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गुरुवार, 18 अक्तूबर 2007

आत्मबल


बैसाखियों के सहारे चलता सुन्दर युवक दिखा
अनोखी आभा से उसका मुख था खिला-खिला.


अंग उसके पीड़ा मे थे, तन का था बल छिना
आँखों के जुगनू रौशन थे, शक्ति से भरी हर शिरा.


उसे कुदरत से था नहीं कोई भी शिकवा न गिला
मस्तक चमकता था सदा किसी भी शिकन बिना.


पैरों में शक्ति नहीं पर पथ से अपने कभी न डिगा
कठिन राह पर आत्म-बल उसका कभी न गिरा.


स्वीकार किया, जिससे जो भी तिरस्कार मिला.
उसने सोचा नहीं था कि मिलेगा कभी यह सिला.


सोचता था अमूल्य है, एक ही मानव-जीवन मिला
कर्म में लगा वह, जीवन जी रहा था चिंता बिना.

6 टिप्‍पणियां:

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

यह विचित्र है पर बहुधा देखने में आता है कि विकट शारीरिक अक्षमता वाले इतने प्रसन्न रहते हैं कि हमें अपने नजरिये पर संकुचन होने लगता है।
असल में प्रसन्नता आपके पास क्या है पर नहीं वरन क्या है और क्या चाहते हैं के गैप पर निर्भर करती है।

मीनाक्षी ने कहा…

ज्ञान जी , सही कहा आपने. खुशी तो अपने अन्दर ही कहीं छुपी बैठी है दुबक कर. बस अगर हम इस लुका छिपी के खेल मे उसे ढूँढ लें तो क्या कहना.

Sanjeet Tripathi ने कहा…

बहुत सही!! सुंदर!!

वाकई यह देखने मे आता है कि जिन्हे हम विकलांग कहते-देखते हैं वे अक्सर सामान्य लोगों से ज्यादा खुशमिज़ाज़ होते हैं!!

कहां कहां दौड़ती है आपकी नज़र, कल मेड के बहाने कुछ और आप यह!!
जारी रखें, शुभकामनाएं

पारुल "पुखराज" ने कहा…

हमेशा कुछ नया सीखने और पढ़ने को मिलता है आपसे ,दी……सुंदर चित्रण……आभार

रवीन्द्र प्रभात ने कहा…

''पैरों में शक्ति नहीं पर पथ से अपने कभी न डिगा
कठिन राह पर आत्म-बल उसका कभी न गिरा!''

वाकई बहुत सुंदर चित्रण,शुभकामनाएं...!

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत ही जीवंत चित्रण. ज्ञान जी से पूर्णतः सहमत हूँ. अच्छा लिख रही हैं आप, बधाई.