहाँ भेज दें… साहब फिलस्तीनी हैं और पाँच बेटियों के पिता हैं सो इशारे में ही कह देते हैं बेटे नही जा सकते. बस यही सोच कर हमारा जाना टल रहा है... अब घर में वक्त गुजारने के लिए किताबें और इंटरनेट या फ़िर अतीत की दुनिया में यादों के साथ.... कल पुरानी तस्वीरे निकाल ली और बस दिन कैसे गुज़रा पता ही नही चला....
२० साल एक ऐसे समाज में गुज़रे जिसकी मानसिकता ने नारीवाद और नारी सशक्तिकरण की सोच को बेमानी माना... यह अनुभव हुआ कल रात नारी के लिए एक पोस्ट लिखते समय ... यहाँ सिर्फ़ ५ % औरतें ही काम के लिए घर से बाहर जाती हैं लेकिन घर से बाहर निकलने के लिए कोई न कोई साथ हो , इसका ध्यान रखा जाता है... १०-१२ साल की लड़की बुरका पहनना शुरू कर देती है... लेकिन बुरका पहन कर भी कुछ जगह ऐसी हैं जहाँ औरतों का जाना मना है जैसे कि वीडियो शॉप, नाई की दुकान , इसी तरह जहाँ पुरूष अधिकतर देखें जायें वहां मतुआ पुलिस आकर देखती है... रेस्तरां में फेमिली सेक्शन बने हैं , जिनके अन्दर पति और बच्चो के साथ ही बैठ सकती हैं ...

वोट देने का अधिकार तो पुरुषो को ही नही है तो औरतों की बात ही नही है फ़िर भी उनकी उम्मीद कायम है कि राजनीति में उन्हें भी शामिल किया जाएगा. किंग फैसल ने जब लड़कियों को शिक्षा देने का ऐलान किया तो इसके खिलाफ धरना देने वालों को हटाने के लिए किंग को सेना भेजनी पडी थी... आज शिक्षा पाने का अधिकार मिलते ही साउदी औरत पुरूष से आगे निकल गयी... किसी भी देश के शिक्षा संस्थान के आंकडे देखें.. लडकियां शिक्षा के क्षेत्र में लड़कों से हमेशा आगे रही हैं .... यहाँ भी ऐसा ही है... सामाजिक जीवन में हलचल इसी कारण से शुरू हो जाती है ... पुरूष इस हार को सहन नही कर पाता, कही कमज़ोर पड़ जाता है तो कहीं तिलमिला कर ग़लत रस्ते पर भटक जाता है. आजकल साउदी में तलाक का रेट इतना बढ़ गया है कि सरकार और समाज दोनों ही चिंतित हैं...

अभिव्यक्ति की आजादी जो किसी के लिए भी सबसे अधिक महत्त्व रखती है , उसे न पाकर जो दर्द होता होगा , उसका बस अंदाजा ही लगाया जा सकता है.... लेकिन इन सब के बाद भी साउदी औरत पश्चिम की दखलंदाजी पसंद नही करती , अपने बलबूते पर ही अपना अधिकार पाना चाहती है... साउदी लेखिका जैनब हनीफी जिनती बेबाकी से लिखना पसंद करती थी उतना ही किंगडम इस बात की इजाज़त नही देता था...अपने कलम की आग से विचारों में गर्मी पैदा करने के लिए लिखना ज़रूरी समझा इसलिए ब्रिटेन जाकर रहने लगी... यूं ट्यूब पर इस इंटरव्यू को दिखने का एक मुख्य कारण है जैनब का निडर होकर बात करना... वही कह सकती हैं कि औरतों के पक्ष में कही हदीस मर्दों को सही नही लगती या उनका कोई वजूद ही नही है


शनिवार, 14 जून 2008

जैसा देश वैसा भेष

साउदी अरब में अब तक के गुज़रे सालों का हिसाब किताब करने लगूँ तो लगेगा कि खोया कम ही है...पाया ज्यादा है... बहुत कुछ सीखा है... जो शायद किसी और जगह सीखना मुमकिन होता क्योंकि प्रजातन्त्र से राजतन्त्र में आकर रहने का अलग ही अनुभव हुआ... २१वी सदी में भी साउदी अरब की संस्कृति, वहाँ का रहन सहन बदला नही है शायद बदलने में अभी और वक्त लगेगा ... . ..हाँ सुरसा की तरह मुंह खोले महंगाई बढ़ती जा रही है... फ़िर भी कुछ ज़रूरी चीजों की कीमत नही बदली जैसे कि एक रियाल की पेप्सी और एक ही रियाल का खुबुज़(रोटी) ..

