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बुधवार, 5 दिसंबर 2007

अमृत की ऐसी रसधार बहे !

तपती धरती , जलता अम्बर
शीतलता का टूटा सम्बल
आकुल है वसुधा का चन्दन
रोती अवनि अन्दर अन्दर !

धरती प्यासी , अम्बर है प्यासा
कण-कण है अमृत का प्यासा !!

ओस के कण हैं बने अश्रु-कण
सूख रहे हैं वे क्षण-क्षण
पिघल रहे हिमखण्ड प्रतिक्षण
फिर भी तृष्णा बढ़ती प्रतिकण !

धरती प्यासी , अम्बर है प्यासा
कण-कण है अमृत का प्यासा !!

तपती धरती का ताप हरे
जलते अम्बर में शीत भरे
मानवता की फिर प्यास बुझे
अमृत की ऐसी रसधार बहे !

धरती प्यासी , अम्बर है प्यासा
कण-कण है अमृत का प्यासा !!

10 टिप्‍पणियां:

अजित वडनेरकर ने कहा…

पर्यावरण चेतना से परिपूर्ण कविता...

पर्यानाद ने कहा…

अजित भाई के कथन से मैं भी पूरी तरह सहमत हूं. पर्यावरण के प्रति चेतना इसी प्रकार बढ़ेगी जब हम उसका अपने अपने स्‍तर पर प्रसार करें. काव्‍य के माध्‍यम ये यह अनोखा प्रयास है जिसके लिए आपको साधुवाद्.
मीनाक्षी जी मैं आपकी औपचारिक अनुमति से पूर्व ही इस कविता का लिंक पर्यानाद् पर दे रहा हूं. आशा है कि इस धृष्‍टता को क्षमा करेंगीं.

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

धरती प्यासी , अम्बर है प्यासा
कण-कण है अमृत का प्यासा !!
*****************************
शायद यह अजीब लगे - पर यह प्यास महत्वपूर्ण है; उसका बुझना उतना महत्वपूर्ण नहीं।

बेनामी ने कहा…

अमृत की प्यास और आस कण-कण में है। भाव किस और ले जाते है एवम् शब्दार्थ कैसे ग्रहण किये जाते है एक व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है। सुन्दर रचना है।

Sanjeet Tripathi ने कहा…

सुंदर रचना!!

प्यास चाहे किसी अर्थ में हो, यह प्यास ही हमें मजबूर करती है कि हम इसे बुझाने के लिए कुछ करें!
इस प्यास का होना और इसे बुझाने की कोशिश के लिए कुछ करना ही तो हमें हमारे जागृत होने का एहसास दिलाता है!!

आभा ने कहा…

मन को तोष देने वाली ......अच्छी कविता.......बधाई......

मीनाक्षी ने कहा…

पर्यानाद जी , अजित जी , अच्छा लगा कि मैं या मेरी रचना पर्यावरण के प्रति चेतना जगा सकती है..
ज्ञान जी, आपकी बात से मैं पूरी तरह से सहमत हूँ और शायद अस्तित्व भी यही कहना चाहते हैं कि व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि भाव कैसे ग्रहण किए जाते हैं.
संजीत जी बहुत सही कि प्यास बुझाने के लिए हम हरकत में आ जाते हैं..
आभा जी , शायद गहरी प्यास भी किसी के तोष का साधन बन जाती है...

Asha Joglekar ने कहा…

बहुत सुंदर कविता । अमृत की रसधार बहे इसी प्रतीक्षा में जीवन बीत जाता है, प्रयत्न मे बीते।

नीरज गोस्वामी ने कहा…

पिघल रहे हिमखण्ड प्रतिक्षण
फिर भी तृष्णा बढ़ती प्रतिकण !
अद्भुत शब्द और भाव. बधाई इस शानदार रचना के लिए
नीरज

36solutions ने कहा…

सुन्‍दर कविता, छंदों में बंधी कविताओं की पंक्तियां हृदय तक पहुंचती हैं, यही विशेषता है आधुनिक छंदमुक्‍त कविता और पारंपरिक कविता में । आप स्‍वयं इस विषय में मुझसे ज्‍यादा जानती हैं ।

आरंभ
जूनियर कांउसिल