गीत संगीत की दुनिया में ख़्य्याम याद आते हैं साँझ की ख़ामोशी में...उनकी धुनें मन को नाज़ुक सा सुकून देती हैं... शहर के शोर से दूर किसी दूसरी दुनिया में ही ले जाता है उनका संगीत .... कैफ़ी आज़मी के बोल जिन्हें आवाज़ दी हो मो. रफ़ी ने तो फिर बार-बार सुनने का दिल क्यों न चाहेगा...
सन 1817 में ‘लल्हा रोख़’ पर कवि थॉमस मूर लिख चुके थे फिल्म बनी 1958 में .. यह औरंगज़ेब की बेटी लल्हा रोख़ की प्रेम कहानी है जिसमे वह कवि फ़रमोर्ज़ से प्यार करती है अंत में वही राजकुमार होता है जिससे लल्हा रोख़ की सगाई हुई होती है..श्यामा और तलद महमूद थे इस फिल्म में.......
अरब देशों में प्रचलित नृत्य का प्राचीन रूप ‘रक़्स शरक़ी’ कहलाता है जो पश्चिमी देशों में भी किया जाता है ... ‘रक़्स बलदी’ लोक नृत्य की तरह घर घर में शादी ब्याह और खुशी के अनेक अवसरों पर सभी में प्रसिद्ध है.. बचपन से ही बच्चे आसानी से इस नृत्य को करना सीख जाते है.....मिस्त्र, लेबनान, तुर्की आदि में भाव-भंगिमाओं के साथ साथ उनकी वेशभूषा में भी कुछ कुछ अंतर है. यू ट्यूब पर एक प्रशंसक ने अरब देशों के प्रचलित बैली डांस के साथ रफ़ीजी के गीत को सजा दिया.....
“ है कली कली के लब पर , तेरे हुस्न का फ़साना
मेरे गुलिस्तान का सब कुछ तेरा सिर्फ मुस्कुराना ---- कली-कली के लब पर....
ये खुले खुले से गेसु , उठे जैसे बदलियाँ सी
ये खुले खुले से गेसु , उठे जैसे बदलियाँ सी
ये झुकी झुकी निगाहें गिरे जैसे बिजलियाँ सी
तेरे नाचते कदम में है बहार का ख़ज़ाना --- है कली-कली के लब पर....
तेरा झूमना मचलना, ये नज़र बदल बदल कर
तेरा झूमना मचलना, ये नज़र बदल बदल कर
मेरा दिल धड़क रहा है तू लचक सँभल सँभल के
कहीं रुक ना जाए ज़ालिम इसी मोड़ पर ज़माना -- कली-कली के लब पर....
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