लहरों से दूर तक खेलना चाहा
पर किनारे से लौट आई।
वारिधि की गहराइयों में उतरना चाहा
भँवरों में उसकी डूबना चाहा
पर किनारे से लौट आई।
रत्नाकर की गर्जना को सुनना चाहा
सिन्धु तल की थाह को पाना चाहा
पर किनारे से लौट आई।
सागर में रवि को उतरते देखना चाहा
चन्द्र-किरणों औ' लहरों से मिल खेलना चाहा
पर किनारे से लौट आई।
उसके प्यार की गंभीरता को परखना चाहा
अपने आसितत्त्व को उस पर मिटाना चाहा
पर किनारे से लौट आई।
6 टिप्पणियां:
प्यार एक अनुभूति ही तो है इसका परख, पैमाने का मोहताज नहीं होता जब जब ऐसा प्रयास होगा आपको किनारे पर लौट ही आना होगा ।
सुन्दर कविता, बधाई ।
संजीव
'आरंभ' छत्तीसगढ का स्पंदन
बहुत सुंदर भाव, दी…
उसके प्यार की गंभीरता को परखना चाहा
अपने आसितत्त्व को उस पर मिटाना चाहा
पर किनारे से लौट आई।
दी ,वो गज़ल याद आ गयी ………"परखना मत परखने से कोई अपना नही रहता"
बहुत ही नाजुक कविता लगी..अभिव्यक्तियां दिल को छू गयीं.
सुंदर भाव लिये आपकी कविता अच्छी लगी...बधाई
सुंदर!!
दर-असल ज़िंदगी मे यही चाहने की भावना ही तो सारे खेल करवाती है हमसे, फ़िर यह लौट आना तो और भी!!
कदम उठाते भी हैं और लौटना भी चाहते हैं।
किनारे से लौटना ही हमारी नियती बन जाती है जब डूब कर जाने का हौसला नही होता ।
एक शेर याद आ गया
यह इश्क नही आसाँ इतना ही समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।
सुंदर अभिव्यक्ती
एक टिप्पणी भेजें