तपती धरती , जलता अम्बर
शीतलता का टूटा सम्बल
आकुल है वसुधा का चन्दन
रोती अवनि अन्दर अन्दर !
धरती प्यासी , अम्बर है प्यासा
कण-कण है अमृत का प्यासा !!
ओस के कण हैं बने अश्रु-कण
सूख रहे हैं वे क्षण-क्षण
पिघल रहे हिमखण्ड प्रतिक्षण
फिर भी तृष्णा बढ़ती प्रतिकण !
धरती प्यासी , अम्बर है प्यासा
कण-कण है अमृत का प्यासा !!
तपती धरती का ताप हरे
जलते अम्बर में शीत भरे
मानवता की फिर प्यास बुझे
अमृत की ऐसी रसधार बहे !
धरती प्यासी , अम्बर है प्यासा
कण-कण है अमृत का प्यासा !!