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रविवार, 20 जुलाई 2008

ब्लॉग अल्मारी में पोस्ट की सजी पोशाकें .....

कल बेटे वरुण ने पूछा कि इतने दिन से आपने अपने ब्लॉग पर कुछ लिखा क्यों नहीं... ? हम बस मुस्कुरा कर रह गए...सच में हम खुद
नहीं जानते कि क्यों ऐसा हो रहा है... क्यों हम कुछ लिख कर भी पब्लिश का बटन नहीं दबा पाते... हरे रंग की डायरी के कितने ही पन्ने नीले रंग की स्याही से रंग गए लेकिन उन्हें टाइप करके कोई भी रंग नहीं दे पा रहे.....


सुबह की कॉफी पीते समय कुश की कलम से लिखी कहानी एक पतंग की पढ़ी ,,,उसमें समीर जी की उड़ती पतंग पर भी नज़र गई ... सोचा काश हम लाल रंग की पतंग हो जाएँ... सूरज के लाल अँगारे सा रंग उधार लेकर ...या फिर लाल लहू के सुर्ख रंग में डूब जाएँ .....एक ऊर्जा लिए हुए... ऐसी ऊर्जा जो अपने को ही नहीं ...अपने आस पास के वातावरण में भी असीम शक्ति भर दे.... फिर कोई पतंग काले माझे से लहू-लुहान होकर अपना वजूद न खो सके... या फिर नीले आसमान में अपने आसपास उड़ती रंग-बिरंगी पतंगों को देखकर सिर्फ सपने न देखे बल्कि उन सपनो को पा ले....

आधी अधूरी कहानियाँ ...कविताएँ और लेख...ऐसे जैसे बिना इस्तरी
किए सिलवटों वाली पोशाकें...जिन्हें अपने ब्लॉग और डायरी की अल्मारी में
ठूँस ठूँस कर भर दिया हो... उधर से आँख बन्द करके दूसरे की अल्मारी को खोल
खोल कर देखते है तो सलीके से सजी हुई अलग अलग रंग की पोशाकें देख कर मन
भरमा जाता है....बस उन्हें देखने के मोह में सब भूल जाते हैं....


बस उसी मोह जाल में जकड़े खड़े थे कि घुघुती जी की अल्मारी पर नज़र गई.... मृतकों के लिए.... यहाँ तो पंचभूत के एक तत्व मिट्टी की नश्वर पोशाक दिखी... जो कभी हमें भी त्यागनी पड़ेगी... मिट्टी की पोशाक में सिलवटें आते ही उसे त्यागना पड़ेगा.... मन ही मन हम मुस्कुरा रहे थे कि हम ऐसे ही अपने आधे अधूरे लेखन की सलवटो पर शरमा रहे थे... हम खुद भी तो ऐसी ही पोशाक हैं.... आत्मा तो निकल जाएगी किसी नई पोशाक की खोज में.....

हम भी निकले एक नई अल्मारी की खोज में...नई पोशाकों को देखने की लालसा में....
कुछ अल्मारियों की पोशाकें इतनी आकर्षक हैं कि उन्हें देखे बिना
नहीं रहा जाता.... बनावट ...रंगों का चयन... नए ज़माने के नए डिज़ाइन....
मानसिक हलचल होने लगती है कि काश हम भी ऐसा ज्ञान पा सकते.
लेकिन होता कुछ और है..जिस विषय पर हम चिंतन करते रह जाते हैं...उस पर कोई और कारीगर अपना हुनर दिखा जाता है...

मम्मी का पर्स , उनकी अल्मारी, उनके दहेज का पुराना लोहे का ट्रंक... आज भी उन्हें बार बार खोल कर देखने का जी चाहता है...ठीक वैसे ही ब्लॉग जगत की ऐसी अल्मारियाँ हैं जो हम बार बार खोलने से बाज़ नहीं आते... किसी पोशाक को झाड़ते ही धूल के कण धूप में चमकने लगते हैं तो किसी पोशाक में वही कण जुगनू से जगमग करने लगते हैं....


एक अल्मारी ऐसी है जिसे खोलते ही लगता है कि उसकी एक एक पोशाक सिर्फ मेरे लिए है... जिसमें प्रेम के सुन्दर भाव से बनी हर पोशाक की अपनी ही खूबसूरती दिखाई देती है....