१९८६ में जब साउदी अरब की राजधानी रियाद पहुँची थी तो मन में कई शंकायें थी..अनकही कहानियाँ थी जिन्हें याद करते तो सिरहन से होती लेकिन फ़िर याद आती अपने देश की... वहाँ भी हर अखबार में हर दिन चोरी, लूटमार और खून खराबे की खबरें होती.... सावधानी से चलने की बात की जाती... किसी भी लावारिस पड़ी वस्तु को हाथ लगाने से मनाही.... गहने कम से कम पहनने की ताकीद ... अजनबी आदमी से बातचीत करने की मनाही... घर के नौकरों की पुलिस में पूरी जानकारी देना आदि आदि ... इस तरह की और भी कई सावधानियाँ बरतने की बात की जाती....

बस तो यही सोच कर हमने नयी जिन्दगी शुरू कर दी... धीरे धीरे वहाँ के तौर तरीके समझने लगे... बाज़ार जाने के लिए कब निकलना है.... कब फैमिली डे है...कब सिर्फ़ औरतें जा सकती हैं..सुबह का वक़्त शोपिंग का सबसे अच्छा वक्त मन जाता... . शुक्रवार के दिन तो कोशिश करते ही निकलें.... लेबर, वर्करज से बाज़ार भरे रहते .... बुरका पहन कर ही बाहर निकलना है तो नए नए बुर्के खरीद कर अलमारी में टांग लिए गए... बस इत्मीनान.... जैसा देश वैसा भेष.... मान कर चलने में भलाई समझी...

साउदी में अधिकतर औरतें डाक्टर, टीचर, नर्स और नौकरानी का ही काम कर सकती हैं. साउदी औरत सरकारी महकमों में और बैंकों में देखी जाती हैं...अब तो अस्पताल , होटल और बैंक के काउन्टर पर भी साउदी लड़कियां देखी जाती हैं लेकिन पूरे हिजाब में...

हमने भी घर की चारदीवारी से बाहर निकलने का सबब ढूँढ ही लिया और इंडियन एम्बसी के स्कूल में हिन्दी टीचर लग गये... फ़िर बदमज़ा जिन्दगी का कुछ-कुछ मज़ा आने लगा... फ़िर भी ख्याल रखते कि कब और कहाँ कैसे जाना है... स्कूल जाने से अकेले बाहर निकलने का डर थोड़ा कम हुआ... बुरका पहन कर दोनों बच्चों को साथ लेकर एक दो दोस्तों के घर पैदल ही निकल जाते लेकिन घर में काम करने वाले एक बंगला देशी बुजुर्ग ने अकेले जाने से मना कर दिया....... घर का काम ख़त्म होने पर साथ चल कर छोड़ कर आते... अपने देश से दूर रहने पर रिश्तो की कीमत पता चलती है... अपनी जुबान बोलने वाले अपने से ही लगते हैं...चाहे पाकिस्तान के हों या बंगलादेश और श्रीलंका के हों... हिंदू मुस्लमान और ईसाई एक ही फ्लैट में , एक ही रसोई में मिलजुल कर खाते पीते अपनों से दूर रह पाते हैं...

