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रविवार, 29 मई 2022

गीत संगीत की दुनिया




गीत संगीत की दुनिया में ख़्य्याम याद आते हैं साँझ की ख़ामोशी में...उनकी धुनें मन को नाज़ुक सा सुकून देती हैं... शहर के शोर से दूर किसी दूसरी दुनिया में ही ले जाता है उनका संगीत .... कैफ़ी आज़मी के बोल जिन्हें आवाज़ दी हो मो. रफ़ी ने तो फिर बार-बार सुनने का दिल क्यों न चाहेगा...
सन 1817 में ‘लल्हा रोख़’ पर कवि थॉमस मूर लिख चुके थे फिल्म बनी 1958 में .. यह औरंगज़ेब की बेटी लल्हा रोख़ की प्रेम कहानी है जिसमे वह कवि फ़रमोर्ज़ से प्यार करती है अंत में वही राजकुमार होता है जिससे लल्हा रोख़ की सगाई हुई होती है..श्यामा और तलद महमूद थे इस फिल्म में.......
अरब देशों में प्रचलित नृत्य का प्राचीन रूप ‘रक़्स शरक़ी’ कहलाता है जो पश्चिमी देशों में भी किया जाता है ... ‘रक़्स बलदी’  लोक नृत्य की तरह घर घर में शादी ब्याह और खुशी के अनेक अवसरों पर सभी में प्रसिद्ध है.. बचपन से ही बच्चे आसानी से इस नृत्य को करना सीख जाते है.....मिस्त्र, लेबनान, तुर्की आदि में भाव-भंगिमाओं के साथ साथ उनकी वेशभूषा में भी कुछ कुछ अंतर है. यू ट्यूब पर एक प्रशंसक ने अरब देशों के प्रचलित बैली डांस के साथ रफ़ीजी के गीत को सजा दिया.....


“ है कली कली के लब पर , तेरे हुस्न का फ़साना
मेरे गुलिस्तान का सब कुछ तेरा सिर्फ मुस्कुराना ---- कली-कली के लब पर....  

ये खुले खुले से गेसु , उठे जैसे बदलियाँ सी
ये झुकी झुकी निगाहें गिरे जैसे बिजलियाँ सी
तेरे नाचते कदम में है बहार का ख़ज़ाना --- है कली-कली के लब पर....

तेरा झूमना मचलना, ये नज़र बदल बदल कर
मेरा दिल धड़क रहा है तू लचक सँभल सँभल के
कहीं रुक ना जाए ज़ालिम इसी मोड़ पर ज़माना -- कली-कली के लब पर....




सोमवार, 18 मई 2020

ताउम्र भटकना



आज भी माँ कहती है-
“बेटी, कल्पनालोक में विचरण करना छोड़ दे, 
क्रियाशील हो जा, ज़िन्दगी और भी खूबसूरत दिखेगी” 
और मैं हमेशा की तरह सच्चे मन से माँ से ही नहीं 
अपने आप से भी वादा करती हूँ
कि धरातल पर उतर कर 
ज़िन्दगी के नए मायने तलाश करूँगीं  
लेकिन ये तलाश कहाँ पूरी होती है. 
ताउम्र चलती है और हम भटकते हैं 
हर पल इक नई राह पर चल कर 
जाने क्या पाने को....  

शुक्रवार, 15 मई 2020

मस्त रहो 


महामारी के इस आलम में 
मन पंछी सोचे अकुला के 
छूटे रिश्तों  की याद सजा के
ख़ुद ही झुलूँ ज़ोर लगा के  
 आए अकेले , कोई ना अपना  
 साथ निभाते भरम पाल के ! 
 ख़ुद से रूठो ख़ुद को मना के  
 स्नेह का धागा ख़ुद को बाँध के  
 यादों का झोंका आकर कहता   
 मस्त रहो ख़ुद से बतिया के !! 
 मीनाक्षी धनवंतरि 

बुधवार, 13 मई 2020

पुस्तक से ब्लॉग तक - अनमोल वचन


एक पुस्तक प्रेमी पाठक का कहना था - दूरदर्शन तो आँख को टिकने नहीं देता, किताब की पंक्ति पर तो आँखें रुक सकती हैं , पीछे पलट कर देख सकती हैं , पढ़ते पढ़ते आँखें नम हो जाए तो किताब तो प्रतीक्षा कर सकती है,  दूरदर्शन यंत्र कहाँ करेगा...

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साहित्य देश को गति देता है, उसे जीवन्त बनाने की कोशिश करता है. लेकिन आज के पाठयक्रम में साहित्य
का स्थान नगण्य है, है भी तो कोई पढ़ने वाला नहीं, पढ़े पढाए क्यों..... साहित्य से तो जीवन चलता नहीं, साहित्य तो अब मनोरंजन भी नहीं है.
साहित्य का मनोरंजन योग्य पदार्थ श्रव्य - दृश्य संचार साधनों ने गहरी हंडिया में पका कर भपके से खींच लिया है. मेरा विचार है साहित्य के प्रति चाव अभी भी है, विरल हो ...यह अलग बात है.
किताब की दुकान पर जब लोगो को नई किताब खोजते हुए देखो तो लगता है कि साहित्य के प्रति चाव संस्कार अभी बना हुआ है...

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पुरुस्कार की कामना

जो कुछ तुम करो, उसके लिए किसी प्रकार की प्रशंसा अथवा पुरुस्कार की आशा मत रखो. ज्यों ही हम कोई
सत कार्य करते हैं, त्यों ही हम उसके लिए प्रशंसा की आशा करने लगते हैं . ज्यों ही हम किसी सत कार्य में
चन्दा देते हैं त्यों ही हम चाहने लगते हैं कि हमारा नाम अखबारों मे खूब चमक उठे... ऐसी कामनाओं का फल दुख के अतिरिक्त और क्या होगा.

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इसमें सन्देह नहीं कि 'करने' की अपेक्षा 'कहना' अत्यंत सरल होता है परंतु जो 'कहना' छोड़ कर 'करने' में जुट
जाते हैं ऐसे व्यक्ति इतिहास के उज्ज्वल हस्ताक्षर बन जाते हैं.
इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए संत कबीर ने कहा है ----

" कथनी मीठी खाँड सम , करनी विष की लोय
कथनी छड़ करनी करे, विष से अमृत होए !! "

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