कुछ अल्मारियों को खोलते ही....लहराती पोशाकों के पीछे से संगीत के लहराते स्वर सुनाई देने लगे .... दिल और दिमाग को सुकून देने वाला मधुर संगीत स्वर..... और कहीं आत्मा को बेचैन कर देने वाली स्वर लहरी सुनाई देने लगी.....

जाने से पहले ओशो का चिंतन में आज की पोस्ट 'सहनशीलता' पढ़ कर बच्चो को सुना रहे हैं ....

और भी कई ब्लॉग्ज़ हैं जो परिवार में पढ़े जाते हैं और उन पर चर्चा भी होती है... उन पर फिर कभी बात करेंगे....


मन ही मन बेटे वरुण को शुक्रिया अदा कर रहे हैं कि उसके एक सवाल ने ब्लॉग जगत में नई पोस्ट को जन्म दिया...




13 टिप्‍पणियां:

सचिन मिश्रा ने कहा…

bahut accha likha hai

अजित वडनेरकर ने कहा…

वाह !! वरुण को हमारा भी शुक्रिया कहिये कि उसने आपसे लिखवा लिया :)
अच्छी पोस्ट ...

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

आप ने सही पकड़ा मीनाक्षी जी, इन ब्लॉगों में बहुत शेड्स हैं, बहुत विविधता है। और इन सब को पढ़ना बहुत भाता है - आपका लिखा भी।
सिर्फ यह है कि नये नये लोग जितना अच्छा लिख रहे हैं - वह सब पढ़ा/स्कैन किया जाना नहीं हो पाता। इसमें फीड एग्रीगेटर की बजाय फीड सेग्रीगेटर की जरूरत ज्यादा महसूस होने लगी है।

रंजू भाटिया ने कहा…

वरुण को धन्यवाद जिसने इस अलमारी को यूँ पढ़वा दिया ..प्रेम की पोशाक तो सबके दिल की बात कह जाती है ..:) बहुत ही अच्छा लगा इस पोस्ट को पढ़ना जिस तरह आपके लफ्जों में यह पोशाके निखर कर आई है वह ..और भी प्रिय लग रही हैं :)

कुश ने कहा…

सबसे पहले तो वरुण का शुक्रिया जिसकी बात मानकर आपने आज पोस्ट लिखी..

इन शब्दो में आपने तो कमाल कर दिया है बस
"आधी अधूरी कहानियाँ ...कविताएँ और लेख...ऐसे जैसे बिना इस्तरी
किए सिलवटों वाली पोशाकें"

vipinkizindagi ने कहा…

बहुत अच्छी लगी आपकी पोस्ट

पारुल "पुखराज" ने कहा…

aapke shabdon me to itni saamarthya hai ki nit nayi poshaaq ban jaaye..banayegi naa?

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

वाह लिबास कई,
रँग भी कई सारे ..
आपका लिखा भी
बहोत खूब !! :-)
स्नेह,
-लावण्या

राज भाटिय़ा ने कहा…

वरुण को हमारा भी धन्यवाद दे, जिस ने मां को उस की जिम्मेदारी याद दिला दी, ओर हमे एक सुन्दर लेख पढने को मिल गया,आप का भी धन्यवाद

ghughutibasuti ने कहा…

आपने अपने लेखों की वस्त्रों से जो तुलना की है वह अतुलनीय है। मैं भी आपको ढूँढ रही थी। वरुण को धन्यवाद जो उसने आपको हमारे पास वापिस भेजा।
घुघूती बासूती

Udan Tashtari ने कहा…

ये तो वरुण खूब रहे, कम से कम आपको वापस लेते आये वरना तो मन घबराया हुआ था. :)

अब नियमित जारी रहें और तरह तरह के रंग उठाकर रंग बिखरते चलें.

अनेकों शुभकामनाऐं और १५० वीं पोस्ट की बहुत बधाई.

डा. अमर कुमार ने कहा…

इस पोस्ट के ज़रिये एक विचारोत्तेजक दर्शन मिला,
मन में उथल पुथल मचा रहा है, आपका पोशाक फ़लसफ़ा ।

निःसंदेह प्रसंशनीय आलेख !

डॉ .अनुराग ने कहा…

shukriya varun ka.......apne kahi to najar dali.....