अकेली काम करने वाली डाक्टर और नर्स अस्पताल से मिले घरों में रहती हैं और वहीं की वेंन और बसों में सफर करती हैं.... टैक्सी में भी कभी कभी आना जाना होता है .. सभी स्कूलों की बसें हैं जिसमे पर्दे लगे रहते हैं... कुछ लोग अपनी कार से छोड़ना लाना करते हैं... कभी कभी टैक्सी से भी जाना पड़े तो कोई डर नही है, हाँ अकेले होने पर हिन्दी-उर्दू बोलने वाले की ही टैक्सी रोकी जाती है.... सभी लोग अपनी जुबान जानने वाले की टैक्सी में सफर करने में आसानी महसूस करते हैं... एक बात जो सबसे महत्वपूर्ण है बाहर निकलते वक्त अपना परिचय पत्र साथ लेना...परिचय पत्र मतलब इकामा . हम विजय के इकामा की फोटोकापी रखते थे.... जब बच्चे बड़े हुए..उनकी जेब में भी एक एक फोटोकापी रखनी शुरू कर दी... . कभी अकेले किसी दोस्त या टीचर के घर गए तो ज़रूरी होता.... .इसके साथ जुड़ी एक रोचक घटना का ज़िक्र करना चाहूँगी.. मेरे एक टीचर सहेली जिसके पास अपना इकामा था , शादी के बाद भी उसी इकामे पर काम करती रही. पति के इकामे में नाम डालने की ज़रूरत नही समझी. मतलब यह कि पति और पत्नी दोनों के अलग अलग इकामे. दोनों ने सपने में भी नही सोचा था कि कभी उन्हें पकड़ लिया जाएगा... बस एक दिन दोनों कि शामत ही गयी... दोनों पुलिस द्वारा पकड़ लिए गये... शुक्र खुदा का कि दोनों को अच्छी अरबी आती थी जो एक लम्बी बातचीत और बहस करके उन्हें समझा पाए कि दोनों पति पत्नी है और जल्दी ही पति के इकामे में पत्नी का नाम दर्ज हो जाएगा.

इसी तरह से एक बार पतिदेव विजय को मना लिया गया कि मेरी सहेली को उसके घर से लेकर आना है... पहले तो ना नुकर की फ़िर मान गये.. जो डरते हैं शायद वही मुसीबत में जल्दी फंसते हैं, हुआ भी वही.... रास्ते में चैकिंग हुई... महाशय रोक लिए गये... अच्छा था कि मेरी सहेली पीछे बैठी थी.... आगे बैठी होती तो और मुसीबत खड़ी हो जाती.... दोनों की हालत ख़राब....लेकिन खुदा मेहरबान तो बाल भी बांका नही हो सकता..पूछताछ करने पर अपने को कंपनी ड्राईवर कह कर जान बचा कर भागे तो कसम खा ली कि अकेले किसी महिला को लाना है छोड़ना है....

समय बदल रहा है चाहे धीमे रफ़्तार में...लेकिन फ़िर भी बदल रहा है... साउदी औरत हो या किसी और देश की औरत हो .... कहीं सब करने की आजादी और हर काम में सहयोग देने का भाव..और कहीं... औरत को कुछ समझने का भाव भी पाया जाता है...

बीबीसी ने आठ साउदी लड़कियों का इंटरव्यू लिया जिसमे उन्होंने अपने बारे में बताया... इसके अलावा आम औरत का जीवन, जिसमे गहने कपड़े कार और बड़े विला में हर सुख सुविधा का सामान होता है.... पाकर भी शायद खुश है या नही ...कोई नही जान सकता .... कभी कभी हलकी घुटी सी अन्दर की आवाज़ सुनाई दे जाती है...पर उसे सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है बस.... कुछ करने के लिए तो उन्हें ही आगे बढ़ना है...हालांकि कुछ घटनायें ऐसी हो जाती हैं जिन्हें बाहर की दुनिया में सुना जाता है... अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसके ख़िलाफ़ आवाज़ भी उठाई जाती है...


जिन्दगी में अच्छे अनुभव भी होते हैं... जिनकी कीमत बुरे अनुभवों के बाद और बढ जाती है.... घर परिवार , काम और दोस्त ... बस यही दुनिया ...हर वीकएंड पर मिलना ... हर महीने दूर रेगिस्तान में पिकनिक पर जाना.... वीरवार की सुबह सहेलियों के साथ मार्केट जाना... पति बेबी सिटींग करके खुश.... एक बार बस कहने की देर है की जहाँ हम जाना चाहें फौरन ख़ुद आकर या ड्राईवर भेज कर पहुँचा दिया जाता... पैदल चलने का कोई रिवाज़ ही नही वहाँ पर.... ख़ास कर औरतों के लिए... लेकिन कुछ अस्पतालों के बाहर चारों ओर सैर का सुंदर फुटपाथ बना है... जिस पर कभी हम भी सैर करते थे..
अब तो बस सपनों में ही रियाद जाते हैं... दम्माम के घर की चारदीवारी में कैसे गुज़रती है अगली पोस्ट में....