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बुधवार, 5 दिसंबर 2007

अमृत की ऐसी रसधार बहे !

तपती धरती , जलता अम्बर
शीतलता का टूटा सम्बल
आकुल है वसुधा का चन्दन
रोती अवनि अन्दर अन्दर !

धरती प्यासी , अम्बर है प्यासा
कण-कण है अमृत का प्यासा !!

ओस के कण हैं बने अश्रु-कण
सूख रहे हैं वे क्षण-क्षण
पिघल रहे हिमखण्ड प्रतिक्षण
फिर भी तृष्णा बढ़ती प्रतिकण !

धरती प्यासी , अम्बर है प्यासा
कण-कण है अमृत का प्यासा !!

तपती धरती का ताप हरे
जलते अम्बर में शीत भरे
मानवता की फिर प्यास बुझे
अमृत की ऐसी रसधार बहे !

धरती प्यासी , अम्बर है प्यासा
कण-कण है अमृत का प्यासा !!