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बुधवार, 3 अक्तूबर 2007

वजूद

समझा, जाना और पहचाना मेरे वजूद को 
फिर भी बेदर्दी से नकारा मेरे वजूद को. 
निराहा, सराहा, प्यार किया तेरे वजूद को 
मन-प्राण से स्वीकारा तेरे वजूद को. 
धूल जान ठोकर से उड़ाया मेरे वजूद को
सस्ता जानकर धिक्कारा मेरे वजूद को.
क्या पाया तुमने धिक्कार कर मेरे वजूद को
क्योँ अपने काबिल न समझा मेरे वजूद को! 
तुमने न जाना, न समझा मेरी चाहत को 
अनसुना किया दिल टूटने की आहट को. 
बढ़ावा दिया प्यार मेँ भी बनावट को 
महसूस किया न प्यार की गरमाहट को.
सोचा है कि पाना है मुझे तेरे वजूद को 
और पाना है मुझे अपनी ही पहचान को. 
अपने वजूद मेँ मिलाना है तेरे वजूद को 
ज़ारी रखना है मुझे इस तलाश को !!

1 टिप्पणी:

पारुल "पुखराज" ने कहा…

वाह दी ,वैसे तो पूरे भाव ही बहुत सुंदर लगे आपके मगर ये पंक्तियां बहुत बहुत भा गयीं मन को………अपने वजूद मेँ मिलाना है तेरे वजूद को
ज़ारी रखना है मुझे इस तलाश को !!